बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना एवं गुण व दोष का वर्णन

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बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना

फरवरी 1765 ई. में बंगाल के नवाब मीर जाफर की मृत्यु हो गई और उसके पश्चात् उसका अल्प वयस्क पुत्र नज्मुद्दौला बंगाल का नवाब बना। अंग्रेज कम्पनी ने नज्मुद्दौला के साथ एक सन्धि की जिसके अनुसार 53 लाख रुपये वार्षिक के बदले में निजामत के अधिकार प्राप्त कर लिये। निजामत के अधिकार के अन्तर्गत शान्ति-व्यवस्था, सैनिक व्यवस्था, फौजदारी मामलों में न्याय प्रदान करने का अधिकार कम्पनी को प्राप्त हो गया। अगस्त 1765 ई. में मुगल सम्राट् ने कम्पनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी भी सौंप दी। 

बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना एवं गुण व दोष का वर्णन

दीवानी अधिकारी के अनुसार बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में राजस्व वसूल करने तथा दीवानी मामलों में निर्णय देने का अधिकार कम्पनी को प्राप्त हो गया। इस प्रकार अगस्त 1765 ई. तक कम्पनी को बंगाल में निजामत तथा दीवानी दोनों ही प्रकार के अधिकार प्राप्त हो गए। लेकिन क्लाइव इतनी बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं था। वह कम्पनी को प्रत्यक्ष जिम्मेदारी से अलग रखना चाहता था। अतः क्लाइव ने अधिकारों का विभाजन करने का निर्णय किया।

क्लाइव ने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से दीवानी का कार्य सम्पादित करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने दो नायब दीवान नियुक्त किये एक बंगाल के लिये तथा दूसरा बिहार के लिये। मुहम्ममद रजा खाँ को बंगाल में तथा राजा सिताबराय को बिहार में नियुक्त किया गया। निजामत के अधिकार नवाब के हाथों में रहने दिए गए तथा इसके लिए कम्पनी ने नवाब को एक निर्धारित धनराशि प्रदान करना आरम्भ कर दिया। चूँकि नवाब अल्प-वयस्क था, अतः कम्पनी ने नवाब की ओर से उसके कार्यों की देखभाल के लिए एक नायब-निजाम को नियुक्त किया तथा मुहम्मद रजा खाँ को ही इस पद पर नियुक्त किया गया, जोकि बंगाल का नायब दीवान भी था। इस प्रकार क्लाइव ने 1765 ई. में बंगाल का शासन-प्रबन्ध कम्पनी तथा नवाब के बीच दो भागों में विभाजित कर दिया, इसलिए क्लाइव की इस व्यवस्था को द्वैध शासन के नाम से जाना जाता है।

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बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना के कारण 

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना के निम्नलिखित कारण थे-

(1) यद्यपि कम्पनी को शासन सम्बन्धी अधिकार तो प्राप्त हो गए, लेकिन शासन संचालित करने तथा राजस्व वसूल करने का अनुभव कम्पनी के कर्मचारियों को नहीं था।

(2) क्लाइव कम्पनी को प्रत्यक्ष जिम्मेदारी से पृथक् रखना चाहता था। वह वास्तविक सत्ता कम्पनी के हाथों में ही रखना चाहता था।

(3) क्लाइव को भय था कि यदि कम्पनी ने बंगाल में शासन संचालित करने का कार्य अपने हाथों में ले लिया तो अन्य भारतीय शक्तियाँ कम्पनी का विरोध करने लगेंगी।

(4) क्लाइव की मान्यता थी कि यदि कम्पनी को बंगाल में शासन संचालन का कार्य सौंप दिया गया तो विदेशी शक्तियाँ अंग्रेजों से ईर्ष्या-द्वेष करने लगेंगी।

(5) क्लाइव को सन्देह था कि यदि कम्पनी ने शासन चलाने का कार्य अपने हाथों में ले लिया तो ब्रिटिश संसद को कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो जायेगा।

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बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना से कम्पनी को लाभ

द्वैध शासन से कम्पनी को निम्नलिखित लाभ थे- 

(1) कम्पनी के कार्यभार का कम होना- कम्पनी ने निजामत का कार्य अर्थात् शक्ति-व्यवस्था, सेना तथा फौजदारी मामलों के निर्णय का कार्य नवाब के सुपुर्द कर दिया तथा स्वयं दीवानी का कार्य अपने हाथों में रखा। इससे कम्पनी का कार्यभार कम हो गया। 

(2) भारतीय कर्मचारियों की नियुक्ति- कम्पनी के कर्मचारियों को शासन-संचालन अथवा राजस्व वसूल करने का कोई अनुभव नहीं था। अतः राजस्व वसूल करने एवं प्रशासन का संचालन करने के लिए अनुभवी भारतीय कर्मचारियों को नियुक्त किया गया, परिणामस्वरूप शासन सुविधाजनक तरीके से चलने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी को भारतीय कर्मचारियों एवं अधिकारियों का सहयोग प्राप्त हो गया।

(3) यूरोपीय शक्तियों के साथ संघर्ष की सम्भावना न रही- यदि कम्पनी बंगाल का सम्पूर्ण शासन प्रबन्ध अपने हाथों में लेती तो अन्य यूरोपीय शक्तियों में ईर्ष्या द्वेष की भावना पैदा हो जाती और कम्पनी को फ्रांसीसियों, डचों आदि यूरोपीय शक्तियों के साथ संघर्ष करना पड़ सकता था, लेकिन इस द्वैध व्यवस्था के कारण कम्पनी को यूरोपीय शक्तियों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।

(4) मराठों से संघर्ष की सम्भावना न रही- मराठे बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में अपने प्रभाव में वृद्धि कर रहे थे तथा वहाँ चौथ की वसूली करते थे। अतः यदि कम्पनी बंगाल का सम्पूर्ण शासन-प्रबन्ध अपने हाथों में ले लेती तो उसे मराठों के विरोध का सामना करना पड़ सकता था।

(5) कम्पनी के उद्देश्यों की पूर्ति- अंग्रेज कम्पनी बंगाल की जनता को अन्धकार में रखना चाहती थी। वह यह प्रदर्शित करना चाहती थी कि उसका उद्देश्य केवल व्यापार करना है, साम्राज्य की स्थापना करना नहीं। द्वैध शासन की स्थापना से कम्पनी अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति में सफल हुई।

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बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था की स्थापना के दोष

द्वैध शासन के अग्रलिखित दोष थे-

(1) किसानों की दयनीय स्थिति- द्वैध शासन के परिणामस्वरूप कृषि का सर्वनाश हो गया और किसानों की आर्थिक स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक हो गई। किसानों को लगान के रूप में एक भारी धनराशि देगी पड़ती थी तथा लगान अत्यधिक कठोरता से वसूल किया जाता था। भूमि-कर वसूल करने का काम प्रतिवर्ष अधिक से अधिक लगाने की बोली लगाने वाले ठेकेदारों को दिया जाता था। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करते थे, परिणामस्वरूप किसानों की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। डॉ. एम. एस. जैन का कथन है कि कम्पनी को दीवानी देने से पूर्व बंगाल व बिहार से 80 लाख रुपये का भू-राजस्व प्राप्त होता था, वहाँ 1766- 67 ई. में 2, 24, 67, 500 रुपये भू-राजस्व के प्राप्त हुए। 

स्पष्ट है कि इससे कृषकों की कमर टूट गई। कम्पनी और ठेकेदार दोनों ही भूमि की उन्नति में रुचि नहीं रखते थे। अतः कृषि और किसानों की स्थिति दयनीय हो गई थी। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गए। नतीजा यह हुआ कि खेती के योग्य भूमि भी बेकार हो गई और जंगल विकसित होने लगे।" 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा जिसमें बंगाल की एक-तिहाई जनसंख्या काल के गाल में समा गई। 

इसका वर्णन करते हुए कम्पनी के एक अधिकारी ने लिखा था कि "आज जो करुणाजनक दृश्य देखने को मिलता है, उसका वर्णन करना मनुष्य की शक्ति से परे है। वास्तविक बात यह है कि अनेक स्थानों पर लोगों ने मृतकों को खाया है।"

(2) व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव- कम्पनी के कर्मचारी हर सम्भव तरीके से अधिक से अधिक धन अर्जित करने के प्रयास में लगे रहते थे। वे अपने व्यक्तिगत व्यापार में भी दस्तकों का दुरुपयोग करते थे तथा नवाब के राजकोष को क्षति पहुँचाने लगे। इस स्थिति में भारतीय व्यापारियों का अंग्रेजों के मुकाबले में व्यापार करना असम्भव हो गया। कम्पनी ने बंगाल के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था तथा उसके कर्मचारियों ने व्यापारिक क्षेत्र में मनमानी, लूटखसोट करना आरम्भ कर दिया था। इस कारण व्यापार चौपट हो गया तथा बंगाल के व्यापारियों की स्थिति भी दयनीय हो गई।

(3) उद्योग-धन्धों का नष्ट होना- द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत बंगाल के उद्योग-धन्धे चौपट हो गए। कम्पनी ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए बंगाल के प्रमुख उद्योग-वस्त्र उद्योग को नष्ट कर दिया। कम्पनी के अधिकारी बंगाल के जुलाहों को एक निश्चित समय में कपड़ा तैयार करने के लिए विवश करते थे तथा अपनी इच्छानुसार उन्हें कम से कम मूल्य देते थे।

जो जुलाहे कम्पनी की शतों का पालन नहीं करते थे, उन्हें कठोर दण्ड दिये जाते थे, परिणामस्वरूप अनेक जुलाई बंगाल छोड़कर भाग गये।

(4) जनता का शोषण- कम्पनी की शोषणकारी नीति से भी बंगाल की जनता में असनतोष था। अधिकाधिक धन वसूल करना ही कम्पनी का प्रमुख उद्देश्य था। लगान अत्यधिक कठोरता से वसूल किया जाता था। इससे बंगाल की जनता की स्थिति दयनीय हो गई थी। नवाब के कर्मचारी भी बंगाल की जनता का शोषण करते थे। 

डॉ. नन्दलाल चटर्जी का कथन है कि "जर्मीदारों की दुष्टता, नवाब और कम्पनी के कर्मचारियों की क्रूरता की कोई सीमा नहीं थी। किसानों, जुलाहों तथा व्यापारियों को प्रताड़ित किया जाता था और उन्हें कोड़ों से पीटा जाता था। बंगाल के इतिहास में किसी भी युग में प्रान्त को इतने शोषण और अत्याचारों का सामना नहीं करना पड़ा जितना क्लाइव के इस द्वैध शासन प्रणाली के काल में करना पड़ा।"

(5) प्रशासन में भ्रष्टाचार- द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत प्रशासन शिथिल हो गया तथा चारों ओर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का वर्चस्व हो गया। नवाब नाममात्र का शासक था लेकिन प्रशासन का सम्पूर्ण भार उसी पर डाल दिया गया था। कम्पनी अधिक से अधिक घन वसूल करना ही अपना प्रमुख उद्देश्य मानती थी। उसने जनता की देखभाल नवाब को सौंप दी थी। दूसरी ओर नवाब तथा उसके कर्मचारियों की शासन-व्यवस्था में कोई दिलचस्पी नहीं थी। अतः नवाब के अधिकारी तथा कम्पनी के कर्मचारी मनमानी करने लगे तथा जनता का शोषण करने लगे। इस प्रकार चारों ओर लूटमार होने लगी तथा प्रजा को भारी कष्टों का सामना करना पड़ा। शासन की दुर्बलता के कारण राज्य में अव्यवस्था तथा अराजकता फैल गई। डॉ. जगन्नाथ मिश्न लिखते हैं कि "कम्पनी प्रत्यक्ष रूप से शासन के लिए उत्तरदायी नहीं थी। इस स्थिति में शासन निर्बल होता गया तथा सम्पूर्ण प्रान्त में अराजकता फैल गई।"

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(6) कम्पनी के लिए अहितकर सिद्ध होना- यद्यपि द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत कम्पनी के कर्मचारी व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गए, लेकिन स्वयं कम्पनी की स्थिति दयनीय हो गई। उसका व्यापार नष्ट हो गया तथा उसकी आय बहुत कम हो गई।

(7) कर्मचारियों में लोक-कल्याण की भावना का अभाव- द्वैध शासन प्रणाली के परिणामस्वरूप कर्मचारी वर्ग में जनहित की भावना समाप्त हो गई। नवाब के कर्मचारी तथा कम्पनी के कर्मचारी दोनों ही जनता से अधिक से अधिक धन वसूल करने का प्रयास करते थे। लगान वसूल करने वाले भारतीय एजेण्ट भी जनता का शोषण करते थे। कम्पनी को जन-कल्याण के कार्यों से कोई मतलब नहीं था। अतः नवाब तथा कम्पनी दोनों की ओर से ही जन-कल्याण के लिए प्रभावशाली कदम नहीं उठाये गए।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि द्वैध शासन प्रणाली बंगाल के लिए अत्यधिक विनाशकारी सिद्ध हुई। इससे बंगाल में कृषि, उद्योग-धन्धे और व्यापार चौपट हो गए तथा चहुँओर अव्यवस्था, अशान्ति एवं अराजकता फैल गई। कम्पनी तथा नवाब के कर्मचारियों की लूटमार से बंगाल के लोगों का जीवन नारकीय बन गया। मुर्शिदाबाद के अंग्रेज रेजीडेण्ट ने 1769 ई. में लिखा था कि "यह देश जोकि अत्यधिक निरंकुश तथा स्वेच्छाकारी शासन के अन्तर्गत था, फलता-फूलता रहता था, आज विनाश की ओर अग्रसर है।" 

लार्ड कार्नवालिस ने भी द्वैध शासन की आलाचेना करते हुए ब्रिटिश संसद में कहा था कि "मैं पूर्ण विश्वास के साथ इस मत का हूँ कि विश्व में कोई भी ऐसी सभ्य सरकार नहीं रही जो इतनी भ्रष्ट, विश्वासघाती और लोभी हो जितनी 1765 ई. से 1772 ई. तक की भारत में कम्पनी की सरकार थी।"

अतः इन्हीं परिस्थितियों में 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया।

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