जल संसाधन के संरक्षण की समस्या (Problems of Conservation of Water Resource)
घरेलू तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल के संरक्षण को प्रभावित करने वाली दो मुख्य समस्याएँ हैं। यथा-जल प्राप्ति की मात्रा तथा जल के गुण जिससे जल का उपयोग होता है। जल के संरक्षण की सभी बातें इन दशाओं पर निर्भर करती हैं। जैसे शहरों में जहाँ घरेलू उद्देश्यों के लिए भूमिगत तथा बहता हुआ जल जनसंख्या के एक विशाल भाग को प्राप्त होता है वहाँ प्रति व्यक्ति उपभोग में वृद्धि हो रही है। नगरीकरण के साथ-साथ औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल का उपयोग बहुत बढ़ा है।
अतः इसी प्रकार शहरों में जनसंख्या की लगातार वृद्धि ने शहरों में अवशिष्ट एवं मल पदार्थों के विकास की समस्या को जटिल बना दिया है। इसके साथ ही उद्योगों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ जल पूर्ति के अनेक वर्तमान संसाधनों को प्रदूषित करने में सहायता प्रदान करते हैं। जल प्रदूषण तथा जल-पूर्ति की कमी का एकमात्र कारण नगरीकरण तथा औद्योगीकरण ही नहीं है अपितु भूमिक्षरण, बाढ़, वन विनाश तथा कम हुआ जल स्तर भी जल संरक्षण की समस्याओं में सहयोग देने वाले तथ्य हैं।
1. प्रदूषण
अवमल तथा औद्योगिक व्यर्थ पदार्थ का प्रबंध विशेष रूप से महानगरीय क्षेत्रों में जल संरक्षण की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। वह भारतीय शहर जो कि गंगा, यमुना तथा अन्य नदियों से जल प्राप्त करते हैं अवयव को वापिस उन्हीं में लौटाते भी हैं। नदी के किनारे स्थित नगरों के ऊपरी भाग नदी से जल पूर्ति प्राप्त करते हैं तथा अवशिष्ट पदार्थों को आंशिक या पूर्ण रूप से नदी में पुनः लौटा देते हैं। औद्योगिक नगर तथा उद्योग विभिन्न उपयोगों के लिए जल प्राप्त करते हैं और विभिन्न प्रकार का कूड़ा-करकट बाहर निकालते हैं। इस प्रकार इन नगरों में जल प्रदूषण एक समस्या बन गया है। प्रदूषित जल बीमारी फैलाने वाले अधिक खतरनाक वाहकों में प्रमुख स्थान रखता है।
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2. खनिज तत्व
भूमिगत जल की प्राप्ति विशेष रूप से गहरे कुओं से कम प्रदूषित होती है। लेकिन यह हमेशा दो समान व्यग्र समस्याओं को उपस्थित करता है। उनमें से एक जल के विलियन में खनिजों की उपस्थिति की समस्या है तथा दूसरी गिरते हुए जल स्तर के कारण कम होती हुई पानी की पूर्ति की समस्या है। भूमिगत जल का अधिकांश तथा कुछ धरातलीय जल खनिजों, जिनमें मैग्नीशियम तथा कैल्शियम लवण तथा अन्य घुलनशील पदार्थ विलयन में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं जिनके कारण जल कठोर हो जाता है और वे इसे अपने उद्देश्यों के लिए अनुपयुक्त बनाते हैं। मृदु जल के प्रति मिलियन में लवण के 60 भाग मौजूद होते हैं। अस्थायी कठोर जल में यह भाग 60 से 120 भाग तक प्रति मिलियन तथा स्थायी कठोर जल में यह लवणीय भाग 120 भाग प्रति मिलियन से अधिक होते हैं। अस्थायी कठोरता, साधारण मृदु करने वाली विधियों द्वारा दूर की जा सकती है। लेकिन फिर स्थायी कठोरता को अधिक खर्चीले उपकरणों तथा विधियों के बिना दूर नहीं किया जा सकता है।
3. घटता हुआ जल स्तर
नगरों तथा कस्बों के सामने संरक्षण की समस्याओं में से एक समस्या भूमि के गिरते हुए जल स्तर की भी है। यह समस्या भूमिगत जल पर निर्भर करती है जो कि पूर्ति का एक स्रोत है। विशेष रूप से शुष्क प्रदेशों में जहाँ अनेक कुएँ सिंचाई तथा घरेलू उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भूमिगत जल को उपयोगी बनाते हैं, उनके अधिक संख्या में खोदे जाने के कारण जल स्तर कई फीट नीचे गिर जाता है। कुएँ के पास यदि कोई अन्य कुआँ भूमिगत जल के निचले स्तर तक खोदा जाये तो जल स्तर बड़ी मात्रा में कम हो जाता है।
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जल संरक्षण एवं प्रबंधन (Conservation and Management of Water)
जल संसाधनों की माँग तथा आपूर्ति में सन्तुलन कायम रखने के लिए जल संसाधनों में परिरक्षण, नियंत्रण तथा विकास सम्बन्धी प्रक्रियाओं को जल संरक्षण एवं प्रबंधन के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। जल संरक्षण एवं प्रबंधन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं-
1. वर्षा के जल प्रवाह को नियंत्रित कर संग्रहित करना
जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की सर्वप्रमुख विधि है वर्षा के जल प्रवाह को नियंत्रित करके संग्रहित करना, अन्यथा वर्षा के जल का अधिकांश भाग महासागरों में बेकार बहकर चला जाता है। वर्षा के द्वारा धरातल पर बहने वाला पानी हमेशा सागरीय भागों में जाने को तत्पर रहता है। इसको झीलों तथा कृत्रिम जलाशयों में बाँध बनाकर संग्रहित करना आवश्यक होता है। जलाशयों से जल की कमी वाले क्षेत्रों में पाइप लाइनों के माध्यम से इसे भेजा जाना चाहिए तथा शुष्क मौसम में नदी के जल की सतत आपूर्ति कायम रखने के लिए जलाशयों के जल का उपयोग करना चाहिए।
2. वृक्षारोपण करना
विस्तृत स्तर पर वृक्षारोपण तथा घासों को लगाना चाहिए जिससे भूमि की जल अवशोषित करने की क्षमता में वृद्धि होकर भूमिगत जल के भण्डार में वृद्धि हो जाती है। पर्वतीय भागों में वनों की उपस्थिति जल प्रवाह को मन्द करती है जिससे भूमि का कटाव रूकता है। नदियों में अवसादों की मात्रा कम पहुँचती है, मैदानी भागों में बाढ़ों का प्रकोप कम होता है तथा जलाशयों में अवसाद जमा होने की दर भी कम हो जाती है। यह सभी तथ्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जल संरक्षण एवं प्रबंधन में सहायक होते हैं।
3. वाष्पीकरण की दर को कम करना
प्रतिवर्ष विपुल जलराशि वाष्पीकरण की प्रक्रिया द्वारा वायुमण्डल में विलीन हो जाती है। जल की इस वाष्पीकरण की दर को कम करने के लिए वैज्ञानिक अनेक संभावनाओं पर शोध कर रहे हैं। जलाशयों तथा झीलों में रसायनों की पतली परत आवरण के रूप में वाष्पीकरण को रोकने के लिए प्रयुक्त की गई, लेकिन यह विधि अधिक सफल नहीं हो सकी। इसके साथ-साथ कई पारिस्थितिकी समस्याएँ भी पैदा हो गई। वैज्ञानिकों द्वारा वाष्पीकरण कम करने की दूसरी सफल विधि का आविष्कार नवीन सिंचाई व्यवस्था के द्वारा किया गया। इसके अन्तर्गत जलाशयों तथा झीलों से कृषि भूमि तक पाइप लाइनों द्वारा सिंचाई के लिए जल को सीधे पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है। इस प्रक्रिया से सिंचाई में प्रयुक्त जल के वाष्पीकरण में 75 प्रतिशत की कमी आ जाती है। इसके साथ-साथ व्यर्थ बहकर जाने अथवा भूमि द्वारा अवशोषित किए जाने वाले अप्रयुक्त जल की मात्रा में भी बचत होती है।
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4. भूमिगत जल का विवेकपूर्ण उपभोग करना
जल की सतत उपलब्धता एवं आपूर्ति कायम रखने के लिए भूमिगत जल का विवेकपूर्ण तरीके से उपभोग करना परम आवश्यक है। किसी एक क्षेत्र में ट्यूबवैलों की संख्या अधिक नहीं होनी चाहिए। इससे भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है तथा कभी-कभी समस्त भूमिगत जल पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में पीने के पानी की भयंकर कमी हो जाती है परिणामस्वरूप जनसंख्या पलायन करने लगती है। अतः भूमिगत जल की आपूर्ति एवं उपभोग में सन्तुलन कायम रखना जल संरक्षण एवं प्रबंधन की महत्त्वपूर्ण विधि है।
5. सागरीय जल का शुद्धीकरण करना
सागरीय जल उपयोग की दृष्टि से व्यर्थ होता है अतः इसे विलवणीयकरण इकाइयों के द्वारा शुद्ध किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में यह अपेक्षाकृत अधिक महंगी विधि है लेकिन तकनीकी विकास के साथ भविष्य में जब यह विधि सस्ती हो जायेगी तो भविष्य में यह शुद्ध जल-प्राप्ति का प्रमुख स्रोत होगा।
6. कृत्रिम विधि द्वारा भूमिगत जल को संरक्षित करना
भूमिगत जल की मात्रा को संयुक्त राज्य अमेरिका में एक कृत्रिम विधि द्वारा संरक्षित किया जाता है। इसमें वर्षा ऋतु में नदियों के अतिरिक्त जल को सीधे भूमि की जलज चट्टानों में भेजा जाता है जिससे भूमिगत जल के आयतन में वृद्धि हो जाती है।
7. कृषकों को शिक्षित करना
किसी देश या क्षेत्र विशेष के किसानों को यह ज्ञात होना चाहिए कि उनकी किस फसल के लिए, किस समय कितनी मात्रा में, जल की आवश्यकता होगी। इससे जल की काफी मात्रा को व्यर्थ में बहने से बचाया जा सकता है।
8. मिट्टी में जैव पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करना
मिट्टी में जैव पदार्थों की मात्रा बढ़ाने से उसकी जल अवशोषण क्षमता बढ़ जाती है जिससे जल संरक्षण में सहायता मिलती है।
9. अशुद्ध जल को पीने योग्य बनाना
शुद्धीकरण की प्रक्रिया द्वारा अशुद्ध जल को पीने योग्य बनाया जाना चाहिए तथा जलाशयों में जल प्रदूषण पर कठोरता से प्रतिबंध लगाना चाहिए।
10. नागरिकों को जल के उचित उपयोग हेतु प्रेरणा देना
विश्व के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह पीने के पानी तथा अन्य कार्यों में जल के उपयोग में होने वाली बरबादी को रोके, जिससे जीवन की इस अमूल्य निधि को लम्बे समय तक संजोकर रखा जा सके।