भारतीय जनजाति : भौगोलिक एवं भाषायी वितरण (Indian Tribes: Geographical and Linguistis Distribution)

भारतीय जनजाति : भौगोलिक एवं भाषायी वितरण (Indian Tribes: Geographical and Linguistis Distribution)

भारतीय जनजातियों का भौगोलिक वितरण 

भारत एक विशाल राष्ट्र है। इस‌में सामाजिक-सांस्कृतिक विषमताओं के साथ भौगोलिक विषमताएँ भी पाई जाती है। भौगोलिक विषमताओं के कारण यहाँ जनजातियों के वितरण में भी असमानता देखी जा सकती है। किसी क्षेत्र में जनजातियों का प्रतिशत 90 से अधिक है तो कहीं 5 से 8 प्रतिशत ही है।

यदि भारत में जनजातियों के भौगोलिक वर्गीकरण या वितरण का अध्ययन करें, तो इसे किसी एक स्वरूप में स्पष्ट नहीं किया जा सकता। विभिन्न मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने आधार पर यहाँ की जनजातियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। इनमें मजूमदार व मदान, एस.सी.दुबे, एल. जी. विद्यार्थी, योगेश अटल तथा बी.सी. गुहा आदि प्रमुख है, जिन्होंने भौगोलिक या प्रादेशिक आधार पर जनजातियों का वर्गीकरण किया है।

मजूमदार एवं मदान का वर्गीकरण

श्री मजूमदार व मदान ने भौगोलिक या प्रादेशिक आधार पर जनजातियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है-

(क) उत्तरी तथा उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र (North and North Eastern Zone)- यह क्षेत्र पश्चिम में लेह और शिमला से लेकर समस्त उत्तरी सीमा प्रदेशों में से नीचे होता हुआ पूर्व में लुशाई पर्वतों तक फैला हुआ है। इस प्रकार इस क्षेत्र में कश्मिर, पंजाब, हिमालय प्रदेश, उत्तर प्रदेश और असम का पर्वतीय क्षेत्र सम्मिलित किया जाता है। खासी, गारो, थारू, भील, कचारी, नागा, रागा, कूकी, खम्पा, जौनसार, भूटिया तथा लहौला इस क्षेत्र की प्रमुख जन- जातियाँ हैं।

(ख) मध्य क्षेत्र (Central Zone)- इसके अन्तर्गत हम मध्य भारत में स्थित उन सभी पहाड़ी और पठारी भागों को सम्मिलित करते हैं जो दक्षिण भारत को सिन्धु और गंगा के मैदानों से पृथक करते हैं। अथवा यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र नर्मदा और गोदावरी के बीच स्थित है। जनजातियों की जनसंख्या के दृष्टिकोण से यह क्षेत्र सबसे बड़ा है, जिसमें केवल गोण्ड और सन्थाल जनजाति के सदस्यों की संख्या ही 83 लाख से अधिक है। इस क्षेत्र में दक्षिणी राजस्थान, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, पूर्वी गुजरात, उत्तरी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के अधिकतर भाग और असम का कुछ हिस्सा आ जाता है। उराँव, हो, सन्थाल, गोंड, खरिया, बैगा, कोटा, चेंचू, भील इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं।

(ग) दक्षिणी क्षेत्र (Southern Zone)- यह क्षेत्र भारत के सुदूरवर्ती दक्षिण- पश्चिमी भागों की पहाड़ियों और पूर्वी तथा पश्चिमी घाटों तक फैला हुआ है, इस प्रकार इसके अन्तर्गत हैदराबाद, मैसूर, आन्ध्र प्रदेश, मद्रास, केरल तथा कुर्ग प्रदेश आ जाते हैं। इसे क्षेत्र में टोंडा, वडगा, कोटा, कादर, पणियन, कुसुम्ब, उराली पलन और युरुव आदि प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं।

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एल.पी. विद्यार्थी का वर्गीकरण 

एल.पी. विद्यार्थी ने भारतीय जनजातियों को चार भौगोलिक आधारों पर वर्गीकृत किया है, जो इस प्रकार हैं-

1. हिमालय क्षेत्र (Himalaya Zone)- श्री विद्यार्थी ने इस क्षेत्र को पुनः तीन उपभागों में विभाजित किया है-

(i) उत्तर-पूर्वी हिमालय क्षेत्र- इस क्षेत्र के अन्तर्गत असम, मेघालय, पश्चिमी बंगाल, दार्जिलिंग, अरुणाचलप्रदेश, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम तथा त्रिपुरा की जनजातियों को सम्मिलित किया गया है। 

(ii) मध्यवर्ती हिमालय क्षेत्र- इस क्षेत्र के अन्तर्गत बिहार, उत्तरप्रदेश तथा उत्तराँचल की जनजातियों को सम्मिलित किया गया है।

(iii) उत्तर-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र- भारत में जम्मू-कश्मीर, हिमालय तथा पंजाब क्षेत्र की जनजातियों को इसमें सम्मिलित किया गया है।

2. पश्चिमी भारतीय क्षेत्र (Western Indian Zone)- इस क्षेत्र के अन्तर्गत महाराष्ट्र, गोआ, दादर-नगर हवेली, गुजरात तथा राजस्थान की जनजातियों को शामिल किया गया है।

3. मध्य भारतीय क्षेत्र (Central Indian Zone)- इसके अन्तर्गत मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, पश्चिमी बंगाल की जनजातियाँ आती हैं।

4. द्वीप समूह क्षेत्र (Island Zone)- इस क्षेत्र के अन्तर्गत लक्ष्यद्वीप, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह को शामिल किया जाता है।

श्री श्यामाचरण दुबे का वर्गीकरण

प्रमुख समाजशास्त्री श्री एस.सी. दुबे ने भौगोलिक दृष्टिकोण से भारतीय जनजातियों को चार भागों में बाँटा है-

1. उत्तर तथा उत्तर-पूर्व क्षेत्र- इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं-भोरिया, थारू, लेपचा, नागा, खासी, गारो, डाफली, कुकी, अबीर, मुरुंग आदि।

2. मध्य क्षेत्र- गोंड, बैगा, संथाल, मुण्डा, उराँव, बिरहोर, कोल, भील, कोरकू, कमार आदि जनजातियों को इस क्षेत्रान्तर्गत सम्मिलित किया गया है।

3. पश्चिमी क्षेत्र- इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में भील, वार्णी, कोली, कटकरी महादेव जनजातीय समुदाय सम्मलित किए जाते हैं।

4. दक्षिण क्षेत्र- इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं- टोडा, बुडागा, कोटा, इराला, कादर, कुरुवाँ आदि।

प्रो. योगेश अटल का वर्गीकरण

प्रो. योगेश अटल ने अपनी पुस्तक 'आदिवासी भारत' में भारतीय जनजातियों को भौगोलिक आधार पर चार आदिवासी क्षेत्रों में विभाजित किया है-

1. उत्तर एवं उत्तर पूर्वी क्षेत्र- इस क्षेत्रान्तर्गत उत्तर भारत तथा पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, सिक्किम, मणिपुर तथा त्रिपुरा आदि की जनजातियों को शामिल किया गया है।

2. पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र- इस क्षेत्रान्तर्गत पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की जनजातियाँ शामिल की गई हैं।

3. मध्यवर्ती क्षेत्र- मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र के विदर्भ में निवास करने वाली जनजातियों को इसमें सम्मिलित किया गया है।

4. दक्षिणी क्षेत्र- भारत के कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, केरल तथा तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों के अन्तर्गत आने वाली जनजातियों को इस क्षेत्र में शामिल किया गया है।

प्रान्तों में रहने वाली जनजातियाँ

भौगोलिक के साथ ही जनजातियों के प्रान्तीय वितरण पर भी दृष्टिपात करना उचित होगा। 

1. उत्तरप्रदेश- भील, भूटिया, बोरा, चेरन, गुज्जर, जौनसारी, कोरवा और थारु।

2. राजस्थान- भील, उमरिया, सेहरिया, मीक्षा और कनोर।

3. पंजाब- वगद्धी और कनोर आदि।

4. तमिलनाडू- बगत, भूमिया, चेंचू, गोंड, गौडस, होल्वा, कौब्स, कोया, पनियन, कोटा, पल्लियान आदि।

5. हिमाचल प्रदेश- गद्धी, गूजर, खम्बा, कन्नर आदि।

6. असम- गारो, खासी, कुकी, लुशाई, देडरी, होजाई, राभा, नागा, आका आदि।

7. बिहार- बंगा, बोदिया, खरिया, खखार, खोण्ड चेरी, गोंड, कोरवा, भूमिज, थारु आदि।

8 . आंध्र- चेंचू, कोटा, नागकन, पौर्ज नकदौर आदि ।

9. मध्यप्रदेश- मैना, कोल, मारिया, भील, भुजिया, काँध, कमार, बहेलिया आदि।

10. पश्चिमी बंगाल- भूटिया, कोडा, कुकी, मुण्डा, संथाल, गारू, टोटो, कुकी आदि। 

भारतीय जनजातियों का वितरण एवं उनकी संख्या एक बड़ी इकाई है। भारत की जनसंख्या का लगभग सात प्रतिशत जनजातियों का है। शासन ने इनको अनुसूचित जनजाति से परिभाषित किया है। इससे इनको कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं। कोल, भील, तथा संथाल तीनों ही जनजातियाँ समस्त जनजातियों का एक-तिहाई हिस्सा है। जनजातियों की गणना करना जनसंख्या सर्वेक्षण के समय भी एक दुरुह कार्य बन जाता है। अविकसित क्षेत्र में यह कार्य और भी दूभर हो जाता है। जनजातियों के भौगोलिक एवं प्रादेशिक वितरण के साथ उनका प्रजातीय वर्गीकरण भी एक महत्व रखता है।

भारत में जनजातियों का भाषायी वितरण

जनजातीय समुदायों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है- इनकी अपनी पृथक भाषा का होना। भारत की अधिकांश जनजातियों की अपनी-अपनी भाषाएँ हैं, जो एक-दूसरे से अलग हैं। हालाँकि इन भाषाओं की कोई लिपि नहीं है। जनजातियों की भाषाओं को जानने तथा भाषा के आधार पर इन जनजातियों की एक अलग पहचान करने जैसी बातों को ध्यान में रखकर, सन् 1961 की जनगणना में जनजातियों की भाषा का एक सर्वेक्षण किया गया। जिससे यह बात सामने आयी कि भारत के सभी क्षेत्रों में विभिन्न जनजातियों की भाषाओं की संख्या 300 से भी अधिक है। इनमें कुछ भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले जनजातीय लोगों की संख्या लाखो में है। इनमें भूमिज, गड़ोबा, हो, करमेली, खारिया, कोल, कोरकू, मुण्डारी, मुण्डा, संताली तथा सोबरा आदि कुछ प्रमुख भाषाएँ हैं। इसके अलावा इस सर्वेक्षण में एक बात यह भी सामने आयी कि कई जनजातियाँ ऐसी भी पायी गई जो किसी एक भाषा विशेष को अपनी मातृभाषा मानने के बाद भी कोई दूसरी भाषा भी बोल लेती हैं।

जनजातियों का भाषायी वितरण

भारत की जनजातियों का भाषा के आधार पर भी एक वर्गीकरण किया जाता है। जिसके आधार पर भारत की जनजातियों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है।

मजूमदार तथा मदान ने भारत की जनजातियों को निम्नांकित स्वरूप में, भाषा के आधार पर विभाजित किया है-

1. द्राविड़ भाषा परिवार (Dravidian Speech Family)- इस भाषा वर्ग के अन्तर्गत आने वाली अधिकांश जनजातियाँ भारत के मध्यवर्ती भाग तथा दक्षिण भारत में पायी जाती हैं। इस वर्ग में जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं को शामिल किया जाता है जिनमें तमिल, तेलुगु, कन्नड़ तथा मलयालम भाषाओं के शब्दों का काफी प्रयोग किया जाता है।

डॉ. मजूमदार ने टोडा, मालेर, औराँव, खोड, मालसर, कादर, इरुला एवं साओरा जनजातियों को इस वर्ग की भाषा बोलने वाली विशेष प्रतिनिधि जनजाति माना है। द्राविड़ भाषा परिवार के अन्तर्गत सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का नाम गोंडी है, जो कई बोलियों में विभाजित है। इस भाषा का विस्तार उड़ीसा व आन्ध्रप्रदेश के कुछ भागों से लेकर वर्तमान झारखण्ड तक है। कुछ मानवशास्त्रियों का मानना है कि इस वर्ग की भाषा बोलने वाली जनजातियाँ ही भारत की सबसे प्राचीन जनजातियाँ हैं, जिनमें सांस्कृतिक अध्ययन के आधार पर भारत की मौलिक सांस्कृतिक विशेषताओं को समझा जा सकता है। 

2. आस्ट्रिक (आग्नेय) भाषा परिवार (Austric Speech Family)- इस भाषा वर्ग की भाषाओं का सम्बन्ध डॉ. मजूमदार ने उन जनजातियों से माना है कि जिनमें प्रोटो-ऑस्ट्रेलाइड प्रजाति की शारीरिक विशेषताएँ सर्वाधिक देखी जाती हैं। इस आधार पर, डॉ. मजूमदार ने द्राविड़ भाषा परिवार से सम्बन्धित जनजातियों की तुलना में आस्ट्रिक भाषाएँ बोलने वाली जनजातियों को प्राचीन माना है। इस भाषा वर्ग से सम्बन्धित अधिकांश जनजातियाँ भारत के मध्यवर्ती तथा पूर्वी भागों में निवास करती हैं। इस तरह मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार का पूर्वी भाग, असम, उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल में रहने वाली अधिकांश जनजातियाँ इसी आग्नेय या आस्ट्रिक भाषा वर्ग से सम्बन्धित है। अण्डमान व निकोबार द्वीप समूह में रहने वाली जनजातियाँ भी इसी वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। इस भाषा वर्ग से सम्बन्धित जनजातियों की संख्या भारत में सर्वाधिक है।

आस्ट्रिक भाषा परिवार की भाषाओं के अन्तर्गत खासी, संथाली, मुंडाली, हो, खरिया, कोरकू, सबारा, भूमिज व निकोबारी आदि भाषाएँ प्रमुख हैं। मध्यप्रदेश की जनजातियों में से अधिकांश जनजातियाँ ऑस्ट्रिक भाषा वर्ग से ही सम्बद्ध है। मुण्डारी, संथाली, हो, भूमिज, कोरकू, मुण्डा तथा खरिया आदि ऐसी भाषाएँ हैं, जिनके बोलने वालों की संख्या-प्रत्येक भाषा की लाखों में है। इस तथ्य के आधार पर कुछ भाषाशास्त्रियों का यहाँ तक मानना है कि मुण्डा भाषा व इससे सम्बन्धित उपभाषाओं को को बोलने वाली जनजातियाँ ही भारत की प्राचीनतम निवासी हैं।

3. चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (Sino-Tibetan Speech Family)- हिमालय से लगे विभिन्न क्षेत्रों, उत्तरी सीमा प्रान्तों, उत्तर-पूर्वी बंगाल और असम के अधिकांश भागों में रहने वाली जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को इस चीनी-तिब्बती भाषा परिवार के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। इस भाषा वर्ग का प्रमुख सम्बन्ध उन जनजातीय समुदायों से है जिनके शारीरिक लक्षण मंगोल प्रजाति के लक्षणों से काफी मिलते-जुलते हैं। काश्मीर, हिमालयप्रदेश, उत्तराँचल के पर्वतीय भागों, बिहार के उत्तरी हिस्सों, उत्तर-पूर्वी बंगाल, असम, अरुणाचलप्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम तथा त्रिपुरा की जनजातियों में इस वर्ग की भाषाएँ प्रमुख रूप से बोली जाती हैं।

चीनी-तिब्बती भाषा वर्ग की भाषा बोलने वाली जनजातियों में प्रमुख जनजातियाँ हैं- मोरिया, डफला, चकमा, गारो, कूकी, खासी, मिरी, गलोंग, पासी, पदम, पंगी, मिशनी, खमटी, सिंहपो, लेपचा तथा नागा आदि।

***निष्कर्ष***

जनजातियों के उपर्युक्त भाषायी वितरण या वर्गीकरण के बावजूद डॉ. मजूमदार का मानना है कि भाषा के आधार पर जनजातियों का वर्गीकरण करना अधिक प्रामाणिक नहीं है। इसका कारण बताते हुए उनका कहना है कि जैसे-जैसे जनजातियों का बाह्य समाजों से सम्पर्क बढ़ता जा रहा है, अधिकांश जनजातियाँ एक से अधिक भाषाएँ बोलने लगी हैं। वहीं कुछ जनजातियाँ ऐसी भी हैं, जिनकी भाषा के मूल तत्वों को समझना काफी मुश्किल- सा है। कुछ इन कारणों से मात्र भाषा के आधार पर जनजातियों का वर्गीकरण करना न्यायसंगत नहीं होगा।

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