प्रचार क्या है ? सामाजिक नियन्त्रण अथवा प्रजातन्त्र में प्रचार की भूमिका की विवेचना..........
प्रचार का अर्थ किसी भी विचारधारा, सिद्धान्त, संस्था, नेता, सरकार, सामाजिक प्रथाओं, परम्पराओं आदि के पक्ष तथा विपक्ष में पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन आदि के द्वारा जो विचार व्यक्त किये जाते हैं, उनको प्रचार कहा जाता है। प्रचार समाज तथा राष्ट्र हित में भी हो। संकता है और कुछ अलगाववादी शष्ट्र के विरोध में भी प्रचार कर सकते हैं।
प्रचार की सामाजिक नियन्त्रण अथवा प्रजातन्त्र में भूमिका(Role of Propaganda in Social Control)
आज प्रचार अति महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली सामाजिक नियन्त्रण के रूप में माना जाता है। प्रचार व्यक्तियों तथा समूहों के व्यवहारों एवं कार्यों के नियन्त्रण के साधन के रूप में कार्य कर रहा है। समाचार पत्र-पत्रिकायें, रेडियो-दूरदर्शन तथा सिनेमा, मंच, नेता, शिक्षण संस्थाएँ, सांस्कृतिक समुदाय, विधायिकाएँ तथा राजनीतिक दल प्रचार के महत्वपूर्ण साधन हैं। इनका विवरण निम्न प्रकार है-
1. पत्र-पत्रिकाएँ-
आजकल सभी देशों में पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार है। मुद्रण की कला में जो उन्नति हुई है उससे पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन अत्यन्त सुगम हो गया है। आज शायद ही कोई देश हो जहाँ कोई अखबार और पत्रिका न चलती हो। अखबारों में राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय जीवन से सम्बन्धित सभी समस्याओं और पहलुओं के विषय में समाचार, लेख आदि छपते हैं। पाठकों को विभिन्न विषयों पर तथ्य, आँकड़े और अनेक प्रकार के मत तथा दृष्टिकोण पढ़ने को मिलते हैं। इससे उन्हें विचार करने तथा अपना मत निर्धारित करने में बड़ी सरलता होती है। विभिन्न दलों की नीति तथा कार्यक्रम और सरकार की नीति तथा कामों के सम्बन्ध में कोई नागरिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर अपनी राय कायम कर सकता है। पत्र-पत्रिकाएँ जन्ता को सोचने के लिए सामग्री प्रदान करती है तथा सोचने का तरीका भी सिखाती है। अतः पत्र-पत्रिकाएँ सामाजिक नियन्त्रण का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रचार के कारण जनता के विचारों पर भी नियन्त्रण लगता है।
2. शिक्षा-संस्थाएँ-
वर्तमान युग में शिक्षा संस्थाओं की संख्या तथा महत्व दिन-पर-दिन बढ़ता जाता है। स्कूलों और कॉलेजों में विभिन्न विषय समालोचनात्मक दृष्टि से पढ़ाये जाते हैं जिससे विद्यार्थियों की जानकारी ही नहीं बढ़ती, उनकी चिन्तन-शक्ति का भी विकास होता है। यद्यपि पुस्तकों और अध्यापकों का दृष्टिकोण सर्वथा निष्पक्ष और निष्काम नहीं होता और न हो ही सकता है फिर भी शिक्षालयों का वातावरण अपेक्षाकृत निष्पक्ष और दलगत पूर्वाग्रहों और दुर्भावनाओं से मुक्त होता है। इसलिए विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों पर अपेक्षाकृत अधिक सन्तुलित विचार और मत सुनने और पढ़ने को मिल जाते हैं। इस प्रकार शिक्षण संस्थाएँ शिक्षकों तथा छात्रों के विचारों का निर्माण तथा नियन्त्रण करती हैं।
3. सांस्कृतिक समुदाय-
हर सभ्य देश में सांस्कृतिक समुदाय होते हैं। ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विशेष दिलचस्पी और जानकारी रखने वाले व्यक्ति अपने विषयों के अध्ययन और अनुशीलन के लिए संस्थाएँ बना लेते हैं जिनके द्वारा वे विचार-विनिमय, अनुसन्धान और प्रचार करते हैं। उदाहरण के लिए, इतिहास, राजनीतिक-विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि विषयों से सम्बन्धित संस्थाएँ। इसी प्रकार धर्म, दर्शन आदि के अध्ययन, अध्यापन और उनके साहित्य के प्रकाश के लिए अनेक सस्थाएँ हर देश में होती हैं और इनसे सामाजिक नियन्त्रण में सहायता मिलती है।
4. रेडियो, दूरदर्शन और सिनेमा-
ये चीजें केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। रेडियो तथा दूरदर्शन से समाचार, समाचारों पर टीका-टिप्पणियाँ, विभिन्न विषयों पर वार्ताएँ तथा विवादों को प्रसारित किया जाता है। इससे लोगों को महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती और उनका दृष्टिकोण तथा चिन्तन की पद्धति निश्चित होती है। इसी प्रकार सिनेमा प्रायः कोरे मनोरंजन का साधन माना जाता है, किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। हर फिल्म की कहानी के पीछे जीवन की किसी न किसी समस्या के सम्बन्ध में कुछ धारणाएँ और आदर्श अथवा प्रचलित धारणाओं और आदर्शों की आलोचना निहित रहती है। किन्तु उन सबको कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इससे दर्शकों के मन पर अचेतन ढंग से प्रभाव पड़ता है। वास्तव में प्रचार की दृष्टि से सिनेमा अन्य साधनों से अधिक प्रभावशाली होता है। दर्शक समझता है कि मेरा मनोरंजन हो रहा है; उसे ऐसा नहीं लगता कि वह किसी प्रचार का शिकार बनाया जा रहा है, फिर भी सूक्ष्म रूप से उसका मन प्रभावित होता रहता है। अब यही काम दूरदर्शन और भी अधिक प्रभावकारी ढंग से कर रहा है।
5. मंच-
मंच के द्वारा भी सामाजिक नियन्त्रण होता है। जब पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, सिनेमा, दूरदर्शन आदि नहीं थे तब लोग इस साधन का प्रयोग करते थे। इससे एक लाभ यह होता है कि भाषण देने वाला जनता के सीधे सम्पर्क में आता है; सुनने वालों पर उसके विचारों का ही नहीं बल्कि व्यक्तित्व का भी प्रभाव पड़ता है। अच्छे वक्ता मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं और अनेक प्रकार की युक्तियाँ, हाव-भाव, विनोदपूर्ण आक्षेपों के द्वारा श्रोताओं को प्रभावित करते हैं। वर्तमान युग में अन्य साधनों के विकसित होने पर भी इस साधन का महत्व कम नहीं हुआ है। चुनाव के दौरान तो हर देश में भाषणों की बाढ़ आ जाती है।
वर्तमान युग में मंच का एक अन्य तरीके से भी प्रचार करने लिए प्रयोग किया जाता है। विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में लोग नाटकों के द्वारा कलात्मक ढंग से अपने विचारों और आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जापानियों तथा चांगकाई शेक के विरुद्ध प्रचार करने में इस ढंग के मंच का प्रयोग बड़ी ही सफलता के साथ किया था।
6. विधायिका-
वैसे तो विधायिकाओं का काम विचार-विनिमय करके कानूनों का निर्माण करना होता है। किन्तु इस युग में उनको प्रचार का साधन भी बना लिया गया है। प्रायः सभी देशों में विधायिका के भीतर अपने विचारों को व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है और वहाँ उसके सदस्य जो कुछ कहते हैं उसके लिए उन पर सरकार की ओर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। अतः वे इस स्वतन्त्रता का डटकर प्रयोग करते हैं और सरकार की नीति तथा कामों की तीव्र आलोचना करते हैं। वे जो विचार विधायिका के बाहर व्यक्त नहीं कर सकते उन्हें भी वहाँ निर्भीक होकर प्रस्तुत करते हैं। इस युग में कुछ ऐसी प्रवृत्ति बन गयी है कि विधायिका का सदस्य वहाँ बैठे हुए अपने साथियों को ही अपनी बात नहीं सुनाना चाहता बल्कि उसके बहाने अपने विचारों को देश तथा देशान्तरों की जनता तक पहुँचाना चाहता है। जो कुछ विधायिकाओं में कहा जाता है वह शीघ्र ही समाचार पत्रों और रेडियो के द्वारा सारे संसार में फैल जाता है और चूँकि विधायिका के सदस्य जनता के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होने के नाते अधिक जिम्मेदार व्यक्ति माने जाते हैं, इसलिए उनकी बात का सामान्यतया जनता पर प्रभाव भी अधिक पड़ता है।
7. राजनीतिक दल-
वर्तमान युग में सामाजिक निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण स्थान राजनीतिक दलों का है। वास्तव में ऊपर प्रचार के जिन साधनों का उल्लेख किया गया है उनका प्रयोग तो राजनीतिक दल ही करते हैं और सफलतापूर्वक कर सकते हैं। उनके पास धन तथा संगठन शक्ति होती है। वे रेडियो, सिनेमा, पत्र-पत्रिकाओं, भाषणों आदि के द्वारा जनता अपनी बात पहुँचाते हैं, वे किराये के प्रचारक और लेखक करते हैं। आजकल प्रायः सभी देशों में शिक्षा संस्थाओं तथा सांस्कृतिक समुदायों पर राजनीतिक दल अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न करते हैं, अध्यापकों तथा विद्यार्थियों में अपने सिद्धान्त फैलाते और यहाँ तक कि उन संस्थाओं के प्रबन्ध पर अपना कब्जा करके उनका प्रचार-साधन के रूप में प्रयुक्त करते हैं। अतः इस युग में राजनीतिक दलों के पास ही वास्तव में सामाजिक नियन्त्रण का ठेका होता है।