व्यावसायिक संगठन के प्रारूप एवं उपयुक्त प्रारूप का चयन

व्यावसायिक संगठन के प्रारूप का अर्थ

आकार, स्वामित्व एवं कानून की दृष्टि से किसी व्यावसायिक संस्था के स्वरूप को ही उसका प्रारूप कहते हैं। कुछ संस्थाएं बहुत वृहत आकार की होती हैं, कुछ मध्यम आकार की तथा कुछ अत्यन्त लघु आकार की। इसी प्रकार कुछ का स्वामी एक व्यक्ति ही होता है और कुछ में अनेक व्यक्ति होते हैं। कुछ में वैधानिक नियन्त्रण नाममात्र को ही होता है और कुछ में वैधानिक नियन्त्रण की औपचारिकताएं पूर्ण रूप से पूरी करनी होती हैं। अत्यधिक प्राचीन काल में व्यावसायिक संगठन का स्वरूप अत्यन्त सरल था क्योंकि उसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित था। 

व्यावसायिक संगठन के प्रारूप एवं उपयुक्त प्रारूप का चयन

प्रायः व्यवसाय का स्वामी ही उसका कर्ता-धर्ता होता था वही व्यवसाय के लिए आवश्यक पूंजी जुटाता था तथा स्वयं ही उसका संचालन करता था। व्यापार का क्षेत्र सीमित होता था तथा आकार संकुचित। उत्पादन का पैमाना भी आवश्यकताओं के अनुरूप छोटा था। सरकारी नियन्त्रण, वैधानिक नियमन, राजनीतिक हस्तक्षेप, आर्थिक उतार-चढ़ाव एवं सामाजिक घटकों का व्यवसाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था, किन्तु कालान्तर में विशेषतः औद्योगिक क्रान्ति के बाद, ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में विकास के साथ-साथ व्यवसाय का स्वरूप भी बदलता गया। आज लघु व्यवसाय के साथ बहुराष्ट्रीय एवं विशालकाय निगमों के भी दर्शन होते हैं। व्यावसायिक संगठन के स्वरूप में एक क्रान्ति सी आ गयी है।

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व्यावसायिक संगठन के प्रारूप

आधुनिक युग में व्यावसायिक संगठन के अनेक स्वरूप देखने को मिलते हैं। आज चूंकि सरकार भी व्यवसायी के रूप में मैदान में उतर आयी है, अतः समस्त व्यावसायिक संगठन को दो क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है- 

(1) निजी स्वामित्व वाले व्यावसायिक संगठन, और 

(2) सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र के व्यावसायिक संगठन। जैसा कि आगे दिये गये चार्ट से विदित होता है, इनको पुनः अनेक उपभागों में बांटा जा सकता है-

व्यावसायिक संगठन के प्रारूप

निजी क्षेत्र के व्यावसायिक संगठन

जहां तक निजी क्षेत्र के व्यावसायिक संगठनों का सम्बन्ध है उनको दो भागों में बांटा जा सकता है- अनिगमित क्षेत्र और निगमित क्षेत्र। प्रथम क्षेत्र में आने वाले प्रमुख व्यावसायिक संगठन निम्न हैं-

(1) एकाकी व्यवसाय- यह व्यावसायिक संगठन का वह स्वरूप है जिसमें व्यवसाय का स्वामित्व एक ही व्यक्ति का होता है। वही उसमें पूंजी लगाता है, उसका प्रबन्ध करता है तथा समस्त लाभ-हानि के लिए भी स्वयं ही उत्तरदायी होता है। 

(2) साझेदारी- इसमें कम से कम दो और अधिक से अधिक बीस व्यक्ति (बैंकिंग व्यवसाय की दशा में अधिकतम दस व्यक्ति) मिलकर एक समझौते के अन्तर्गत व्यवसाय की स्थापना करते हैं एवं उसका संचालन करते हैं तथा होने वाले लाभ को आपस में बांट लेते हैं। भारत में साझेदारी अधिनियम, 1932 ऐसे संगठनों के नियमन हेतु बनाया गया है।

(3) संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय- व्यावसायिक संगठन के इस स्वरूप का संगठन परिवार के मुखिया (या कर्ता) के हाथों में केन्द्रित रहता है तथा वही परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से व्यवसाय को चलाता है। ऐसे प्रारूप में मुखिया को ही निर्णय लेने, ऋण लेने तथा अन्य समस्त व्यवहार करने का अधिकार होता है। यह प्रारूप केवल भारत में ही पाया जाता है तथा हिन्दू लॉ द्वारा संचालित होता है।

(4) संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी- निगमित क्षेत्र के अन्तर्गत 'कम्पनी' सर्वाधिक लोकप्रिय व्यावसायिक संगठन है। यह वह प्रारूप है जिसकी स्थापना भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत होती है। कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका उसके सदस्यों से पृथक् अस्तित्व होता है तथा जिसके पास एक सार्वमुद्रा होती है। कम्पनी भी दो प्रकार की हो सकती हैं- पब्लिक कम्पनी तथा प्राइवेट कम्पनी।

(5) सहकारी संस्था- एक प्रारूप के अन्तर्गत कुछ व्यक्ति सहकारिता के आधार पर स्वेच्छा से संगठित होते हैं एवं पारस्परिक लाभ की दृष्टि से व्यवसाय, का संचालन करते हैं। इसका सिद्धान्त है 'एक सबके लिए और सब एक के लिए।

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सरकारी क्षेत्र के व्यावसायिक संगठन

सरकारी स्वामित्व वाली संस्थाएं व्यावसायिक संगठन का वह प्रारूप है जिन पर किसी न किसी रूप में सरकार का नियन्त्रण रहता है। इनके भी चार भेद हैं- 

(1) विभागीय उपक्रम जैसे डाक-तार व रेलवे, 

(2) मण्डल परिषद या प्राधिकरण जैसे ग्वालियर विकास प्राधिकरण या म. प्र. विद्युत मण्डल, 

(3) वैधानिक निगम जैसे जीवन बीमा निगम, औद्योगिक वित्त निगम, आदि और 

(4) सरकारी कम्पनी, जैसे हिन्दुस्तान मशीन टूल्स कम्पनी।

व्यावसायिक संगठन के उपयुक्त प्रारूप का चयन

व्यावसायिक संगठन के अनेक प्रारूप हैं जिनके अलग-अलग गुण-दोष हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उनमें सर्वश्रेष्ठ प्रारूप कौन-सा है? इस सम्बन्ध में प्रोफेसर हैने, स्प्रीगल, एम. एल. एन्शेन, आदि विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से अनेक घटकों का प्रतिपादन किया है, जिनका सार निम्नांकित निर्णायक घटकों में आ जाता है-

(1) व्यावसाय की स्थापना में सुगमता

कुछ व्यावसायिक संगठनों की स्थापना बहुत आसानी से की जा सकती है, जैसे एकाकी व्यापार या संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय। ऐसे संगठनों की स्थापना में न तो विशिष्ट औपचारिकताओं का ही पालन करना पड़ता है और न अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। इसके विपरीत, कम्पनी संगठन में स्थापना सम्बन्धी विशिष्ट औपचारिकताओं के साथ-साथ धन भी अधिक व्यय होता है तथा समय भी अधिक लगता है। एक व्यवसायी को अपनी शक्ति व क्षमता एवं परिस्थिति के अनुरूप ही व्यावसायिक संगठन के प्रारूप का चयन करना चाहिए। एक लघुस्तरीय व्यवसाय के लिए संगठन का वह प्रारूप उपयुक्त होगा जिसकी स्थापना में सुगमता व सरलता हो एवं जो वैधानिक औपचारिकताओं मुक्त से हो, जैसे एकाकी व्यवसाय, इसके विपरीत दीर्घस्तरीय व्यवसाय के लिए कम्पनी जैसा प्रारूप श्रेष्ठ होगा क्योंकि उससे प्राप्त होने वाले लाभों की तुलना में स्थापना सम्बन्धी कठिनाइयां नगण्य होती हैं।

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(2) वैधानिक औपचारिकताएं तथा कानूनी स्थिति

व्यावसायिक संगठन के प्रारूप का चयन करते समय वैधानिक औचित्य को ध्यान में रखना नितान्त आवश्यक है। ऐसे अनेक संगठन हैं (जैसे- कम्पनी, साझेदारी, सहकारी समिति, आदि) जिनमें उनकी स्थापना विशिष्ट अधिनियमों के अन्तर्गत ही करनी पड़ती है, जैसे भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956; साझेदारी अधिनियम, 1932; सहकारिता अधिनियम, 1912 इत्यादि। जिन संगठनों का निर्माण विशिष्ट अधिनियमों के अन्तर्गत होता है, वे सुचारु रूप से चलते रहते हैं क्योंकि उनकी समस्त क्रियाएं विधिवत होती हैं तथा किसी प्रकार के उल्लंघन की दशा में न्यायालय की शरण ली जा सकती है। व्यवसायी को यह भी डर रहता है कि नियमों का उल्लंघन करने पर अन्य पक्षकार भी क्षतिपूर्ति हेतु वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके विपरीत जिन व्यावसायिक संगठनों का निर्माण अनिश्चित अधिनियमों के अन्तर्गत किया जाता है अथवा ऐसे नियमों के अन्तर्गत किया जाता है जिनमें प्रायः परिवर्तन होते रहते हैं तो स्वाभावतः उनका जीवन भी अनिश्चित सा ही रहता है। हैने ने इसी आधार पर लिखा है कि "वास्तव में समूह के दृष्टिकोण से व्यावसायिक संगठन के विभिन्न प्रारूप उन बच्चों के समान हैं जिनका पिता आर्थिक उपयुक्तता और माता विधान है।"

(3) दायित्व की सीमा

यद्यपि प्रत्येक प्रकार के व्यवसाय में कुछ-न-कुछ दायित्व होता है, किन्तु संगठन के प्रारूप का चयन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि व्यवसाय में विनियोजित पूंजी एवं उससे मिलने वाले लाभ के सन्दर्भ में दायित्व उचित हो। दायित्व आर्थिक एवं वैधानिक दोनों प्रकार का हो सकता है। आर्थिक दायित्व सीमित हो सकता है। (जैसे कम्पनी में) या असीमित (जैसे एकाकी व्यवसाय में)। इसी प्रकार वैधानिक दायित्व दीवानी (Civil) हो सकता है या फौजदारी (Criminal)। इस सम्बन्ध में ध्यान रखना चाहिए कि दायित्व की मात्रा कहीं इतनी अधिक न हो जाय कि उसकी तुलना में लाभ नाम को ही रह जाय।

(4) पूंजी की मात्रा 

जिस पैमाने पर व्यापार करना हो उसके लिए कितनी पूंजी आवश्यक होगी इसका अनुमान लगाने के उपरान्त यह देखना चाहिए कि किस प्रारूप को अपनाने पर वह सुविधा से उपलब्ध हो सकती है। यदि थोड़ी पूंजी से काम चल सकता है तो एकाकी व्यवसाय श्रेष्ठ रहेगा, किन्तु यदि अधिक पूंजी चाहिए तो साझेदारी संगठन उपयुक्त रहेगा और यदि विशाल मात्रा में पूंजी की आवश्यकता हो, तो संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी का निर्माण किया जा सकता है।

(5) भौगोलिक कार्यक्षेत्र

किसी व्यवसाय का क्षेत्र जितना बड़ा होगा उसके लिए उतने ही अधिक प्रबन्ध और निरीक्षण की आवश्यकता पड़ेगी। अतः व्यावसायिक संगठन का ऐसा प्रारूप चुनना चाहिए जो प्रबन्ध एवं निरीक्षण के कार्य को सुगम एवं सुविधाजनक बना दे। इस दृष्टि से स्थानीय क्षेत्र वाले व्यवसायों को एकाकी स्वामित्व के अन्तर्गत स्थापित किया जा सकता है। जिन व्यवसायों के कार्यक्षेत्र राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय हों (जैसे निगम) उनकी स्थापना कम्पनी या कॉरपोरेशन के रूप में की जा सकती है।

(6) नियन्त्रण व निर्देशन की मात्रा 

कुछ व्यवसायों में स्वामी के व्यक्तिगत नियन्त्रण, निर्देशन व सम्पर्क की निरन्तर आवश्यकता होती है, जबकि अन्य व्यवसायों में ये कार्य इतने आवश्यक नहीं होते क्योंकि उन्हें वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा भी सम्पन्न कराया जा सकता है, जैसे विभागीय भण्डार या बाटा शू कम्पनी जैसी बहुसंख्यक दुकानों का काम। स्पष्टतः प्रथम वर्ग के व्यवसायों के लिए एकाकी व्यवसाय उत्तम है और दूसरे प्रकार के व्यवसायों को साझेदारी या कम्पनी के रूप में संगठित करना अधिक उपयुक्त रहेगा।

(7) निरन्तरता एवं स्थायित्व 

एल. एच. हैने (Haney) के मतानुसार व्यावसायिक संगठन को इतना अवश्य योग्य होना चाहिए कि वह निर्विघ्न स्थिति में दीर्घकाल तक चलता रहे तथा अल्पकालीन विघ्न डालने वाले तत्वों का मुकाबला कर सके। यह सत्य ही है कि यदि व्यावसायिक संस्थाएं खण्डित मण्डित होती रहें तो व्यवसाय-कार्य ठप्प पड़ जायेंगे, उत्पादन और वितरण में संकट उत्पन्न हो जायेगा तथा उपभोक्ताओं, श्रमिकों, विनियोक्ताओं और सम्पूर्ण समाज को हानि पहुंचेगी। अतः स्थायित्व की दृष्टि से कम्पनी प्रारूप सर्वोत्तम है।

(8) स्वामित्व का हस्तान्तरण

यदि इस बात की सम्भावना है कि कुछ समय तक चलते रहने के बाद व्यवसाय का स्वामित्व हस्तान्तरित करना होगा, तो ऐसा संगठन प्रारूप अपनाना चाहिए, जिससे यह कार्य सहज ही किया जा सके। इस दृष्टि से एकाकी और कम्पनी प्रारूप श्रेष्ठ है। विदेशी सहयोग से स्थापित होने वाले व्यवसाय कम्पनी के रूप में संगठित करने चाहिए ताकि समझौता पूरा होने पर विदेशियों के स्वामित्व सम्बन्धी हित भारतीय सह-स्वामियों को सहज ही हस्तान्तरित किये जा सकें। कम्पनी में अंशों के हस्तान्तरण द्वारा यह काम शीघ्रता व सुगमता से निपटाया जा सकता है।

(9) मितव्ययी

वर्तमान विषम प्रतिस्पर्द्धा के युग में वही व्यवसाय टिक सकते हैं जोकि अपनी वस्तु या सेवा को प्रतिस्पर्द्धात्मक मूल्य पर ग्राहकों को प्रस्तुत कर सकें, किन्तु प्रतिस्पर्द्धात्मक मूल्य तब ही रखे जा सकते हैं जबकि उत्पादन और वितरण लागतें कम रहें। अतः संगठन का ऐसा प्रारूप चुनना चाहिए जिसमें व्यवसाय का कार्य मितव्ययतापूर्वक चलाया जा सके।

(10) समायोजन क्षमता 

व्यावसायिक परिस्थितियों में परिवर्तन होते रहते हैं। अतः यह आवश्यक है कि संगठन प्रारूप ऐसा होना चाहिए जिसमें परिस्थितियों के अनुसार समायोजन की क्षमता हो। यदि उसमें यह गुण है तो कार्य सुचारु रूप से चलता रहेगा।

(11) भावी विस्तार की सम्भावनाएं 

संगठन प्रारूप का चुनाव करते समय यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि भविष्य में व्यवसाय का विस्तार हो सकता है और तब अधिक पूंजी, प्रबन्ध, आदि की आवश्यकता पड़ेगी। यदि ऐसी सम्भावना हो तो एकाकी व्यवसाय की अपेक्षा साझेदारी या कम्पनी प्रारूप श्रेष्ठ रहेगा।

(12) सरकारी हस्तक्षेप की मात्रा 

कम्पनी व्यवसाय पर एकाकी व्यवसाय की अपेक्षा सरकारी नियन्त्रण अधिक है और पिछले वर्षों से यह बढ़ता ही गया है। अतः यदि व्यवसाय में कम सरकारी हस्तक्षेप पसन्द हो, तो एकाकी व्यवसाय ठीक रहेगा। साझेदारी में भी सरकार का हस्तक्षेप कम रहता है, किन्तु कम्पनी अधिनियम में समय-समय पर किये जाने वाले परिवर्तनों के कारण हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। अतः व्यवसायी को सरकारी हस्तक्षेप की मात्रा का अध्ययन करने के बाद ही व्यावसायिक संगठन के प्रारूप का चयन करना चाहिए।

(13) जोखिम की मात्रा 

व्यवसाय जोखिम का ही खेल है। कुछ व्यवसायों में जोखिम की मात्रा अधिक होती है और कुछ में कम। अधिक जोखिम वाले व्यवसायों को कम्पनी के रूप में संगठित करना उत्तम होगा जबकि कम जोखिम वाले व्यवसाय एकाकी या साझेदारी संगठन के रूप में संगठित किये जा सकते हैं।

(14) कर-भार

एकाकी व्यवसाय में कर-भार न्यूनतम होता है जबकि साझेदारी में अधिक और कम्पनियों को ऊंची दरों पर कर देना पड़ता है। अतः संगठन प्रारूप चुनते समय इस बात का भी ध्यान में रखना चाहिए।

(15) गोपनीयता 

व्यावसायिक भेद कम्पनी संगठन में कम सुरक्षित रहते हैं, किन्तु एकाकी व्यवसाय में पूर्ण गोपनीयता रहती है, क्योंकि उसमें समस्त कार्य प्रायः एकाकी स्वामी द्वारा किये जाते हैं।

(16) उत्पत्ति अथवा वितरण का पैमाना 

यदि उत्पत्ति अथवा वितरण का कार्य छोटे पैमाने पर करना है, तो एकाकी व्यापार श्रेष्ठ रहेगा और यदि बड़े पैमाने पर करना है, तो कम्पनी व्यवसाय ठीक होगा।

(17) प्रबन्धकीय अधिकार 

कुछ व्यवसायों में, जैसे एकाकी व्यवसाय, प्रबन्धकीय अधिकारों का केन्द्रीकरण आवश्यक होता है तथा कुछ में प्रबन्धकीय सत्ता का भारार्पण कर वेतनभोगी कर्मचारियों की नियुक्ति की जा सकती है, जैसे कम्पनी में व्यावसायिक संगठन का चयन करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए।

निष्कर्ष-

स्मरण रहे कि संगठन प्रारूप में उपर्युक्त सभी गुण होने चाहिए, परन्तु ऐसा कोई प्रारूप नहीं है जिसमें कि ये सभी गुण एक साथ विद्यमान हों। अतः प्रवर्तक को अपनी आवश्यकताओं के सन्दर्भ में यह विचार करना चाहिए कि किन गुणों का होना नितान्त आवश्यक है और किनका कम आवश्यक । तत्पश्चात् ही उस व्यावसायिक संगठन का चयन करना चाहिए जिसमें सर्वाधिक गुण हों।

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