लॉर्ड कर्नवालिस के स्थायी बन्दोबस्त की पृष्ठभूमि
लॉर्ड कार्नवालिस से पूर्व लगान-व्यवस्था दोषपूर्ण थी। वारेन हेस्टिंग्ज के समय में भूमि ठेके पर प्रदान की जाती थी। जो व्यक्ति सर्वाधिक बोली लगाता था, उसे ही लगाने वसूल करने का ठेका प्रदान किया जाता था, इस व्यवस्था से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई क्योंकि ठेकेदार काफी ऊँची बोली बोलते थे तथा किसानों से अधिकाधिक धन वसूल करने का प्रयास करने थे। वे कर वसूली करते समय कृषकों पर भयंकर अत्याचार करते थे। अतः कम्पनी के संचालकों ने लॉर्ड कार्नवालिस को लगान-व्यवस्था में सुधार करने के लिए भेजा।
लॉर्ड कार्नवालिस ने लगान-व्यवस्था के सम्बन्ध में सर जॉन शोर तथा जेम्स ग्राण्ट से विचार-विमर्श किया। जेम्स ग्राण्ट का मत था कि स्थायी व्यवस्था के स्थान पर कोई दीर्घकालिक व्यवस्था की जाए तथा राज्य को भूमि का स्वामी स्वीकार किया जाए। लेकिन सर जॉन शोर का मानना था कि जर्मीदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी माना जाए। कार्नवालिस सर जॉन शोर के विचारों से सहमत था। वह स्वयं इंग्लैण्ड में भू-स्वामी था तथा भारत में जर्मीदारों का एक वर्ग निर्मित करना चाहता था ताकि साम्राज्य का सुदृढ़ आधार बन सके। उसका मूल उद्देश्य लगान-व्यवस्था में स्थायित्व लाना था। अतः उसने 10 फरवरी, 1790 ई. को दस वर्षों हेतु भूमि की व्यवस्था की घोषणा जारी कर दी और यह भी स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के संचालकों की स्वीकृति प्राप्त होने पर इस व्यवस्था को स्थायी कर दिया जायेगा। 1793 ई. को कार्नवालिस ने इस प्रवन्ध को स्थायी करने की घोषणा कर दी।
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स्थायी प्रबन्ध की प्रमुख व्यवस्थाएँ
1793 ई. के स्थायी प्रबन्ध की प्रमुख व्यवस्थाएँ निम्नलिखित थीं-
(1) जमीदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी स्वीकार कर लिया गया।
(2) जमीदारों से लिया जाने वाला लगान सदैव के लिए निर्धारित कर दिया गया। यह भी कहा गया कि सरकार द्वारा निर्धारित लगान में कभी भी वृद्धि नहीं की जाएगी।
(3) जब तक जमीदार अपने अधिकार का लगान देता रहेगा, उसकी भूमि छीनी नहीं जाएगी लेकिन यदि उसने निर्धारित लगान जमा नहीं कराया, तो उसकी भूमि का कुछ भाग लगान की वसूली के लिए सरकार बेच सकेगी।
(4) चूँकि राज्य भू-स्वामित्व के अधिकार से स्वतन्त्र हो गया है, अतः जमीदारों से किसी अन्य कर का दावा नहीं किया जाएगा।
(5) जमीदारों से सभी न्यायिक अधिकार छीन लिए गये।
(6) जमींदार भूमि का स्वामी होने के कारण भूमि को बेच अथवा खरीद सकते थे।
स्थायी बन्दोबस्त को प्रचलित करने के कारण
स्थायी बन्दोबस्त को प्रचलित करने के निम्नलिखित कारण थे-
(1) लॉर्ड कार्नवालिस ने अनुभव किया कि प्रचलित भू-राजस्व व्यवस्था से किसानों व जमीदारों दोनों की स्थिति खराब होती जा रही थी।
(2) 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पारित हो चुका था, जिसमें भूमि का स्थायी बन्दोबस्त करने को कहा गया तथा जमीदारों के समर्थन में सहानुभूति व्यक्त की गई थी। दो वर्ष पश्चात् 1786 ई. में कम्पनी के संचालकों ने कार्नवालिस को भूमि का स्थायी प्रबन्ध करने का आदेश निर्गत किया।
(3) लॉर्ड कार्नवालिस इंग्लैण्ड में स्वयं भू-स्वामी था तथा भारत में जमीदारों का एक ऐसा वर्ग निर्मित करना चाहता था जो साम्राज्य का सुदृढ़ आधार बन सके।
(4) प्रतिवर्ष लगान वसूली की नई-नई व्यवस्था के कारण आय बढ़ाने की अपेक्षा घटती रहती थी। अतः भूमि को लगान-व्यवस्था का स्थायी प्रबन्ध करने का निर्णय किया गया।
(5) लॉर्ड कार्नवालिस इंग्लैण्ड की जींदारी प्रथा से प्रभावित था। उसका विश्वास था कि इंग्लैण्ड के जमीदारों के समान बंगाल के जमीदार भी कृषि के विकास में सहायक साबित होंगे।
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स्थायी बन्दोबस्त की विशेषताएँ
स्थायी बन्दोबस्त की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं-
(1) लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त को लागू कर दिया। इस व्यवस्था में कार्नवालिस ने यह घोषणा की थी कि 1793 ई. में निर्धारित भू-राजस्व की दर में कभी परिवर्तन नहीं किया जाएगा तथा सरकार की माँग स्थायी तौर पर यही रहेगी।
(2) भूमि की उपज से सम्बन्धित तीन पक्ष थे- सरकार, जमीदार तथा कृषक। कार्नवालिस ने राजस्व निर्धारित करके तथा जमीदारों के अधिकारों की घोषणा करके सरकार एवं जींदारों के हितों की रक्षा कर ली लेकिन किसानों के हितों की उपेक्षा करते हुए उन्हें जमीदारों की दया पूर छोड़ दिया गया।
(3) जमीदार भूमि के स्वामी होने के कारण अपनी भूमि को बेच व खरीद सकते थे तथा ऐसा करते समय सरकार से पूर्व अनुमति लेना जरूरी नहीं था।
(4) कार्नवालिस ने स्थायी बन्दोबस्त करके जमीदारों की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी। यह जमीदार वर्ग अत्यन्त राजभक्त बन गया।
स्थायी बन्दोबस्त के गुण
स्थायी बन्दोबस्त में जो भू-राजस्व की दर निर्धारित की गई थी, वह 1765 ई. में प्रचलित दर से दुगुनी थी। इससे राज्य की आय में वृद्धि हुई।
(1) राज्य की आय में वृद्धि- स्थायी बन्दोबस्त में जो भू-राजस्व की दर निर्धारित की गई थी, वह 1765 ई. में प्रचलित दर से दुगुनी थी। इससे राज्य की आय में वृद्धि हुई।
(2) बार-बार लगान निर्धारित करने के उत्तरदायित्व से मुक्ति- इस व्यवस्था से पूर्व जो प्रणाली प्रचलित थी, उसमें बार-बार लगान निर्धारित करना पड़ता था। इसमें अत्यधिक समय तथा धन व्यय होता था, लेकिन अब स्थायी रूप से लगान निर्धारित हो जाने से समय और धन की बहुत बचत हो गई।
(3) कम्पनी की वार्षिक आय का निश्चित होना- स्थायी बन्दोबस्त से कम्पनी की वार्षिक आय निश्चित हो गई। अब कम्पनी को ज्ञात हो गया कि भूमि के लगान से उसे प्रतिवर्ष कितनी आय होगी। इसके आधार पर कम्पनी सरलता से अपनी आर्थिक योजनाएँ निर्मित कर सकती थी।
(4) जमींदार वर्ग की सरकार के प्रति निष्ठा- कार्नवालिस ने स्थायी बन्दोबस्त से जमीदार वर्ग की सहानुभूति प्राप्त कर ली। अब जमीदार वर्ग ब्रिटिश सरकार का स्वामिभक्त बन गया। इस वर्ग ने कम्पनी का हमेशा समर्थन किया और संकटकाल में कम्पनी को सभी प्रकार से सहयोग प्रदान किया।
(5) बंगाल की उपज में वृद्धि- स्थायी प्रबन्ध के कारण बंगाल की उपज में वृद्धि हुई। स्थायी प्रबन्ध के पश्चात् बंजर और बिना जुती हुई भूमि भी कृषि योग्य बनाई जाने लगी, परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि हुई।
(6) व्यापार तथा वाणिज्य का विकास- कृषि के विकास के साथ-साथ व्यापार तथा वाणिज्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। जमीदार लोग अत्यधिक धनी हो गए तथा उद्योग-धन्धों एवं व्यापार में धन लगाने लगे।
(7) जमींदार वर्ग की कृषि कार्य में रुचि- जमीदारों से न्यायिक शक्तियाँ हस्तगत कर लेने से जमीदार वर्ग लाभान्वित हुआ। अब उन्हें अपने क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था कायम रखने के उत्तरदायित्व से छुटकारा मिल गया तथा अब वे अपना सम्पूर्ण ध्यान कृषि कार्यों में देने लगे।
स्थायी बन्दोबस्त के दोष
स्थायी बन्दोबस्त के निम्नलिखित दोष थे-
(1) कृषकों के हितों की उपेक्षा- स्थायी बन्दोबस्त में किसानों के हितों की भारी उपेक्षा की गई थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत जमीदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया तथा किसानों से भूमि का स्वामित्व छीन लिया गया। इस प्रकार किसानों को जमीदारों की कृपा पर छोड़ दिया।
(2) किसानों की दुर्दशा- स्थायी बन्दोबस्त से किसान जींदारों की कृपा पर निर्भर हो गए। जमीदार किसानों से मनमाना लगान वसूल करते थे और उन पर भयंकर अत्याचार करते थे। इससे किसानों की स्थिति दयनीय हो गई।
(3) जमींदार वर्ग का विलासी होना- जब जमीदारों की आय में वृद्धि होने लगी, वे गाँवों को छोड़कर शहरों में चले गए तथा वहाँ विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। ऐसे जमीदारों ने गाँवों के किसानों से लगान वसूल करने के लिए अपने एजेण्ट नियुक्त किए थे। ये एजेण्ट किसानों से अधिकाधिक लगान वसूल करने का प्रयास करते थे। यह लोग किसानों का शोषण करते थे जिससे किसानों की स्थिति दयनीय हो गई।
(4) अन्य ब्रिटिश प्रान्तों में लगान की ऊँची दरें- यद्यपि कम्पनी बंगाल में तो लगान की राशि नहीं बढ़ा सकती थी, लेकिन उसने इस क्षति की पूर्ति के लिए अन्य ब्रिटिश प्रान्तों में लगान की दर ऊँची निर्धारित कर दी, परिणामस्वरूप उन प्रान्तों की जनता की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई।
(5) सामाजिक हानि- इस व्यवस्था का एक प्रमुख दोष यह था कि रैयत जो भूमि का वास्तविक स्वामी थी, अब जमीदार की कृपापात्र बन गई तथा उसे अपने घर में ही किरायेदार बना दिया गया।
(6) राष्ट्रीयता के लिए खतरनाक- स्थायी प्रबन्ध भारतीय राष्ट्रीयता के लिए खतरनाक सिद्ध हुआ। इस व्यवस्था के कारण जमीदार वर्ग सदैव अंग्रेजों का स्वामिभक्त बना रहा। अतः जब भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का श्रीगणेश हुआ, तब जमीदार वर्ग ने अंग्रेजों को पूर्ण सहयोग प्रदान किया तथा राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुँचाया।
अनेक इतिहासकारों ने स्थायी बन्दोबस्त की तीव्र आलोचना की है। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद मिश्र लिखते हैं कि "गाँवों के सामाजिक संगठन की दृष्टि से भी यह व्यवस्था दोषपूर्ण साबित हुई। सबल और शक्तिशाली जमीदारों को तो सम्पत्ति का अधिकार प्रदान कर दिया तथा लगान वसूली के असीमित अधिकार प्रदान कर दिए गए लेकिन निर्बल और कमजोर किसान वर्ग के कष्टों के निवारण का कोई प्रयास नहीं किया गया। धनी और शक्तिशाली वर्ग लगभग 150 वर्ष तक मनमानी करता रहा और सरकार किसानों के हितों की उपेक्षा करती रही। गाँवों की व्यवस्था में केवल जमीदारों का बोलबाला होने से अन्य वर्ग अत्यधिक कमजोर हो गए।"