वित्तीय प्रशासन का अर्थ
वित्त प्रत्येक संस्था की रक्तवाहिनी है। जिस प्रकार बिना खून के कोई भी मानव शरीर जिन्दा नहीं रह पाता, उसी प्रकार से बिना वित्त के कोई भी संस्था जिन्दा नहीं रह पाती है। चूँकि सरकार जनता की प्रतिनिधि तथा सामाजिक सम्पत्ति की संरक्षक होती है। अतः यह आवश्यक है कि वह लोक आय तथा व्यय का सही हिसाब रखे, लेखों की समय-समय पर जाँच कराये तथा अपने वित्तीय मामलों पर उचित नियन्त्रण रखे। वित्तीय प्रशासन विज्ञान के रूप में राजकीय वित्त को नियन्त्रित करने सम्बन्धी निश्चित सिद्धान्तों एवं नियमों का निर्माण करता है।
गैस्टन जेज के अनुसार, "प्रशासन शासकीय संगठन का वह भाग है जोकि राजकीय आय एवं व्यय में समन्वय, राज्य की ओर से साख की क्रियाओं के प्रबन्ध तथा जनता की वित्तीय क्रियाओं के सामान्य नियन्त्रण के साथ लोक कोषों के संग्रहण, संरक्षण एवं वितरण से सम्बन्धित होता है।"
वित्तीय प्रशासन का क्षेत्र
वित्तीय प्रशासन, राजकीय शासन प्रबन्ध का ही एक अंग है और यह विज्ञान तथा कला दोनों ही है। वित्तीय प्रशासन का क्षेत्र समस्त वित्तीय व्यवस्था तथा वे सिद्धान्त जिन पर वित्तीय आधारित है, एक विस्तृत क्षेत्र है। जिसे निम्न प्रकार से रखा जा सकता है-
- लोक कोषों का संग्रह, संरक्षण तथा वितरण,
- लोक आय तथा व्यय का समायोजन,
- लोक ऋणों की व्यवस्था तथा
- सरकारी वित्तीय मामलों का नियमन तथा नियन्त्रण।
वित्तीय प्रशासन के तत्व व यन्त्र
किसी भी देश की राष्ट्रीय आय उस देश की आर्थिक क्रियाओं की अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है। देश की कार्यकारिणी सरकार की आय एवं ऋणों का संगठन करती है, हिसाब-किताब की पुस्तकों की जाँच, जाँच विभाग द्वारा की जाती है। वित्तीय प्रशासन के मुख्य तन्त्र निम्नलिखित हैं-
(1) उत्तरदायित्व की समस्या- धन को व्यय करते समय अनेक बातों में से ईमानदारी पर विशेष ध्यान दिया जाता है जिससे पूँजी का दुरुपयोग न हो सके। कोष प्रायः करों से प्राप्त होते हैं और विशेष कार्यक्रमों पर संसद की स्वीकृति से व्यय किये जाते हैं।
(2) राजकोषीय नीति का निर्धारण- जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नवीन विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा बताने तथा उसके लिए धन लगाने की नीति का निर्धारण करते हैं।
(3) प्रबन्ध तत्व- इसमें वित्तीय संगठन व वित्तीय प्रशासन को सम्मिलित किया जाता है।
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वित्तीय प्रशासन के सिद्धान्त
वित्तीय प्रशासन की कुशलता हेतु निम्न सिद्धान्तों की रचना की गयी है-
(1) सप्रभाविक नियन्त्रण का सिद्धान्त
कार्यकारिणी एवं विधानसभा की ओर से वित्तीय क्रियाओं का प्रभावपूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए जिससे अव्यवस्था न हो। वित्तीय प्रशासन को कुशल बनाने के लिए उस पर वित्तीय नियन्त्रण होना चाहिए, जिससे उसे आय एवं व्यय में परिवर्तन करने के पूर्ण अधिकार होने चाहिए। इसमें अनियमितता पर रोक तथा सरकारी कानून का कठोरता से पालन किया जाना चाहिए।
(2) सरलता एवं नियमितता का सिद्धान्त
वित्तीय प्रशासन में सरलता का गुण होना चाहिए तथा समय का उचित पालन किया जाना चाहिए। प्रशासन कार्य में अनावश्यक जटिलता नहीं आनी चाहिए तथा स्वीकृति में भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। स्वीकृति समय के अन्तर्गत एवं सरलता से प्राप्त की जानी चाहिए। इस बात का सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए कि वित्तीय प्रशासन में लालफीताशाही को समाप्त करके कार्यप्रणाली में सरलता लायी जाय।
(3) संगठन की एकता का सिद्धान्त
सम्पूर्ण वित्तीय प्रशासन पर केन्द्रीय नियन्त्रण एवं उत्तरदायित्व होना चाहिए, अर्थात् संगठन में एकत्रीकरण होना चाहिए। प्रशासन की कुशलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस व्यक्ति का पता सरलता से लगाया जा सके, जो किसी कार्य विशेष के लिए उत्तरदायी बनाया गया है। यदि वित्तीय प्रशासन का कार्य योग्य व ईमानदार व्यक्तियों द्वारा किया जाता है तो कार्यकुशलता में वृद्धि होगी।
(4) कार्य-संचालन का सिद्धान्त
प्रजातान्त्रिक शासन उसी समय कुशलतापूर्वक चल सकता है, जबकि वित्तीयलों में विधानसभा की इच्छानुसार कार्य किया जा सके। वित्तीय प्रशासन में जनता के हितों की रक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में यह आवश्यक है कि वित्तीय प्रशासन जनता के प्रतिनिधियों के हाथों में ही रहे। संविधान के अन्तर्गत जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था में कार्यकारिणी विधायिका के प्रति तथा विधायिका जनता के प्रति जिम्मेदार रहती है।
(5) एकरूपता का सिद्धान्त
वित्तीय प्रशासन में कुशलता लाने के लिए कार्यों का विभाजन किया जाता है जिसके लिए विभिन्न अंगों में एकरूपता होना आवश्यक है। सभी अंगों का समान उद्देश्य हो तथा उनके ऊपर सर्वोच्च सत्ता का नियन्त्रण होना चाहिए। वित्तीय प्रशासन में एकरूपता लाना अनिवार्य है जिससे कार्यों में नियन्त्रण रखा जा सके।
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भारत में वित्तीय नियन्त्रण
भारत में राजकीय वित्त पर निम्न संस्थाओं द्वारा नियन्त्रण किया जाता है-
(1) वित्त मन्त्रालय (Finance Ministry)
लोक वित्त सम्बन्धी सभी प्रकार के मामलों पर केन्द्र में वित्त मन्त्रालय द्वारा तथा प्रान्तीय स्तर पर वित्त विभागों द्वारा नियन्त्रण रखा जाता है इसके अतिरिक्त, इसका मुख्य कार्य यह देखना है कि सरकारी विभागों में धन का व्यय करने में मितव्ययिता का पालन किया गया है या नहीं। वित्त मन्त्रालय का मुख्य कर्तव्य यह देखना है कि सरकारी विभागों ने उचित रूप से खर्च किया है या नहीं। इसके लिए सरकारी कर्मचारियों को निर्देश देकर व्यय पर पूर्णरूपेण नियन्त्रण लगाया जाता है।
(2) विधानसभा (Legislature)
वित्त सम्बन्धी समस्त मामलों में विधायिका को ही सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होते हैं। इसे नियम वाली सभा भी कहा जाता है। नवीन करों को लगाना, पुराने करों में परिवर्तन करना, आदि सभी कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं। इसके अतिरिक्त, राज्य में व्यय होने वाली राशि का निर्धारण भी इसी को करना पड़ता है व लोक ऋण सम्बन्धी नीतियों का पालन भी किया जाता है। इस प्रकार इस सभा के द्वारा वहाँ क्या करना है और क्या नहीं करना है, आदि बातों के निर्देश कार्यकारिणी को दिये जाते हैं। कार्यकारिणी नियम बनाने वाली सभा के सामने अनेकानेक प्रस्तावों को प्रस्तुत करती है जिन्हें स्वीकार तथा अस्वीकार करना इस सभा पर निर्भर करता है। अपने कार्यों की सहायता के लिये यह दो समितियों का गठन करती है- (i) अनुदान समिति एवं (ii) लोक सेवा समिति।
(3) कार्यकारिणी सभा (Executive)
यह सभा सम्पूर्ण देश के लिए एक सामान्य नीति निर्धारित करती है तथा विभिन्न अधिकारियों के शासन सम्बन्धी कर्तव्यों, उनके वेतन व अवकाश की अवधि तथा पेंशन आदि को निश्चित करती है। यह समिति निम्नलिखित कार्य करती है-
- प्राथमिकता का निर्धारण- केन्द्र एवं राज्य के विकास कार्यों के सम्बन्ध में प्राथमिकता का निर्धारण कर दिया जाता है। इसी प्राथमिकता के आधार पर सरकारी धन को व्यय करने के कार्यक्रम बनाये जाते हैं।
- कुशलतापूर्वक वितरण- विभिन्न योजनाओं में अन्य साधनों को कुशलतापूर्वक वितरण करने का कार्य भी किया जाता है।
- सुझाव देना- सरकार के आर्थिक कार्यों पर समिति द्वारा सुझाव देकर अर्थव्यवस्था को नियमित करने के प्रयास किये जाते हैं।
(4) जाँच विभाग (Audit Department)
कुशल वित्तीय व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि लोक आय-व्यय की जाँच एक स्वतन्त्र जाँच अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए। भारत में यह अधिकारी नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक (Conptroller and Auditor General) होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा ही नियुक्त किया जाता है। इसे राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है। यह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होता है और कार्यकारिणी सभा की त्रुटियों को नियम बनाने वाली सभा के सामने रखता है। यह देश की सर्वोच्च संस्था होती है जो जाँच विभाग का कार्य करती है। इसके अन्तर्गत दिए गए निर्णयों को सभी को मानना पड़ता है। इस निरीक्षक को निम्न दो कार्य करने पड़ते हैं-
- स्वीकृत नियमानुसार व्यय- यह विभाग इस बात की पूरी देखभाल करता है कि व्यय करने हेतु जो राशि विधायिका व कार्यकारिणी द्वारा स्वीकृत की गयी थी, उसी के अनुरूप व्यय हो रहा है या नहीं। यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो यह विभाग व्यय करने पर रोक लगा सकता है।
- वैधानिक अधिकार- इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि कोई भी धन बिना वैधानिक अधिकार प्राप्त किये व्यय न किया जाये।
भारत में वित्तीय प्रशासन
वित्तीय प्रशासन के सम्बन्ध में संघीय संविधान में तीन आधारभूत प्रावधानों का वर्णन किया गया है-
(1) भारत में कोई भी कर कानूनी अधिकारियों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा न तो लगाया और न ही वसूल किया जा सकता है।
(2) लोक आय में से कोई भी व्यय संसद की स्वीकृति के बिना नहीं किया जा सकता है।
(3) प्रबन्धकारिणी द्वारा संसद की स्वीकृति के अनुरूप ही व्यय किया जाता है।