पण्डित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 ई. में इलाहाबाद के कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा प्रारम्भ में घर पर ही हुई थी। 1904 ई. में विद्याध्ययन हेतु वे इंग्लैण्ड गये। इंग्लैण्ड से उन्होंने बी. ए. ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण करके 1912 ई. में वहीं से कानून की डिग्री प्राप्त की।
भारत की राजनीति में प्रवेश
भारत में आकर उन्होंने अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत प्रारम्भ की, लेकिन धीरे-धीरे भारत की राजनीतिक समस्याओं तथा आन्दोलनों में रुचि लेने लगे। 1914. ई. में गोपालकृष्ण गोखले ने प्रवासी भारतीयों की आर्थिक सहायता करने के लिए अपील की तो नेहरूजी ने 50 हजार रुपये इकट्ठे करके दिये। उन्होंने होमरूल आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। 1920 ई. में उन्होंने अवध के कृषकों में कार्य किया, उनकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए अनेक आन्दोलन संगठित किये और उनमें सफलता प्राप्त की।
सन् 1921 ई. में महात्मा गाँधी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया जिसके कारण उनको छः मास के कारावास का दण्ड दिया गया। जेल से मुक्त होने के पश्चात् वे पुनः आन्दोलन में कूद पड़े। 1923 ई. में एक विदेशी कपड़े की दुकान पर धरना देते हुए बन्दी बना लिये गये। जेल से छूटने के पश्चात् वे अपनी पत्नी कमला नेहरू का इलाज कराने के लिए यूरोप गये। वहाँ पर उन्होंने 1927 ई. में ब्रुसेल्स में साम्राज्यवाद के विरुद्ध दलित राष्ट्रों के सम्मेलन में भाग लिया। 1927 ई. में ही वे रूस गये। वहाँ पर उन्होंने सोवियत सरकार की दसवीं वर्षगाँठ में भाग लिया। 1928 ई. में उन्होंने यह स्पष्ट घोषित किया था कि हमारा उद्देश्य भारत पर उन्होंने सोवियत सरकार की दसर्वी वर्षगाँठ में भाग लिया। 1927 ई. में ही भारत लौटने पर उन्हें 'हिन्दुस्तान सेवा दल' का सभापति बनाया गया। 1928 ई. में उन्होंने यह स्पष्ट घोषित किया था कि हमारा उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वराज्य दिलाना है, जबकि काँग्रेस के उदारवादी नेता औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग कर रहे थे। उन्होंने इसीलिए सुभाषचन्द्र बोस के साथ मिलकर 'मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट' का विरोध किया, क्योंकि उसमें औपनिवेशिक स्वराज्य की बात कही गयी थी।
1929 ई. में नेहरूजी को लाहौर अधिवेशन में काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इस अधिवेशन में काँग्रेस ने अपना लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य घोषित किया। 1930 ई. में नमक कानून तोड़ने के अपराध में उनको परिवार सहित कारावास का दण्ड मिला। नेहरूजी ने काँग्रेस के प्रत्येक कार्यक्रम में सक्रिय भाग लिया, काँग्रेस में उनका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। उन्होंने 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में सहयोग दिया और भाग लिया। उनको योग्यता, कुशलता तथा त्याग के आधार पर पाँच बार काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि कोई भी भारतीय नेता तीन बार से अधिक काँग्रेस का अध्यक्ष नहीं चुना गया था।
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भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री
15 अगस्त, 1947 ई. को देश स्वतन्त्र हुआ। भारत का प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया तब से वे 17 वर्ष तक अनवरत रूप से भारत के प्रधानमन्त्री रहे। अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में भारत की विकराल समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ तथा कुशलता से काम लिया। वे भारत में लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे। 1947 ई. के काँग्रेस के विशेष अधिवेशन में नेहरू जी की राय से यह प्रस्ताव पारित हुआ था, "चूँकि अब राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है, इसलिए काँग्रेस को महत्त्वपूर्ण कार्यों में लग जाना चाहिए और वह काम है, देश में वास्तविक लोकतन्त्र तथा सामाजिक न्याय पर आधारित तथा समानता की स्थापना करना। इस प्रकार के समाज में प्रत्येक स्त्री और पुरुष को इस बात की समान सुविधा और स्वतन्त्रता होगी कि वह अबाध रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करे।"
नेहरूजी ने देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना की। उन्होंने इसी अर्थव्यवस्था के माध्यम से समाजवाद लाने का प्रयास किया। उनका विचार था कि इस व्यवस्था में पूँजीवाद तथा समाजवाद दोनों के ही लाभों को अर्जित किया जा सकता है तथा दोनों के ही दोषों से बचा जा सकता है। उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश की आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति का बीड़ा उठाया। 1961 ई. में प्रथम पंचवर्षीय योजना तथा सामुदायिक विकास योजना का उद्घाटन करते हुए नेहरूजी ने कहा था, "शासन का प्रथम मूलभूत उद्देश्य व्यक्ति का उत्थान तथा देश में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है"।
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काँग्रेस के 1995 ई. के आवाड़ी अधिवेशन में नेहरूजी ने कहा था कि शासन के संविधान में दिये गये नीति निर्देशक तत्वों को क्रियान्वित करने के लिए देश में समाजवादी ढाँचे की स्थापना की जाये, जिससे उत्पादन के साधनों पर समाज का अधिकार हो, उत्पादन में वृद्धि हो या राष्ट्रीय सम्पत्ति का समुचित वितरण हो सके। वे प्रमुख उद्योगों पर समाज क्रा नियन्त्रण स्थापित करना चाहते थे। भूमि का स्वामित्व उसी के हाथ में देना चाहते थे, जो भूमि को जोतता हो। उद्योगों में श्रमिकों का हिस्सा हो। 1956 ई. के नागपुर अधिवेशन में समाजवादी सहकारी राज्य के निर्माण का प्रस्ताव पारित हुआ। इसी प्रकार क्रमशः भावनगर, भुवनेश्वर अधिवेशन में देश में समाजवादी लोकतन्त्र की स्थापना के प्रस्ताव दुहराये गये, कार्यक्रम निश्चित किये गये।
नेहरू जी प्रत्येक कार्य को अपने ढंग से करना चाहते थे, किसी की नकल करना उनको पसन्द नहीं था। उन्होंने विभिन्न व्यवस्थाओं में समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने एक बार कहा था, "भारत न तो अमेरिका की पूँजीवादी पद्धति की नकल करेगा और न सोवियत संघ के कम्युनिस्ट दर्शन की। वह तो समाजवादी समाज को मंजिल की ओर अपनी ही राह जायेगा। सम्पूर्ण विश्व में हिन्दुस्तान को यह विशिष्टता प्राप्त है कि वह योजनाओं के कारण आर्थिक और सामाजिक प्रगति जल्दी-जल्दी कर रहा है और साथ ही अपनी लोकतान्त्रिक संस्थाओं और व्यक्तिवादी ढाँचे को भी स्थापित रखे हुए है।"
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में नेहरू जी महान् अन्तर्राष्ट्रवादी थे। उन्हें उग्र राष्ट्रवाद से घृणा थी। वे संसार में शान्ति की स्थापना के पूर्ण समर्थक थे। मार्च 1947 में उन्होंने एशियाई सम्मेलन में भाग लिया और उसमें एशियाई देशों को एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों की स्थापना करने के लिए जोर दिया। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नेहरू नैतिक मार्ग का अनुकरण करने में विश्वास करते थे। उन्होंने सदैव शान्तिमय तरीकों का समर्थन किया। नेहरूजी तथा चीन के प्रधान्मन्त्री चाऊ एन लाई ने सन् 1954 ई. में एक संयुक्त वक्तव्य द्वारा पाँच सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जो पंचशील के सिद्धान्तों के नाम से प्रसिद्ध है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- एक-दूसरे की अखण्डता तथा प्रभुत्व के लिए पारस्परिक सम्मान।
- एक-दूसरे के ऊपर आक्रमण न करना।
- एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- समानता तथा पारस्परिक लाभ के आधार पर सम्बन्धों की स्थापना करना।
- शान्तिमय सह-अस्तित्व तथा आर्थिक सहयोग बढ़ाना।
इन सिद्धान्तों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उन्होंने शान्ति की भावना तथा पारस्परिक विश्वास में वृद्धि की। सन् 1955 ई. में उन्होंने बाण्डुग सम्मेलन में भाग लिया। अपने देश की तटस्थता की नीति अपनाकर उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक नया अध्याय खोल दिया। सन् 1961 ई. के बेलग्रेड सम्मेलन में उनकी इस नीति की सम्पुष्टि की गयी।
नेहरूजी संयुक्त राष्ट्र संघ में पूर्ण विश्वास रखते थे। उन्होंने सदैव संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों में सहयोग दिया, 1960 ई. में संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देते हुए उन्होंने विश्व शान्ति के महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पर अधिक बल दिया, वे निःशस्त्रीकरण पर सदैव जोर देते रहे। उन्होंने क्यूबा, हिन्दचीन, कोरिया आदि में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये गये प्रयासों की सराहना की। विश्व के राजनेताओं में नेहरूजी का विशेष स्थान था। उनके विचारों को दूसरे देश बड़े आदर की दृष्टि से सुनते थे तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर उनका प्रभाव पड़ता था।