विपणन पर्यावरण (वातावरण) का अर्थ एवं परिभाषा: विपणन पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आन्तरिक एवं बाहरी शक्तियाँ [Marketing Environment]

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विपणनकर्ताओं के लिए विपणन पर्यावरण का समुचित ज्ञान होना परम आवश्यक है जिससे वे पर्यावरण से होने वाले परिवर्तनों के अवसरों से लाभ उठा सकें। यह पर्यावरण निरन्तर बदलता रहता है। एलविन टॉफलर (Alvin Tofflar) ने ठीक ही कहा है कि "पर्यावरण में एक ही चीज स्थायी है और वह है परिवर्तन।" अतः विपणनकर्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बदलते हुए विपणन पर्यावरण पर निरन्तर नजर रखें। एक विपणनकर्ता स्वयं के प्रयासों से, विपणन अनुसन्धान, विक्रेताओं और संगठन के अन्य कर्मचारियों व अधिकारियों से, मध्यस्थों व वितरण कार्य में लगी अन्य एजेन्सियों से विपणन पर्यावरण की सही-सही जानकारी प्राप्त कर सकता है और समय पर सही निर्णय लेकर व्यवसाय को सफलता के मार्ग पर आगे ले जा सकता है।

    भावी चुनौतियों व समस्याओं का सामना करने हेतु भी विपणन पर्यावरण का निरन्तर अध्ययन आवश्यक है। विपणन पर्यावरण के निरन्तर अध्ययन से भावी चुनौतियों व अवसरों का समय पर ज्ञान हो जाता है। इससे विपणन रीति-नीतियों में आवश्यक परिवर्तन करके इन चुनौतियों का अधिक अच्छी प्रकार से सामना किया जा सकता है अथवा अवसरों का लाभ उठाया जा सकता है। इससे व्यवसाय की प्रतिस्पर्धी स्थिति मजबूत होती है।

    बेवस्टर शब्दकोष के अनुसार-"पर्यावरण से आशय उस घेरे में रहने वाली शतों, परिस्थितियों एवं प्रभावों से है जोकि सभी व्यक्तियों तथा जीवित वस्तुओं के जीवन को प्रभावित करती हैं।"

    विपणन पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा
    (MEANING AND DEFINITION OF MARKETING ENVIRONMENT)

    विपणन पर्यावरण से आशय उन बाहरी घटकों व शक्तियों से है जो फर्म की विपणन रीति-नीतियों (Marketing Strategies) को प्रभावित करती हैं। इन शक्तियों पर फर्म का नियन्त्रण नहीं होता। विपणन पर्यावरण बाहरी घटकों का कुल योग है जोकि समूचे उपक्रम को घेरे हुए है। ये घटक विपणन निर्णयन को प्रभावित करते हैं। अतएव इसमें समस्त घटक अथवा शक्तियाँ सम्मिलित होती हैं जो किसी फर्म के विपणन प्रयासों को प्रभावित करते हैं। फिलिप कोटलर के शब्दों में, "विपणन पर्यावरण में फर्म के विपणन प्रबन्धक कार्य के बाहरी घटक व शक्तियाँ सम्मिलित है जो लक्षित ग्राहकों के साथ सफल व्यवहारों का विकास करने और उन्हें बनाये रखने की विपणन प्रबन्ध की योग्यता को आगे बढ़ाती है।" इस प्रकार स्पष्ट है कि विपणन पर्यावरण में बाहरी अनियन्त्रणीय शक्तियों को सम्मिलित किया जाता है और इस पर्यावरण के उचित अध्ययन पर ही विपणन प्रबन्ध की सफलता निर्भर करती है।

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    विपणन पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आन्तरिक एवं बाहरी शक्तियाँ
    (INTERNAL AND EXTERNAL FORCES OF MARKETING ENVIRONMENT)

    विपणन पर्यावरणीय शक्तियाँ मुख्य रूप से निम्न दो प्रकार की होती हैं-  

    (I) बाहरी शक्तियाँ एवं (II) आन्तरिक शक्तियाँ।

    (I) बाहरी शक्तियाँ (External Forces) 

    बाहरी शक्तियाँ साधारणतया अनियन्त्रणीय होती है और विपणन सम्बन्धी निर्णय लेते समय इन शक्तियों की ओर पूर्ण ध्यान देना चाहिए। इन बाहरी शक्तियों को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

    • वृहत् या मेक्रो (Macro) पर्यावरणीय शक्तियाँ । 
    • सूक्ष्म या माइक्रो (Micro) पर्यावरणीय शक्तियाँ ।

    वृहत् पर्यावरणीय शक्तियाँ फर्म की बाहरी शक्तियाँ हैं जो आस-पास के पर्यावरण (वातावरण) में पायी जाती हैं। ये शक्तियाँ कम्पनी की विपणन नीतियों को प्रभावित करती हैं। इनमें (i) जनांकिकी, (ii) आर्थिक दशाएँ, (iii) सामाजिक और सांस्कृतिक, (iv) वैधानिक व राजनीतिक, (v) वैज्ञानिक एवं प्राविधिक आदि से सम्बन्धित शक्तियों को सम्मिलित किया जाता है।

    सूक्ष्म पर्यावरणीय शक्तियाँ कम्पनी विशेष से सम्बन्धित होती हैं और कम्पनी की विपणन प्रणाली का ही एक भाग होती हैं। इनमें पूर्तिकर्ता, मध्यस्थ, ग्राहक, प्रतिस्पर्दी, जनता, कम्पनी का विपणन संगठन आदि को सम्मिलित किया जाता है।

    विपणन पर्यावरण (वातावरण) का अर्थ एवं परिभाषा: विपणन पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आन्तरिक एवं बाहरी शक्तियाँ [MARKETING ENVIRONMENT]

    (II) आन्तरिक शक्तियाँ (Internal Forces) 

    कम्पनी की आन्तरिक शक्तियाँ या गैर-विपणन संसाधनों में दो समूहों को सम्मिलित किया जाता है- (i) निगम संसाधन (मानवीय एवं गैर-मानवीय) अर्थात वित्तीय एवं सेविवर्गीय क्षमता, अनुसन्धान एवं विकास क्षमता, व्यवसाय की स्थिति (Location), जन छवि आदि और (ii) विपणन अन्तर्लय (Marketing Mix) के भाग- उत्पाद, मूल्य ढाँचा, संवर्द्धन क्रियाएँ और भौतिक वितरण प्रणाली ।

    आन्तरिक शक्तियाँ सामान्यतः नियन्त्रणीय होती हैं और इन्हें नियन्त्रणीय घटकों के नाम से जाना जाता है। अतः विपणन पर्यावरण की इन बाहरी एवं आन्तरिक शक्तियों का विस्तृत वर्णन हम यहाँ इस प्रकार प्रस्तुत कर रहे है।

    (1) विपणन पर्यावरण की बाहरी शक्तियाँ: वृहत पर्यावरणीय घटक
    (EXTERNAL FORCES OF MARKETING ENVIRONMENT: THE MACRO ENVIRONMENTAL FACTORS)

    विपणन पर्यावरण की बाहरी शक्तियों वृहत् पर्यावरणीय घटक कहलाती हैं। ये आस-पास के वातावरण में पायी जाती हैं। ये वृहत् पर्यावरणीय शक्तियाँ अथवा घटक अनियन्त्रित होते हैं और विपणन निर्णयों को प्रभावित करते हैं।

    विपणन प्रबन्ध के लिए यह अनिवार्य है कि वह इन वृहत् पर्यावरणीय शक्तियों अथवा घटकों के साथ निरन्तर सम्पर्क बनाये रखे। सफल विपणन हेतु विपणन योजनाओं एवं नीतियों में इन शक्तियों के साथ समुचित समायोजन रखा जाना चाहिए और सम्भव हो तो इससे लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। ये शक्तियाँ अनियन्त्रणीय होने के कारण विपणन संगठन की क्रियाओं में सीमाओं के रूप में होती हैं। ये बाहरी शक्तियाँ अथवा वृहत पर्यावरणीय घटक निम्नलिखित हैं-

    (1) जनांकिकी पर्यावरण (Demographic Environment)

    इसके अन्तर्गत जनसंख्या की संरचना, आयु समूह, लिग (Sex) के अनुसार विभाजन, आय समूह आदि को सम्मिलित किया जाता है। जनांकिकी या जनसंख्या सम्बन्धी इन सूचनाओं के सही ज्ञान के अभाव में एक विपणनकर्ता विपणन कार्य में सफल नहीं हो सकता क्योंकि जिन लोगों (प्राहकों) की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना है, उनके बारे में यह जानना आवश्यक है कि उनकी आयु, लिंग व आय कैसी है। और वे कितनी राशि खर्च करने को तैयार है? साथ ही एक विशेष आयु पर भी विभिन्न व्यक्तियों की आवश्यकताओं में भिन्नता होती है। और उत्पादन को विशिष्ट माँग के अनुसार ही तैयार करना होता है। जनांकिकी सम्बन्धी अध्ययन उपभोक्ताओं के बारे में वे सभी सूचनाएँ प्रदान करता है जो बाजार विभक्तिकरण (Market Segmentation) के लिए आवश्यक हैं।

    जनसंख्या का गुणात्मक व संख्यात्मक अध्ययन उपभोक्ता माँग की प्रकृति को स्पष्ट करता है। इससे भावी माँग के बारे में जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी देश में जनसंख्या वृद्धि तेजी से होने की सम्भावना है तो बच्चों के लिए खाद्य सामग्री तैयार करने वाली एक कम्पनी आसानी से यह अनुमान लगा सकती है कि भविष्य में उसके उत्पादों की माँग बढ़ेगी। इसके विपरीत, जन्म दर पर नियन्त्रण के कारण यदि भविष्य में जनसंख्या वृद्धि की कम सम्भावना है तो ऐसी कम्पनी अपने उत्पादों की माँग में वृद्धि की विशेष सम्भावना नहीं रखती । अतः उसे भावी बाजार माँग के अनुरूप ही अपना विपणन कार्यक्रम तैयार करना चाहिए।

    यह उल्लेखनीय है जनसंख्या के संख्यात्मक अध्ययन में जनसंख्या संरचना, आय, आयु, लिंग, धन्धे के अनुसार उसका विभाजन आदि सम्मिलित हैं, जबकि गुणात्मक अध्ययन में उपभोक्ताओं का व्यक्तित्व, प्रवृत्तियाँ (Attitudes), प्रेरणाएँ (Incentives) एवं ज्ञान (Perception) आदि को सम्मिलित किया जाता है।

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    (2) आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment) 

    आर्थिक पर्यावरण से आशय उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति और व्यय करने की इच्छा से है। आर्थिक वातावरण पर ही प्रभावी माँग निर्भर करती है। तीव्र आर्थिक विकास से रोजगार व आय के स्तर में वृद्धि होती है और परिणामस्त्ररूप अनेक उत्पादों में विपणन अवसरों में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार आर्थिक पर्यावरण भी विपणन पर्यावरण को प्रभावित करता है।

    विपणन योजनाओं और कार्यक्रमों पर अनेक आर्थिक घटकों, जैसे- ब्याज दर, मुद्रा की पूर्ति, मूल्य स्तर, उपभोक्ता साख आदि का भी प्रभाव पड़ता है। ब्याज दरों में वृद्धि का किश्तों पर बेचे जाने वाले उपभोक्ता टिकाऊ उत्पादों के विपणन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार विदेशी विनिमय दरों में उच्चावचन, मुद्रा अवमूल्यन (Devaluation) आदि का अन्तर्राष्ट्रीय विपणन पर प्रभाव पड़ता है। कर्मचारियों का घर ले जाने वाला वास्तविक वेतन (Net take home salary) खर्च योग्य वैयक्तिक आय का निर्धारण करता है जो विपणन कार्यक्रमों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।

    गत कुछ वर्षों में मुद्रा प्रसार की प्रवृत्ति पाई जाने के कारण मूल्य स्तर में निरन्तर तेजी से वृद्धि हुई है। एक ओर मूल्यों में तीव वृद्धि व दूसरी ओर वस्तुओं के अभाव ने देश के आर्थिक ढाँचे के सम्मुख संकट पैदा कर दिया है। अनेक प्रकार के क्रय (Purchases) या तो टाले जा रहे हैं या पूर्ण रूप से समाप्त हो हो गये हैं। पेट्रोल को बढ़ती हुई कीमतों ने छोटी कार की माँग को बढ़ा दिया है। हमारे देश में भी 'मारुति' की माँग का बढ़ना व 'अम्बेसेडर' व 'प्रीमियर प‌द्मनी' की माँग का कम होना इसी बात का परिचायक है। बढ़ते हुए मूल्यों का उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं की माँग पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है।

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    (3) सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण व दशाएँ (Social and Cultural Environment and Conditions) 

    हमारा समाज परिवर्तनशील है। समय के साथ अनेक प्रकार की नयी माँगें (Demands) पैदा होती हैं और पुरानी माँगें समाप्त हो जाती हैं। विपणन प्रबन्ध के लिए यह आवश्यक है कि वह बदलती हुई माँग के अनुरूप विपणन योजनाएँ तैयार करके नवीन सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करे।

    अतः सामाजिक पर्यावरण के निम्न तीन प्रमुख पहलू हैं-

    (i) जीवन शैलियों व सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन (Change in Life Styles and Social Values): हमारी जीवन शैलियों व सामाजिक मूल्य बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए, समाज में स्त्रियों की भूमिका में परिवर्तन (गृहणी से एक कार्यशील महिला), लोगों का वस्तुओं की संख्या या मात्रा के स्थान पर उनकी किस्म की ओर अधिक ध्यान देना, सरकार पर हमारी निर्भरता में वृद्धि, मनोरंजन क्रियाओं को अधिक प्राथमिकता दिया जाना, लोगों में पैसा बचाने के स्थान पर अधिकाधिक व्यय करने यहाँ तक कि उधार पर क्रय करने की प्रवृत्ति का बढ़ना, सैक्स सम्बन्धी स्वतन्त्रता में वृद्धि स्थगित सुख सन्तोष के स्थान पर तुरन्त सुख पर अधिक ध्यान आदि।

    (ii) प्रमुख सामाजिक समस्याएँ (Major Social Problems): पर्यावरण प्रदूषण के प्रति चिन्ता, सामाजिक उत्तरदायित्वपूर्ण विपणन नीतियाँ, विभिन्न प्रकार के रोजगारों में सुरक्षा की आवश्यकता, अपूरणीय (Irreplacesable) संसाधनों का संरक्षण, गन्दी बस्तियों, ग्रामीण क्षेत्रों व निम्न आय वर्ग के लोगों को उत्पादों का विपणन आदि ।

    (iii) बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद (Growing Consumerism): गत कुछ दशकों विशेष रूप से 1960 के बाद से बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद जो उपभोक्ता असन्तोष उनकी बढ़ती हुई व प्रतीक है। आकांक्षाओं का यह उपभोक्तावाद दो मुख्य घटकों का परिणाम हैं- प्रथम, उपभोक्ताओं का बढ़ता हुआ शैक्षणिक स्तर और द्वितीय, वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति। शिक्षा प्रसार के कारण उपभोक्ता उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर सावधानीपूर्वक जाँच कर सकते हैं और विभिन्न वैकल्पिक उत्पादों में से अधिक विवेकसंगत चुनाव कर सकते हैं। वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति से यह स्पष्ट हो गया है कि अनेक असम्भव समझी जाने वाली क्रियाएँ भी अब सम्भव हैं, जैसे- चन्द्रमा पर व्यक्ति का पहुँचना, परखनली से शिशु का जन्म, विश्व के किसी भी भाग के मानव का दूसरे मानव के साथ संचार सम्पर्क आदि।

    शिक्षा प्रसार एवं वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति ने उपभोक्ता आकांक्षाओं में वृद्धि की है और वह उत्पाद सन्तुष्टि के प्रति अधिक सजग हो गया है। जब उपभोक्ता की उत्पाद के प्रति आकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वे मिलकर इसका विरोध करते हैं और सुधार हेत आन्दोलन का भी सहारा लेते हैं।

    सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व और ग्राहक-अभिमुखी विपणन विचार के महत्व में वृद्धि के लिए भी उत्तरदायी है। विपणन का सामाजिक विचार तो उपभोक्ता कल्याण के साथ-साथ जन कल्याण या नागरिक कल्याण तक विस्तृत है। आज विपणनकर्ताओं को न केवल भौतिक जीवन स्तर में वृद्धि के लक्ष्य को पूरा करना है बल्कि पर्यावरण को प्रदूषण रहित रखकर मानवीय जीवन को बेहतर बनाये रखने का भी प्रयास करना है।

    (4) जन नीति पर्यावरण या वैधानिक एवं राजनीतिक शक्तियाँ (Public Policy Environment or Legal and Political Forces) 

    विपणन क्रियाओं और व्यावसायिक क्रियाकलापों में राजनीतिक एवं वैधानिक शक्तियों का महत्व निरन्तर बढ़ रहा है। सरकार की मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियाँ (Monetary and Fiscal Policies), आयात-निर्यात नीतियाँ, सीमा शुल्क (Customs Duties) आदि विपणन प्रणाली (Marketing System) को प्रभावित करते हैं। उपभोक्ता सम्बन्धी अधिनियम उपभोक्ता हितों के संरक्षण का प्रयास करते हैं। हमारे देश में तो एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार नियम हेतु भी अधिनियम है। विपणन प्रबन्धक को इन सभी कानूनों का ध्यान रखना होता है। इन कानूनों के प्रावधानों की अनदेखी नहीं की जा सकती।

    जननीति पर्यावरण अर्थात् वैधानिक एवं राजनीतिक शक्तियाँ विपणन प्रबन्ध को प्रभावित करती हैं। एक व्यावसायिक उपक्रम को मूल्य विभेद (Price Discrimation), झूठे भ्रामक विज्ञापन, धोखा देने वाले विक्रय संवर्द्धन साधन, नवीन प्रतिस्पर्धियों के प्रवेश पर रोक आदि अनुचित व्यापारिक क्रियाओं को करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सरकारी नीतियाँ व नियन्त्रण विपणन क्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

    (5) वैज्ञानिक व तकनीकी पर्यावरण घटक (Scientific and Technological Environment Factors) 

    वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास का हमारे जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ा है। हमारी जीवन-शैली, उपभोग प्रांरूप आदि में तेजी से परिवर्तन आया है। विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में रहन-सहन की दशाएं पूरी तरह से बदल गई हैं। निरन्तर बढ़ते हुए बाजार ने तकनीकी प्रगति के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। अधिकांश दशाओं में बाजार ही आविष्कार का कारण बने हैं। बाजार आवश्यकताओं की पूर्ति करके लाभ कमाने की भावना अनुसन्धान एवं विकास द्वारा आविष्कारों के लिए मुख्य प्रेरणा बनी है।

    वैज्ञानिक व तकनीकी विकास ने विपणन की नवीन सम्भावनाओं को जन्म दिया है। आज अनेक ऐसे उत्पाद बाजार में लोकप्रिय हैं जिनके बारे में उपभोक्ता कुछ वर्ष पूर्व तक परिचित नहीं थे। इलेक्ट्रॉनिक उद्योग इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। कम्प्यूटर उद्योग भी पूर्णतः नया उद्योग है। अनेक देशों में कृत्रिम रेशे से बने वस्त्रों ने शुद्ध सूती वस्त्र उद्योग को लगभग समाप्त कर दिया है। टेलीविजन ने रेडियो और सिनेमा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। औद्योगिक दृष्टि से विकसित राष्ट्रों की आम गृहणी द्वारा आज उपयोग किये जाने वाले खाद्य उत्पादों में से 70 प्रतिशत उत्पाद ऐसे हैं जो 30-40 वर्ष पूर्व अस्तित्व में ही नहीं थे।

    तकनीकी ज्ञान के विकास के कुछ बुरे प्रभाव भी हुए हैं, जैसे- प्रदूषित पर्यावरण, स्वास्थ्य सम्बन्धी संकट, बेरोजगारी, यातायात में परेशानी आदि।

    तकनीकी विकास का उत्पाद विकास, पैकेजिंग, संवर्द्धन, मूल्य (Price) और वितरण प्रणालियों पर भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। एक फर्म या कम्पनी द्वारा तकनीकी विकास का किस सीमा तक प्रयोग किया जाय, यह इस बात पर निर्भर करता है कि फर्म उस तकनीक का किस सीमा तक उपयोग करने में सक्षम है, उपभोक्ता तकनीकी दृष्टि से विकसित उत्पादों को क्रय करने के लिए किस सीमा तक तैयार व सक्षम है, ऐसी तकनीक का प्रतिस्पर्धी उपकरण के रूप में किस सीमा तक उपयोग किया जा सकता है आदि।

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    (6) प्रतियोगी पर्यावरण (Competitive Environment)

    प्रजातान्त्रिक समाज में बाजार में प्रतिस्पर्द्धा का होना सुद्ध बाजार के लिए आवश्यक है। प्रतिस्पर्धा मूल्य सम्बन्धी या मूल्यविहीन (Non-price) हो सकती है। फुटकर व्यापार में मूल्य या कीमत प्रतिस्पर्द्धा का विशेष महत्व होता है, जबकि निर्माताओं के लिए मूल्यविहीन प्रतिस्पर्द्धा विशेष महत्व रखती है। स्वतन्त्र बाजार अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा का मूल्यांकन किये बिना कोई भी महत्वपूर्ण विपणन निर्णय नहीं लिया जा सकता। ऐसी अर्थव्यवस्था में विपणन प्रबन्धक का प्रतिस्पर्धियों की क्रियाओं पर कोई नियन्त्रण नहीं होता। उसे प्रतिस्पर्धियों की क्रियाओं का पूर्वानुमान लगाकर उनका सामना करने हेतु आवश्यक कार्यवाही करनी होती है। 

    कम्पनी की विपणन रीति-नीतियों पर भी प्रतिस्पर्द्धा का प्रभाव पड़ता है। लक्षित बाजार (Target Market), पूर्तिकर्ता, विपणन वाहिका, उत्पाद अन्तर्लय (Mix), संवर्द्धन अन्तर्लय आदि का चुनाव करते समय प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति का अध्ययन करना आवश्यक है। वास्तव में, विपणन अन्तर्लय (Marketing Mix) का निर्माण प्रतिस्पर्धियों की क्रियाओं के पूर्वानुमान पर आधारित होता है। वास्तव में, विपणन रीति-नीति स्वयं में एक ऐसी योजना है जो प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने एवं उसमें विजय प्राप्त करने के लिए तैयार की जाती है। एक आक्रामक विपणन प्रबन्धक को यह जानना चाहिए कि उसके द्वारा तैयार किया गया विपणन अन्तर्लय प्रतिस्पर्द्धा को प्रोत्साहित करेगा, अतः स्वयं की स्थिति का मूल्यांकन करते समय उसे प्रतिस्पर्धी प्रतिक्रियाओं की प्रकृति का भी पूर्वानुमान लगा लेना चाहिए। इसी प्रकार उसे यह भी जान लेना चाहिए कि जल्दी या देर से प्रतिस्पद्धियों की क्रियाएँ उसके विपणन अवसरों को सीमित कर देंगी।

    प्रतिस्पर्धी वातावरण में अपनी स्थिति को मजबूत बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि विपणन प्रबन्धक प्रतिस्पर्द्धियों को चालों (Moves) या क्रियाओं का पूर्वानुमान करते हुए उपयुक्त विपणन रीति-नीतियों का निर्माण करे। उसे न केवल अपने उद्योग के प्रतिस्पर्द्धियों बल्कि दूसरे उद्योगों के प्रतिस्पद्धियों के प्रति भी सजग रहना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पूर्व सूती वस्त्र उद्योग की इकाइयों को सिन्थेटिक वस्त्र उद्योग के प्रादुर्भाव के कारण बाजार के एक बड़े भाग से हाथ धोना पड़ा।

    (7) ग्राहक अथवा उपभोक्ता माँग पर्यावरण (Customer or Consumer Demand Environ- ment)

    उपभोक्ता माँग निरन्तर बदलती रहती है और इसका सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। ग्राहक-अभिमुखी विपणन विचारधारा के अन्तर्गत विपणन क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु ग्राहकों की आवश्यकताएँ व इच्छाएँ ही होती हैं। विपणन नीतियाँ व कार्यक्रम ग्राहक आवश्यकता सन्तुष्टि के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही संगठित व क्रियान्वित किये जाते हैं। पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार व्यावसायिक उद्देश्य की एक ही वैध परिभाषा है- ग्राहक तैयार करना (To Create Customer)। एक व्यावसायिक उपक्रम का उद्देश्य ग्राहक सन्तुष्टि द्वारा लाभ-कमाना होता है। वर्तमान में तो विपणन क्रिया ग्राहक से शुद्ध होती है और प्राहक से हो उसका अन्त होता है। सर्वप्रथम ग्राहकों का अर्थात् बाजार का पता लगाया जाता है, उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुएँ व सेवाएँ तैयार की जाती हैं, तत्पश्चात् उपयुक्त विपणन वाहिकाओं द्वारा चाहे गये मूल्यों पर उन्हें ग्राहकों तक पहुँचाया जाता है और उनकी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हुए लाभ कमाया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि वस्तु का पुनः विक्रय ग्राहक सन्तुष्टि की अवस्था में ही सम्भव है।

    (8) परिस्थिति-विज्ञान या प्रकृति या प्राकृतिक पर्यावरण (Ecology of Nature or Physical Environment)

    आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में विपणन के विस्तृत विचार के रूप में प्राकृतिक पर्यावरण उत्पादन व विपणन के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। प्रकृति विशेषज्ञ सम्पूर्ण प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण और उसे बचाये रखने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। यह कहा जाता है कि विकसित राष्ट्रों में उच्च उपभोग आर्थिक प्रणाली में प्रदूषण (Pollution) अपरिहार्य-सा है। आज एक विपणनकर्ता को न केवल ग्राहकों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना होता है बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु यह भी ध्यान रखना होता है कि उसकी क्रियाओं का समाज के हितों पर विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। भावी विपणनकर्ताओं को तो मानव जीवन व पर्यावरण को अच्छा रखने हेतु विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होगी। विपणनकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे सीमित संसाधनों के संरक्षण व वितरण की समुचित व्यवस्था करें और समाज कल्याण में वृद्धि हेतु सक्रिय प्रयास करें। प्राकृतिक पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने हेतु आवश्यक है कि सभी प्रकार के प्रदूषणों को रोका जाये और सीमित संसाधनों का कुशलतम उपयोग किया जाये। अतः विपणन रीति-नीतियों में ऊर्जा व प्राकृतिक संसाधनों के मितव्ययी व कुशल उपयोग पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए।

    आज तो सरकार स्वयं भी प्रदूषण को रोकने व पर्यावरण को अच्छा बनाये रखने हेतु प्रयासरत है। व्यवसायियों को चाहिए कि वे इस कार्य में यथासम्भव सरकार के साथ सहयोग करें और प्रदूषण निवारण सम्बन्धी नियमों व वैधानिक व्यवस्थाओं का पालन करें।

    विपणन पर्यावरण (वातावरण) का अर्थ एवं परिभाषा: विपणन पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आन्तरिक एवं बाहरी शक्तियाँ [MARKETING ENVIRONMENT]

    (II) विपणन पर्यावरण की आन्तरिक शक्तियाँ: सूक्ष्म पर्यावरणीय घटक (INTERNAL FORCES OF MARKETING ENVIRONMENT-THE MICRO ENVIRONMENTAL FACTORS)

    विपणन पर्यावरण की आन्तरिक शक्तियों अथवा सूक्ष्म पर्यावरणीय घटकों से आशय उन शक्तियों से है जिन पर विपणन प्रबन्धक का नियन्त्रण रहता है। वह इन शक्तियों में आवश्यक परिवर्तन करने की स्थिति में रहता है। आन्तरिक शक्तियों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

    (1) कम्पनी संसाधन ( Company's Resources)

    (i) पूँजी या वित्तीय संसाधन (Capital or Financial Resources)- भूमि व भवन, मशीनरी, कच्चा माल आदि का क्रय करने व व्यवसाय की दैनिक क्रियाओं के संचालन के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है। इन वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था का कार्य विपणन अधिकारियों द्वारा न किया जाकर प्रायः वित्तीय अधिकारियों द्वारा किया जाता है।

    (ii) सामग्री (Materials)- विभिन्न प्रकार के कल-पुर्जे, कच्चे माल की पूर्ति व ऊर्जा (Energy) संसाधन सामग्री में सम्मिलित किये जाते हैं। अधिकांश सामग्री का उपयोग उत्पाद कर्मचारियों द्वारा किया जाता है परन्तु इन सामग्रियों के क्रय का कार्य विपणन विभाग के कार्यक्षेत्र में ही आता है।

    (iii) मानवीय संसाधन (Human nan Resources)- इसमें सभी प्रकार के कर्मचारियों व अधिकारियों को सम्मिलित किया जाता है। विपणन कर्मचारियों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और पर्यवेक्षण हेतु सेविवर्गीय विभाग व विपणन विभाग में निकट सहयोग आवश्यक है।

    (iv) सूचनाएँ (Informations)- सूचनाओं से आशय आन्तरिक, अनुसन्धान सम्बन्धी व गुप्त सूचनाओं से है। अनुसन्धान सम्बन्धी सूचनाएँ सर्वेक्षण द्वारा एकत्र की जाती हैं और इनका उपयोग विपणन कार्यक्रमों में किया जाता है।

    (v) पूतिकर्ता (Suppliers)- पूर्तिकर्ता एकाकी अथवा व्यावसायिक गृह होते हैं जोकि किसी कम्पनी को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराते हैं। कम्पनी को ऐसे पूर्तिकर्ताओं का चयन करना चाहिए जोकि उसको पर्याप्त मात्रा में माल, यथासमय, उत्तम किस्म, उचित शतों (जैसे साख) एवं उचित मूल्यों पर दे सकें। पूर्तिकर्ता वातावरण में होने वाले विकास कम्पनी के विपणन निर्णयों को प्रभावित करते हैं।

    (vi) व्यवसाय की स्थिति (Location of Business)।

    (vii) अनुसन्धान व विकास कार्यक्रम (Research and Development Programmes)।

    (viii) जन छवि (Public Image) आदि।

    (2) विपणन अन्तर्लय या विपणन मिश्रण (Marketing Mix)

    विपणन अन्तर्लय से आशय उन सभी विपणन निर्णयों से है जो विक्रय को प्रेरित या प्रोत्साहित करते हैं। डावर के अनुसार, "निर्माताओं द्वारा बाजार में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयोग की जाने वाली विपणन नीतियाँ विपणन अन्तर्लय का निर्माण करती हैं।" विपणन अन्तर्लय व्यवसाय के प्रत्येक क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण होता है चाहे वह कीमत क्षेत्र हो या संवर्द्धन क्षेत्र, वितरण क्षेत्र हो या उत्पादन क्षेत्र। यह उल्लेखनीय है कि मेकार्थी (McCarthy) ने विपणन अन्तर्लय में चार मुख्य विपणन चलों को सम्मिलित किया है- उत्पाद (Product), स्थान (Place), प्रवर्तन (Promotion) तथा कीमत (Price)। इन्हें विपणन अन्तर्लय के चार 'पी' (Four 'P's) के नाम से भी जाना जाता है।

    विपणन अन्तर्लय कम्पनी की विपणन प्रणाली का मुख्य भाग होता है। कोटलर के अनुसार विपणन अन्तर्लय नियन्त्रणीय चलों का एक ऐसा समूह है जिसका प्रयोग क्रेताओं के क्रय निर्णयों को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि विपणन अन्तर्लय के सभी तत्व नियन्त्रणीय होते हैं और विपणन प्रबन्धक समय व परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार इनमें परिवर्तन कर सकता है। 

    अतः विपणन मिश्रण के प्रमुख तत्व निम्न हैं- 

    • सामान्य नियोजन, 
    • उत्पाद नियोजन, 
    • कीमत निर्धारण, 
    • वितरण वाहिकाएँ, 
    • विक्रय शक्ति, 
    • विज्ञापन और विक्रय संवर्द्धन, 
    • भौतिक वितरण तथा 
    • विपणन अनुसन्धान ।

    पर्यावरणीय परिवर्तनों का सामना करना
    (MEETING ENVIRONMENTAL CHANGES)

    किसी भी फर्म के लिए विपणन पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का विशेष महत्व है। ये परिवर्तन फर्म के विपणन पर गम्भीर विपरीत प्रभाव भी डालते हैं जिससे फर्म का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। सामाजिक व आर्थिक पर्यावरण में परिवर्तन, उपभोक्त की प्राथमिकताओं में परिवर्तन, प्रतिस्पर्द्धा द्वारा अपनाई गई नई रीति-नीति (Strategy), तकनीकी परिवर्तन आदि पर्यावरणीय परिवर्तन फर्म के विपणन को प्रभावित करते हैं। ऐसे विपणन पर्यावरणीय परिवर्तनों का सामना करने के लिए एक विपणन प्रबन्धक को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए-

    (1) पर्यावरण का पूर्वानुमान करना (Anticipate Change)

    एक विपणन प्रबन्धक को पर्यावरणीय शक्तियों पर निरन्तर नजर रखनी चाहिए जिससे वह परिवर्तनों का पूर्वानुमान कर सके। यदि विपणन प्रबन्धक इस बात से अवगत है कि पर्यावरणीय शक्तियाँ निरन्तर बदलती रहता हैं तो वह उनके साथ आसानी से समायोजन करके उनका सामना कर सकता है।

    (2) लोच (Flexible) 

    विपणन योजनाएँ व नीतियाँ इस प्रकार से बनायी जानी चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर अल्प समय में ही उनमें परिवर्तन किया जा सके। विज्ञापन व विक्रय संवर्द्धन नीतियाँ, उत्पाद नियोजन नीतियाँ आदि में लोच होना आवश्यक है।

    (3) प्रगतिशील (Progressive) 

    विपणन अधिकारियों का प्रगतिशील होना भी आवश्यक है। उन्हें नवीनतम परिवर्तनों का पूरा ज्ञान होना चाहिए। अनुसन्धान व विकास क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे परिवर्तनों के सम्बन्ध में आवश्यक समायोजन आसान हो जाता है।

    वृहत् पर्यावरणीय घटकों का विपणन निर्णयों पर प्रभाव
    (IMPACT OF MACRO ENVIRONMENTAL FACTORS ON MARKETING DECISIONS)

    वृहत् पर्यावरणीय घटक वे घटक होते हैं जोकि बाहरी होते हैं और तत्काल पर्यावरण से सम्बन्धित नहीं होते हैं। वृहत् पर्यायवरणीय घटक अनियन्त्रणीय होते हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से विपणन की क्रियाशील शक्ति को प्रभावित करते हैं। कम्पनी इनका उपयोग निजी लाभ के लिए करती है। कम्पनी के विपणन सम्बन्धी निर्णयों को पर्यावरणीय घटक निम्न प्रकार से प्रभावित करते हैं-

    (1) जनांकिकी घटक/शक्तियाँ (Demograph Factors/Forces) 

    लुइसी जी. पोल (Louise G. Pol) के अनुसार पृथक् वृहत् पर्यावरणीय घटक जो विपणनकर्ताओं को प्रभावित करते हैं, वह है जनसंख्या। विपणकर्ताओं की गहरी दिलचस्पी विश्व जनसंख्या के आकार, उसके भौगोलिक वितरण, घनत्व, चलायमान प्रवृत्तियाँ, आयु वितरण, जन्म दर, मृत्यु दर, विवाह, जाति, वंश तथा धार्मिक ढाँचा में होती है। जनांकिकी घटकों अथवा शक्तियों का विपणन निर्णयों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जनांकिकी आँकड़े भौगोलिक विपणन योजनाओं, घरेलू विपणन योजनाओं, आयु एवं लिंग के अनुसार अनुसार योजनाओं को तैयार। करने में सहायता करते हैं। अल्पकाल में ये योजनाएँ विश्वसनीय सिद्ध हो सकती हैं। अच्छे परिणामों को प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक इकाई प्रमुख जनांकिकी प्रवृत्तियों की भविष्यवाणी कर सकती है। चूँकि जनसंख्या की प्रवृत्ति पर विपणनकर्ता का कोई नियन्त्रण नहीं होता। अतएव उस पर उसे पैनी निगाह रखनी पड़ती ती है है क्योंकि इसमें होने वाला किसी प्रकार का परिवर्तन उसके विपणन निर्णयों को प्रभावित कर सकता है।

    (2) आर्थिक पर्यावरण घटक/शक्तियाँ (Economic Environment Factors/Forces)

    आर्थिक पर्यावरण के अधीन विपणन प्रबन्धक सामान्यतः निम्न घटकों एवं प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है- 

    • भौगोलिक आय वितरण और उसकी प्रवृत्तियों में उतार-चढ़ाव ।
    • व्यय करने का ढंग एवं प्रवृत्तियाँ ।
    • उपभोक्ताओं की बचत करने की प्रवृत्तियाँ।
    • रहन-सहन का स्तर ।
    • ब्याज दरें।
    • उधार लेने की प्रवृत्ति तथा उस पर सरकारी एवं वैधानिक प्रतिबन्ध ।
    • खर्च करने योग्य आय का अनुपात ।
    • वास्तविक आय वृद्धि।
    • भुगतान की शर्तें।
    • रहने का व्यय।

    उपरोक्त घटकों/प्रवृत्तियों से लोगों की क्रय-शक्ति, बचत करने की क्षमता, खर्च करने की प्रवृत्ति तथा साख की उपलब्धता आदि के बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन आर्थिक घटकों/शक्तियों का अध्ययन प्रभावी विपणन योजनाओं को तैयार करने के लिए परम आवश्यक है। इन्हीं के आधार पर विपणन व्यूहरचनाएँ तैयार की जा सकती हैं। किस समय कौन-सी विपणन व्यूहरचना करनी चाहिए, यह निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाता है-

    विभिन्न आर्थिक अवस्थाओं का विपणन निर्णयों पर प्रभाव 
    (Impact of Different Economic Stages on Marketing Decisions)

    आर्थिक अवस्था (Economic Stage)

    उत्पाद (Product)

    मूल्य (Price)

    स्थान (Place)

    संवर्द्धन (Promotion)

    1. मन्दी की अवस्था (Recession Stage)

     

     

     

     

     

     

     

     

     

    1. उत्पाद रेखा में कमी करो।

    2. सस्ते क्रियात्मक उत्पाद प्रस्तुत करो।

    3. लागत में कमी करो।

     

    1. मूल्यों में कमी।

    2. साख सुविधाएँ।

    3. विभिन्न रियायतों एवं छूटों की घोषणा।

     

    1. वितरण वाहिकाओं में वृद्धि ।

    2. ग्राहकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क।

     

    1. विक्रय संवर्द्धन योजनाओं के द्वारा माँग में वृद्धि करो।

    2. विक्रेताओं को अधिक माल बेचने के लिए अभिप्रेरित करो।

    3. प्रतियोगी क्षमता में वृद्धि करो।

     

    2. तेजी अथवा मुद्रा प्रसार की अवस्था (Teji or Infla- tion Stage)

     

    1. उत्पाद रेखा में कमी करो।

    2. सस्ते क्रियात्मक उत्पाद प्रस्तुत करो।

    3. प्रतिस्थापित (Substitute) वस्तुओं की खोज  पर अनुसंधान करो।

    4. कम लागत की सामग्री का उपयोग करो।

     

    1. मूल्यों में वृद्धि।

    2. छूटों की समाप्ति।

    3. साख सुविधाएँ रोको।

     

    1. वितरण वाहिकाओं की संख्या में कमी।

    2. सीमित वितरण।

    3. ग्राहकों के लिए मात्रा सीमित करो।

    4. मूल्य विभिन्नता प्राप्त करने के लिए मूल्य वृद्धि। 

     

    1. विक्रय संवर्द्धन प्रयासों में कमी।

    2. माँग को हस्तोत्साहित।

    3. अधिक लाभ- कारी उत्पादों के विक्रय पर बल।

     

    (3) सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण घटक/शक्तियाँ (Social and Cultural Environment Factors/Forces)

    व्यवसाय समाज में रहकर समाज के लोगों के साथ किया जाता है। अतएव समाज को व्यवसाय से पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः कुछ वर्षों से विपणन साहित्य के क्षेत्र में विपणन अवधारणा के विकल्प के रूप में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना बड़ी तेजी से प्रवेश कर रही है। 

    अतः इस भावना के अन्तर्गत विपणन निर्णयों में निम्न बातों का समावेश होना चाहिए-

    • सही मापो एवं सही तोलो ।
    • मिलावट रहित शुद्ध उत्पादों का विपणन करो।
    • मुनाफाखोरी न करके उपभोक्ताओं को उत्पाद उचित मूल्यों पर बेचो ।
    • विपणन के क्षेत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा बनाये रखो।
    • विपणन के क्षेत्र में एकाधिकारी मनोवृत्ति का उन्मूलन करो।
    • उत्पादों की पूर्ति बराबर बनाये रखो ।
    • ग्राहकों की रुचि, आदतों एवं फैशन के अनुसार उत्पादों का विपणन करो।
    • बाजार में नये उत्पादों को प्रस्तुत करने का प्रयास करो।
    • ग्राहकों के साथ बेईमानी करने अथवा धोखा करने की प्रवृत्ति का उन्मूलन करो।
    • ऐसी वितरण वाहिकाओं की रचना करो जोकि ग्राहकों के पास यथा-समय, पर्याप्त मात्रा में, उचित मूल्यों पर ताजा एवं शुद्ध उत्पाद पहुँचा सके।

    (4) वैज्ञानिक एवं तकनीकी पर्यावरण घटक/शक्तियाँ (Scientific and Technological Environment Factors/Forces) 

    उत्पत्ति के क्षेत्र में बड़ी तेजी से वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास हो रहा है। यह अनियन्त्रणीय घटक है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास जहाँ एक ओर विभिन्न क्षेत्रों में नये-नये अवसर निर्मित करता है, वहीं दूसरी ओर, परम्परागत उत्पादों के लिए तरह-तरह के खतरे उत्पन्न करता है। अवसरों के रूप में वैज्ञानिक एवं तकनीकी पर्यावरण नये व श्रेष्ठ उत्पाद प्रस्तुत करता है जिनके विपणन से प्रतियोगियों पर विजय प्राप्त करना सरल हो जाता है। एक समय था जब लोग रेडियो का उपयोग करते थे। तत्पश्चात् ब्लेक एण्ड व्हाइट टी. वी. सेटों ने रेडियो का बाजार छीन लिया और अब कलर टी. वी. ने बाजार पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया है। इस प्रकार वैज्ञानिक एवं तकनीकी पर्यावरण व्यवसाय एवं उद्योग के क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति के रूप में विकसित हो रहा है। इसने हमें हमें बाध्य किया है कि हम सभी भावी विपणन निर्णय वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को ध्यान में रखकर ही लें अन्यथा हम शीघ्र बाजार से बाहर कर दिये जायेंगे। विपणन प्रबन्धकों को विपणन निर्णय लेते समय अनुसंधान एवं विकास (R & D) तथा नवाचार (Innovation) को प्राथमिकता देनी होगी।

    (5) प्रतियोगी पर्यावरण/शक्तियाँ (Competitive Environment/Forces) 

    आज का युग प्रतियोगिता का युग है। एक फर्म के विपणन निर्णय उसके बाजार को प्रभावित करते हैं और इसके बदले में प्रतियोगियों के निर्णयों से स्वयं प्रभावित होते हैं। बाजार में किसी भी उत्पाद की सफलता अथवा असफलता प्रतियोगी पर्यावरण पर निर्भर करती है। अतएव ऐसी स्थिति में विपणन व्यूहरचना करते समय प्रतियोगी पर्यावरण एक महत्वपूर्ण घटक है।

    यदि देखा जाय तो प्रतियोगिता आज के युग की एक वास्तविकता है जिससे बचना सम्भव नहीं है। साथ ही प्रतियोगियों की क्रियाओं पर नियन्त्रण स्थापित करना भी सम्भव नहीं है। इस प्रतियोगिता के कई आधार हो सकते हैं, जैसे- मूल्य प्रतियोगिता, किस्म (गुण) प्रतियोगिता, उत्पाद लक्षण प्रतियोगिता, विज्ञापन प्रतियोगिता, प्रचार प्रतियोगिता, उत्पाद की उपलब्धता एवं सेवा प्रतियोगिता आदि । प्रतियोगिता कैसी हो सकती है, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है क्योंकि इस विषय में एक फर्म का दूसरी फर्म पर कोई नियन्त्रण नहीं है।

    प्रतियोगी व्यूहरचना (Competitive Strategy): उपरोक्त विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि प्रतियोगिता एक तथ्य है जिसे हमें स्वेच्छा से अथवा जबरदस्ती स्वीकार करना ही होगा। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि विपणनकर्ता प्रतियोगिता रूपी इस चुनौती का सामना कैसे करे ? इसके लिए हमें प्रतियोगी ब्यूहरचना तैयार करनी होगी। ऐसा करते समय हमारे सामने निम्न तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं।

    1. क्या फर्म प्रतियोगिता करे ? (Should the firm compete ?)
    2. किन बाजारों में प्रतियोगिता करे ? (In which market it should compete ?)
    3. कैसे प्रतियोगिता करे ? ( How to compete ?)

    जहाँ तक प्रथम प्रश्न के उत्तर का सवाल है, इसके लिए हमारे पास दो विकल्प उपलब्ध हैं- या तो हम बाजार में इसी प्रकार से विद्यमान उत्पाद रेखा में बने रहें अथवा नई उत्पाद रेखा में प्रवेश करें। दोनों विकल्पों पर लिये' जाने वाले निर्णय अनुमानित लाभ क्षमता पर निर्भर करते हैं। यदि विद्यमान उत्पाद रेख, उमें पर्याप्त प्रत्याय (लाभ) देने में असमर्थ है तो हमें नई उत्पाद रेखा में प्रवेश कर लेना चाहिए। ऐसा निर्णय पर्याप्त सोच-विचार करके एवं तुलनात्मक दृष्टि से करना चाहिए।

    जहाँ तक दूसरे प्रश्न का उत्तर देने का प्रश्न है, इसके प्रत्युत्तर में कहा जा सकता है कि एक फर्म को ऐसे बाजारों में ही प्रतियोगिता को सीमित कर लेना चाहिए जहाँ पर ग्राहकों की संख्या अधिक हो तथा अधिक लाभ कमाने का सुअवसर मिलता हो। बाजार विभक्तिकरण का उपयोग करना चाहिए तथा अलाभकारी क्षेत्रों को त्याग देना चाहिए। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कई विदेशी फर्मों ने उन विदेशी बाजारों में अपने कारोबार का समापन कर लिया जहाँ घरेलू उत्पादों ने विपणन समस्याओं का उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया था।

    जहाँ तक तीसरे प्रश्न के उत्तर का प्रश्न है, विपणनकर्ताओं को व्यापक विपणन व्यूहरचना करते समय चातुर्य के आधार पर विपणन निर्णय लेने चाहिए। ऐसा करते समय विपणन मिश्रण तत्वों में उपयुक्त परिवर्तन करते रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, पैकिंग में परिवर्तन किया जा सकता है, विक्रय संवर्द्धन योजनाओं पर बल दिया जा सकता है, विज्ञापन एवं प्रचार पर बल दिया जा सकता है, थोक एवं फुटकर व्यापारियों तथा ग्राहकों के लिए आकर्षक विपणन योजनाएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं आदि। 

    (6) ग्राहक अथवा उपभोक्ता माँग पर्यावरण/शक्तियाँ (Customer or Consumer Demand Environment/Forces) 

    एक समय था जब उत्पादक को बाजार का राजा कहा जाता था। जो कुछ भी उत्पाद वह बाजार में उपलब्ध कराता था, उपभोक्ताओं को इच्छा अथवा अनिच्छा से उन्हें खरीदना पड़ता था किन्तु अब समय में परिवर्तन हो गया है। वर्तमान में उत्पादक बाजार का स्थान उपभोक्ता बाजार ने ले लिया है। उपभोक्ता बाजार का राजा है। वह जो उत्पाद चाहता है, वही उसे बाजार में उप्पलब्ध कराना होगा अन्यथा बाजार से बाहर होना होगा। अतएव फर्म को विपणन योजना तैयार करते समय उपभोक्ता की पसन्द, उसकी क्रय-शक्ति, उत्पाद का मूल्य, किस्म, उपलब्धता, ग्राहक सेवा, सन्तुष्टि आदि विषयों को विपणन निर्णयों में उचित स्थान देना होगा।

    (7) प्राकृतिक पर्यावरण/शक्तियाँ (Physical Environment/Forces)

    आज सम्पूर्ण विश्व का प्राकृतिक पर्यावरण तेजी से बिगड़ रहा है। जीवन के पाँच तत्वों में वायु, आकाश, जल और पृथ्वी के प्रदूषित होने के पर्याप्त प्रभाव एकत्रित हो चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार आज भारत की राजधानी दिल्ली विश्व की सबसे अधिक प्रदूषित नगरी बन चुकी है जो दो दशक पूर्व तक विश्व की सातवी सुन्दर राजधानी मानी जाती थी। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मण्डल के आंकलन में यह स्वीकार किया गया है कि भारत की राजधानी दिल्ली की आबो-हवा में प्रत्येक दिन दो हजार टन प्रदूषण सम्मिलित होता है। वायु प्रदूषण ही क्यों, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भूमि प्रदूषण, व्यापार एवं उद्योग प्रदूषण आदि की समस्या भी दिनों-दिन गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। हमारी गंगा-जमुना जैसी पवित्र नदियाँ भी प्रदूषण की शिकार हो गयी हैं। हमारे उद्योग रोज लाखों टन कचरा इन पवित्र नदियों में बहा देते हैं। हमारे प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी बेदर्दी के साथ विदोहन किया जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण का उत्पादन तथा उत्पादकता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उत्पादकता तथा उत्पादन दोनों में गिरावट आ जाती है।

    आज विश्व के सभी देश प्राकृतिक पर्यावरण का सामना करने के लिए धीरे-धीरे एकजुट हो रहे हैं। इस गम्भीर स्थिति का सामना करने के लिए जहाँ एक ओर तरह-तरह के कानून बनाये जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, इसके विरुद्ध सभी स्तरों पर अभियान चलाये जा रहे हैं। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि विष्णन प्रबन्ध इस गम्भीर स्थिति का कैसे सामना करे एवं किस प्रकार के निर्णय ले ? 

    अतः इस सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-

    • पर्यावरण लागत को पूरा करने के लिए उत्पादों के मूल्य में उचित वृद्धि हो ।
    • उत्पाद पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों की व्यापक रूप से जाँच-पड़ताल की जाय ।
    • पैकिंग तथा उत्पाद प्रक्रिया में पर्याप्त सुधार हों। 
    • भौतिक पर्यावरण की विद्यमानता को स्वीकार करे और उसका सामना सामूहिक रूप में करे।
    • भौतिक पर्यावरण के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर बल दिया जाय ।
    • जीवन के गुण (Quality of Life) पर बल दिया जाय और ऐसे किसी भी कार्य को जिससे लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ होती हो, तुरन्त रोका जाय, जैसे कारखाने से निकलने वाला धुआँ, जंगलों का सफाया, बिना सोचे-समझे औद्योगीकरण, आमोद-प्रमोद के साधनों को क्षति, जल, वायु, ध्वनि, भूमि प्रदूषण की समस्या आदि।
    • आम उपभोक्ताओं के लिए पर्याप्त मात्रा में शुद्ध एवं प्रदूषण रहित उत्पादों की उपलब्धि आदि ।

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