बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ब्रिटिश सरकार की दमनपूर्ण नीति के विरोध में भारत में नवयुवकों के एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जिसका उग्रवादियों के शान्तिपूर्ण संघर्ष में भी विश्वास नहीं था। ये क्रान्तिकारी हिंसा व आतंक से ब्रिटिश शासन को भयभीत कर जड़मूल से नष्ट करने के समर्थक थे। इन क्रान्तिकारियों ने परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए मातृभूमि की बलिवेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। ह्यूम का विचार है, "ये क्रान्तिकारी ऐसा कुछ करना चाहते थे जिसका अर्थ हिंसा होता है।"
क्रान्तिकारी आन्दोलन के उदय के कारण
(Causes of Ribse of Revolutionary Movement)
1. पाश्चात्य संस्कृति के उदय के कारण
क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नवयुवकों ने किया था। उन्होंने विदेशी आन्दोलन, विचार तथा वातावरण को देखकर मातृभूति की आजादी का संकल्प लिया था। शिरोल ने आतंकवाद को 'पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के विरुद्ध कट्टरपंथी ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया' कहा है। इस विचार को सत्य नहीं कहा जा सकता। गैरेट के अनुसार, "क्रान्तिकारी आन्दोलन केवल ब्राह्मणों द्वारा आयोजित षड्यंत्र नहीं था। बंगाल और पंजाब के नेता अन्य जातियों के भी थे।"
2. आर्थिक कारण
19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में देश आर्थिक दुर्दशा से गुजर रहा था। जनता में असन्तोष तथा क्षोभ था। चारों ओर अकाल, बीमारी और बेकारी की छाया थी। इस दरिद्रता ने असन्तोष और क्रान्ति को जन्म दिया। भारतीयों का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि देश की दुर्दशा का अन्त तभी होगा जब विदेशी शासन का अन्त कर दिया जाये।
3. सरकार की प्रतिक्रियावादी तथा दमनकारी नीति
लार्ड कर्जन की दमनकारी नीति ने आतंकवादियों को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि "आतंकवाद कर्जन की देन थी।" उसके ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, बंगाल विभाजन जैसे कार्यों ने क्रान्तिकारी लहर फैलाई। इन कार्यों के विरुद्ध हुए जन-आन्दोलन सरकार ने कुचल डाले जिससे लोगों में उत्तेजना बढ़ी। दमनकारी कानूनों तथा कठोर दण्ड ने गुप्त क्रान्तिकारी संगठनों को जन्म दिया। 1908 में लार्ड मार्ले ने मिण्टो को लिखा था, "राजद्रोह और अन्य अपराधों के सम्बन्धों में जो दिल दहलाने वाले दण्ड दिये जा रहे हैं, उनके कारण मैं चिन्तित और चकित हूँ। हम व्यवस्था चाहते हैं लेकिन इसके लिये कठोर उपाय सफल नहीं होंगे। इसका परिणाम उल्टा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे।
4. संवैधानिक आन्दोलन की असफलता
क्रान्तिकारी आन्दोलन के जन्म का कारण संवैधानिक आन्दोलन की असफलता थी। जब उदारवाद असफल रहा, तो उग्रवाद आया। लेकिन नवयुवकों को उग्रवाद भी व्यर्थ लगने लगा। उन्हें विश्वास हो गया कि प्रार्थना, प्रति. न आदि से स्वतन्त्रता नहीं मिलेगी। विदेशी साम्राज्य प्रदर्शन आदि आन्दोलनों को भी सुचल देगा। मातृभूमि की आजादी के लिए शक्ति संचय करना होगा, उग्र साधनों का सहारा लेना होगा। उनका विचार था कि "बहरे कान केवल बम की आवाज सुन सकते हैं।" भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने सेशन जज के समक्ष अपने बयान में कहा, "स्वतन्त्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इस उच्च्च आदर्श की प्राप्ति के लिए सब प्रकार के त्याग करने व कष्ट सहने के लिए सदैव तैयार
5. बंगाल का विभाजन
लार्ड कर्जन का एक मूर्खतापूर्ण कार्य बंगाल का विभाजन था। 1905 में बंगाल की राष्ट्रीयता को समाप्त करने के लिए उसे साम्प्रदायिक आधार पर दो भागों में बाँट दिया। यह फूट डालकर शासन करो की नीति का अनुसरण था। सारे भारत ने इसे राष्ट्रवाद के लिऐ चुनौती समझा। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, "बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बंम की तरह गिरा। हमने समझा हमारा घोर अपमान किया गया।" बंगाल विभाजन के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन छेड़ा तो सरकार ने भयंकर दमन चक्र चलाया। तब नवयुवकों ने समझा कि प्रभावशाली उपायों की आवश्यकता है। इससे आतंकवाद का जन्म हुआ और बंगाल क्रान्तिकारियों का गढ़ बन गया।
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क्रान्तिकारियों की कार्य-प्रणाली
(Working System of Revolutionaries)
क्रान्तिकारियों की मान्यता थी कि अंग्रेजी शासक पाशविक शक्ति पर स्थिर है और हमें अपने को स्वतन्त्र करने के लिए पाशविक शक्ति का सहारा लेना होगा और इस देश की स्वतन्त्रता केवल गोली और बम से ही प्राप्त हो सकती है। उनका लक्ष्य था- "तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो।" उनकी कार्य प्रणाली में निम्नलिखित बातें शामिल थीं-
- क्रान्तिकारियों, पत्रों तथा साहित्य से शिक्षित लोगों के मस्तिष्क में विदेशी दासता के प्रति घृणा उत्पन्न करना।
- संगीत, नाटक आदि द्वारा बेकारी और भूख से त्रस्त लोगों को निडर बनाकर उनमें देश-प्रेम का भाव जगाना।
- शत्रु को प्रदर्शन, आन्दोलन और बमों से भयभीत रखना।
- हथियार बनाना, प्राप्त करना तथा विदेशों से मँगाना।
- चन्दा, दान तथा डकैतियों द्वारा धन एकत्र करना।
- राष्ट्रीय अपमान तथा देशभक्तों पर हुए अत्याचार का बदला लेना।
- सेनाओं में विद्रोह फैलाना।
- अत्याचारी शासकों के मन में अत्याचारों के विरुद्ध आतंक उत्पन्न करना।
क्रान्तिकारी का मुख्य उद्देश्य
क्रान्तिकारी जहाँ देश को पराधीनता से मुक्त कराना चाहते थे, वहाँ वे देश में पूर्ण लोकतन्त्र भी स्थापित करना चाहते थे। वे किसानों तथा मजदूरों का एक ऐसा राज्य स्थापित करना चाहते थे, जहाँ असमानता, शोषण और अन्याय न हो। उनका ध्येय समाज में आतंक फैलाना नहीं था, बल्कि अत्याचारी विदेशी शासकों के मन में आतंक पैदा करना था। अंग्रेज उन्हें हत्यारे, डाकू तथा आतंकवादी कहते थे, लेकिन वे ऊँचे देशभक्त थे, अत्याचारी शासकों को समाप्त कर स्वतन्त्रता प्राप्त करना और अन्याय पर आधारित व्यवस्था का जना एक महत्वपूर्ण व्यवस्था की स्थापना करना।
4 जून, 1929 ई. को सरदार भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त के बयान से उसकी विचारधारा स्पष्ट हो जाती है। "क्रान्ति के विरोधियों द्वारा भ्रांतिवश इस विचार को अपना लिया गया है कि क्रान्ति का तात्पर्थ शस्त्रों, हथियारों या अन्य साधनों से हत्या या अन्य हिंसक कार्य करना है। पर क्रान्ति का अभिप्राय केवल बम व पिस्तौल नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय यह है कि आज की उस स्थिति व समाज व्यवस्था को बदला जाये जो स्पष्टतः अन्याय पर टिकी हुई है। क्रान्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण को समाप्त करने और हमारे राष्ट्र के लिए पूर्ण आत्म-निर्णय का अधिकार प्राप्त करने के लिए है। क्रान्ति से हमारे विचार का अन्तिम लक्ष्य यही है।"
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क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेता
भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन को संगठित करने में श्यामजी कृष्णजी वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने पहले भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन का सूत्रपात किया। सरकार की कार्यवाही से तंग आकर वे लन्दन चले गये। वे उच्च कोटि के विद्वान् थे। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भी संस्कृत में भाषण दिये। उन्होंने व्यापार में भी अपार धन कमाया। इस धन को वे क्रान्तिकारियों पर खर्च करते थे। उन्होंने इंग्लैण्ड में इण्डिया हाउस की नींव डाली जो क्रान्तिकारियों का केन्द्र बन गया था। श्री श्यामजी कृष्णजी वर्मा को कान्तिकारियों का पिता माना जाता था। जब इंग्लैण्ड की सरकार ने इन्हें तंग किया तो वे पेरिस और बाद में जेनेवा में रहने लगे। उन्होंने विदेशों में गये भारतीयों में क्रान्ति की न बुझने वाली ज्वाला जलाई।
बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रारम्भिक प्रणेता वीरेन्द्र कुमार घोष तथा भूपेन्द्र नाथ दत्त थे। उन्होंने 'युगान्तर' तथा 'संध्या' जैसे क्रान्तिकारी पर्ची का प्रकाशन किया। इन पत्रों के नियमित पाठकों की संख्या बहुत अधिक थी। इनको इन्होंने क्रान्ति की शिक्षा दी। इन्होंने 'अनुशीलता समिति' की भी स्थापना की, जिसका ध्येय सदस्यों को भारतीय इतिहास व संस्कृति का ज्ञान, राजद्रोह के सिद्धान्तों की शिक्षा, शारीरिक प्रशिक्षणा तथा हथियारों का ज्ञान कराना था। इसकी 500 शाखाएँ थीं। इसके सदस्य 'माँ काली' के समक्ष शपथ लेते थे।
क्रान्तिकारियों के प्रमुख कार्य
क्रान्तिकारियों का आतंकवादी कार्य 1907 में आरम्भ हुआ। इससे पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में भी छुट-पुट क्रान्तिकारी गतिविधियाँ हुई। क्रान्तिकारियों की प्रमुख कार्यवाहियाँ निम्नलिखित थीं-
1. गवर्नर की गाड़ी पर बस- 6 दिसम्बर, 1907 को बंगाल के गवर्नर जिस रेल में सफर कर रहे थे, उसे बम से उड़ा देने का आयोजन किया गया। मिदनापुर के पास बम विस्फोट हुआ और गाड़ी पटरी से नीचे उतर गयी, परन्तु गवर्नर बाल-बाल बच गये।
2. ढाका गोलीकाण्ड- 23 दिसम्बर, 1907 को क्रान्तिकारियों ने ढाका के भूतपूर्व जिलाधीश को गोली मार दी। मजिस्ट्रेट घायल हो गया लेकिन मरा नहीं।
3. किंग्स फोर्ड की हत्या का प्रयास तथा खुदीराम बोस को प्राण दण्ड- 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर के जज किंग्स फोर्ड की हत्या का प्रयत्न हुआ। खुदीराम बोस ने किंग्स फोर्ड की मोटर पर बम फेंका लेकिन गाड़ी में उस समय दो अंग्रेज महिलाएँ थीं, जो मारी गईं। इसके लिए 19 वर्षीय खुदीराम बोस पकड़ा गया और उसे फाँसी की सजा हुई। बी, शीरोल के अनुसार, "इस प्रकार वह (खुदीराम) बंगाल के क्रान्तिकारियों के लिए राष्ट्रीय वीर तथा शहीद बन गया।"
4. अलीपुर काण्ड- अलीपुर के षड्यन्त्र केस 1910 में सरकार ने क्रान्तिकारियों के पास डायनामाइट, कारतूस आदि बरामद किये। इस घटना में 31 व्यक्ति गिरफ्तार हुये और कन्हाईलाल तथा सत्येन्द्र को फाँसी लगी।
5. टिनेवली काण्ड- मद्रास के टिनेवली में जब क्रान्तिकारियों के दमन के कठोर उपाय किये गये तो 17 जून, 1911 को टिनेवली के मजिस्ट्रेट को गोली मार दी गयी।
6. मदनलाल ढींगरा को प्राणदण्ड- जैक्सन तथा वाइली क्रान्तिकारी को भयंकर सजा दिला रहे थे। गणेश सावरकर को क्रान्ति की कविताओं के लिए आजन्म देश निर्वासन दिया गया। इसका बदला लेने के लिए सचिव वाइलो को मदनलाल ढींगरा ने जुलाई 1909 में गोली से उड़ा दिया। मदनलाल ढींगरा को फाँसी की सजा मिली। इधर अनन्त कान्हेरे नासिक के कलेक्टर जैक्शन को गोली से उड़ा दिया। सरकार ने नासिक षड्यंत्र केस खड़ा करके अनेक नवयुवकों को मृत्युदण्ड तथा अनेक को लम्बी सजाएँ दीं।
7. वायसराय पर बम प्रह्मर- 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया। फलस्वरूप अंगरक्षक मारा गया और वायसराय बेहोश हो गए। यह कार्य रासबिहारी बोस का था। इस पर सरकार ने दिल्ली षड्यंत्र केस चलाया और अनेक व्यक्तियों को फाँसी दी गयी।
8. देशव्यापी आन्दोलन का दमन-चक्र- रासबिहारी बोस, शचीन्द्र सान्याल, गणेश पिंगले तथा बागी करतारसिंह आदि क्रान्तिकारियों ने 21 फरवरी, 1915 के दिन सारे भारत में विद्रोह की योजना बनाई। विद्रोही कृपालसिंह ने सारी योजना सरकार को बतला दी। सरकार ने क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार करना शुरू किया और 61 क्रान्तिकारियों पर मुकदमा चलाया गया। अनेक को फाँसी और काले पानी की सजा दी गयी।
9. क्रान्तिकारियों द्वारा लूटमार- प्रथम विश्व युद्ध के समय क्रान्तिकारियों ने अपनी गतिविधियाँ अधिक तेज कर दीं। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का निश्चय कर लिया। कलकत्ते की एक दुकान से हथियार लूटकर क्रान्तिकारियों में बाँटे गए। इसी बीच अनेक हत्याएँ की गईं। जापानी जहाज 'कोमाटामारू' के यात्रियों को कनाडा में उतरने नहीं दिया गया और उन पर अत्याचार किये गये। इससे सरकार के विरुद्ध और भी असन्तोष फैला। 1915 में क्रान्तिकारियों ने धन संग्रह के लिए डाके डाले और रेलों को रोककर खजाना लूटा।
10. बाह्य देशों में क्रान्तिकारियों की सक्रियता- भारत से बाहर भी क्रान्तिकारियों ने अपनी कार्यवाही जारी रखी। श्याम जी कृष्णजी वर्मा, लाला हरदयाल, वीर सावरकर, रासबिहारी बोस, जे. जे. सिंह राणा और मादाम कामा ने विदेशों में सराहनीय कार्य किये। अनेक सभाएँ की गईं, भारत को हथियार भेजे गये, प्रवासी भारतीयों को क्रान्तिकारी बनाया गया तथा अनेक साहसिक कार्य किये गये। भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दिलाने के लिए अमेरिका में लाला हरदयाल ने 'गदर पार्टी' का संगठन किया। 'गदर' नामक अखबार निकाला गया और भारतीय क्रान्तिकारियों से सम्पर्क कर ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलटने के प्रयत्न किए गये।
11. क्रान्तिकारियों के अन्य षड्यन्त्र- प्रथम विश्व युद्ध के बाद सरकार के भयंकर दमन के कारण क्रान्तिकारी आन्दोलन कमजोर पड़ने लगा। गाँधीजी के प्रभाव के कारण जनता का ध्यान क्रान्तिकारियों की ओर से हटने लगा और इनका प्रभाव लगभग समाप्त हो गया। इसके बाद की प्रमुख घटनाएँ, बिस्मिल, लाहिड़ी, रोशनसिंह, सान्याल, अशफाक आदि के नेतृत्व में लखनऊ के पास काकोरी में रेल से सरकारी खजाना लूटा गया। काकोरी केस में अनेक क्रान्तिकारियों को मृत्युदण्ड तथा लम्बी सजाएँ दी गर्यो। सरदार भगतसिंह, बटुकेश्वरदत्त, चन्द्रशेखर आजाद, शिवराम, राजगुरु तथा जयपाल आदि क्रान्तिकारियों ने लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला लेने के लिए अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स को गोली से उड़ा दिया तथा 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंका गया। वायसराय की ट्रेन को उड़ाने का प्रयत्न किया गया और पंजाब के गवर्नर को गोली मार दी गयी। अन्त में सभी क्रान्तिकारी मातृभूमि की वेदी पर शहीद हो गए। क्रान्तिकारियों के प्रभाव के सम्बन्ध में पट्टाभिसीतारमैया लिखते हैं- "1931 में करांची काँग्रेस अधिवेशन के समय भगतसिंह का नाम उतना ही लोकप्रिय हो चुका था जिनता महात्मा गाँधी का।"
क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता
(Unsuccessfulness of Revolution Movement)
क्रान्तिकारियों का ध्येय सशस्त्र क्रान्ति द्वारा ब्रिटिश शासन का अन्त करके स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इसके लिए उन्होंने अनुपम बिलदान आदि त्याग किए। सैकड़ों क्रान्तिकारी मृत्युदण्ड तथा पुलिस की गोली से मारे गए तथा हजारों ने अण्डमान की जेलों में भयंकर यातनाएँ सहीं। इन्होंने आजादी के पौधों को खून से सींचा। लेकिन ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सके। क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
1. केन्द्रीय संगठन का अभाव- क्रान्तिकारियों का सम्पूर्ण देश के लिए कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था। इससे इनमें समन्वय और सहयोग न हो सका और अलग-अलग षड्यन्त्रों को सरकार दबाती रही।
2. लोकप्रिय आन्दोलन नहीं- क्रान्तिकारी आन्दोलन जनता में लोकप्रिय नहीं था। यह कुछ पढ़े-लिखे नवयुवकों तक सीमित था।
3. सामाजिक सहानुभूति का अभाव- भारतीय राजनीति के अधिकांश नेता हिंसक कार्यों से घृणा करते थे। हिन्दू समाज को हिंसा प्रिय नहीं थी। धनिक तथा उच्च मध्यम वर्ग हिंसा से घबराता था।
4. ब्रिटिश सरकार का दमन- क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता का मुख्य कारण सरकार की दमन-नीति थी। सरकार ने क्रान्तिकारियों को निपटाने के लिए कठोर कानून पास किए जिसके अन्तर्गत क्रान्तिकारियों को कुचला गया। प्राणदण्ड, काला पानी, देश निर्वासन तथा कठोर शारीरिक यातनाएँ आम बात र्थी।
5. शस्त्रों का अभाव- क्रान्तिकारी उत्साही तो थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता से लोहा लेने के लिए उनके पास शस्त्रों का अभाव था। लुक छिपकर जो हथियार मिलते थे, वे सरकार से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
6. गाँधी का राजनीति में प्रवेश- गाँधीजी का राजनीति में प्रवेश क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए घातक सिद्ध हुआ। उन्होंने हिंसा की निन्दा की। उन्होंने, आजादी के लिए असहयोग तथा सत्याग्रह का मार्ग दिखलाया, वह जनता को अधिक ग्राह्य था।
निष्कर्ष :
क्रान्तिकारी आन्दोलन की सफलता के कारणों पर प्रकाश डालते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लिखते हैं, "क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता का एक प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार की दमन की नीति थी। इसकी अफसलता का प्रमुख कारण यह भी था कि हिंसा का विचार हिन्दुओं को स्वीकार नहीं था। हिन्दू लोग हिंसा की छाया से भी घृणा करते थे।"
क्रान्तिकारियों का राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान है। इनका इतिहास सुनहरे अक्षरों में लिखने योग्य है। इन्होंने देश में राष्ट्रीय जागृति पैदा की, सरकार को सुधार करने को मजबूर किया तथा विदेशी शासन के दिल में भय पैदा किया। क्रान्तिकारियों ने अनेक बार विदेशियों द्वारा किये गए राष्ट्रीय अपमान का बदला लिया। इन्होंने अंग्रेजों को बतला दिया कि अत्याचार करना मौत से खेलना है। इन्होंने सेनाओं में जागृति पैदा की। इन्हेंने अंग्रेजों के बहरे कानों तक बमों की आवाज को पहुँचाया। ये देश को आजाद तो न करा सके लेकिन इनके त्याग और बलिदान से देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ। ब्रिटिश सरकार क्रान्तिकारियों के कार्यों से काँपती थी। उनमें अभूतपूर्व साहस एवं देशभक्ति थी। इस प्रकार के उदाहरण विश्व के इतिहास में बहुत कम देखने को मिलने हैं। क्रान्तिकारियों के कार्यों से ब्रिटिश सरकार को महसूस हो गया कि भारतीयों को राजनीतिक रियायतें देनी होंगी। क्रान्तिकारियों ने हँसते हुए भारत माता के चरर्णो में अपने प्राणों की आहुति दी। "स्वतन्त्रता के इन महान् दीवानों की गाथा भारत के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेगी।"