भारतीय कर प्रणाली के लक्षण एवं दोष : Characteristics and defects of indian tax system

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किसी देश की लोक वित्त-व्यवस्था की समस्त व्यवस्था उस देश की कर प्रणाली पर निर्भर करती है। एक आदर्श राजकोषीय नीति के लिए एक आदर्श कर प्रणाली का होना अनिवार्य माना जाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से ऐसी कर प्रणाली की कल्पना करना तो सम्भव है, परन्तु व्यवहार में एक ऐसी कर-प्रणाली का पाया जाना कठिन माना जाता है। डॉ. डाल्टन के अनुसार, "आर्थिक दृष्टि से सबसे अच्छी कर प्रणाली वह है जिसके अच्छे आर्थिक प्रभाव ज्यादा हों और बुरे आर्थिक प्रभाव कम हों।"

    भारत में कर-व्यवस्था का इतिहास

    भारत एक विकासशील देश है, और हमने अपना विकास कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया है। भारत में संघीय वित्त-सहायता के इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि भारतीय कर प्रणाली की नीति में समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं। भारत ने योजनाओं की सहायता से देश के आर्थिक विकास करने का कार्य किया है और आर्थिक जगत् में काफी सफलता प्राप्त की है।

    स्वतन्त्रता से पूर्व- विदेशी शासकों द्वारा गठित की गयी कर-प्रणाली का मुख्य उद्देश्य विदेशी शासन को मजबूती के साथ चलाना था जिसमें ब्रिटिश हितों की रक्षा करते हुए आर्थिक नीति का सही ढंग से संचालन किया जा सके। इसी उद्देश्य से पुलिस, प्रशासन एवं सेना व्यय को बजट में प्रधानता प्रदान की जाती थी और शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि एवं औद्योगिक विकास की उपेक्षा की गयी जिससे भारत सदैव की ही भाँति एक आयातक राष्ट्र बना रहे और कच्चा माल विदेशों को निर्यात किया जा सके। हमारी कर प्रणाली सीमित थी, जिसका मुख्य उद्देश्य प्रशासन सम्बन्धी वित्त की पूर्ति करना था, जिससे अप्रत्यक्ष करों पर अधिक जोर दिया गया। 1939-40 में देश की राष्ट्रीय आय में तीव्र वृद्धि हुई है, परिणामस्वरूप सार्वजनिक आय में भी वृद्धि हुई है।

    भारतीय कर प्रणाली के लक्षण एवं दोष : Characteristics and defects of indian tax system

    स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश की स्थति में पूर्णतया परिवर्तन आ गया और 1947 के पश्चात् प्राकृतिक साधनों का विदोहन, आधारभूत उद्योगों की स्थापना, कुटीर व लघु उद्योगों का विकास, सिंचाई एवं विद्युत सुविधाओं के विस्तार, आदि के लिए योजनाएँ निर्मित की गयीं जिनकी सहायता से सामाजिक समानता, निर्धनता व बेकारी की समाप्ति, लोक हितकारी राज्य की स्थापना, आदि लक्ष्यों को सरलता से प्राप्त किया जा सके। इन उद्देश्यों को देश की पंचवर्षीय योजनाओं में भी सम्मिलित किया गया। योजनाओं के माध्यम से देश की राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में आवश्यक सुधार हुआ है और जनता का जीवन स्तर पूर्व की अपेक्षा काफी बढ़ गया है। योजनाओं की सफलता हेतु यह आवश्यक है कि देश में एक सुदृढ़ एवं सुनिश्चित कर प्रणाली हो जो देश को तीव्र गति से विकास में सहयोग प्रदान कर सके। 

    भारत में संघात्मक शासन प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्र एवं राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों का विशेष महत्व है और इस दृष्टि से भारतीय कर प्रणाली का व्यापक अवलोकन करना आवश्यक होगा जिससे कि विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए उसके गुणों एवं अवगुणों को ज्ञात किया जा सके। इन अवगुणों को ज्ञात करके उन्हें दूर करने के उपाय भी खोजने आवश्यक होंगे। स्वतन्त्रता के पश्चात् संघ एवं राज्य सरकारों की आय में निरन्तर वृद्धि होती गयी जिसका प्रमुख कारण जनता की मौद्रिक आय में वृद्धि होना था, परन्तु सरकार की यह आय सन्तोषप्रद नहीं थी। वर्तमान में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार के कर लगाये जाते हैं। तृतीय योजना में यह निर्धारित किया गया कि साधनों का इस प्रकार जुटाया जाना चाहिए जिससे आर्थिक विषमताएँ दूर हों एवं विकास कार्यों को प्रोत्साहित किया जा सके।

    तृतीय योजना- दूसरी योजना की अपेक्षा अधिक विशाल थी। तृतीय योजना के प्रारम्भ में योजना आयोग ने कर की नीति को घोषित करते समय बताया कि देश के आर्थिक विकास के लिए साधनों को प्राप्त करना आवश्यक है। साधनों को इस ढंग से प्राप्त किया जाना चाहिए कि उससे आर्थिक विषमताएँ दूर हो जायें तथा विकास कार्यों को प्रोत्साहन प्राप्त हो सके।

    चतुर्थ योजना- तीसरी योजना से 2% गुनी बड़ी थी। चतुर्थ योजना में कर नीति का मुख्य उद्देश्य गरीब व कम आय वर्ग के लोगों को राहत देना था।

    पाँचवीं योजना- पाँचवीं योजना में कर योग्यता राशि में काफी राहत देकर निम्न आय वर्ग के लोगों को काफी राहत दी गयी है।

    छठवीं योजना- छठवीं योजना में कर नीति का उद्देश्य देश के आर्थिक विकास हेतु पर्याप्त साधनों को प्राप्त करना था। आय-कर में योग्यता राशि में पर्याप्त छूट दी गयी तथा Rs.15,000 की कुल आय को आय-कर से मुक्त रखा गया।

    सातवीं योजना- सातवीं योजना में कर का उद्देश्य देश के काले धन को समाप्त करना था करों में छूट दी गयी, न्यूनतम करदेय सीमा Rs.18,000 व अधिकतम आय-कर की दर 50% कर दी गयी व अनिवार्य जमा योजना समाप्त कर दी गयी।

    आठवीं योजना- आठवीं योजना में करों में अधिक राहत देने के उद्देश्य से आय कर की न्यूनतम सीमा को बढ़ाकर Rs.40,000 कर दिया गया तथा काले धन को बाहर लाने के अनेक उपाय अपनाए गए। 1995-96 में आय-कर प्रक्रिया को और सरल बनाने के प्रयास किए गए। नवीं योजना-आय-कर प्रक्रिया को और सरल बनाया गया है तथा आय-कर के लिए आय की न्यूनतम सीमा को बढ़ाकर Rs.50,000 कर दिया गया है तथा कर की अधिकतम दर 30% रखी गयी है, तथा शुद्ध देय आयकर 10% से सरचार्ज लगाया जाता है।

    दसवीं योजना- आयकर की न्यूनतम सीमा को बढ़ाकर Rs.1,00,000 कर दिया गया तथा आयकर की अधिकतम दर 30% रखी गयी।

    ग्यारहवीं योजना- व्यक्ति को चार श्रेणियों में बाँटा गया स्त्री करदाता, वरिष्ठ नागरिक एवं सामान्य व्यक्ति व बुजुर्ग स्त्री करदाता के लिए न्यूनतम कर योग्यता आय Rs.1,90,000 वरिष्ठ नागरिक के लिए Rs.2,50,000 व सामान्य जनता के लिए Rs.1,50,000 व 80 वर्ष से अधिक बुजुर्गों के लिए Rs.5,00,000 रखी गयी। आयकर पर 3% से शिक्षा उपकर लगाया गया।

    बारहवीं योजना- इस योजना में आयकर की सोमा Rs.2,50,000 व वरिष्ठ नागरिक के लिए Rs.3,00,000 लाख व सुपर वरिष्ठ नागरिक के लिए Rs.5,00,000 कर दी गयी। अधिकतम आयकर की दर 30% तथा शिक्षा उपकर 3% लगाया गया है।

    2017-18- करदाता के लिए न्यूनतम करयोग्य आय Rs.2.50 लाख वरिष्ठ नागरिक के लिए Rs.3 लाख व 80 वर्ष व अधिक के बुजुर्गों के लिए Rs.5 लाख रखी गयी है।

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    भारतीय कर प्रणाली के मुख्य लक्षण

    भारतीय कर प्रणाली को अच्छी प्रणाली माना जा सकता है, क्योंकि इसमें निम्नलिखित बातें पायी जाती है-

    1. करारोपण के सिद्धान्तों के अनुकूल- भारतीय कर प्रणाली करारोपण के सिद्धान्तों के अनुकूल है और इसमें वे सभी बातें पायी जाती हैं जो एक अच्छी करारोपण प्रणाली में पायी जानी चाहिए।
    2. करदाता को सुविधा- कर प्रणाली में करदाता की सुविधाओं का भी ध्यान रखा गया है। भारतीय कर प्रणाली दिन-प्रतिदिन उत्पादक भी होती जा रही है।
    3. आय-कर की दरों में कमी- वाँचू समिति के सुझावों को मानते हुए सरकार ने आय-कर की दरें 97.75% से घटाकर 78% कर दीं जिससे कर प्रणाली को अधिक उपयोगी बनाया जा सके। 1999 के बजट में आय-कर की अधिकतम दर 30% रखी गयी है।
    4. अप्रत्यक्ष करों की अपेक्षा परोक्ष करों का अधिक भाग- भारत में प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा सरकार का ध्यान परोक्ष करों की ओर अधिक है। इससे करों का क्षेत्र व्यापक हो जाता है और सरकार को भी अच्छी आय प्राप्त हो जाती है।
    5. बहु-कर प्रणाली- भारत में बहु-कर प्रणाली को साकार रूप प्रदान किया गया है। इसमें कुछ कर ऐसे हैं जो आय की असमानता को दूर करने के साथ-साथ सरकार की आय का मुख्य स्रोत भी हैं।
    6. करारोपण का विस्तृत क्षेत्र- समाज के हर वर्ग पर करारोपण का प्रभाव पड़े, इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रतिवर्ष उत्पादन शुल्कों में वृद्धि की जाती रही है, जिससे करारोपण का भार धनी वर्ग पर अधिक पड़े।
    7. अधिकतम सामाजिक लाभ- कर का उद्देश्य अधिकतम सामाजिक लाभ प्रदान करके बचत करने व कार्य करने की योग्यता व इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव को रोकना है।
    8. समाजवादी कराधान- सरकार ने समाजवादी समाज की सरकार बनाने की चेष्टा की तथा उसी आधार पर देश की कर-व्यवस्था को ढाला गया।
    9. आय प्राप्ति का मुख्य साधन- गैर-कर साधनों की अपेक्षा कर साधनों से केन्द्र व राज्य सरकारों को पर्याप्त आय प्राप्त होने लगी है जिससे कर प्रणाली में उत्पादकता का गुण पाया जाता है।

    भारतीय कर प्रणाली के दोष

    योजनाकाल में तदन्तर किए गए अनेक सुधारों के बाद भी भारतीय कर प्रणाली आज भी पूरी तरह दोष रहित नहीं है। भारतीय कर प्रणाली के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

    (1) बेलोचदार

    भारतीय कर प्रणाली का ढाँचा बेलोच है। आय के साधन भी लोचदार हैं। देश की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के कारण आय के कुछ साधन लोचपूर्ण नहीं रहे; जैसे, मद्य निषेध की नीति। इसके कारण आबकारी से होने वाली वार्षिक आय में निरन्तर कमी हुई है। अतः साधनों की अपर्याप्तता एवं लोच के अभाव के कारण आय को आवश्यकतानुसार बढ़ाया नहीं जा सकता। इस बेलोचता के कारण भारतीय कर प्रणाली को अच्छा नहीं माना गया है।

    (2) समन्वय का अभाव 

    देश में संघीय वित्त-व्यवस्था के कारण आय के साधनों को केन्द्र एवं राज्यों के मध्य विभाजित कर दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र निर्माण सम्बन्धी कार्यों का उत्तरदायित्व राज्य सरकार के कन्धों पर आ गया है, जबकि दूसरी ओर उन्हें आय के साधन बेलोचदार दिए गए हैं, फलस्वरूप राज्यों की वित्तीय स्थिति निरन्तर दुर्बल होती गयी और उन्हें अधिकाधिक मात्रा में केन्द्र पर निर्भर रहना पड़ा, परिणामस्वरूप केन्द्र एवं राज्य के वित्तीय सम्बन्धों में निरन्तर तनाव एवं संघर्ष बना रहा। इस तनावपूर्ण स्थिति को दूर करने हेतु प्रति पाँच वर्ष बाद वित्त आयोग की स्थापना की जाती है जोकि वित्तीय साधनों को केन्द्र एवं राज्य के मध्य विभाजित करने की सिफारिशें प्रदान करता है।

    (3) राष्ट्रीय आय में कम अंशदान 

    भारत में करों द्वारा प्राप्त आय कुल राष्ट्रीय आय का 13% है, जबकि विदेशों में यह प्रतिशत अधिक है। उदाहरणार्थ, ब्रिटेन की कर आय वहाँ की राष्ट्रीय आय का 35% भाग भी, अमेरिका में यह आय 26%, फ्रांस में 25% व भारत में केवल 12% है। यहाँ पर कर बढ़ाने की अभी बहुत गुंजाइश है। इस स्थिति को निम्न प्रकार रखा जा सकता है-

    (राष्ट्रीय आय के प्रतिशत में)

    विकसित देश

    कर से प्राप्त आय (प्रतिशत में)

    विकासशील देश

    कर से प्राप्त आय (प्रतिशत में)

    स्वीडन

    41

    भारत

    12

    फ्रांस

    39

    स्पेन

    12

    प. जर्मनी

    35

    फिलीपाइन्स

    11

    कनाडा

    29

    जमाइका

    9

    स्विट्जरलैण्ड

    23

    अफगानिस्तान

    6

    जापान

    21

    कोलम्बिया

    11

    ब्रिटेन

    35

    मैक्सिको

    10

    अमेरिका

    26

    नाइजीरिया

    9

    इस सम्बन्ध में डॉ. लोकनाथन का मत है कि "उनका जीवन स्तर इतना निम्न है कि कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि किए बिना, उन पर कर लगाना अन्यायपूर्ण होगा।"

    (4) अकुशल प्रशासन

    भारत में कर प्रशासन में शिथिलता पायी जाने से कर की चोरी को प्रोत्साहन मिलता है जिसे कठोर एवं कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के द्वारा रोका जा सकता है तथा आय में पर्याप्त वृद्धि सम्भव की जा सकती है। प्रशासन की अकुशलता के कारण प्रत्यक्ष करों को लोचपूर्ण नहीं बनाया जा सकता है। कर की चोरी से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की हानि होती है जिससे विकास पर बुरे प्रभाव पड़ते हैं।

    (5) कर प्रणाली का अवैज्ञानिक विकास

    भारतीय कर प्रणाली का विकास व्यवस्थित ढंग से नहीं हुआ। समय-समय पर अनेक प्रकार के नवीन करों को लगाया गया, परन्तु उसमें सामंजस्य का अभाव पाया गया क्योंकि समान सम्पत्ति पर केन्द्र एवं राज्य सरकारें दोनों पृथक् पृथक् करारोपण करती हैं तथा एक ही वस्तु पर अनेक बार कर लगाए जाते हैं जिसमें किसी वैज्ञानिक पद्धति को आधार नहीं माना गया।

    (6) असन्तुलित कर ढाँचा

    एक अच्छी कर प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों में सन्तुलन होना चाहिए, परन्तु भारतीय कर प्रणाली में अप्रत्यक्ष करों की प्रधानता रही है तथा करों की चोरी, प्रशासनिक कठिनाइयाँ, आदि के कारण प्रत्यक्ष करों का सदैव से ही अभाव पाया जाता रहा है, जिससे देश में कर प्रणाली असन्तुलित हो गयी है। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों में सन्तुलन नहीं पाया जाता है।

    (7) साधनों का अभाव

    करों को लगाते समय साधनों पर पर्याप्त बल नहीं दिया गया और इसी कारण से प्रतिवर्ष बढ़ते हुए सार्वजनिक आय के साधनों को अपर्याप्त माना गया। साधन देश के व्ययों को पूर्ण करने में असमर्थ रहे। भारत को अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने में विदेशी ऋणों का सहारा लेना पड़ा और देश पर भारी विदेशी कर्जा हो गया।

    (8) अमितव्ययी कर प्रणाली

    भारतीय कर प्रणाली मितव्ययी नहीं है, क्योंकि लगाए गए करों से प्राप्त आय में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई है, जबकि कर संग्रह के व्यय में वृद्धि हो गयी है। 1955-56 के कर-संग्रह पर Rs.12.5 करोड़ व्यय हुआ, जबकि 1998-99 में यह बढ़कर Rs.840 करोड़ तथा वर्ष यह राशि 2009-10 में बढ़कर Rs.1010 करोड़ हो गयी। यह भारी व्यय भारत में अमितव्ययी कर प्रणाली का द्योतक है।

    (9) सिद्धान्तों का अभाव 

    भारतीय कर प्रणाली करारोपण के सर्वमान्य सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं है; जैसे-कर प्रणाली में निश्चितता, करदान सामर्थ्य, आदि सिद्धान्तों का अभाव पाया जाता है।

    (10) करों की ऊँची दरें

    करों की दर की सीमाएँ भी काफी ऊँची रखी गयी हैं जिनका सरलता से भुगतान करना सम्भव नहीं हो पाता, फलस्वरूप विनियोग की प्रेरणा पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। 1957 तक भारत में आय-कर की अधिकतम दर 77% थी जिससे भारत में कर की चोरी होती रही। इसे दूर करने हेतु 1999 में आय-कर की अधिकतम सीमा 33% कर दी गयी तथा वर्ष 2009-10 कर निर्धारण वर्ष में आयकर की अधिकतम दर 30% कर दी गयी।

    (11) सीमित व्यक्तियों द्वारा भुगतान

    हमारी कर प्रणाली का एक दोष यह भी है कि देश में बहुत कम ही व्यक्ति कर का भुगतान कर पाते हैं। प्रत्यक्ष कर देश की जनसंख्या का 1% भाग ही भुगतान कर पाते हैं, जिससे असमानता को समाप्त करना कठिन होता है।

    (12) उत्पादकता का अभाव

    करों से प्राप्त आय का एक बड़ा भाग नागरिक प्रशासन एवं सुरक्षा पर व्यय हो जाता है और राष्ट्रीय निर्माण में उसका उपभोग सम्भव नहीं हो पाता। अतः कर प्रणाली में उत्पादकता का अभाव पाया जाता है और कर का भार अधिक बढ़ जाता है।

    (13) प्रतिगामी कर व्यवस्था

    कर प्रणाली प्रतिगामी है जिसमें न्यायशीलता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि करों में अप्रत्यक्ष करों का अधिक भाग होने से निर्धनों पर इसका भार अधिक पड़ता है।

    (14) कर की चोरी

    भारतीय कर प्रणाली कार्यकुशल न होने से कर की चोरी की सम्भावनाएँ अधिक बढ़ जाती हैं। भारत में प्रतिवर्ष Rs.1,800 करोड़ से आय कर की चोरी होती है। वर्तमान में आधार कार्ड का बनाना अनिवार्य कर दिया गया है और कर प्रणाली को आधार कार्ड से जोड़ दिया गया है।

    भारतीय कर प्रणाली के सुधार हेतु सुझाव

    भारतीय कर प्रणाली के दोषों को दूर करने हेतु निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-

    1. प्रभाव का अध्ययन करना- करारोपण करते समय विभिन्न करों के उपभोग एवं उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए।
    2. राष्ट्रीय आय के साथ वृद्धि- करारोपण का ढाँचा इस प्रकार हो कि उसमें राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ-साथ करों की आय में भी वृद्धि सम्भव हो सके।
    3. प्रेरणादायक- कर प्रणाली ऐसी हो कि उससे उत्पादन एवं बचत को पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त हो तथा योजनाओं को सफल बनाया जा सके।
    4. प्रत्यक्ष करों पर महत्व- देश में अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर प्रत्यक्ष करों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए जिससे धनिकों पर ही अधिक भार पड़ सके।
    5. प्रतिगामी प्रकृति की समाप्ति- कर प्रणाली की प्रतिगामी प्रकृति को समाप्त करके सिंचाई कर एवं मालगुजारी को कम कर देना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो विलासिता पर ही कर लगाए जाने चाहिए तथा आवश्यक पदार्थों पर कर नहीं लगाए जाने चाहिए।
    6. उपभोग पर रोक- विनियोग को प्रोत्साहित करके एवं मुद्रास्फीति की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए उपभोग पर रोक लगायी जानी चाहिए। उपभोग को कम करके ही बचत एवं विनियोग को सरलता से बढ़ाया जा सकता है तथा देश के विकास में सहायता पहुँचायी जा सकती है।
    7.  सख्त कर- प्रशासन देश में कर प्रशासन व्यवस्था कड़ी होनी चाहिए जिससे कर की चोरी को दूर किया जा सके। कर की चोरी को कम करके ही अधिक मात्रा में कर प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके लिए सरकार ने समय-समय पर अनेक उपाय किए हैं तथा कर के ढाँचे में सुधार लाने के प्रयास हुए हैं।

    भारतीय कर प्रणाली में सुधार के सरकारी प्रयास

    स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार द्वारा कर प्रणाली में सुधार लाने की दृष्टि से अनेक जाँच समितियों की स्थापना की गयी। विभिन्न जाँच समितियों की सिफारिशों को निम्न प्रकार से रखा जा सकता हैजिसका विस्तृत वर्णन नीचे दिया गया है-

    सरकारी प्रयास 

    1. कर जाँच आयोग 1953, 
    2. प्रो. काल्डॉर के सुझाव, 
    3. प्रत्यक्ष कर जाँच समिति 1958, 
    4. भूतलिंगम समिति की सिफारिशें, 
    5. वांचू समिति की सिफारिशें 1970, 
    6. राज समिति की सिफारिशें 1972, 
    7. आय कर विभाग की दस सूत्रीय योजना, 
    8. झा प्रत्यक्ष जाँच समिति 1976, 
    9. प्रत्यक्ष कर जाँच चौकसी समिति, 
    10. आर्थिक प्रशासन सुधार आयोग 1981, 
    11. चेलिहा समिति की सिफारिशें, 1985।

    (1) कर जाँच आयोग, 1953

    स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने सन् 1953 में डॉ. जॉन मथाई की अध्यक्षता में कर को सुधारने हेतु कर जाँच आयोग की स्थापना की।

    सौंपे गये कार्य

    कर जाँच आयोग निम्नलिखित समस्याओं का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त किया गया था- 

    • कर प्रणाली का औचित्य- आय एवं सम्पत्ति की विषमताओं को दूर करने एवं विकास योजनाओं के लिए साधन जुटाने हेतु वर्तमान कर प्रणाली के औचित्य की जाँच करना।
    • आर्थिक स्थिरता का प्रभाव- वर्तमान कर पद्धति का आर्थिक स्थिरता पर पड़ने वाले भार का अध्ययन करना।
    • नवीन करों की सम्भावना- वर्तमान कर प्रणाली की संरचना की जाँच करके नवीन करों की सम्भावनाओं पर विचार करना।
    • पूँजी निर्माण पर प्रभाव- आय-कर का पूँजी निर्माण एवं अन्य उत्पादक कार्यों पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन करना।
    • समाज पर प्रभाव- लगाए गए करों का समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना। 
    • अन्य समस्याएँ- अन्य अनेक समस्याओं पर विचार करके महत्वपूर्ण सुझाव देना।

    कर जाँच आयोग की सिफारिशें

    मथाई आयोग ने 1953-54 में अपना कार्य पूर्ण कर लिया था। भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को सन् 1955 में प्रकाशित किया। आयोग द्वारा दिए गए सुझाव निम्नांकित थे-

    (I) सामान्य कर पद्धति सम्बन्धी सुझाव 

    कर जाँच आयोग ने सामान्य कर पद्धति के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • विषमता को कम करना- देश में आर्थिक विषमता को दूर करने हेतु प्रत्यक्ष करों को अधिक प्रगतिशील बनाया जाना चाहिए।
    • करदान क्षमता में वृद्धि- आयोग का मत था कि भारत की करदेय क्षमता की सीमा अभी नहीं आयी है। करों से प्राप्त आय का व्यय इस ढंग से करना चाहिए कि जनता की करदान क्षमता में वृद्धि सम्भव हो सके। इसके लिए सार्वजनिक व्यय के ऐसे कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए, जिससे गरीब वर्ग अधिक लाभान्वित हो।
    • मितव्ययिता- सार्वजनिक व्यय को लोककल्याण कार्यों पर व्यय करते समय मितव्ययिता का ध्यान रखा जाना चाहिए। अर्थात् कर वसूल करने में व्ययों में कमी की जानी चाहिए।
    • आर्थिक समानता- देश में आर्थिक समानता लाने हेतु सार्वजनिक आय एवं सार्वजनिक व्यय के अनुपात को बढ़ाना चाहिए। 
    • व्यावसायिक साधन- सरकार को व्यावसायिक साधनों से अधिकाधिक आय प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। वर्तमान समय में सरकारी उपक्रमों से लाभ के स्थान पर हानि हो रही है जिसे दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए। 
    • नीतियों में समन्वय- संघ एवं राज्य सरकारों के मध्य निर्धारित नीतियों में समन्वय स्थापित करना चाहिए और इसके लिए अखिल भारतीय करारोपण परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए। 
    • हीनार्थ प्रबन्धन- योजनाओं के लिए आवश्यक वित्त प्रदान करने एवं हीनार्थ प्रबन्धन को रोकने हेतु करारोपण एवं ऋण में वृद्धि की जानी चाहिए। हीनार्थ प्रबन्धन करने से देश में मुद्रा स्फीति बढ़ती है जो लाभकारी स्थिति नहीं मानी जाती है।
    • प्रत्यक्ष करों में वृद्धि- आय को बढ़ाने के लिए सरकार को अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर प्रत्यक्ष करों पर अधिक महत्व देना चाहिए।
    • आवश्यक वस्तुओं पर कर- आयोग का मत था कि आवश्यक वस्तुओं पर लगे कर को चालू रखा जाए जिससे बचत को प्रोत्साहन मिलकर पूँजी निर्माण सम्भव हो सके। 
    • करों में वृद्धि- प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार के करों में वृद्धि की जानी चाहिये तथा नवीन प्रकार के कर लगाए जाने चाहिए। 

    (II) केन्द्रीय कर व्यवस्था सम्बन्धी सुझाव 

    स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय सरकार ने यह अनुभव किया कि कर प्रणाली में सुधारों की बहुत आवश्यकता थी। इस सम्बन्ध में आयोग ने मुख्यतया आय-कर, निगम कर, सम्पत्ति कर तथा वस्तु करों के बारे में अपनी सिफारिशें दी हैं। इन सिफारिशों को निम्न प्रकार रखा जा सकता है-

    • व्यय घटाने की व्यवस्था- आय-कर वसूल करने से सम्बन्धित व्ययों को घटाने की व्यवस्था होनी चाहिए। वर्तमान समय में Rs.300 करोड़ संग्रह करने में व्यय हो जाते हैं।
    (अ) आय-कर सम्बन्धी-आय-कर सम्बन्धी सुझाव निम्नलिखित हैं-
    • विकास छूट- राष्ट्र हित के उद्योगों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से उनकी आय पर विकास की छूट दी जानी चाहिए।
    • सहकारी समितियों को छूट- सहकारी समितियों की ब्याज एवं सम्पत्ति की आय पर आय- कर की छूट दी जानी चाहिए। आयोग ने सुझाव दिया था कि जिन सहकारी समितियों की वार्षिक आय Rs.20,000 से कम है, उनसे प्राप्त लाभांश व प्रतिभूतियों से प्राप्त ब्याज को कर-मुक्त रखा जाना चाहिए।
    • मकान की आय- जिस मकान में स्वयं मालिक रहता हो उसके वार्षिक मूल्य का 1/2 या Rs.1,800, जो भी कम हो, घटा देना चाहिए। इस सिफारिश को सरकार ने मान लिया। 1995-96 में मकान मालिक के लिए मकान की आय शून्य मानी जाती है, यदि वह स्वयं उस मकान में निवास करे और किराए पर न दे।
    • न्यूनतम सीमा- आय-कर की न्यूनतम सीमा घटाकर Rs.30,000 कर दी जानी चाहिए। वर्तमान में 1999 बजट के अनुसार न्यूनतम आय-कर की सीमा व्यक्ति के लिए Rs.50,000 है।
    • अर्जित आय की छूट Rs.25,000 तक करने की सिफारिश की गयी।
    • बीमा प्रीमियम एवं फण्ड- बीमा प्रीमियम एवं फण्ड में दी गयी राशि को कुल आय के भाग तक मुक्त कर दिया जाना चाहिए। 4
    • फण्ड का अंशदान- मालिक द्वारा फण्ड में दिए गए चन्दे को सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए।
    • आय-कर- Rs.1.5 लाख से अधिक आय वाले व्यक्तियों पर 85% तक आय-कर वसूल किया जाना चाहिए। वर्तमान में 1999 के बजट के आधार पर Rs.1.50 लाख से अधिक की आय पर कर की दर 33% रखी गयी है।
    • नव-निर्मित मकान- नव निर्मित मकानों की आय पर दो वर्षों तक आय-कर नहीं लगाया जाना चाहिए।
    • राष्ट्रीय महत्व के उद्योग- निजी क्षेत्र के राष्ट्रीय महत्व के उद्योगों के विकास के लिए प्रारम्भिक छूट दी जानी चाहिए।
    • घाटे की सुविधा समाप्त करना- करदाता को घाटे के अगले 6 वर्षों में वसूल करने को दी गयी सुविधा को समाप्त करने की सिफारिश की गयी।

    (ब) आय-कर की चोरी रोकने सम्बन्धी सुझाव- आय-कर की चोरी को रोका जाना आवश्यक समझा गया और इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • जाँच आयोग- कर की चोरी की सुनवाई करने हेतु आय-कर जाँच आयोग की नियुक्ति की जानी चाहिए।
    • गैर-सरकारी समिति- एक गैर-सरकारी समिति का निर्माण किया जाना चाहिए जो आय-कर की वसूली एवं उसकी सफलता हेतु विचार-विमर्श कर सके।
    • आर्थिक स्थिति ज्ञात करना- आय-कर एवं अन्य राजस्व विभाग द्वारा करदाता की आर्थिक स्थिति को ज्ञात करना चाहिए।

    (स) निगम कर सम्बन्धी सुझाव- इस सम्बन्ध में आयोग ने सुझाव दिया कि निगम कर की दर प्रथम Rs.25,000 पर 1 आना तथा शेष पर 2 आना 3 पैसे प्रति रुपया होनी चाहिए।

    (द) करों में वृद्धि- आयोग ने सुझाव दिया कि चीनी, दियासलाई, चाय, मिट्टी का तेल तथा सभी प्रकार के कपड़ों पर कर बढ़ा दिया जाना चाहिए। वर्तमान में GST लगाकर कर प्रणाली को सुगम बनाने के प्रयास किए गए हैं। इससे कर व्यवस्था भी सरल हो जाएगी।

    (य) उपहार कर- यह कर भारत में नहीं लगाया जाना चाहिए। इस कर को लगाने के सम्बन्ध में सिफारिश की गयी थी, परन्तु देश की अर्थव्यवस्था में इसे उपयुक्त नहीं माना गया। 

    (र) सम्पत्ति कर- सम्पत्ति कर से कर की छूट की सीमा को कम करने की सिफारिश की गयी। कर प्रणाली का उपयोग धन और आय की असमानताओं को दूर करने के लिए किया जाना चाहिए। इसके लिए प्रत्यक्ष करों को अधिक प्रगतिशील बनाने एवं कर लागू करने में अधिक कठोरता लाने की सिफारिश की गयी।

    (ल) नवीन उत्पादन- कर कर जाँच आयोग ने कुछ नवीन वस्तुओं पर उत्पादन कर लगाने की सिफारिश की, जिनमें वनस्पति तेल, सिलाई की मशीनें, बैटरियाँ, मिट्टी के बर्तन, बिजली के पंखे, आदि प्रमुख हैं।

    (III) प्रान्तीय राजस्व सम्बन्धी सुझाव

    राज्यों के द्वारा लगाए गए कर एवं शुल्क (जैसे-बिक्री कर, मालगुजारी, मनोरंजन कर, सिंचाई शुल्क, आदि) के बारे में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-

    (अ) मनोरंजन कर- इस सम्बन्ध में आयोग ने सुझाव दिया कि खण्ड दर के स्थान पर प्रतिशत दर पद्धति को अपनाना चाहिए।

    (ब) मालगुजारी- राज्यों को 10 वर्ष के पश्चात् मूल्य के स्तर के आधार पर मालगुजारी में भी परिवर्तन कर देना चाहिए तथा प्राप्त आय का 4% भाग स्थानीय सरकारों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए।

    (स) विकास कर- नवीन कार्यक्रमों को पूर्ण करने हेतु कृषि भूमि पर विकास कर लगाया जाना चाहिए।

    (द) सीमा कर- सीमा कर को प्रत्येक राज्य से समाप्त करके उसके स्थान पर अन्य साधनों का उपयोग किया जाना चाहिए।

    (य) शराबबन्दी- शराबबन्दी के सम्बन्ध में सदस्यों में मतभेद होने से आयोग ने कोई निर्णय नहीं दिया। तीन सदस्यों का मत शराबबन्दी की ओर था, जबकि अन्य तीन सदस्य इसके विपक्ष में थे। इसके कारण आयोग कोई निश्चयात्मक निर्णय न ले सका।

    (र) मोटर वाहन कर- आयोग ने यह सुझाव दिया कि केन्द्र, राज्य व स्थानीय संस्थाएँ वाहनों पर करारोपण करती हैं जो उचित है, परन्तु इनसे प्राप्त होने वाली आय को यातायात के साधनों के विकास में व्यय कर देना चाहिए।

    (ल) सिंचाई शुल्क- सिंचाई शुल्क के प्रबन्ध का संचालन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि नहरों के जल का मितव्ययितापूर्वक उपभोग सम्भव हो सके।

    (व) कृषि आय- जिन कृषकों की कृषि से आय अधिक हो, उन पर कृषि आय-कर लगाया जाना चाहिए।

    (स) बिक्री-कर- बिक्री कर के सम्बन्ध में इस आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • राज्य सरकार के अधीन- बिक्री कर राज्य सरकारों के अधीन होना चाहिए। राज्य सरकारों को इसकी आय अपने पास ही रखने की अनुमति दी जानी चाहिए।
    • महत्व की वस्तुएँ- कोयला, लोहा, इस्पात आदि महत्व की वस्तुओं पर एक ही स्थान पर बिक्री-कर लगाया जाना चाहिए जोकि एक पैसा प्रति रुपया हो।
    • एकरूपता- देश के सभी राज्यों में बिक्री कर के सम्बन्ध में एकरूपता पायी जानी चाहिए।
    • प्रतिशत दर- बिक्री कर की दर एक निश्चित प्रतिशत के आधार पर होनी चाहिए। आयोग ने केन्द्रीय कर-प्रणाली में कई प्रकार से उत्पादन करों में वृद्धि करने की सिफारिश की थी। आयात करों में कमी करने के सुझाव दिए थे।
    • व्यापक-बिक्री- कर अधिकाधिक मात्रा में व्यापक होना चाहिए जिससे कोई भी व्यक्ति उसके प्रभाव से बच न सके। आयोग ने बहु-बिक्री कर लगाने की सिफारिश की।

    (IV) स्थानीय राजस्व सम्बन्धी सुझाव

    इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए गए-

    (अ) चुंगी-कर- चुंगी कर को धीरे-धीरे समाप्त करने की व्यवस्था की जानी चाहिए और इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • टर्मिनल कर- चुंगी के स्थान पर नगरपालिका का टर्मिनल कर लगाने चाहिए।
    • समान दरें- प्रत्येक राज्य में चुंगी की दरें समान होनी चाहिए। यदि विभिन्न राज्यों में दरें समान नहीं हैं तो उनमें समानता लाने के प्रयास किए जाने चाहिए।
    • तोल के आधार पर- चुंगी कर का निर्धारण मूल्य आधार पर न होकर तोल के आधार पर किया जाना चाहिए।
    • खाद्य पदार्थों पर चुंगी- खाद्य पदार्थों पर चुंगी की दरों को बढ़ाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

    (ब) कर लगाने सम्बन्धी सुझाव- आयोग ने सुझाव दिया कि कुछ विशेष प्रकार के करों की जन-सत्ताओं द्वारा ही लगाया जाना चाहिए।

    (स) अनुदान सम्बन्धी- कर जाँच आयोग ने यह सुझाव दिया था कि सरकारों की आय पर्याप्त न होने के कारण सरकारों को निम्न सिद्धान्तों के आधार पर स्थानीय संस्थाओं को उदारतापूर्वक अनुदान देना चाहिए।

    • अनावृत्ति अनुदान- आवश्यकता पड़ने पर राज्य सरकार द्वारा स्थानीय संस्थाओं को अनावृत्ति अनुदान दिए जाने चाहिए।
    • अतिरिक्त धन- अनुदान ऐसी संस्थाओं को दिया जाना चाहिए, जिनके पास व्यय करने को अतिरिक्त धन की समुचित व्यवस्था हो।
    • मात्रा निर्धारित करना- अनुदान की मात्रा को निर्धारित करते समय जनसंख्या, क्षेत्रफल एवं आय के साधन को ध्यान में रखना चाहिए।
    • अल्पकालीन सहायता- यह अनुदान अल्पकाल तक ही दिये जायें, जिससे स्थानीय संस्थाएँ आत्मनिर्भर हो सकें।

     भारतीय कर जाँच आयोग की आलोचनाएँ

    आयोग ने अपनी सिफारिशों द्वारा एक रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी कराधान प्रणाली पुनः स्थापित करने की चेष्टा की है। उपर्युक्त सुझावों को देखने के बाद सम्पूर्ण देश के कर ढाँचे व कर प्रणाली की स्थिति स्पष्ट हो गयी, फिर भी इस सन्दर्भ में निम्नलिखित आलोचनाएँ की गयीं-

    1. कार्य करने की इच्छा व शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव- आयोग ने कर-सम्बन्धी सुझावों के आधार पर यह कहा गया कि इससे व्यक्तियों के कार्य करने की शक्ति एवं इच्छा पर बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं।
    2. करदेय क्षमता का उचित अध्ययन नहीं- आयोग ने नागरिकों की करदेय क्षमता का ठीक-ठीक अध्ययन नहीं किया जिससे आयोग ने और अधिक कर लगाने की सिफारिशें कीं।
    3. उपभोग पर भ्रमपूर्ण नियन्त्रण- आयोग का विचार था कि करों द्वारा उपभोग पर नियन्त्रण लगाया जाना चाहिए, परन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण माना गया। सरकार ने आयोग की सभी सिफारिशों को मान लिया और भारतीय कर प्रणाली में सुधार लाने की इस व्यवस्था को एक आधार माना गया।

    (2) प्रो. काल्डॉर के कर-सुधार प्रस्ताव

    कर प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाने हेतु भारत सरकार ने जनवरी 1956 में प्रो. काल्डॉर को भारत में आमन्त्रित किया। उन्होंने भारत सरकार की कर प्रणाली में सुधार लाने व उसे व्यवस्थित करने हेतु जो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे, वे आज भी मान्य हैं और भविष्य में मान्य रहेंगे।

    काल्डॉर के सुझाव प्रस्ताव के उद्देश्य

    काल्डॉर ने सुझाव देते समय निम्नलिखित उ‌द्देश्यों को ध्यान में रखा-

    • कर की चोरी को रोकना- देश में कर की चोरी को रोका जाना चाहिए जिससे सरकार को अधिक धनराशि प्राप्त हो सके।
    • प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना- प्रत्यक्ष करारोपण का बचत एवं विनियोग की शक्ति एवं इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
    • विस्तृत आधार- प्रत्यक्ष करारोपण के आधार को नवीन कर लगाकर विस्तृत बनाया जाना चाहिए।

    प्रो. काल्डॉर की सिफारिशें

    काल्डॉर का मत था कि "भारत में प्रत्यक्ष करारोपण की वर्तमान प्रणाली अकुशल और अन्यायपूर्ण है।" प्रो. काल्डॉर द्वारा सुधार की दृष्टि से निम्नलिखित सुझाव दिए गए-

    (अ) नवीन कर

    करों को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु काल्डॉर ने चार करों को लगाने की सिफारिश की, जोकि निम्न प्रकार हैं-

    (1) सम्पत्ति कर (Wealth Tax)- काल्डॉर का मत था कि Rs.1 लाख से अधिक की सम्पत्ति पर उसके शुद्ध मूल्य पर कर लगाया जाना चाहिए। वर्तमान में कर की दरें निम्नवत् हैं-

    प्रथम Rs.15 लाख तक          शून्य
    Rs.15 लाख से अधिक पर         1%

    पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)- इस कर के पक्ष में निम्नलिखित तर्क रखे गए-

    • कर की चोरी का अभाव- आय कर के साथ सम्पत्ति कर लगाने से कर की चोरी की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं।
    • करदान क्षमता का सूचक- यह कर आय की अपेक्षा व्यक्ति की करदान क्षमता का अच्छा सूचक माना जाता है।
    • विषमता दूर होना- यह कर देश में आर्थिक विषमता को दूर करने में सहायक सिद्ध होगा।
    • वसूली में सरलता- इस कर को वसूल करना अपेक्षाकृत सरल होगा।

    प्रशासन कार्य में भी मितव्ययिता लायी जा सकेगी तथा आर्थिक जगत् में आवश्यक सुधार सम्भव हो सकेगा।

    (2) व्यय कर (Expenditure Tax)- सम्पत्ति के साथ व्यक्तिगत आय पर भी कर लगाने की सिफारिश की तथा सुझाव दिया कि Rs.10,000 से Rs.12,500 तक के वार्षिक व्यय पर 25% की दर से तथा Rs.50,000 से अधिक व्यय पर 30% की दर से कर लगाया जाना चाहिए।

    पक्ष में तर्क (Arguments Against)- व्यय कर भारत के लिए अच्छा बताया गया और इस कर के पक्ष में निम्नलिखित तर्क रखे गये-

    • अनुकूल प्रभाव- यह कर बचतों पर नहीं लगाए जाते जिससे बचत, विनियोग एवं कार्य करने की इच्छा पर अनुकूल प्रभाव पड़ते हैं। विनियोग बढ़ने से औद्योगिक प्रयास किए जा सकते हैं तथा उत्पादन में वृद्धि सम्भव हो सकती है।
    • अच्छा आधार- आय को करारोपण का अच्छा आधार न मानकर व्यय को आधार माना गया है। इस प्रकार आधार परिवर्तन करके अधिक कर प्राप्त करने की सिफारिश की गयी। यह कर सफल न होने के कारण हटा दिया गया।

    (3) पूँजी लाभ कर (Capital Gains Tax)- करदाता की सकल आय यदि Rs.25,000 से अधिक हो, तो उस पर पूँजीगत प्राप्तियों पर 7 आने प्रति रुपये की दर से आय कर लगाना चाहिए। भारत सरकार ने नवम्बर 1956 से पूँजीगत आय पर कर लगा दिया। इस कर की दरें साधारण आय-कर की दरों के समान हैं। पूँजीगत आय का भाग कर के 3 रूप में प्राप्त किया जाता है। वर्तमान में निर्देशांकों की सहायता से पूँजीगत आय की गणना की जाती है। लागत को उस वर्ष के निर्देशांक के आधार पर निकालकर बिक्री मूल्य में से घटा देते हैं और शेष आय ही पूँजी लाभ कहलाता है। 

    पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)- इस कर के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए -

    • करदेय क्षमता में वृद्धि- इस कर से व्यक्ति की करदेय क्षमता में वृद्धि हो जाती है, अतः इसे व्यक्ति की कुल आय में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
    • सुविधा- इस कर को वसूल करने में सुविधा बनी रहेगी।
    • आय प्राप्त होना- इस कर को लगान से सरकार को अतिरिक्त आय प्राप्त होगी। इससे सरकारी राजस्व में वृद्धि होगी।
    • बेईमानी से छुटकारा- आय-कर बचाने हेतु करदाता द्वारा जो बेईमानी की जाती है, उससे भी छुटकारा प्राप्त होगा।

    (4) उपहार कर (Gift Tax)- यह कर 1958 से लागू किया गया तथा Rs.30,000 से अधिक के मूल्य के उपहारों पर इस कर को लगाने की सिफारिश की गयी।

    (ब) अन्य सुझाव

    प्रो. काल्डॉर के अन्य सुझाव निम्न प्रकार थे-

    • अधिकतम दर- काल्डॉर ने सुझाव दिया था कि आय-कर की अधिकतम दर 45% से अधिक नहीं होनी चाहिए। करों की चोरी को रोकने हेतु काल्डॉर ने बताया कि आय-कर का हिसाब विस्तार से रखा जाना चाहिए।
    • अनिवार्य अंकेक्षण कर की चोरी को रोकने हेतु- प्रो. काल्डॉर ने सुझाव दिया कि Rs.50,000 को व्यापारिक आय व Rs.1 लाख से अधिक की आय के सम्बन्ध में हिसाब-किताब की अनिवार्य रूप से जाँच होनी चाहिए, जिससे करों की चोरी को रोका जा सके।

    प्रो. काल्डॉर ने स्वीकार किया कि यदि इन सुझावों को मान लिया गया तो उससे देश को निम्नलिखित लाभ होंगे-

    (क) करदेय क्षमता को कम करने के उद्देश्य से जो आय छिपायी गयी है वह स्वतः ही सामने आ जाएगी।

    (ख) आय-कर की दरों में कमी करने से पूँजी का निर्माण होगा तथा काम करने व बचत करने की इच्छा एवं योग्यता पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

    • दर का निर्धारण- वर्तमान आय-कर, सम्पत्ति कर, व्यय कर, उपहार कर, आदि का निर्धारण एक विस्तृत हिसाब लेखे के आधार पर किया जाना चाहिए।
    • एकाकी कर- कम्पनी की करारोपण की जटिल कर प्रणाली के स्थान पर सम्पूर्ण आय पर 7 आने की दर से एक अकेला कर लगाया जाना चाहिए तथा अन्य समस्त प्रत्यक्ष करों को समाप्त कर देना चाहिए।

    काल्डॉर की आलोचनाएँ 

    काल्डॉर के प्रस्तावों को कार्यान्वित करने से निजी विनियोगों को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। काल्डॉर की प्रमुख आलोचनाएँ अग्र प्रकार हैं- 

    • कुशल प्रशासन यन्त्र का अभाव- काल्डॉर के सुझावों को कार्यान्वित करने हेतु देश में एक कुशल प्रशासन यन्त्र होना चाहिए, जिसका देश में अभाव पाया जाता है।
    • स्वर्ण में रखना- कर लगाने पर जनता बैंकों से अपना धन निकालकर स्वर्ण में लगा देगी और इस प्रकार उन्हें कर से मुक्ति प्राप्त हो जाएंगी। ऐसा करने से काल्डॉर के सुझावों का अच्छा प्रभाव जनता पर नहीं पड़ेगा।
    • अविकसित राष्ट्र- काल्डॉर की सिफारिशें विकसित राष्ट्रों में सरलता से लागू की जा सकती हैं, परन्तु भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में उन्हें कार्यान्वित करना सम्भव नहीं है।
    • एक ही वर्ग पर भार- काल्डॉर की योजना का भार समाज के एक ही वर्ग पर पड़ने से अधिक आय प्राप्त होना कठिन होगा।

    सरकारी कार्यवाही

    भारत सरकार ने प्रो. काल्डॉर के अधिकांश प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया जिसे प्रत्यक्ष करारोपण में लागू किया गया। सम्पत्ति कर तथा व्यय कर 1957-58 व उपहार कर 1958-59 में भारत में लागू किया गया।

    (3) प्रत्यक्ष कर जाँच समिति, 1958

    कर की चोरी रोकने एवं प्रत्यक्ष करों का विस्तार से अध्ययन करने के उद्देश्य से 1958 में श्री महावीर त्यागी की अध्यक्षता में प्रत्यक्ष कर प्रबन्धन जाँच समिति की नियुक्ति की गयी जिसने अपनी रिपोर्ट 30 नवम्बर, 1959 को प्रस्तुत की और 9 सितम्बर, 1960 को यह रिपोर्ट लोक सभा में रखी गयी।

    प्रत्यक्ष कर जाँच समिति की सिफारिशें 

    प्रत्यक्ष कर जाँच समिति की प्रमुख सिफारिशों को निम्न प्रकार से रखा जा सकता है-

    1. केन्द्रीय परामर्श समिति- आयोग का सुझाव था कि देश में एक केन्द्रीय परामर्श समिति की स्थापना की जानी चाहिए।
    2. जनता में जागृति- कर की चोरी के विरुद्ध जनता में जागृति उत्पन्न होनी चाहिए जिससे सरकार को अधिक कर की प्राप्ति सम्भव हो सके।
    3. धर्मार्थ संस्थाओं की आय में छूट- धर्मार्थ संस्थाओं की आय में छूट दी जानी चाहिए। इसके लिए आयकर में धारा 80g को बनाया गया जिसके अन्तर्गत दान देने पर आय में छूट दी गयी।
    4. दण्ड की व्यवस्था- कर की चोरी करने वाले व्यक्तियों पर दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
    5. पारस्परिक समन्वय- विभिन्न विभागों में पारस्परिक समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे कर की चोरी को रोका जा सके।
    6. कर निर्धारण करना- किसी व्यक्ति द्वारा कर बचाने की दृष्टि से अपनी सम्पत्ति के हस्तान्तरण करने पर कमिश्नर को कर लगाने के अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
    7. अस्थायी निर्धारण- सम्पत्ति कर एवं व्यय कर के सम्बन्ध में अस्थायी कर निर्धारण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
    8. 4 वर्ष की अवधि- सम्पदा कर का निपटारा 4 वर्षों की अवधि में अवश्य हो जाना चाहिये।
    9. योग्य अधिकारी- बड़ी आय वाले मामलों का निपटारा योग्य अधिकारियों द्वारा किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में सरकार द्वारा योग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए।
    10. विज्ञापन व्यवस्था कर- भुगतान करने के सम्बन्ध में सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से विज्ञापन करने की व्यवस्था होनी चाहिए।
    11. 30 जून तक विवरण- करदाता को अपनी आय का विवरण समाप्त होने वाले समय से चार माह अथवा 30 जून तक (जो पहले आवे) बनाकर भेज देना चाहिए, अन्यथा दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए।
    12. निर्धारित फार्म- सुविधा की दृष्टि से आय के विवरण को निर्धारित फार्म पर भरकर प्राप्त करना चाहिए।
    13. फर्म का पंजीयन- यदि एक फर्म एक बार पंजीकृत हो चुकी है तो उसका प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण करना आवश्यक नहीं है।
    14. अपीलेट ट्रिब्यूनल- कर के कुशल संचालन के लिए अपीलेट ट्रिब्यूनल की स्थापना को जारी रखना चाहिए।
    15. ब्याज- यदि करदाता निर्धारित अवधि में कर की राशि का भुगतान न करे तो उससे 6% वार्षिक के हिसाब से ब्याज वसूल करना चाहिए।
    16. कर की वापसी- आधिक्य कर जमा होने पर उस राशि को वापस करना चाहिए और 6 माह की अवधि में वापस करने पर उस राशि पर 6% ब्याज देना चाहिए।
    17. कानूनी कार्यवाही से सुरक्षा- करदाता के विरुद्ध गवाही देने वाले व्यक्ति को कानूनी कार्यवाही के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए।
    18. दण्डनीय अपराध- कर की चोरी को एक कानूनी व दण्डनीय अपराध माना जाना चाहिए। 
    19. समाचार-पत्रों में प्रकाशन- जिन व्यक्तियों पर Rs.5,000 से अधिक आय-कर बकाया हो उनके नाम व पते समाचार पत्रों व गजट में प्रकाशित किए जाने चाहिए।
    20. पुनर्संगठन- कर विभाग का पुनर्संगठन किया जाना चाहिए तथा निरीक्षण विभाग को निरीक्षण, जाँच-पड़ताल, पर्यवेक्षण एवं शिक्षण चार वर्गों में विभाजित कर दिया जाय।
    21. कर की चोरी से सम्बन्धित अनेक सिद्धान्तों को सरकार ने स्वीकार कर लिया। 

    (4) भूतलिंगम समिति की सिफारिशें, 1967

    भारतीय कर प्रणाली में अभिनवीकरण एवं सरलीकरण लाने की दृष्टि से मार्च 1968 में भारत सरकार ने वित्त मन्त्रालय के भूतपूर्व सचिव श्री भूतलिंगम की अध्यक्षता में इस समिति की नियुक्ति की। भूतलिंगम इस समिति के एकमात्र सदस्य थे।

    भूतलिंगम समिति की सिफारिशें

    सन् 1968 में प्रकाशित समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्न प्रकार थीं-

    (1) केन्द्रीय उत्पादन कर- समिति ने सुझाव दिया कि जिन वस्तुओं के उत्पादन पर केन्द्र को उत्पादन कर लगाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, उन पर मूल्यानुसार 'सामान्य उत्पादन शुल्क' लगाया जाना चाहिए जिससे मैविष्य में भी उत्पादन कर राजस्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। उत्पादन में स्थिरता लाने की दृष्टि से भारतीय कम्पनियों पर अति-कर को समाप्त करने की सिफारिश की गयी।

    (2) निगम कर- आय कर में प्रगतिशीलता का सिद्धान्त गैर-पंजीकृत कम्पनियों पर ही लागू होने के कारण समिति ने सुझाव दिया कि कर-योग्य आय में उपयुक्त छूट दी जाय तथा कर की दरों में प्रचलित अन्तर को समाप्त किया जाए।

    (3) उपहार कर- समिति का मत था कि उपहार कर लगाने का मुख्य उद्देश्य उत्पादन शुल्क की कर-वंचना को रोकना है। अतः वर्तमान दान का भार उपहार देने वाले पर होना चाहिए। इस सम्बन्ध में व्यक्ति द्वारा वर्षभर में जो उपहार दिए जाते हैं उनके मूल्य पर उपहार कर लगाया जाना चाहिए।

    (4) सीमा शुल्क- सीमा-करों का ढाँचा सरल किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में समिति का विचार था कि इनमें अभिनवीकरण एवं सरलीकरण की दिशा में जो कदम उठाए गए, उन्हें और आगे बढ़ाया जाना चाहिए। विलासिता की वस्तुओं को छोड़कर शेष वस्तुओं पर अधिक सीमा शुल्क की दरें नहीं होनी चाहिए। सीमा शुल्क की दरों की संख्या में कमी करना सरलीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास होगा। समिति का सुझाव था कि कटौती की व्यवस्था को आर्थिक प्रेरणा हेतु प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे प्रशासनिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस नीति से प्राप्त होने वाले लाभ भी संदिग्ध बन जाते हैं।

    (5) आय-कर- आय-कर की चोरी को रोकने के सम्बन्ध में समिति ने अनेक उपाय बताए। आय-कर के सफल प्रशासन के सम्बन्ध में समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें कर्की-

    • व्यक्तिगत आय पर कर में छूट- समिति ने सुझाव दिया कि न्यूनतम कर योग्य सीमा Rs.7,500 तथा अविभाजित परिवार के लिए Rs.11,000 वार्षिक कर दी जाए और बड़े कारखाने की छानबीन पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
    • ह्रास- समिति का विचार था कि ह्यस की वर्तमान दरें उचित हैं, परन्तु नवीन मशीनों को क्रय करने पर, उनका मूल्य बढ़ जाने के कारण, अधिक व्यय करना होता है। अतः ह्यास की ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि मूल कीमत के अतिरिक्त 20% अधिक राशि नवीन मशीनों को क्रय करने हेतु उपलब्ध हो सके।
    • विकास छूट- विकास छूट सदैव नवीन उद्योगों की स्थापना पर दी जाती है जिससे उद्योगपति सन्तुष्ट हैं। परन्तु समिति का मत था कि इस छूट को समाप्त कर दिया जाना चाहिए जिससे इसका दुरुपयोग रोका जा सके तथा पूँजी का उचित उपयोग सम्भव हो सके।
    • सहकारी संस्थाओं पर करारोपण- सहकारी संस्थाओं की आयं पर व्यक्तियों की भाँति करारोपण करना उचित नहीं है। अतः समिति का सुझाव था कि सहकारी संस्थाओं के लिए आय-कर की न्यूनतम सीमा Rs.25,000 होनी चाहिए और कर की प्रभावशाली दरें कम्पनियों की तुलना में 10% कम होनी चाहिए।

    (6) अन्य सुझाव- समिति ने अन्य सुझाव भी दिए जैसे कि पूँजी कर की 1% की उगाही, विकास कर की छूट, करदेयता को कर वर्ष की आय से सम्बन्धित करना, लाभांश कर की समाप्ति, अतिकर की दर 35% से घटाकर 25% करना, आदि।

    (5) वांचू समिति की सिफारिशें, 1970

    केन्द्रीय सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री के. एन. वांचू की अध्यक्षता में मार्च 1970 में प्रत्यक्ष कर जाँच समिति की स्थापना की गयी जिसमें 5 सदस्य थे। इस समिति को- 

    • काले धन की जाँच करने एवं 
    • इसकी बढ़ोत्तरी को रोकने हेतु उपायों पर विचार करने को कहा गया था। इस समिति को 
    • प्रत्यक्ष करों के ढांचे का अध्ययन करना, 
    • कर-वंचन को रोकने, 
    • करों की चोरी रोकने हेतु विभिन्न कानूनी उपाय बताने, एवं 
    • करों की बकाया राशि को कम करने सम्बन्धी उपाय बताने का कार्य भी दिया गया।

    समिति का मत था कि काले धन की बढ़ोत्तरी के लिए, 

    • आय-कर की ऊँची दरें, 
    • गलत लाइसेन्स व्यवस्था, 
    • अर्थव्यवस्था में अभाव का होना, 
    • राजनीतिक पार्टियों को दिए गए दान, 
    • भ्रष्ट व्यापारिक कुरीतियाँ, आदि जिम्मेदार हैं।

    कर प्रणाली के वर्तमान दोषों को दूर करने के उद्देश्य से वांचू समिति ने अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए।

     वांचू समिति 1970 की मुख्य सिफारिशें

    वांचू समिति की मुख्य सिफारिशें निम्न प्रकार हैं-

    (1) काले धन सम्बन्धी सिफारिश- "समिति ने काले धन को देश की अर्थव्यवस्था में कैंसर की संज्ञा देते हुए कहा कि यदि समस्या पर अविलम्ब रोक न लगायी गयी तो यह हमारी अर्थव्यवस्था को पूर्णतया विषाक्त बना देगी।" काले धन को बाहर निकालने के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए गए-

    • करदाताओं द्वारा स्वेच्छा से अपने काले धन को बाहर निकालने के लिए जो भी योजना बनायी जाए व युद्धोत्तरकाल या साधारण परिस्थितियों में ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। 
    • अतः भटके हुए करदाताओं से परस्पर समझौते द्वारा ही काले धन का मामला तय किया जाना चाहिए। 
    • कठोरता से काम लेने पर करों की वसूली का काम शिथिल हो जाएगा। 
    • समझौता ट्रिब्यूनल द्वारा परस्पर समझौते की व्यवस्था की जानी चाहिए। 
    • वांचू समिति ने स्वेच्छा से घोषणा योजना को गलत बताया था, ऐसा असामान्य स्थिति में ही किया जाना चाहिए। समिति का मत था कि ऐसी पद्धति देश में तीन बार अपनायी गयी, परन्तु इस पद्धति से सरकार को बहुत कम सफलता मिली। 
    • वांचू समिति का कथन था कि तलाशी लेने का अधिकार आय कर विभाग को है। वह सरलता से कर चोरी तथा काले धन को पकड़ सकता है। इस विभाग को अपने अधिकार का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।

    (2) बैंकों का खोला जाना- समिति ने भारत में स्विट्जरलैण्ड के बैंकों के नमूने के आधार पर बैंक खोले जाने का विरोध किया क्योंकि इससे काले धन को प्रोत्साहन मिलता है। समिति ने तलाशी लेने एवं छापे मारने की सिफारिश की।

    (3) कर की दरें- समिति का सुझाव था कि अधिकतम दर को 97.75% से कम करके 75% कर दिया जाए, जिससे जनता कर की चोरी न कर सके और चोरी को एक सामाजिक अपराध माने। 2009 के बजट में आयकर में कर की अधिकतम दर 30% ही रखी गयी है।

    (4) राजनीतिक दलों को चन्दे- राजनीतिक दलों को जो चन्दे दिए जाते हैं उसकी वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए और करदाता द्वारा चन्दे की अधिकतम राशि कुल आय के 10% या ₹ 10,000 से अधिक नहीं हो सकती।

    (5) कानूनी व्यवस्था की जानकारी- करदाताओं को भी कानूनी व्यवस्थाओं की आवश्यक जानकारी दी जानी चाहिए, जिससे वे अपनी जिम्मेदारी को समझ सकें।

    (6) मुकदमे की व्यवस्था- समिति का मत था कि कर चोरी के प्रति भय उत्पन्न करने की दृष्टि से व्यापक आधार पर मुकदमे चलाने की व्यवस्था हो।

    (7) फार्म में संशोधन- समिति का सुझाव था कि आय के वितरण सम्बन्धी फार्म में आवश्यक संशोधन किया जाए, जिससे आय का विस्तृत ब्यौरा उपलब्ध हो सके।

    (8) दीर्घकालीन वाहक बॉण्ड- समिति ने सुझाव दिया कि सरकार द्वारा दीर्घकालीन वाहक बॉण्ड्स जारी किए जाने चाहिए जिन पर 3% ब्याज देने की व्यवस्था हो।

    (9) अधिकारों के दुरुपयोग पर रोक- तलाशी लेते समय अधिकारी द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। तलाशी में खुफिया जानकारी की वर्तमान व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिए।

    (10) लाइसेन्स एवं नियन्त्रण- समिति का विचार था कि लाइसेन्स एवं नियन्त्रण को कम किया जाना चाहिए क्योंकि यह करों की चोरी एवं काले धन को प्रोत्साहित करती है।

    (11) छोटे करदाता- छोटे करदाताओं के सम्बन्ध में कर निर्धारण करने की प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिए जिससे उन्हें असुविधा न हो।

    (12) मनोरंजन व्यय- मनोरंजन व्यय को एक निर्धारित सीमा तक आय में कटौती के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए। इससे करदाता पर अच्छा प्रभाव पड़ सकता है।

    (13) कृषि आय- समिति का मत था कि कृषि आय काले धन को प्रोत्साहित करती है, अतः कृषि को भी करारोपण में सम्मिलित कर लिया जाना चाहिए। इससे काले धन पर रोक लगाकर कर वंचना को रोका जा सकेगा।

    (14) स्थायी खाता नम्बर- करदाताओं को एक स्थायी खाता नम्बर प्रदान किया जाए जिससे उनका रिकॉर्ड सही ढंग से रखा जा सके तथा उन पर कर का निर्धारण उचित रूप से सम्भव हो सके।

    (15) कर-वंचना सम्बन्धी सुझाव- कर-वंचना के सम्बन्ध में इस समिति ने महत्वपूर्ण सुझाव दिए जिससे काले धन को रोका जा सके।

    (16) कर बचाव सम्बन्धी सुझाव- कर-वंचना एवं कर-बचाव में थोड़ा अन्तर है। कर-वंचना में धोखा देकर बचाया जाता है, जबकि कर-यचाव में कानून का सहारा लेकर छूटों का लाभ उठाया जाता है। कर बचाव सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए।

    (17) बकाया कर वसूली के सम्बन्ध में सुझाव- ये सुझाव निम्नलिखित हैं-

    • बकाया कर की किस्त जमा न करने पर कड़ा रुख अपनाया जाना चाहिए। 
    • कर्मचारियों के कार्य की कड़ी निगरानी रखी जाए तथा कार्य में समन्वय हो।
    • कर जमा न करने पर जेल भेजे जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
    • करदाता की दयनीय स्थिति होने पर माफी की व्यवस्था हो।
    • प्रशिक्षित कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिए।

    (18) छूट व कटौतियाँ सम्बन्धी सुझाव- कर-निर्धारण में जो रियायतें दी जाती हैं, यद्यपि ठोस तर्कों पर आधारित हैं, फिर भी यह आवश्यक है कि कुछ समय बाद इनकी जाँच होती रहे।

    (19) कर प्रशासन सम्बन्धी सुझाव- कर की छूटें बढ़ाने व करों को वसूल करने हेतु कठोर नियम अपनाए जाने चाहिए।

    सरकार ने वांचू समिति की सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और उन्हें धीरे धीरे कार्यान्वित किया गया।

    (6) राज समिति, 1972

    24 फरवरी, 1972 को कृषि सम्पत्ति एवं आय पर कर लगाने की दृष्टि से देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. के. एन. राज की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की गयी जिसने अपनी रिपोर्ट 31 अक्टूबर, 1972 को सरकार ने सामने रखी।

    सौंपे गए कार्य

    राज समिति को कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर अपने विचार व्यक्त करने थे। विशेषकर कृषि विकास, प्रगतिशील कर एवं प्रभावपूर्ण करों को लगाना।

    राज समिति की सिफारिशें

    राज समिति की सिफारिशों को निम्न प्रकार से रखा जा सकता है-

    1. सम्पत्ति कर को साधन न मानना- कृषकों पर लगाए गए सम्पत्ति-कर को साधन जुटाने का साधन नहीं माना जाना चाहिए। केवल इसी आधार पर सरकार को अपनी नीति का पालन नहीं करना चाहिए।
    2. प्रगतिशील करारोपण- कृषि एवं गैर-कृषि आय पर प्रगतिशील करारोपण की प्रणाली अपनाने से वास्तविक आय का सही अनुमान सम्भव नहीं होगा और भ्रष्टाचार में वृद्धि हो जाएगी।
    3. मालगुजारी कर- मालगुजारी का निर्धारण भिन्न-भिन्न आधारों पर होने के कारण मालगुजारी पर प्रगतिशील दरों पर अधिभार लगाने की समान व्यवस्था नहीं है।
    4. कृषि क्षेत्र पर प्रत्यक्ष करारोपण- समिति का मत था कि कृषि क्षेत्र पर प्रत्यक्ष करारोपण को ध्यान में रखा जाना चाहिए-
    5. कृषि जोत पर कर- समिति ने कृषि जोत पर कर लगाने का सुझाव दिया जो राज्य सरकारों द्वारा लगाया एवं वसूल किया जाएगा। 
    6. करदाता के कर भार में अन्तर- समिति का सुझाव था कि समान आय वाले करदाताओं पर कर-भार में अन्तर केवल इस आधार पर न हो कि एक करदाता की आय का कुछ अंश कृषि आय के रूप में है।
    7. कृषि व गैर कृषि आय- समिति का सुझाव था कि कृषि एवं गैर-कृषि दोनों प्रकार की आयर्यों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
    8. सम्पत्ति कर- समिति ने सुझाव दिया कि सम्पत्ति कर परिवार के आधार पर लगाया जाना चाहिए जिसमें छूट की आधारभूत सीमा Rs.1 लाख हो तथा अन्य सभी छूटों को समाप्त किया जाना चाहिए।
    9. अंश को जोड़ना- करदाताओं के पास कम्पनियों एवं सहकारी समितियों के अंश, आदि को कर हेतु सम्पत्ति में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
    10. आर्थिक व धार्मिक संगठन- आर्थिक एवं धार्मिक संगठनों को कर से मुक्त न रखा जाए।
    11. पशुपालन, मुर्गीपालन- समिति का सुझाव था कि पशुपालन, मुर्गीपालन एवं डेरी व्यवसाय में होने वाली आय को आयकर की परिधि में सम्मिलित किया जाए।

    (7) आय-कर विभाग की दस-सूत्रीय योजना

    केन्द्रीय कर बोर्ड के अध्यक्ष श्री एस. आर. मेहता ने आयकर विभाग की सहायता से एक दस-सूत्रीय योजना बनायी। इस योजना में प्रेरणा एवं दण्ड दोनों की ही व्यवस्था कर दी गयी हैं।

    यह योजना 'गाजर व डण्डे' के नाम से जानी जाती है। इस योजना की दस मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-

    • रिफण्ड दावों का शीघ्रता से निपटारा करना।
    • काले धन व कर-वंचना का रोकने हेतु छापामार दस्तों को सक्रिय बनाना।
    • संग्रह व वसूली को सक्रिय बनाना।
    • करदाताओं के प्रति अति शिष्टता का व्यवहार हो।
    • काले धन के विरुद्ध लगातार लड़ाई लड़ी जानी चाहिए।
    • कर-निर्धारण प्रक्रिया को काफी सरल बनाया जाना चाहिए।
    • करदाताओं की तकनीकी गलती पर सहानुभूतिपूर्वक विचार हो।
    • नए-नए करदाताओं की खोज करने हेतु समय-समय पर सर्वेक्षण किए जायें।
    • कर के मामलों की छानबीन गहराई से की जाए।
    • करदाताओं को विज्ञापन, आदि की सहायता से शिक्षित किया जाना चाहिए।

    (8) झा अप्रत्यक्ष कर जाँच समिति, 1976

    सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार की दृष्टि से 22 जुलाई, 1976 को जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल श्री एल. के. झा की अध्यक्षता में अप्रत्यक्ष कर जाँच समिति की नियुक्ति की गयी जिसमें अरुणाचलम फेडरेशन ऑफ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री के अप्रत्यक्ष करों सहित 6 सदस्य थे। इस समिति को केन्द्र, राज्यों एवं स्थानीय सरकारों के अप्रत्यक्ष करों के ढाँचे का पुनरीक्षण करना था।

    शर्तों का निर्धारण

    केन्द्रीय सरकार ने इस समिति की शर्तें बड़ी विस्तृत रखीं। ये शर्तें निम्न प्रकार हैं-

    • यह समिति केन्द्र, राज्य व स्थानीय सरकारों के अप्रत्यक्ष करों के ढाँचों को पुनरीक्षित कर सकती है।
    • अप्रत्यक्ष करों के विकास से उत्पन्न जटिलताएँ समाप्त करने सम्बन्धी सुझाव देना।
    • कर प्रशासन की भिन्नता के बारे में विचार करना।
    • VAT (वेल्यू एडेट टैक्स) के बारे में आवश्यक सुझाव देना।

    झा अप्रत्यक्ष कर जाँच समिति, 1976  की सिफारिशें

    समिति का मत था कि "निः सन्देह भारत के अप्रत्यक्ष करारोपण राजस्व का एक महत्वपूर्ण अंग है और इससे कुल राजस्व का 80% भाग प्राप्त होता है, जोकि अन्य देशों से कहीं अधिक है किन्तु उसमें आधार लाने की अभी पर्याप्त गुंजाइश है।" समिति की मुख्य सिफारिशें निम्न प्रकार थीं- 

    • उत्पादन लागत कम करने की दृष्टि से पूँजीगत वस्तुओं पर कर कम किए जायें।
    • अप्रत्यक्ष कर ढाँचे की विसंगतियाँ दूर की जानी चाहिए।
    • जनोपयोगी वस्तुओं पर करों के सम्बन्ध में निम्न आय वर्ग को छूट दी जाए तथा छोटे उत्पादकों को प्रोत्साहित किया जाए।
    • सभी राज्यों में एक-सा बिक्री कर हो, इसके लिए एक आदर्श नियमावली बनायी जानी चाहिए।
    • चुंगी कर को समाप्त करके टर्नओवर कर लगाया जाए। 
    • वैट के सम्बन्ध में हिसाब की एक पृथक् प्रणाली अपनायी जानी चाहिए।
    • उत्पादन करों के लिए सर्वप्रथम कच्चे माल पर शुल्क की दरों का युक्तिकरण किया जाए और उसके बाद अन्तिम उत्पादनों के सम्बन्ध में युक्तिकरण किया जाना चाहिए।
    • विभिन्न कच्चे मालों पर विभिन्न दरों से कर नहीं लगाया जाए।
    • शुल्क में कमी करने से उपभोक्ताओं को लाभ न होने पर सरकार द्वारा नियन्त्रण के उपाय अपनाए जाने चाहिए।
    • आयातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क में भारी कमी करने का सुझाव दिया गया।

    (9) प्रत्यक्ष कर जाँच चौकसी समिति, 1977-78

    26 जून, 1977 को एन. ए. पालकीवाला की अध्यक्षता में एक पाँच सदस्यीय समिति की घोषणा की गयी। बाद में पालकीवाला को अमेरिका में भारतीय राजदूत बनाए जाने से श्री चौकसी को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया।

    प्रत्यक्ष कर जाँच चौकसी समिति की सिफारिशें

    समिति ने काफी महत्वपूर्ण सुझाव दिए। दिसम्बर 1977 में दिए गए प्रतिवेदन तथा 10 मई, 1978 को लोकसभा में प्रस्तुत प्रतिवेदन की मुख्य सिफारिशों को 7 वर्गों में रखकर सिफारिशें दी गर्यो, जो कि निम्न प्रकार से हैं-

    (1) सामान्य

    • मुकदमेबाजी को कम करने एवं लम्बित प्रकरणों को समाप्त करने हेतु 'केन्द्रीय कर कोर्ट' की स्थापना की जाए।
    • चौकसी समिति ने सिफारिश की कि किसी भी करदाता को फीस चुका देने पर प्रत्यक्ष करों के केन्द्रीय बोर्ड से अग्रिम रूलिंग प्राप्त करने की सुविधा होनी चाहिए।
    • शासकीय कम्पनियों व उपक्रमों के बीच विवाद का निपटारा प्रत्यक्ष करों के केन्द्रीय बोर्ड द्वारा हो जाना चाहिए।
    • कानून सम्बन्धी अनुभवी न्यायाधीशों को बैंच में नियुक्त किया जाना चाहिए जिससे एकरूपता लायी जा सके।
    • करदाता द्वारा रिटर्न प्रस्तुत करने के तीन माह के अन्दर आय-कर विभाग को यह देख लेना चाहिए कि रिटर्न पूर्ण है तथा भुगतान पर्याप्त है।

    (2) आय-कर सम्बन्धी सिफारिशें

    • सभी प्रत्यक्ष करों को एक ही विधान के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए।
    • 2 लाख रुपये से अधिक आय पर अधिकतम आय-कर 60% लगाया जाए।
    • दरों की एक सुनिश्चित एवं उचित सूची तैयार की जानी चाहिए।
    • अधिभार को समाप्त किया जाना चाहिए। यदि इन्हें रखने की आवश्यकता ही हो, तो यह 60% की अधिकतम सीमा में ही सम्मिलित हो।

    (3) पूँजीगत लाभ कर सम्बन्धी

    • पूँजीगत लाभ कर अधिनियम को नवीन सिरे से तैयार किया जाना चाहिए। 
    • सभी शर्तें पूर्ण होने पर इसे 'समय बिन्दु' कर लगाया जाना चाहिए।

    (4) आस्ति कर सम्बन्धी

    • पूरे जीवन में दिए गए उपहारों को मृतक की सम्पत्ति के साथ मिलाना न्यायसंगत नहीं है।
    • अन्त्येष्टि व्ययRs.1,000 से बढ़ाकर Rs.2,500 कर दिया जाना चाहिए।
    • अधिकतम दर 80% होनी चाहिए जो वर्तमान में 85% है।

    (5) उपहार कर सम्बन्धी

    • उपहार कर अधिनियम के वर्तमान स्वरूप को बनाए रखा जाना चाहिए।
    • वर्तमान दरों में सुधार किया जाना चाहिए और अधिकतम दर 75% की जानी चाहिए।

    (6) वेतन सम्बन्धी

    • प्रमाण कटौती की दर 20% कर दी जाए तथा सवारी व्यय राशि Rs.1,000 से बढ़ाकर Rs.2,500 कर देनी चाहिए।
    • वेतन शब्द को समरूपता के आधार पर परिभाषित करना उचित नहीं है।

    (7) कृषि आय-कर सम्बन्धी

    • वर्तमान नीति कृषि आय व गैर-कृषि आय को एक साथ मिलाकर निर्धारित की जानी चाहिए।
    • 5 कृषि कर करारोपण केन्द्रीय अधिनियम के अनुसार ही किया जाना चाहिए।
    • कृषि आय-कर की दरें प्रगतिशील रखी जानी चाहिए।

    (10) आर्थिक प्रशासन सुधार- झा आयोग, 1981

    जनवरी 1981 में सरकार ने प्रत्यक्ष कर कानूनों को सरल बनाने के उद्देश्य से अधिकारियों की एक समिति बनायी। बाद में मार्च 1981 में सरकार ने आर्थिक प्रशासन में सुधार करने हेतु एक उच्च शक्ति आयोग गठित की जिसके अध्यक्ष एल. के. झा थे। आयोग का प्रारम्भिक कार्यकाल दो वर्ष था तथा मन्त्रिमण्डल सचिवालय के अधीन कार्य करना था और अपना प्रतिवेदन प्रधानमन्त्री को देना था।

    सौंपे गये कार्य

    इस आयोग को निम्न विषयों पर विचार करना था-

    • कर प्रशासन, उसका युक्ति-युक्तिकरण एवं सुधार करना।
    • विभिन्न राज्यों में प्रचलित वर्तमान नियन्त्रण कानूनों की जाँच एवं आदर्श कानून के बारे में सिफारिश करना।
    • नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में विचाराधीन सुझावों की जाँच करना।
    • राहत प्रणालियों का उपयोग करके बचत का स्तर बढ़ाना।

    सिफारिशें (Recommendations)

    समिति की मुख्य सिफारिशें निम्नलिखित थीं-

    (अ) अल्पकालीन उपाय (Short-term Measures)

    • उत्पादन कर के बारे में समिति की राय थी कि आदा पर लगाए गए करों को समाप्त कर देना चाहिए। मशीनों, सीमेण्ट आदि पर करों को कम करने की सिफारिशें की गयीं।
    • उत्पादन करों को वसूल करने की प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिए। 
    • सीमा कर के बारे में आयात करों में कमी करने की सिफारिशें की गयीं।
    • पूँजीगत माल पर करों की दर कम की जानी चाहिए।
    • बिक्री-कर को उत्पादन कर से मिला देना चाहिए व प्राप्ति राज्य सरकारों को दी जानी चाहिए।
    • चुंगी कर को समाप्त करने की सिफारिश की गयी।

    (ब) दीर्घकालीन उपाय (Long-term Measures)

    • समिति ने कर की वैट (VAT) प्रणाली को अपनाने की सिफारिश की।
    • उत्पादन की दृष्टि से समिति ने मैनवैट (MANVAT) पद्धति को अपनाने की सलाह दी।

    (11) चेलिहा समिति, 1985

    सरकार ने 1985 में डॉ. चेलिहा की अध्यक्षता में व्ययों पर प्रगतिशील करारोपण के अध्ययन हेतु एक अध्ययन मण्डल की स्थापना की। समिति ने अपनी सिफारिशें 1987 में दीं।

    चेलिहा समिति, 1985 की सिफारिशें

    1. देश में व्यय कर लगाने का औचित्य है, परन्तु प्रशासनिक आधार पर यह सम्भव नहीं बताया गया।
    2. समिति ने व्यय कर के लाभ प्राप्त करने हेतु कुछ सुझाव दिए।
    3. समिति ने शुद्ध बचत पर जोर देते हुए बचत पर करों की ऊँची छूट देने की सिफारिशें कीं। 
    4. यदि बचत को विनियोग कर दिया जाए तो विनियोग से प्राप्त आय पर भी छूट दी जानी चाहिए।
    5. बचत को निजी साधनों की ओर मोड़ा जाना चाहिए इस सम्बन्ध में पर्याप्त छूट दी जानी चाहिए।
    6. अध्ययन मण्डल ने बचत को प्रोत्साहित करने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिए।
    7. अध्ययन मण्डल ने सुझाव दिया कि कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के बॉण्डों पर मिलने वाली असीमित कर की छूट में कमी की जानी चाहिए तथा यह लाभ केवल सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को ही प्राप्त होना चाहिए।
    8. कर-मुक्त सीमा से अधिक पूँजी को आय-कर से मुक्त रखे जाने की सिफारिश की गयी यदि वह धन NDA या PEA में जमा कर दिया जाता हो। इस जमा की कोई भी अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं होनी चाहिए।
    9. NDS की सफलता स्फीतिक दर पर निर्भर करेगी, क्योंकि इस पर जनता की क्रय-शक्ति निर्भर करती है।
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