प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन
भारत में राजनीतिक चिन्तन की परम्परा बहुत प्राचीन है। राज्य क्या है ? उसका प्रारम्भ कैसे हुआ? राजा कौन है? राजा के कर्त्तव्य क्या हैं? उसके दायित्व कौन से हैं? राजतंत्र क्या है? गणतंत्र क्या है? राज्य के प्रकार कौन-कौन से हैं? न्याय व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था, कर व्यवस्था क्या है? राजनीति विज्ञान के इन सभी मूलभूत प्रश्नों पर गहराई के साथ प्राचीन काल में भारत में अनेक विद्वानों ने अर्थपूर्ण विचार किया है, परन्तु इन समस्त तथ्यों को नजरअन्दाज करते हुए अर्नेस्ट बार्कर का कथन है- "राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ यूनान से हुआ है।" अर्नेस्ट बार्कर का कथन सत्य नहीं है। उन्होंने एकपक्षीय विचार प्रस्तुत किया है। पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ यूनान से हुआ है यह तो सही है, पर पूरे विश्व के राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ यूनान से हुआ, यह सही नहीं है। प्रो. सी. एल. वेपर का यह कथन अर्थपूर्ण है, "पूर्वी राजदर्शन अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा अधिकारशील रहा है। भारत तथा चीन के प्राचीन राजदर्शन यद्यपि अत्यधिक धार्मिक हैं, परन्तु किसी से कम महत्वपूर्ण तथा अधिकारशील नहीं हैं।"
पाश्चात्य ग्रीक विचारक सुकरात, प्लेटो और अरस्तू के राजनीतिक चिन्तन के बहुत पूर्व ही भारत में राजनीतिक चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था। यद्यपि व्यवस्थित और एक स्वतंत्र विषय के रूप में भारत में राजनीतिक चिन्तन कुछ बाद में विकसित हुआ तथापि ऋग्वेद में राजनीतिक विचार देखने को मिलते हैं। वैदिक और ब्राह्मण काल में भी राजनीति शास्त्र का कोई पृथक से ग्रंथ तो नहीं मिलता, पर कहीं-कहीं राज्य, राजा और राज्य कार्य से संबंधित आलेख मिल जाते हैं। ऋग्वेद की तुलना में अथर्ववेद में इस प्रकार के प्रसंगों और कथनों का उल्लेख अधिक मिलता है। यजुर्वेद की संहिताओं में और ब्राह्मण ग्रंथों में राज्याभिषेक, राज्यारोहण संबंधी वर्णन और उनके संबंध में आलेख पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। राजपद, राजकर्मचारी, प्रजा, करवसूली, विभिन्न जातियों के पारस्परिक संबंध, अधिकार, स्थिति आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा (जानकारी) इन ग्रन्थों में की गई है।
प्रसिद्ध विद्वान प्रो. अनंत सदाशिव अल्तेकर का मानना है- "ई. पू. आठवीं शताब्दी से व्याकरण, ज्योतिष, छन्द निरुक्त आदि विषयों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। इसी काल में कुछ समय बाद राजनीतिक विषयों पर भी स्वतंत्र अध्ययन हुआ।" डॉ. काणे का कथन है- "अति प्राचीन काल से ही धर्मशास्त्र के अन्तर्गत राजधर्म की चर्चा होती रही है।" इसीलिए सभी धर्मशास्त्रकारों ने इसका सांगोपांग विवेचन किया है, किन्तु इस विषय की महत्ता इस बात से और अधिक प्रकट होती है कि आदिकाल से ही इस पर पृथक रूप से पुस्तकें लिखी गई हैं।
शान्ति पर्व (महाभारत अध्याय 59) में आया है कि प्रारम्भ में कृतयुग में न तो राजा था और न ही दण्ड व्यवस्था थी, जिसके फलस्वरूप मानवों में मोह, मत्सर आदि का प्रवेश हो गया। अतः धर्म को पूर्ण नाश से बचाने के लिए ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष (69 या 130 एवं 79) पर एक लाख अध्यायों वाला एक महान ग्रन्थ लिखा। इस ग्रंथ के नीति (शासन-शास्त्र) नामक भाग को शंकर विशालाक्ष ने संक्षिप्त करके दस सहस्र अध्यायों में लिखा (59 या 180), जिसे विशालाक्ष की संज्ञा मिली। पुनः इसे इन्द्र ने पढ़कर पाँच सहस्र अध्यायों में रखा और इसे बाहुदन्तक की संज्ञा दी गई (59 या 183), आगे चलकर बाहुदन्तक को बृहस्पति ने तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे लोगों ने ब्रार्हस्पत्य नाम से पुकारा। पुनः बार्हस्पत्य को काव्य (उशाना) ने एक सहस्र अध्यायों में रखा।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र में संक्षिप्त रूप से तथा महाभारत के शान्तिपर्व और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विस्तृत रूप में इसकी चर्चा की गई है।
महाभारत के शान्तिपर्व में राजनीति से सम्बन्धित आधिकारिक जानकारी हमें मिलती है। यह ठीक है कि अपनी विशिष्ट शैली में लिखित महाभारत में राजनीतिक चिन्तन, कथाओं जैसा है, तथापि उसमें से राजनीतिक सिद्धान्तों की विषद व्याख्या निकाली गई है। महाभारत के शांन्तिपर्व में राजा, राज्य, राज्य की उत्पत्ति, राजा के कार्य आदि के सम्बन्ध में विस्तृत उल्लेख है। महाभारत का काल ई. पू. तीन हजार वर्ष माना जाता है।
प्राचीन ग्रन्थों में राजनीति शास्त्र के लिए 'दण्डनीति' शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। इसके अलावा राजनीति, राजधर्म शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि शब्दों का भी प्रयोग राजनीति शास्त्र के लिए हुआ है।
शुक्रनीति सार में चार विधाओं (आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति) का विवेचन करते हुए दण्डनीति के अर्थ को "दम या मार्या का नाम दण्ड है" इस रूप में स्पष्ट किया है। राजा को भी "दण्ड" कहते हैं। इस दण्ड की जो नीति होती है वह 'दण्डनीति' कही गई है।
शुक्रनीति के अनुसार दण्डनीति पथ प्रदर्शन करती है। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है, "दण्ड द्वारा अदान्त लोगों का दमन किया जाता है। अतः दमन करने और दण्डित करने के कारण 'दण्ड' शब्द का प्रयोग विद्वानों द्वारा किया गया है। मनुष्यों में अव्यवस्था न मच जाए तथा धर्म का संरक्षण हो सके, अतः मर्यादा की स्थापना की गई है। इसे 'दण्ड' कहते हैं।" यहाँ यह समझना आवश्यक है कि दण्ड का अर्थ सजा देना नहीं है, अपितु समाज में अव्यवस्था और अराजकता को दूर करना है। बिना व्यवस्था और नियम पालन के समाज स्थापित नहीं हो सकता।
कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' नामक पुस्तक की रचना की है। वस्तुतः 'अर्थशास्त्र' अर्थ अथवा सम्पत्ति से सम्बन्धित ग्रंथ नहीं है। वह राजनीति शास्त्र का ग्रंथ है। उसमें राज्य, राजा, राज्य की नीति, राज्य की उत्पत्ति आंदि की विस्तार से चर्चा है।
महाभारत के शान्तिपर्व में 'दण्डनीति' के महत्व को सर्वाधिक और श्रेष्ठतम रूप में स्थापित (स्वीकार) किया गया है। ग्रंथ में कहा गया है कि जिस समय दण्डनीति का ठीक प्रकार से अनुष्ठान हो रहा होता है, उस समय को ही सतयुग कहा जाता है। मनुष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति ऐसे समाज में कर सकता है जिस समाज में शान्ति, व्यवस्था और अनुशासन हो। स्पष्ट है इन स्थितियों की स्थापना दण्डनीति के द्वारा ही संभव है। अतः दण्डनीति अथवा राजनीति सामाजिक जीवन की अनिवार्यता है।
भारत में राजनीतिक चिन्तन की बहुत लम्बी परम्परा रही है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कुछ विचारकों और 'विचार सम्प्रदायों' का उल्लेख किया है। इनमें प्रमुख हैं- भारद्वाज, पाराशर, विशालाक्ष, पिशुन, कौणपदत्त, वातव्याधि, बाहुदत्तीपुत्र कात्यायन, धोटपुत्र, दीर्घचारायण, पिशुनपुत्र, किञ्जलाक आदि। इसी प्रकार कौटिल्य ने पाँच 'विचार सम्प्रदायों' का भी उल्लेख किया है- मानवः, बार्हस्पत्याः औशनसाः पाराशराः और आभ्मीयाः।
महाभारत के शान्तिपर्व में भी अनेक विचारकों और विचार सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है, जिनमें प्रमुख हैं- विशालाक्ष, इन्द्र, बृहस्पति, अनु, शुक्र, भारद्वाज, गौरशिरा, मातरिखा, कश्यप, वैश्रवण, उतथ्य, वामदेव, शम्बर, कामन्दक आदि। इन्द्र, बाहुदत्तीपुत्र का ही नाम है। महाभारत के शान्तिपर्व में कुछ अन्य विचारकों के नामों का भी उल्लेख है, जैसे कीर्तिमान, कर्दम, अनंग आदि। वर्तमान में यह दुर्भाग्य की बात है कि उपर्युक्त सभी आचार्यों के मूल ग्रन्थ हमें प्राप्त नहीं हैं, पर महाभारत के शान्तिपर्व और कौटिल्य अर्थशास्त्र में उल्लिखित नामों से यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में राजनीतिक चिन्तन की एक विशाल और समृद्ध परम्परा रही है।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1.देवताओं अथवा ऋषियों के नाम से लेखन
प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन प्रायः देवताओं अथवा ऋषियों के नाम से मिलता है, इनमें इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, मनु, भारद्वाज, कश्यप आदि प्रमुख हैं। इन नामों से प्रायः यह भ्रम होता है कि राजनीतिक शास्त्र के रचयिता देवगण थे, परन्तु ऐसा नहीं है। प्रो. अल्तेकर का विचार है- "प्राचीन भारत के लेखकों की प्रथा थी कि वे बहुधा स्वयं अज्ञात रहकर अपने ग्रन्थों पर देवताओं या पौराणिक ऋषियों के नाम दे दिया करते थे। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति तथा शुक्रनीति आदि ग्रन्थों के नाम इसके उदाहरण हैं।"
यह विचारणीय बात है कि प्राचीन विचारकों ने ऋषियों या देवताओं के नाम से ग्रन्थों की रचना क्यों की, स्वयं के नाम से क्यों नहीं की? इस तथ्य को जानने के लिए हमें भारतीय चिन्तकों की मनः स्थिति और उस समय के परिवेश पर विचार करना होगा। भारतीय परिवेश आध्यात्मिकता के प्रभाव से आच्छादित रहा है। सामान्य व्यक्ति के मानस को भी आध्यात्मिक विचार प्रभावित करते रहे हैं। आम भारतीय जनजीवन को नश्वर मानता है। वह स्थूल जगत की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। आमजन का विश्वास है कि सभी कुछ एक और अखण्ड सत्ता का रूप है। यह विश्व ब्राह्म में ही लीन होना है। मनुष्य की भी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। आत्मा, परमात्मा का अंश है। यह उसी परमात्मा में लीन होने वाला है। ऐसी दार्शनिक पृष्ठभूमि में विश्वास करने वाला विचारक सोचता है कि जब सभी कुछ क्षणभंगुर है तो नाम में क्या रखा है। क्या अन्तर पड़ता है कि विचार और चिन्तन के निष्कर्षों को अपने नाम से प्रचलित किया जाए या न किया जाए, सभी कुछ परमात्मा का ही तो है। इस पृष्ठभूमि और मनोविज्ञान के कारण हमारे प्राचीन चिंतक अपने नामोल्लेख में सचेत और अधिक उत्साही नहीं रहे।
दूसरा एक कारण और भी है, जो महत्वपूर्ण है। स्वयं के नाम की प्रसिद्धि सीमित रहती है। यदि किसी विचार को अपने स्वयं के नाम से प्रचलित किया जाए तो उसे जगत में अधिक महत्व और मान्यता मिलेगी, यह आवश्यक नहीं है। देवताओं और ऋषियों के नाम जगत में सर्वव्यापी हैं और उनसे सभी लोग परिचित भी हैं। अतः यदि स्वयं के विचारों को उनके नाम से प्रस्तुत किया तो स्वीकृति और महत्व दोनों प्राप्त होंगे। महत्व स्वयं के नाम का नहीं, अपितु विचारों की स्वीकृति और उनकी स्थापना का है। ऋषियों की शिष्य परम्परा ने भी उसी ऋषि के नाम से लेखन किया, जो उनका गुरु था। इन कारणों से देवताओं और ऋषियों के नाम से अपने विचारों को करने की परम्परा भारतवर्ष में आम थी। यह प्रक्रिया केवल स्वतंत्र चिन्तन तक सीमित थी, ऐसा नहीं है। अनेक प्रसिद्ध पुस्तकों के मूल पाठ में अपनी ओर से मूल लेखक के विचारों का लेबिल लगाते हुए, कुछ जोड़ने की भी परम्परा भारत में रही है। उस अंश को जो जोड़ा गया है, क्षेपक माना जाता है, अर्थात् पुस्तक का मूल पाठ कुछ होता है, पर कालान्तर में उसमें कुछ और भाग भी जोड़ दिया जाता है, यह क्षेपक है। शोध के बाद ऐसे अनेक भागों को विद्वानों ने बाद में रेखांकित भी किया है। विचारक मनुस्मृति का उदाहरण देकर इस बात को कहते हैं कि मूल मनुस्मृति में कई भागों को, जो व्यवस्थाओं से जुड़े हैं, उन्हें बाद में जोड़ा गया है। ऐसा कई महाकाव्यों के साथ भी हुआ है।
2. भारतीय राजनीतिक चिन्तन और धर्म
भारतीय चिन्तन में राजनीति और राजनीतिक चिन्तन पर विचार जीवन दर्शन के संदर्भ में किया गया है। प्रत्येक चिन्तक की एक विश्वदृष्टि रही है और उसी विश्वदृष्टि के संदर्भ में उसके राजनीतिक विचार विकसित हुए हैं। पाश्चात्य विचारों में भी ऐसे कई विचारक हमको मिलेंगे, जिन्होंने अपनी दार्शनिक स्थापनाओं के संदर्भ में ही राजनीतिक विचारों और सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। हीगेल, नीत्शे, स्पेंगलर आदि ने अपनी दार्शनिक स्थापनाओं के संदर्भ में ही अपने राजनीतिक चिन्तन को विकसित किया है। यही बात ग्राहम वालास के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। मार्क्सवादी राजनीतिक चिन्तन तो पूर्णतः द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित है। विचारों को आधार बनाए बिना राजनीतिक विचारों को औचित्यपूर्ण ढंग से न तो विकसित किया जा सकता है और न स्थापित किया जा सकता है। भारतीय राजनीतिक चिन्तन में भी प्रारम्भ से ही विचारकों ने जिन राजनीतिक सिद्धान्तों को निरूपित किया है, उनका आधार कोई-न-कोई दार्शनिक अथवा नीतिशास्त्र सम्बन्धी मान्यता रही है। कोई भी विचारक मूल्यों और मान्यताओं की उपेक्षा नहीं कर सकता; उसे शुभ, अशुभ, उचित, अनुचित का आधार बतलाना ही पड़ेगा और यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसका विचार अपूर्ण है।
प्राचीन काल से ही भारत में व्यक्ति और समाज के जीवन में धर्म का विशेष स्थान रहा है, किन्तु धर्म कोई मजहब अथवा पंथ नहीं है। वास्तव में, धर्म के प्रति भारतीय दृष्टि सदैव व्यापक रही है। उसे नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के मूल्यों के आधार के रूप में ही स्वीकार किया है। इसमें सभी के हित का भाव समाहित है। इस रूप में धर्म सभी व्यवस्थाओं, भावनाओं, मनुष्यों तथा समाज के आचरण का आधार है। जब तक समाज और व्यक्ति धर्म द्वारा मान्य संकल्पों को धारण नहीं करेंगे तब तक उसका कल्याण सम्भव नहीं है, धर्म के द्वारा ही यह सब सम्भव है। राज्य के स्वरूप को, राजा के कार्यों को, आमजन के आचरण को धर्म ही अनुशासित और स्थिर करता है। इस रूप में धर्म, कर्तव्य और मानव कल्याण की भावना का ही रूप है। सार्वभौमिक हित के लिए राजनीतिक चिन्तन धर्माधारित हो यह आवश्यक भी है। हाँ, यदि उसमें पंथवाद या साम्प्रदायिक हित प्राधान्य का भाव आ जाए तो वह अपने मूल स्वरूप में नहीं रहता है। इस स्थिति में सार्वभौमिकता का भाव तिरोहित होने लगता है। भारतीय राजनीतिक चिन्तन धर्मप्रधान इस रूप में नहीं है कि उसमें किसी मत, सिद्धान्त, पंथ या सम्प्रदाय की मान्यताओं पर बल दिया गया है, अपितु वह इस रूप में है कि उसमें मानव कल्याण, मानव एकता और मनुष्य के मानवीय गुणों के विकास का विचार किया गया है। छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है, "धर्म का संवर्धन, सदाचार का प्रोत्साहन और ज्ञान का संरक्षण प्रत्येक राज्य में अच्छी तरह से होना चाहिए। राज्य का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम का संवर्धन करना है अर्थात् धर्म संवर्धन का अभिप्राय हुआ कि राज्य का कार्य धर्मों को सहायता देना, जनता के लिए अन्न क्षेत्र और चिकित्सालय खुलवाना तथा ज्ञान को प्रोत्साहित करना होना चाहिए। इसी प्रकार अर्थ संवर्धन का तात्पर्य यह है कि राज्य को कृषि, उद्योग और वाणिज्य की प्रगति, सिंचाई व्यवस्था, बाँध और नहरें बनवानी चाहिए। काम संवर्धन का तात्पर्य यह है कि राज्य को शान्ति और व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए। न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए कार्य करना चाहिए तथा संगीत, कला, साहित्य, स्थापत्य, वास्तु आदि ललित कलाओं का पोषण करना चाहिए, जिससे राज्य के नागरिक सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें।"
3. राजनीतिक चिन्तन पंथराज्य का विरोधी
यह प्रश्न अहम् है कि क्या प्राचीन भारतीय राज्य पंथराज्य (Theocratic) थे ? इसका कारण यह है कि प्राचीन भारत में राजपुरोहितों और राजगुरुओं का राज्य संचालन में प्रभाव कई रूपों में देखने को मिलता है। पंथराज्य में धर्मगुरु ही राज्य का स्वामी होता है। इस्लामी इतिहास में खलीफा और वर्तमान में वैटिकन राज्य में पोप की यही स्थिति है। पंथराज्य के उदाहरण यूरोप में आठवीं और नौवीं शताब्दी में मिलते हैं।
राजा यदि पंथ विरुद्ध जाए, तो पोप और बिशप को उसे दंड देने की शक्ति उस समय थी। पोप की आज्ञा सम्राट की आज्ञा से भी अधिक महत्व की समझी जाती थी। पोप का प्रभाव शरीर और आत्मा दोनों पर था।
प्राचीन भारत में राजपुरोहितों और राजगुरुओं का राज्य संचालन में प्रभाव कई रूपों में देखने को मिलता है। ऐसे संदर्भ मिलते हैं, जब राज्य और (पुरोहित) संप्रदाय के संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई। गौतम धर्मसूत्र (500 ई. पू.) में कहां गया कि राजा का शासन ब्राह्मण वर्ग पर नहीं चल सकता। ब्राह्मण वर्ग की सहायता के बिना राजा का अभ्युदय नहीं हो सकता। ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि यदि राजा योग्य ब्राह्मण पुरोहित की सहायता नहीं लेता, तो देवता उसके हवन को स्वीकार नहीं करते हैं।
राजा, राज्याभिषेक के समय तीन बार ब्राह्मण को नमस्कार करता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह ब्राह्मण, पुरोहित के अधीन होना स्वीकार करता है। ऋग्वेद में उल्लेख है-"जो राजा अपने पुरोहित का यथोचित सम्मान करता है, वह अपने शत्रुओं पर जय और प्रजा की राजनिष्ठा प्राप्त करता है।" प्रो. अल्तेकर का विचार है, "ब्राह्मण काल के अंत तक (1000 ई. पू.) ब्राह्मण, पुरोहित राजा पर और उसके राज्य पर अपना प्रभाव स्थापित करने की चेष्टा करते रहे।"
दूसरी ओर ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों में ऐसे भी प्रसंग और संदर्भ आए हैं, जहाँ राजा की सर्वोपरिता को स्वीकार किया गया है। तैत्ररीय ब्राह्मण में एक प्रसंग में स्वीकार किया गया कि राजा जो चाहता है, कर सकता है। इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया कि राजा जब चाहे तब ब्राह्मण को निकाल सकता है। बृहदारण्यक उपनिषद क्षत्रिय, अर्थात् राजा को सबसे उच्च स्थान देता है। इसके बाद ब्राह्मण का स्थान आता है।
वैदिक काल में दोनों ही प्रकार उदाहरण मिलते हैं। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि राजसत्ता पर प्रभुत्व स्थापित करने की प्रक्रिया किसी-न-किसी रूप में चलती रही, पर स्थायी रूप से ब्राह्मण अथवा सम्प्रदाय का प्रभुत्व राजसत्ता पर हावी नहीं रहा है। यह सही है कि पुरोहित का सम्मान समाज तथा राज्य में भी था। यज्ञ आदि कार्यों को वह सम्पादित करवाते थे, पर ऐसा नहीं है कि राजा उसकी आज्ञा में काम करता था या राजसत्ता पर प्रत्यक्ष रूप से पुरोहित का अधिकार था। राजा को यहाँ तक शक्ति प्राप्त थी कि यदि पुरोहित समस्या खड़ी करता है तो राजा उसे राज्य से निकाल भी सकता था। प्राचीन काल में ऐसे आलेख मिलते हैं, जिनमें ब्राह्मण वर्ग ने विशेषाधिकारों का दावा किया है और स्वयं को कर तथा शारीरिक दण्ड से मुक्ति की व्यवस्था की है तथापि जैसा कि ए. एस. अल्तेकर का मत है, "ये विशेषाधिकार धर्मशास्त्रों तक ही सीमित थे। प्रत्यक्ष व्यवहार में नहीं।"
इसके साथ ही समाज ने राजा के स्वामित्व को स्वीकार किया पर उसे कभी भी ईश्वर का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं माना और न ही उसे सभी प्रकार के दोषों से अलग माना। राजा भी धर्म की अवहेलना नहीं कर सकता था। प्रो. अल्तेकर का मत है, "ई. पू. चौथी शताब्दी से राज्य पर धर्मतंत्र का प्रभाव उत्तरोत्तर कम होता गया। वैदिक कर्मों की प्रतिष्ठा कम हो गई और उनका प्रचार भी कम हो गया, इससे पुरोहित का महत्व भी कम हो गया। राजनीति ने स्वतंत्र शास्त्र का रूप ग्रहण किया और वेद तथा उपनिषदों के अध्ययन के बजाय राजा इसका (राजनीति शास्त्र का) अधिकाधिक अध्ययन करने लगे। राजा, विधि, नियम (कानून) और धार्मिक नियमों से स्वतंत्र माना जाने लगा और राज्य शास्त्रज्ञ उसका महत्व सर्वश्रेष्ठ मानने लगे। इस प्रकार हिन्दू राजतंत्र ईसवी सन् के प्रारम्भ तक धर्मतंत्र के प्रभाव से करीब-करीब मुक्त हो गया। राजा धर्म का प्रतिपालक और संरक्षक अवश्य था, पर इससे राज्य 'पंथराज्य' नहीं बन पाया। इसका काम सब मतों को बराबर समझना और सच्ची धार्मिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना था। वह किसी विशिष्ट मत का प्रचारक नहीं था, न धर्मगुरुओं की कठपुतली बना था। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह काल बौद्ध और महावीर के प्रादुर्भाव के बाद का काल था। इस समय वेद, पुरोहित वर्ग, वर्णाश्रम व्यवस्था, जाति-प्रथा सभी पर वैचारिक आक्रमण हुआ था तथा समाज में वैचारिक परिवर्तन के युग का प्रारम्भ हो चुका था।
4. राजा सर्वोपरि नहीं
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन में राजा के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है। सभी विचारकों और स्मृतियों ने राजा की उत्पत्ति, शक्तियाँ, दायित्व और उसकी स्थिति के सम्बन्ध में विचार किया है। प्रजा को राज्याज्ञा मानने के सम्बन्ध में भी विचार किया है। राज्याज्ञा का औचित्य और किस सीमा तक प्रजा को राज्याज्ञा माननी चाहिए तथा कब राज्याज्ञा को स्वीकार करने से मना करना चाहिए, इन सभी प्रश्नों पर भी विचार किया है।
पाश्चात्य विचार
पाश्चात्य विचारक टॉमस हाब्स के राजतंत्र सम्बन्धी विचारों के संदर्भ में भारत में प्राचीन काल में राजा और उसकी शक्तियों के सम्बन्ध में विचार और भी अर्थपूर्ण तथा महत्वपूर्ण हो जाता है। टॉमस हाब्स (1588-1679) ने राजा को निरंकुश तानाशाह माना है। हाब्स ने अपनी पुस्तक 'लेवायथन' में राजा को न्याय और अधिकारों का जन्मदाता माना है। वह कहता है-" कानून वही है, जो राजा की आज्ञा है। प्रकृति के नियम राजा के नियमों के विरुद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि प्राकृतिक नियम का उद्देश्य राजा को जन्म देना होता है जो इसकी व्याख्या भी करता है।" ईश्वर का नियम भी राजा के विधान के विरुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी व्याख्या करने वाला राजा ही होता है।
हाब्स प्रजा को राजा के विरोध में विद्रोह का अधिकार किसी भी स्थिति में नहीं देता। इसी प्रकार पाश्चात्य विचारक ब्लेकस्टोन का मत है कि राजा के कार्यों और विचारों में भी गलतियाँ नहीं हो सकती हैं। इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का विचार था कि प्रजा, राजा को दण्डित नहीं कर सकती। फ्रांस के राजा लुईस प्रथम ने स्वयं को ईश्वर का अवतार घोषित किया था।
हाब्स, ब्लेकस्टोन, जेम्स प्रथम आदि के विचारों से यह स्पष्ट होता है कि राजा निरंकुश, सर्वोच्च, अनुत्तरदायी और स्वेच्छाचारी स्थिति को प्राप्त था तथा प्रजा असहाय और केवल राज्याज्ञा का पालन करने वाली थी।
भारतीय चिन्तन
भारतीय विचार चिन्तन एकदम अलग है। वैदिक काल से ही उसने राजा को महत्व तो दिया है पर उसे देवत्व प्रदान नहीं किया है। वह निरंकुश और स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। राजा की स्थिति पर वैदिक काल से ही यदि विचार करें तो हम पाते हैं कि ऋग्वेद में पुरुकुत्स को अर्द्धदेवे का विशेषण देने का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु ध्यान रहे यह केवल विशेषण है, मान्यता या सिद्धांत नहीं।
उत्तर वैदिक काल में यह भावना विकसित हुई कि राजा देवता के समान है। कुषाण राज्य में यह भावना अधिक विकसित हुई। कुषाण वंश चीनी परम्परा से प्रभावित था। इस वंश के लोग राजा को देवपुत्र होने का दावा करते थे। मनु ने भी माना कि राजा पररूप में देवता है। कुछ पुराणों में भी यह धारणा व्यक्त की गई है। इनमें विष्णु पुराण और भागवत पुराण प्रमुख हैं। बौद्ध लोगों ने भी राजा को सम्मुतिदेवव की पदवी दी है, जिसका अभिप्राय होता है राजा का देवत्व जनता को सम्मत है, लेकिन यह स्थिति पूरे प्राचीन वाण्ङ्मय में नहीं है।
प्रो.ए. एस. अल्तेकर का कहना है, "कुछ ही स्मृतियों और पुराणों ने राजा के देवत्व की कल्पना स्वीकार की है, परंतु उसे ईश्वर का साक्षात् अवतार बहुत थोड़े स्मृतिकारों ने माना है।" पुराणों में ऐसे प्रसंग अवश्य आए हैं, जब कि राजा के कार्यों की समानता देवताओं के कार्यों से की है। जैसे राजा अपने तेज से दुष्टों को भस्म कर देता है तब वह अग्नि के समान है, राजा अपने गुप्तचरों द्वारा सब दिशाओं को देखता है, अतः सूर्य के समान है। राजा जब अपराधियों को सजा देता है तब यम के समान है तथा वह जब योग्य लोगों को पुरस्कार देता है, तब वह कुबेर के समान है। पर इन तुलनाओं में कहीं भी यह प्रकट नहीं होता है कि राजा स्वयं देवता है।
प्राचीन ग्रंथकारों ने उस दृष्टान्त का काफी उल्लेख किया है, जब दुष्ट राजा वेणु ने अपने देवत्व की दुहाई देकर दण्ड से बचने की कोशिश की, परंतु कुछ ऋषियों ने उसको मार डाला, उसकी एक भी बात स्वीकार नहीं की। शुक्र नीति द्वारा दुष्ट और दुराचारी राजा को राक्षसावतार माना गया है। यद्यपि मनु ने राजा को पररूप में देवता माना है, तथापि उसने भी व्यवस्था दी है कि धर्म से विचलित होने पर राजा का नाश हो जाता है। मनु ने तो राजा को सावधान भी किया है कि उसे सदैव काम, क्रोध, लोभ आदि बुराइयों से बचते रहना चाहिए। राजा राज्य के शीर्ष पर था और शक्तिशाली होने के नाते उसमें बुराइयाँ और अभिमान शीघ्र प्रवेश कर सकता था।
5. धर्म सर्वोपरि
भारतीय चिंतन ने न तो राजा को ईश्वर का अवतार माना और न उसे स्वेच्छाचारी और निरंकुश माना और न उसे कानून का स्त्रोत माना और न उसे कानून का एकमेव व्याख्याकार माना। भारतीय चिंतन में धर्म को सर्वोपरि माना गया है। राजा को धर्मानुसार आचरण करना अनिवार्य है। यदि राजा धर्मानुसार आचरण नहीं करता, तो प्रजा को उसके विरोध में विद्रोह करने का पूरा अधिकार है।
वैदिक काल में राजा का आदर्श धर्म और प्रजा रक्षा करना था। बृहदारण्यक उपनिषद्में कहा गया है, "धर्म का पालन राज़ा का नित्य और आवश्यक कर्त्तव्य है।" हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार वेणु पहले राजा हुए, उन्हें भी यह प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि वे धर्मानुसार कार्य करेंगे, मनमानी नहीं करेंगे। राजा का कार्य धर्म का पालन करना और प्रजा की रक्षा करना है। यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर पाता और वह असमर्थ है तो भीष्म का कथन है कि वह उसी प्रकार त्यागने योग्य है जिस प्रकार समुद्र में डूबती हुई नाव।
हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार राजा को प्रजा का सेवक माना गया है। बोधायन कहते हैं कि राजा प्रजा का सेवक है और प्रजा की आय का छठा भाग, जो वह प्राप्त करता है, उसका वेतन है। कई विचारक मानते हैं कि राजा राजकोष को मनमानी तरह से खर्च नहीं कर सकता। यह उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है। राजा राजकोष का ट्रस्टी होता है। राजकोष का दुरुपयोग करने पर राजा नरक का अधिकारी होता है, ऐसा शुक्रनीति में कहा गया है।
6. राजशक्ति पर अंकुश का कारगर तरीका
राजशक्ति पर अंकुश लगाने के संबंध में कारगर तरीका क्या हो सकता है? यह प्रश्न उस समय अधिक महत्व का हो जाता जब राजा आततायी और निरंकुश प्रवृत्ति का हो। साधारणतः ऐसी स्थिति में धर्मपालन के ऊपर जोर देने के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवस्था,जिसे वैधानिक बाध्यता की शक्ति प्राप्त हो प्राचीन समय में नहीं मिलती है, परंतु प्राचीन काल धर्मभीरु और लौकिक तथा पारलौकिक विचारों से प्रभावित काल था। अच्छे कर्मों का अगले जन्म में अच्छा फल मिलेगा, बुरे कर्मों का बुरा फल मिलेगा, यह विश्वास भारतीय जीवन में बहुत अधिक गहरा था। स्वर्ग नरक का भय राजा सहित सभी व्यक्तियों के जीवन, सांसारिक जीवन के व्यवहारों को नियन्त्रित करता था। निरंकुश और आततायी शासक के कार्यों को मर्यादित करने के लिए और धर्मानुसार आचरण करने हेतु उसे प्रवृत्त करने के लिए इस भय की बहुत बड़ी भूमिका थी। ऐसे भी उदाहरण दिए जाते हैं कि यदि राजा आततायी होगा और अधर्म का पालन करेगा तो उसका अन्त निकट है और यदि राजा अपने को सभी विधि-विधानों से, धर्मानुसार आचरण करने को, वेदपुराणों की मान्यताओं से स्मृतियों और लोकदायित्वों से अपने को ऊपर समझेगा और उसे लगेगा कि पृथ्वी पर उसके बराबर कोई नहीं है तो चाहे भगवान को ही क्यों न मनुष्य शरीर धारण करना पड़े, भगवान अवतार लेंगे और दुष्ट तथा प्रजा पर अत्याचार करने वाले अधर्मी राजा का वध करेंगे, यह विश्वास गहरा था। इस डर ने भी बड़े-से-बड़े राजा और सम्राटों को धर्मानुसार आचरण करने के लिए प्रवृत्त किया।
7. प्रजा को विद्रोह का अधिकार
हिन्दू धर्मग्रन्थों में प्रजा को अधिकार दिया गया है कि वह आततायी राजा से छुटकारा पाने के लिए राजा को यह चेतावनी दे कि वह अपना व्यवहार बदले और यदि वह अपना व्यवहार नहीं बदलता तो उसे राज्य से बाहर चले जाने की चेतावनी भी दे। सहज विचार तो यह है कि ऐसा करने से राजा सँभल जाएगा और उसके आचरण में सकारात्मक बदलाव आएगा, पर यदि चेतावनी के बाद भी राजा का आचरण नहीं बदलता है तो शुक्र नीति में कहा गया है कि यदि राजा इतने पर भी न सुधरे, तो उसे गद्दी से उतार देना चाहिए और राजपरिवार के किसी योग्य व्यक्ति को राजा की गद्दी पर बिठा देना चाहिए। महाभारत तो कोई मार्ग न निकलने पर राजा के वध की भी अनुमति देता है। यह केवल कथन मात्र ही नहीं है, अपितु ऋषियों द्वारा इन अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग किया भी गया है। राजा वेणु के अतिरिक्त जनता द्वारा विद्रोह करके नहुष, सुदास, सुमुख और निमि को भी राजपद से हटाया गया। जातक कथाओं में भी ऐसे कई उदाहरण हैं, जब कि जनता द्वारा आततायी राजाओं के वध किए गए। हैं।
इसलिए प्राचीन समय में राजा योग्य, सदाचारी, प्रजावत्सल हो इस बात को सुनिश्चित करने के लिए संस्कार युक्त शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया गया था तथा राजपुत्रों को अच्छी और राज्य संचालन में सहयोगी शिक्षा की व्यवस्था भी की गई थी।
पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन
ग्रीक राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व से माना जाता है। उस समय यूनान में कई नगर राज्य थे। इन नगर राज्यों में अनेक विचारकों ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए। इन्हीं विचारों में से यूनानी राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ माना जाता है।
प्रोफेसर अर्नेस्ट बार्कट का कथन है कि राजनीतिक चिन्तन का प्रारम्भ यूनान से हुआ। उनका यह भी कहना था कि जब अन्य देशों में विचारक राजनीतिक प्रश्नों का विवेचन धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कर रहे थे तब यूनानी चिन्तन का स्वरूप बुद्धिपरक था।
यूनान में विचारकों की बहुत लम्बी परम्परा रही है तथापि सुकरात, प्लेटो और अरस्तू की त्रयी का यूनानी राजनीतिक चिन्तन में प्रमुख स्थान है, वस्तुतः यह त्रयी ग्रीक राजनीतिक चिन्तन की पहचान बन गई है। सुकरात ने जीवन पर्यन्त शिक्षा देने का कार्य किया तथा यूनान के वैचारिक जगत में अपने विचारों और मान्यताओं के कारण बहुत अधिक उथल- पुथल पैदा की। उसने उस समय के शासकों की नीतियों और मान्यताओं का विरोध किया। फलतः यूनान की तत्कालीन राजसत्ता सुकरात की विरोधी हो गई।
सुकरात मानता था कि ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक सज्ञान और दूसरा असज्ञान ।
सज्ञान स्थायी है, जब कि असज्ञान छलावा मात्र है। मनुष्य को सज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। सुकरात का कहना था कि सज्ञान ही सद् जीवन है और सजीवन ही सज्ञान है। (True knowledge is goodness, and goodness is true knowledge) उसका कहना था कि एथेन्स में जनतंत्र राज्य है और इसमें अज्ञानी राजनीतिज्ञों का शासन है। इसी कारण वह मानता था कि जनतंत्र अज्ञानियों का शासन है। उसने ज्ञान को व्यक्ति का सर्वोच्च सदगुण माना (knowledge is virtue)। अपने इस विचार का प्रचार-प्रसार सुकरात ने एथेंस की गलियों में और युवाओं के बीच किया। उस समय सुकरात के तर्कों का एथेन्स के युवकों पर चुम्बकीय प्रभाव पड़ा था और वे सुकरात से प्रभावित हुए। सुकरात के व्यक्तित्व से एथेन्स के युवक किस तरह प्रभावित थे, इसका उल्लेख प्लेटो की कृति मीनो में मीनो नामक युवक के शब्दों से लगता है। वह कहता है, "यदि मुझे परिहास की अनुमति दी जाए तो मेरा विचार है कि आप न केवल आकृति में वरन् अन्य अर्थों में भी विद्युत मछली से मिलते- जुलते हैं। जो कोई भी उसके निकट जाता है या उसे छूता है उसे वह मछली स्तम्भित कर देती है और आपने मुझे ठीक वही कर दिया है। मेरी आत्मा तथा मेरी वाणी दोनों स्तम्भित हो गए हैं।"
सुकरात के इन कार्यों का विरोध उस समय के तत्कालिक शासक ने किया और उस पर 'युवाओं को भ्रष्ट करने', 'नये देवताओं में विश्वास करने' तथा 'राष्ट्र के देवताओं को न मानने का आरोप लगाया तथा उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। एथेन्स के शासकों ने सुकरात पर युवाओं को भ्रष्ट करने और नगर राज्य के मान्य देवताओं की पूजा न करने के आरोप में मुकद्दमा चलाया और मृत्युदण्ड की सजा दी गई। परिणामस्वरूप उसे जहर का प्याला पिलाया गया जिसे उसने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया, जिसके कारण उसकी मृत्यु 399 ई.पू. हुई।
प्लेटो, सुकरात का शिष्य था। उसका जन्म 428 ई.पू. एथेन्स के एक सम्भ्रांत परिवार में हुआ था। पारिवारिक पृष्ठभूमि के अनुसार उसे एथेन्स की राजनीति में सक्रिय भाग लेना था पर सुकरात के सम्पर्क और प्रभाव में आने के कारण प्लेटो के जीवन की दिशा ही बदल गई और वह सक्रिय राजनीति को छोड़कर प्लेटो के विचारों का संदेश वाहक बन गया। प्लेटो ने जिस राजनीतिक चिन्तन को विकसित किया उसका आधार सुकरात का चिन्तन था। सुकरात की मृत्यु जनतंत्री शासन-व्यवस्था में हुई थी जहाँ अकुशल और ज्ञानरहित शासक थे। अतः प्लेटो ऐसी शासन व्यवस्था का समर्थक बना जहाँ ज्ञान ही सद्गुण हो और जहाँ ज्ञानवाद (दार्शनिक) राजा हो तथा उसका शासन हो। जहाँ सद्गुणी और कर्त्तव्यशील नागरिकों का निर्माण किया जाए अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सुकरात ने एक अकादमी की स्थापना की जहाँ उसने अपने विचारों को विकसित किया।
अरस्तू इस त्रयी का तीसरा और अंतिम प्रमुख विचारक है। उसका जन्म यूनान के उपनिवेशीय नगर स्टोगिरा में 384 ई.पू. हुआ। उसका पिता पैसेडोनिया के शासक के चिकित्सक थे। अरस्तू सिकन्दर का शिक्षक (Tufor) रहा। अरस्तू प्लेटो के सम्पर्क में 'अकादमी' में आया जहाँ उसने अध्ययन के लिए प्रवेश लिया था। 20 वर्ष उसने प्लेटो के सान्निध्य में व्यतीत किए। प्लेटो की मृत्यु के बाद अरस्तू यूनान का सबसे बड़ा विचारक बना, पर वह प्लेटो के समान कल्पनावादी नहीं था। उसका चिन्तन व्यावहारिक था। उसने भी आदर्श राज्य का विचार प्रस्तुत किया पर उसका आदर्श राष्ट्र 'दार्शनिक राजा' के विचार से आच्छादित नहीं था अपितु विधि की श्रेष्ठता और सर्वोच्चता को लिए हुए था। इसीलिए अरस्तू को 'प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक' कहा जाता है।
यूनानी राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ
यूनानी राजनीतिक चिन्तन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विवेकवादी चिन्तन
यूनानी विश्व को सृजनात्मक विवेक की उपज मानते हैं। वे यह मानते थे कि विश्व के स्वरूप को समझने के लिए कुछ आधारभूत निर्णायक सिद्धान्तों की खोज आवश्यक है। यूनानियों ने इन निर्णायक सिद्धान्तों की खोज सर्वप्रथम विभिन्न प्राकृतिक तत्वों में की, बाद में वे प्रकृतिवादी चिन्तन से मानववादी चिन्तन की ओर प्रवृत्त हुए अतः अब वे मानव, उसके व्यवहार और मानव के प्रभावों का अध्ययन करने लगे। सुकरात ने मानववादी चिन्तन को नैतिक आधार प्रदान किया तथा सिनिक विचारकों ने इसे विश्वव्यापी चिन्तन का आधार दिया। स्पष्ट है कि किसी भी दृष्टिकोण और आधार से विचार किया जाए चिन्तन का केन्द्र मनुष्य ही रहा। यूनानी उन नियमों की खोज करते रहे जिनसे मानव जीवन नियंत्रित होता है।
2. स्वतंत्र चिन्तन
यूनानी चिन्तन स्वतंत्र चिन्तन था। यूनानी चिन्तन की यह मान्यता थी कि मनुष्य अपने समाज का निर्माण स्वयं करता है। उसमें इतनी शक्ति और सामर्थ्य है कि वह कुछ अदृश्य शक्तियों के होते हुए भी समाज को मनचाहा स्वरूप दे सके। यूनानी चिन्तन अंधविश्वासों से प्रभावित नहीं था।
यूनानी चिन्तन किसी भी प्रश्न पर पारस्परिक विचार-विमर्श में विश्वास रखता था। सेवाहन का मत है, 'ऐथेंसवासियों का विचार-विमर्श में पूरा विश्वास था। वे समझते थे कि सार्वजनिक नियमों के निर्माण और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए विचार-विमर्श आवश्यक हैं। कोई भी श्रेष्ठ नियम अथवा संस्था अधिकांश के विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप ही निर्मित हो सकती है। इस विश्वास ने ही एथेंसवासियों को राजनीतिक दर्शन का सृष्टा बनाया।'
एथेंसवासियों की सार्वजनिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं और प्रश्नों पर विचार करने में गहरी रुचि थी तथा वे प्रत्येक प्रश्न पर विचार करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
3. राज्य एक प्राकृतिक और नैतिक संस्था
यूनान का राजदर्शन राज्य को प्राकृतिक और नैतिक संस्था मानता था। यूनानियों का विचार था कि व्यक्ति विवेकशील प्राणी है, व्यक्ति का उद्देश्य केवल जीवित रहना नहीं अपितु प्राकृतिक नियमों के विवेवकपूर्ण विवेचन के अनुसार जीवन व्यतीत करना है। यह जीवन समाज और राज्य में ही सम्भव है। इसी कारण यूनानी विचारकों का मत था कि मनुष्य एक सामाजिक तथा राजनीतिक प्राणी है। व्यक्ति के उच्चतम विकास के लिए राज्य आवश्यक है। अतः राज्य भी एक नैतिक और प्राकृतिक संस्था है। यूनानी व्यक्ति और राज्य को एक दूसरे का पूरक मानते थे।
4. मानव गतिविधियों का केन्द्र नगर राज्य
यूनानी विचारक मानते थे कि क्योंकि राज्य और व्यक्ति एक दूसरे के पूरक हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति को राज्य के कार्यों में भाग लेना चाहिए। विधि निर्माण में भी व्यक्ति को भाग लेना चाहिए। यूनान में उस समय नगर राज्य थे, जिनका क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों सीमित थी। अतः व्यक्तियों के लिए यह सुविधा जनक था कि वे राज्य की विधि निर्माण प्रक्रिया में भाग ले सकें। नगर राज्य आदर्श राजनीतिक जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के साधन थे अतः नगर राज्यों के कार्यक्षेत्र की कोई सीमा निर्धारित नहीं थी। नगर राज्य और व्यक्ति एक दूसरे के पूरक थे अतः यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता था कि क्या व्यक्ति को राज्य के विरोध में कोई अधिकार प्राप्त है। राज्य के विरोध में व्यक्ति को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। सम्पत्ति तथा समाज में मनुष्य की स्थिति को लेकर राज्य की दृष्टि से व्यक्तियों में कोई अन्तर नहीं था। सभी व्यक्तियों को अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार कार्य करने का अवसर था। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति और नगर राज्य दोनों की आदर्श स्थिति थी।
5. स्वतंत्रता और कानून एक दूसरे के पूरक
यूनानी स्वतंत्रता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे। स्वतंत्रता व्यक्ति के विकास का आधार है पर वे राज्य के कानूनों का भी पूरा सम्मान करते थे, कानूनों के प्रति असीम सम्मान का भाव यूनानियों के मन में था। वस्तुतः राज्य और व्यक्ति में यूनानियों ने अन्तर नहीं किया। वे राज्य को व्यक्ति का बड़ा रूप मानते थे। सेवाहन ने स्वतंत्रता और कानून के प्रति यूनानियों के विचारों को व्यक्त करते हुए पैराक्लीज के एक कथन को उद्धृत किया है। पैराक्लीज का कहना था, 'हमारे सार्वजनिक जीवन में किसी प्रकार की वर्जनशीलता नहीं है। अपने व्यक्तिगत सम्पर्क में हम एक दूसरे पर संदेह नहीं करते। यदि हमारा पड़ौसी मनचाहा कार्य करता है तो हम नाराज नहीं होते हमारे मन में अधिकारियों और कानूनों के प्रति आदर भाव रहता है। इसी कारण हम गलत काम करने से बच जाते हैं। हम उन अधिकारियों का, जो पीड़ितों की रक्षा करने के लिए नियत हैं, सम्मान करते हैं। हमारे मन में अलिखित कानूनों के प्रति श्रद्धा भी है, जिनका उल्लंघन होने पर उल्लंघनकर्ताओं को सब लोग भर्त्सना की दृष्टि से देखते हैं।' किसी के प्रति सम्मान भाव यूनानी लोगों की विशेषता है-यही कारण है कि वे मानते थे कि स्वतंत्र राज्य में कानून संप्रभु है तथा शासक और शासित दोनों ही उसके अधीन हैं।
6. दास प्रथा का समर्थन
यूनान की सम्पूर्ण सभ्यता और यूनान का सम्पूर्ण विकास दासों पर टिका था। यूनानी लोग दास प्रथा का समर्थन करते थे। यूनान में नागरिक उसे माना गया जो राजकाज में भाग लेता है, अतः उनका विचार था कि नागरिक राज्य के कार्यों में पूरी तरह भाग ले सके इसके लिए आवश्यक है कि उसे समय मिले। घर, परिवार के कार्यों की चिन्ता न रहे यह तब सम्भव है जब परिवार के कार्यों को करने के लिए कोई हो यह कार्य यूनान में दास करते थे। अरस्तू ने दास प्रथा का समर्थन किया और इसे उचित ठहराया। हालाँकि प्लेटो दास प्रथा के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहता। यूनान का समाज स्पष्ट रूप से दो भागों में बँटा हुआ समाज था- एक नागरिक जो राज्य के कार्यों में भाग लेते थे दूसरे दास जो राज्य के कार्यों में भाग नहीं लेते थे तथा जो सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित थे। दासों को यूनान में चल सम्पत्ति माना जाता था तथा उनके साथ पशुतुल्य व्यवहार किया जाता था।
7. नगर राज्यों तक सीमित चिन्तन
यूनानी राजनीतिक चिन्तन नगर राज्यों तक सीमित था। वे नगर-राज्य आपस में सदैव संघर्षरत रहते थे। आधुनिक दृष्टिकोण से विचार करें तो यूनानी राजनीतिक चिन्तन में अन्तर्राष्ट्रीयता के विचार और दृष्टिकोण की कमी थी।
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि यूनानी राजनीतिक चिन्तन को आधुनिक युग में उसकी प्रासंगिकता अथवा अप्रासंगिकता की दृष्टि से नहीं समझना चाहिए अपितु ईसा के पूर्व पश्चिम का राजनीतिक सोच और दृष्टिकोण क्या था उसकी मान्यताएँ क्या थीं इस बात को जानने की दृष्टि से समझना चाहिए।