लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा किये गए प्रशासनिक एवं न्यायिक परिवर्तन तथा सुधार

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लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा किये गए प्रशासनिक एवं न्यायिक परिवर्तन

1772 ई. में लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया। उसकी नियुक्ति के समय कम्पनी के सम्मुख अनेक गम्भीर समस्याएँ थीं। कम्पनी की आर्थिक स्थिति चिन्ताजनक थी। कम्पनी के कर्मचारी भ्रष्टाचार में संलग्न थे। वे निजी व्यापार की ओर अधिक ध्यान देते थे तथा भेंट, उपहार और घूस भी प्राप्त करते थे। अतः दीवानी का उचित प्रबन्ध करने 'के लिए तथा कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार तथा घूसखोरी पर नियन्त्रण लगाने के लिए लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज ने प्रशासनिक क्षेत्र में कुछ परिवर्तन किये।

लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा किये गए प्रशासनिक एवं न्यायिक परिवर्तन तथा सुधार

(I) रेग्यूलेटिंग एक्ट

रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के पूर्व कम्पनी की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। अतः कम्पनी ने इंग्लैण्ड की सरकार के पास 14 लाख पौण्ड ऋण देने का आवेदन-पत्र भेजा, अतः ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने के लिए उसके कार्यों में हस्तक्षेप करने का निर्णय किया। 1773 ई. में इंग्लैण्ड की संसद ने एक विधेयक पारित किया जिसे रेग्यूलेटिंग एक्ट कहते हैं। 

(II) पिट्स इण्डिया एक्ट

रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोष थे। यद्यपि 1781 ई. के घोषणा अधिनियम के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकारी की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गई लेकिन प्रशासन सम्बन्धी दोष अभी विद्यमान थे। 1781-82 ई. में ब्रिटिश संसद वारेन हेस्टिंग्ज को इंग्लैण्ड बुलाना चाहती थी, लेकिन कम्पनी के हिस्सेदारों की सभा के विरोध के कारण नहीं बुला सकी। इससे संसद को स्पष्ट हो गया कि कम्पनी पर उसका पर्याप्त नियन्त्रण नहीं है। अतः रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को समाप्त करने की आवश्यकता अनुभव की गई। 

अतः ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री पिट ने एक विधेयक प्रस्तुत किया जो 1784 ई. में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कर दिया गया। यह अधिनियम 'पिट्स इण्डिया एक्ट' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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पिट्स इण्डिया एक्ट की धारायें

पिट्स इण्डिया एक्ट की प्रमुख धारायें निम्नलिखित थीं- 

(1) कम्पनी के शासन पर नियन्त्रण रखने के लिये इंग्लैण्ड में 6 सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया जिसे 'बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल' कहा गया। इस बोर्ड में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (विदेश मन्त्री) तथा वित्त मन्त्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गए, जिनकी नियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट् को प्रदान किया गया। सदस्यों के वेतन आदि का व्यय भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय लिया गया।

(2) संचालकों द्वारा भारत भेजे जाने वाले पत्र व आदेश भारत भेजे जाने से पूर्व बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल द्वारा अनुमोदित किया जाना अनिवार्य कर दिया गया। बोर्ड को उन आदेशों में संशोधन करने का अधिकार था।

(3) इस एक्ट द्वारा संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई जिसका कार्य भारत में गोपनीय आदेश प्रेषित करना था। ये आदेश अन्य संचालकों को नहीं बताये जाते थे।

(4) इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई जिनमें एक प्रधान सेनापति को भी सम्मिलित किया गया। अब गवर्नर जनरल केवल एक सदस्य को अपने पक्ष में करके जैसा चाहे कर सकता था। 

(5) गवर्नर जलरल की कौंसिल के समान ही बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियों के लिये भी तीन सदस्यों की एक कौंसिल गठित की गई।

(6) बम्बई तथा मद्रास की सरकारों को पूर्ण रूप से बंगाल की सरकार के अधीन कर दिया गया। इन सरकारों के लिये बंगाल की सरकार के आदेशों का पालन करना आवश्यक कर दिया गया।

(7) गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों की नियुक्ति संचालकों द्वारा की जाती थी, लेकिन उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट् को प्रदान किया गया।

(8) गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालकों को सम्राट् की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी था।

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पिट्स झण्डिया एक्ट का महत्व

पिट्स इण्डिया एक्ट का भारत में संवैधानिक इतिहास में अत्यधिक महत्व है। इस एक्ट के महत्व को निम्नांकित रूप से व्यक्त किया जा सकता है-

(1) इस एक्ट ने रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को पर्याप्त मात्रा में दूर किया। अब कम्पनी के सभी सैनिक और असैनिक मामलों पर ब्रिटिश संसद का नियन्त्रण स्थापित हो गया।

(2) कम्पनी के प्रदेश अब अंग्रेजी राज्य के प्रदेश बन गए तथा उन पर ब्रिटिश सरकार का नियन्त्रण स्थापित करने के लिये बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई। 

(3) बंगाल की कौंसिल में गवर्नर जनरल की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़ हो गई। अब वह केवल एक सदस्य को अपने पक्ष में करके जैसा चाहे कर सकता था।

(4) इस एक्ट के द्वारा मद्रास और बम्बई के गवर्नर पूर्णतया जनरल के अधीन कर दिए गये। 

(5) गुप्त समिति का गठन करके कम्पनी की कार्य-प्रणाली को प्रभावशाली बनाने का प्रयत्न किया गया। इस एक्ट का एक प्रमुख दोष यह था कि कम्पनी के शासन पर दो संस्थाओं-संचालक मण्डल तथा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का नियन्त्रण स्थापित किया गया जिससे अनेक कठिनाइयाँ पैदा हुईं। यह द्वैध शासन व्यवस्था 1785 ई. तक चलती रही। इस एक्ट का एक अन्य दोष यह था कि गवर्नर जनरल कौंसिल के निर्णय को रद्द नहीं कर सकता था।

कुछ दोषों के होते हुए भी यह एक्ट भारत के संवैधानिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार भारत में कार्य कर रही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कार्यकलापों पर नियन्त्रण रखने में सफल हुई।

डॉ. एम. एस. जैन ने पिट्स इण्डिया एक्ट के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है, "इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रशासन पर इंग्लैण्ड की सरकार का निश्चित अधिकार स्थापित हो गया। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष मन्त्रिमण्डल का एक सदस्य होता था और इस प्रकार वह प्रणाली स्थापित हुई जो थोड़े-बहुत परिवर्तनों से 1947 ई. तक चलती रही। 1858 ई. में कम्पनी के अधिकारों को समाप्त करके बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को ही भारत सचिव बनाया गया।"

लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज के सुधार 

लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्ज एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह भारत में ब्रिटिश राज्य को सुदृढ़ करना चाहता था। अतः उसने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्नलिखित आन्तरिक सुधार किये-

(1) शासन सम्बन्धी सुधार 

(i) 1776 ई. में क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना की थी जो कम्पनी एवं बंगाल के लोगों के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुई थी। अतः कम्पनी संचालकों के आदेशानुसार 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने बंगाल में द्वैध शासन को समाप्त कर दिया। बंगाल के उपनवाब मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार के उपनवाब राजा सिताबराय को पदमुक्त कर दिया गया। उन पर मुकदूमे चलाये गये लेकिन अन्त में दोनों को न्यायालय ने मुक्त कर दिया।।

(ii) बंगाल के नवाब को शासन के दायित्वों से मुक्त कर दिया क्योंकि अब स्वयं कम्पनी ने प्रशासन का दायित्व ग्रहण कर लिया था। बंगाल का नवाब नज्मुद्दौला अभी अल्प-वयस्क था। अतः मीर जाफर की विधवा पत्नी मुन्नी बेगम को उसकी संरक्षिका घोषित किया गया। नवाब की पेन्शन 53 लाख रुपये वार्षिक से घटाकर 16 लाख रुपये कर दी गई।

(iii) मुर्शिदाबाद के स्थान पर कलकत्ता को राजधानी बनाया गया। राजकोष को भी मुर्शिदाबाद से कलकत्ता स्थानान्तरित कर दिया गया।

(iv) कम्पनी के कर्मचारियों पर रिश्वत लेने तथा उपहार भेंट आदि स्वीकार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

(v) चोर, डाकुओं एवं लुटेरों का दमन किया गया।

(2) व्यापार सम्बन्धी सुधार

वारेन हेस्टिंग्ज के व्यापार सम्बन्धी सुधार निम्नलिखित थे-

(i) वारेन हेस्टिंग्ज ने दस्तक प्रथा (निःशुल्क व्यापार का अधिकार पत्र) को समाप्त कर दिया गया तथा कम्पनी के कर्मचारियों के वैयक्तिक व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

(ii) वारेन हेस्टिंग्ज के पहले चुंगी वसूल करने के लिए अनेक स्थानों पर चुंगी-चौकियाँ स्थापित र्थी लेकिंन वारेन हेस्टिंग्ज ने इन सभी चुंगी चौकियों को समाप्त कर दिया। केवल पाँच चुंगी चौकियाँ-कलकत्ता, हुगली, ढाका, मुर्शिदाबाद तथा पटना में स्थापित की गईं।

(iii) नमक, सुपारी तथा तम्बाकू के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तुओं पर चुंगी 2.5 प्रतिशत कर दीं गई। यह चुंगी यूरोपीय एवं भारतीय दोनों ही व्यापारियों से समान रूप से ली जाती थी।

(iv) वारेन हेस्टिंग्ज ने व्यापार की उन्नति के लिए मिस्र, भूटान, तिब्बत आदि देशों के साथ व्यापारिक सन्धियाँ कीं।

(v) अफीम तथा नमक का व्यापार पूर्ण रूप से सरकारी नियन्त्रण में कर दिया गया।

(3) आर्थिक सुधार 

वारेन हेस्टिंग्ज के प्रमुख आर्थिक सुधार निम्नलिखित थे-

(i) वारेन हेस्टिंग्ज ने मुगल सम्राट् शाहआलम द्वितीय को प्रदान की जाने वाली पेन्शन 26 लाख रुपये की राशि बन्द कर दी क्योंकि वह अंग्रेजों का संरक्षण त्यागकर मराठों के संरक्षण में चला गया था।

(ii) मुगल सम्राट् शाहआलम द्वितीय से इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले भी छीन लिए गए तथा ये दोनों जिले अवध के नवाब को दे दिए गए। इसके बदले में अवध के नवाब से 50 लाख रुपये ले लिए गए।

(4) लगान व्यवस्था में सुधार 

वारेन हेस्टिंग्ज ने लगान व्यवस्था में निम्नलिखित सुधार किये-

(i) 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने पाँच वर्षीय बन्दोबस्त लागू किया। इसके अनुसार 5 वर्ष के लिए भूमि सर्वाधिक बोली लगाने वाले व्यक्ति को सौंप दी जाती थी। प्रायः इस कार्य के लिए जमींदारों को प्राथमिकता प्रदान की जाती थी। जमीदार अपने किसानों को जमीन का पट्टा देता था जिसमें उनके द्वारा जमीदार को प्रदान की जाने वाली लगान की राशि का उल्लेख होता था।

(ii) जिलें में लगान वसूल करने का कार्य कलैक्टर को सौंपा गया तथा उसकी सहायता के लिए भारतीय दीवान नियुक्त किये गए।

(iii) लगान की वसूली तथा दीवानी न्याय के लिए प्रत्येक जिले में दीवानी अदालतें स्थापित की गईं।

(iv) लगान व्यवस्था पर नियन्त्रण रखने हेतु मुर्शिदाबाद तथा पटना में भू-राजस्व नियन्त्रण परिषदों की स्थापना की गई।

(v) गवर्नर तथा उसकी कौंसिल को राजस्व मण्डल के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा क्योंकि यह सम्पूर्ण भू-राजस्व प्रशासन पर नियन्त्रण रखती थी।

(vi) वारेन हेस्टिंग्ज की उपर्युक्त लगान व्यवस्था अत्यन्त दोषपूर्ण साबित हुई तथा इससे किसानों की स्थिति अत्यन्त खराब हो गई। अतः नवम्बर 1773 ई. में एक नवीन योजना स्वीकार की गई जिसके प्रथम भाग को 1774 ई. में लागू किया गया। इस योजना के अनुसार सम्पूर्ण बंगाल प्रेसीडेन्सी को 6 डिवीजनों में विभाजित कर दिया गया। ये 6 डिवीजन थे-कलकत्ता, बर्दवान, ढाका, मुर्शिदाबाद, दीनाजपुर तथा पटना। प्रत्येक डिवीजन के लिए एक प्रान्तीय परिषद् स्थापित की गई और उसकी सहायता के लिए एक दीवान की नियुक्ति की गई। कलेक्टर के स्थान पर भारतीय राजस्व अधिकारी नियुक्त किये गए जो 'नायब' कहलाते थे। कुछ समय पश्चात् वारेन हेस्टिंग्ज ने पुनः एकवर्षीय बन्दोबस्त लागू कर दिया। 

(vii) 1781 ई. में योजना का दूसरा भाग लागू किया गया। प्रान्तीय परिषदें खत्म कर दी गईं तथा जिलों का राजस्व प्रशासन भारतीय नायबों को ही सौंपा गया। केन्द्र में एक नवीन राजस्व बोर्ड की स्थापना की गई जिसकी सहायता के लिए एक दीवान की नियुक्ति की गई। 

(5) न्याय सम्बन्धी सुधार 

वारेन हेस्टिंग्ज ने न्याय के क्षेत्र में निम्नलिखित सुधार किये-

(i) 1772 ई. में प्रत्येक जिले में एक दीवानी अदालत स्थापित की गई जिसका अध्यक्ष कलेक्टर होता था। दीवानी अदालतों का कार्य सम्पत्ति, विवाह, ऋण, व्याज, लगान तथा उत्तराधिकार से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई करना था। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में एक फौजदारी अदालत स्थापित की गई जिसमें चोरी, डकैती, हत्या, जालसाजी आदि से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई की जाती थी। फौजदारी अदालतों में काजी अथवा मुफ्ती तथा पण्डित कानूनों की व्याख्या पर अपराधियों को दण्डित किया करते थे।

(ii) कलकत्ता में एक सदर दीवानी अदालत तथा एक सदर निजामत अदालत की स्थापना की गई जिनमें जिले की दीवानी और फौजदारी अदालतों के निर्णयों के खिलाफ अपीलों की सुनवाई की जाती थी। कलकत्ता कौंसिल का अध्यक्ष सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष होता था तथा कौंसिल के दो सदस्य इस अदालत के सदस्य होते थे। सदर निजामत अदालत का अध्यक्ष दरोगा या सदर काजी होता था जिसकी नियुक्ति गवर्नर द्वारा की जाती थी।

(iii) न्यायाधीशों को परामर्श देने के लिए हिन्दू व मुसलमान न्यायशास्त्रियों की व्यवस्था की गई थी।

(iv) निजामत अदालतों को मृत्यु दण्ड देने का अधिकार नहीं था। इस सम्बन्ध में अन्तिम शक्ति गवर्नर तथा उसकी कौंसिल को प्राप्त थी।

(v) न्यायालयों में मुकदमों का निर्णय हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों तथा मुसलमानों के कुरान के आधार पर होते थे।

(vi) न्यायाधीशों की सुविधा के लिए हिन्दू और मुस्लिम कानूनों का संग्रह कराया गया।

(6) पुलिस व्यवस्था 

वारेन हेस्टिंग्ज ने पुलिस विभाग का भी पुनर्गठन किया। प्रत्येक जिले में एक स्वतन्त्र पुलिस अधिकारी की नियुक्ति की गई। चोरों तथा डाकुओं का कठोरतापूर्वक दमन किया गया। चोरों तथा डाकुओं को गिरफ्तार करके उन्हें गाँवों में ही फाँसी पर लटका दिया जाता था। ढोंगी संन्यासियों का भी दमन कर दिया गया। वारेन हेस्टिंग्ज की इस कार्यवाही से बंगाल में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित हो गई।

वारेन हेस्टिंग्ज के सुधारों का महत्व 

वारेन हेस्टिंग्ज एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। अनेक प्रशासकीय परिवर्तन किए तथा एक नवीन शासन-व्यवस्था की स्थापना की। उसने जो शासन-व्यवस्था स्थापित की वह परवर्ती शासकों के लिए एक आदर्श साबित हुई। सर विलियम हंटर का कथन है कि "वारेन हेस्टिंग्ज ने उस नागरिक शासन प्रणाली की आधारशिला रखी जिस पर कार्नवालिस ने एक विशाल भवन का निर्माण किया।" यह सच ही कहा गया है कि "यदि क्लाइव भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक था, तो वारेन हेस्टिंग्ज एक प्रशासनिक संगठनकर्ता था।" उसके न्याय सम्बन्धी सुधार अत्यन्त महत्वपूर्ण थे।

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