व्यावसायिक संगठन का अर्थ, क्षेत्र, उद्देश्य व महत्व

व्यावसायिक संगठन का अर्थ

'व्यावसायिक संगठन' दो शब्दों के योग से बना है- (i) व्यावसायिक, और (ii) संगठन। अतः इन दोनों शब्दों की अलग-अलग व्याख्या करने से इस विषय का अर्थ भली प्रकार समझा जा सकता है। 'व्यावसायिक' शब्द 'व्यवसाय' से बना है। व्यवसाय से अभिप्राय उन समस्त मानवीय वैध आर्थिक क्रियाओं से है जो वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन, विनिमय, वितरण व विपणन से सम्बन्धित हैं एवं जिनका उद्देश्य पारस्परिक हित व लाभ होता है।

व्यावसायिक संगठन का अर्थ, क्षेत्र, उद्देश्य व महत्व

व्यवसाय की प्रमुख विशेषताएं 

व्यवसाय की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित हैं- 

  • विनिमय द्वारा लाभ का तत्व, 
  • लेन-देन की नियमितता, 
  • उपयोगिता का सृजन, 
  • उत्पादन व वितरण का तत्व, 
  • जोखिम एवं भावी सफलता, 
  • वस्तुओं व सेवाओं का लेन-देन, 
  • समाज की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि, 
  • लाभ के साथ सेवा भावना भी होना।

दूसरा शब्द है 'संगठन' (Organisation) किसी कार्य को सम्पादित करने के लिए किन-किन क्रियाओं को किया जाय, इसका निर्धारण करना एवं उन क्रियाओं को कर्मचारियों के मध्य वितरित करना ही 'संगठन' कहलाता है। संगठन, वास्तव में, विभिन्न क्रियाओं तथा घटकों के बीच एक सम्बन्ध है।

इस प्रकार व्यावसायिक संगठन का अर्थ उत्पत्ति के विभिन्न साधनों (अर्थात् भूमि, श्रम, पूंजी, साहस व संगठन) में प्रभावपूर्ण सहकारिता स्थापित करना है। यह व्यवसाय के विभिन्न अंगों (जैसे- व्यापार, वाणिज्य व उद्योग) का एक समन्वित रूप है। व्यवसाय में संगठन का वही महत्व है जो मानव शरीर में विभिन्न अंगों के संगठन का होता है। मानव शरीर की संरचना हाथ, पैर, नाक, कान, आंख, आदि अंगों से हुई है जिनका सुचारु संगठन व संचालन मस्तिष्क द्वारा किया जाता है; इसी प्रकार व्यवसाय के विविध अंगों का संचालन 'संगठन' द्वारा होता है।

व्यवसाय का क्षेत्र/वर्गीकरण

व्यवसाय के क्षेत्र के अन्तर्गत 'व्यापार', 'वाणिज्य', 'उद्योग' व 'प्रत्यक्ष सेवाओं' का समावेश किया जाता है। वे पर्यायवाची शब्द नहीं हैं, वरन्, वास्तव में, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग व सेवाओं का अर्थ व क्षेत्र अलग है एवं इन सबको 'व्यावसायिक क्रियाओं' (Business Activities) की संज्ञा दी जा सकती है। इन शब्दों की विस्तृत व्याख्या निम्न प्रकार है- 

(I) व्यापार (Trade)

अर्थ (Meaning)- सामान्यतः व्यापार से हमारा आशय वस्तुओं के क्रय-विक्रय से होता है। उदाहरण के लिए, 500 रुपये प्रति क्विण्टल की दर से गेहूं खरीद कर 650 रुपया प्रति क्विण्टल की दर से बेच दिया तो इस व्यवहार को 'व्यापार' कहेंगे।

व्यापार के प्रकार (Kinds of Trade)- व्यापार मुख्यतः दो प्रकार का होता है- 

(1) देशी व्यापार, तथा (2) विदेशी व्यापार।

(1) देशी व्यापार (Home Trade)- 

देशी या आन्तरिक व्यापार से आशय उस व्यापार से है जो एक ही देश के विभिन्न स्थानों अथवा क्षेत्रों के बीच किया जाता है। जैसे आगरा व मुम्बई के बीच व्यापार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच व्यापार, आदि। इस प्रकार के व्यापार का क्षेत्र देश की आन्तरिक सीमाओं तक ही सीमित रहता है। देशी व्यापार पुनः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है- 

(अ) स्थानीय व्यापार (Local Trade)- इससे तात्पर्य ऐसे व्यापार का है जो किसी स्थान विशेष तक ही सीमित होता है जैसे- साग-सब्जी, दूध-दही, ताजे फल, मिठाइयां, भूसा, घास, आदि का व्यापार। 

(ब) राज्यीय व्यापार (State or Provincial Trade)- इससे तात्पर्य ऐसे व्यापार से है जो किसी राज्य विशेष तक ही सीमित होता है। उदाहरण के लिए, आगरा, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, आदि नगरों के बीच व्यापार उत्तर प्रदेश राज्य की सीमाओं के अन्दर होने के कारण राज्यीय व्यापार कहलायेगा। 

(स) अन्तर्राज्यीय व्यापार (Inter-state Trade)- इससे तात्पर्य ऐसे व्यापार से है जो एक ही देश की सीमाओं के अन्तर्गत विभिन्न राज्यों के बीच होता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के बीच होने वाला व्यापार अन्तर्राज्यीय व्यापार कहा जायेगा।

देशी या आन्तरिक व्यापार को (A) थोक व्यापार (Whole Sale Trade) तथा फुटकर व्यापार (Retail Trade) के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। थोक व्यापार में बड़ी मात्रा में वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है और फुटकर व्यापार में जो प्रायः कई वस्तुओं से सम्बन्धित होता है, व्यापारी माल को छोटी-छोटी मात्रा में बेचता है। फुटकर व्यापारियों को पुनः अनेक उपवर्गों में बांटा जा सकता है, जैसे- फेरी वाले व्यापारी, विभागीय भण्डार, डाक द्वारा व्यापार, बहुसंख्यक दुकानें, सुपर बाजार, इत्यादि।

(2) विदेशी व्यापार (Foreign Trade)- 

विदेशी व्यापार से हमारा आशय उस व्यापार से है जो विभिन्न देशों अथवा सरकारों के बीच होता है, जैसे भारत-पाक व्यापार, भारत-रूस व्यापार, भारत-अमरीका व्यापार। विदेशी व्यापार को भी निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (अ) आयात व्यापार, (ब) निर्यात व्यापार, और (स) पुनर्निर्यात व्यापार । जब हम विदेशों से माल मंगाते हैं तो इसे 'आयात व्यापार' (Import Trade) और जब विदेशों को माल भेजते हैं तो इसे 'निर्यात व्यापार' (Export Trade) कहते हैं। कुछ वस्तुएं ऐसी हैं, जिन्हें हम उपयोग के लिए नहीं वरन् किसी पड़ोसी देश को निर्यात करने के लिए मंगाते हैं, इसे 'पुनर्निर्यात व्यापार' (Enterport Trade) कहते हैं। उदाहरण के लिए, नेपाल का कोई अपना बन्दरगाह नहीं है, अतः वह अपनी वस्तुएं भारतीय बन्दरगाहों द्वारा मंगाता है। जैसे ही ये वस्तुएं भारतीय बन्दरगाहों पर आती हैं, उन्हें तत्काल नेपाल भेज दिया जाता है।

(II) वाणिज्य (Commerce)

स्टीफेन्सन (Stephenson) के शब्दों में, "वाणिज्य उन समस्त प्रक्रियाओं के योग को कहते हैं जो कि वस्तुओं के विनिमय में आने वाली कठिनाइयों, स्थान व समय सम्बन्धी बाधाओं को दूर करने से सम्बन्धित हैं, जैसे व्यापार, बीमा, बैंकिंग, परिवहन, भण्डारण, आदि।" अन्य शब्दों में, माल को उसके उत्पादन स्थल से उपभोग के स्थान तक पहुंचाने में जो बाधाएं आती हैं उनको दूर करने से सम्बन्धित प्रक्रियाओं को ही 'वाणिज्य' कहा जाता है। माल को उत्पादक के कारखाने से हटाकर उपभोक्ता या प्रयोक्ता के द्वार तक ले जाने की प्रगति में पहले तो किसी सुरक्षित भण्डार में उसे संग्रह करना पड़ता है, विज्ञापन के विविध साधनों द्वारा लोगों को उसकी जानकारी करायी जाती है, तत्पश्चात् ग्राहक के आदेश पाने पर माल को ठेला, मोटर, रेल, आदि के द्वारा भेजा जाता है। वाणिज्यिक क्रियाओं के सुसंचालन हेतु और भी अनेक संस्थाओं की सहायता लेनी पड़ती है, जैसे- बैंक से पूंजी उधार लेना, पत्र-व्यवहार के लिए डाकखाने की सेवाओं का उपयोग करना, शीघ्र संवादवाहन के लिए तार विभाग की सेवाएं लेना, माल की जोखिम झेलने के लिए बीमा कम्पनी से बीमा कराना, विक्रय की सुविधा हेतु मध्यस्थों या एजेण्टों का सहयोग प्राप्त करना, माल लाने-ले-जाने के लिए परिवहन के साधनों का उपयोग करना, इत्यादि। वस्तुओं के उत्पादकों और उपभोक्ताओं को परस्पर सम्पर्क में लाने वाले इन समस्त साधनों को 'वाणिज्य' की परिभाषा में सम्मिलित किया जाता है।

वाणिज्य के अंग- 

वाणिज्य के दो प्रमुख अंग हैं- 

(1) व्यापार (Trade), जिसकी व्याख्या ऊपर की जा चुकी है, और (2) व्यापार के सहायक (Aids to Trade)। 

इसी आधार पर प्रायः कहा जाता है कि-

C=T+A

उपर्युक्त सूत्र में 'C' का अर्थ वाणिज्य (Commerce), 'T" का व्यापार (Trade) और 'A' का व्यापार के सहायक (Aids to Trade) है।

व्यापार के सहायक (Aids to Trade)- व्यापार के प्रमुख सहायक, जिन्हें वाणिज्य के महत्वपूर्ण अंग कहा जा सकता है, निम्नांकित हैं-

(1) परिवहन के साधन- परिवहन के साधनों को पुनः तीन भागों में बांटा जा सकता है- 

  • थल परिवहन, जैसे-तांगां, मोटर, रेल इत्यादि, 
  • जल परिवहन, जैसे-नाव, स्टीमर व जलयान, एवं 
  • वायु परिवहन, जैसे- वायुयान। इन साधनों की सहायता से स्थान उपयोगिता बढ़ती है अर्थात् एक स्थान का फालतू माल दूसरे स्थान पर बड़ी सरलता से पहुंचाया जा सकता है।

(2) संचार साधन- डाक, तार, बेतार का तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन के द्वारा व्यापारियों के माल के क्रय-विक्रय में बड़ी सहायता मिलती है। घर बैठे ही व देश-विदेश के व्यापारियों से अपना सम्पर्क स्थापित कर सकता है। माल के विज्ञापन में भी इससे बड़ी सुविधा होती है।

(3) वित्तीय संस्थाएं- इसके अन्तर्गत उन समस्त संस्थाओं के क्रियाकलापों का समावेश किया जाता है, जो जनता की बचत को एकत्रित करती हैं और उसे फिर राष्ट्र के उत्पादक कार्यों में विनियोग करके सहायक होती हैं, जैसे- व्यापारिक बैंक, औद्योगिक बैंक्स, इत्यादि।

(4) बीमा- व्यवसाय में पग-पग पर अनिश्चितताएं रहती हैं, जैसे- गोदाम में आग लग जाना, जहाज डूब जाना, दैवी प्रकोपों से सम्पत्ति नष्ट होना, कर्मचारियों की लापरवाही एवं बेईमानी से क्षति होना, इत्यादि। इन विभिन्न प्रकार के जोखिमों पर विजय पाने हेतु विभिन्न प्रकार के बीमे कराये जा सकते हैं, जैसे- जीवन बीमा, समुद्री वीमा, दुर्घटना बीमा, इत्यादि।

(5) विपणन क्रियाएं- इनसे तात्पर्य उन क्रियाओं का है, जिनके सहयोग से वस्तुएं उत्पादन से उपभोग के स्थान तक पहुंचायी जाती हैं। विपणन क्रियाओं में संलग्न प्रमुख संस्थाएं इस प्रकार हैं- स्कन्ध विपणियां, उपज विपणियां, विज्ञापन, विक्रय कला, गोदाम तथा एजेण्ट्स।

(6) अन्य- व्यापार के अन्य सहायक साधनों में कुछ सेवा सम्बन्धी क्रियाओं (Service activities) का भी समावेश किया जाता है। उदाहरणार्थ, जब कोई व्यक्ति सिनेमा अथवा किसी अन्य मनोरंजन-गृह में जाता है, तो वहां से किसी वस्तु को खरीदकर नहीं लाता वरन् मनोरंजन की सेवा प्राप्त करता है। होटल, रेस्तरां, लॉज, कैफे, इत्यादि आवास, जलपान व भोजन की सेवा प्रदान करते हैं तथा इनसे भी वाणिज्य के विकास में बड़ी सहायता मिलती है। इन सेवाओं के अतिरिक्त आयकर व विक्रय-कर के सलाहकार, प्रबन्धकीय सलाहकार (Management Consultants), वैधानिक परामर्शदाता, डॉक्टर, अंकेक्षक, लागत लेखापाल, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, मैनेजमेण्ट एकाउण्टेण्ट, इन्जीनियर्स, आदि की सेवाओं का भी इसमें समावेश किया जा सकता है।

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(III) उद्योग (Industry)

उद्योग का अर्थ-

उद्योग का अर्थ उन समस्त क्रियाओं से है जो कच्चे माल को पक्के माल के रूप में अथवा विक्रय योग्य अवस्था में लाती हैं। सरल शब्दों में, उद्योग वस्तुओं में रूप उपयोगिता प्रदान करता है। उपलब्ध प्राकृतिक कच्चे पदार्थों से उत्पादक अथवा उपभोक्ता पदार्थों का निर्माण करना ही उद्योग कहलाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यवसायी कपड़ा बनाता है, सीमेण्ट बनाता है अथवा बिस्कुट तैयार करता है, तो उसके उद्योग को हम 'उपभोक्ता पदार्थों का निर्माण करने वाला उद्योग' (Consumer's Goods Industry) कहेंगे; क्योंकि इन पदार्थों का अन्तिम उपभोक्ताओं द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग किया जाता है। किन्तु यदि कोई व्यवसायी उन मशीनों या उपकरणों का निर्माण करता है जिनका उपयोग कपड़ा, सीमेण्ट, कागज या विस्कुट बनाने वाले कारखानों में किया जाता है तो उसके उद्योगों को 'पूंजीगत पदार्थों का निर्माण करने वाला उद्योग' (Producer of Capital Goods Industry) कहेंगे, क्योंकि इन मशीनों से अन्य उद्योग दूसरे पदार्थों का निर्माण करेंगे।

उद्योग के प्रकार-

प्रकृति के अनुसार उद्योगों को निम्न चार भागों में बांटा जा सकता है- 

(1) निष्कर्षण उद्योग (Extractive Industries)- इसके अन्तर्गत वे उद्योग आते हैं, जिनका सम्बन्ध मुख्यत पृथ्वी, सागर अथवा वायु से विभिन्न प्रकार के उपयोगी पदार्थों को प्राप्त करके उन्हें कच्चे माल अथवा निर्मित माल के रूप में उपलब्ध करने से होता है। दूसरे शब्दों में प्रकृति की गोद से मानवीय प्रयत्नों द्वारा प्राप्त की गयी वस्तुएं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रयोग में लायी जायें इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं, जैसे खनिज उद्योग, मत्स्य उद्योग, शिकार खेलना, जंगल साफ करना, आदि।

(2) जननिक उद्योग (Genetic Industries)- इन उद्योगों में वनस्पति एवं पशुओं की विशिष्ट नस्लों में प्रजनन कराके उनकी संख्या को बढ़ाया जाता है, जिससे कि उनके विक्रय द्वारा लाभ कमाया जा सके। पौधों व पशुओं की नस्ल सुधार कम्पनियां, मुर्गीपालन, मत्स्य व मवेशी प्रजनन केन्द्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

(3) निर्माणी उद्योग (Manufacturing Industries)- इनसे अभिप्राय ऐसे उद्योगों का है जिनमें कच्चे माल द्वारा निर्मित माल तैयार किया जाता है, जैसे कपास से कपड़ा बनाना (वस्त्र उद्योग), पटसन से जूट का सामान बनाना (जूट उद्योग), गन्ने से चीनी बनाना (चीनी उद्योग), लुग्दी से कागज बनाना (कागज उद्योग), लकड़ी से फर्नीचर बनाना (फर्नीचर उद्योग), खनिज लोहे से इस्पात बनाना (इस्पात उद्योग), इत्यादि। 

(4) रचना उद्योग (Construction Industries)- इस श्रेणी के उद्योगों में निम्न का समावेश किया जाता है- सड़कें बनाना, पुल बनाना, नहरें निकालना, आदि। इन उद्योगों की दो विशेषताएं हैं : प्रथम, इनका उत्पादन बाजारों में विक्रय हेतु नहीं आता क्योंकि रचना का कार्य तो एक नियत स्थान पर ही किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, शहर के बाहर कॉलोनी में आवास-गृह बनाये जाते हैं। उस कॉलोनी के किसी आवास को बेचने के लिए किसी अन्य स्थान या बाजार में नहीं पहुंचाया जा सकता। दूसरे, ऐसे उद्योगों में निर्माणी तथा निष्कर्षण उद्योगों के उत्पादन का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, पुल के निर्माण में निष्कर्षण उद्योगों से प्राप्त पत्थर और निर्माणी उद्योगों से प्राप्त सीमेण्ट, लोहा व इस्पात, आदि वस्तुओं का उपयोग होता है।

IV. प्रत्यक्ष सेवाएं (Direct Services)

वस्तुओं की भांति सेवाओं का भी विक्रय होता है। मनुष्य विविध रूप से प्रत्यक्ष सेवाएं अर्पित करके दूसरे व्यक्ति की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है तथा अपनी सेवाओं के प्रतिफल स्वरूप धन प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इन्जीनियर, टाइपिस्ट, नाई, धोबी, आदि प्रत्यक्ष रूप में अपनी सेवाओं का विक्रय करते हैं तथा उसके बदले में धन अर्जित करते हैं। इन लोगों का व्यवसाय काफी सीमा तक स्वयं के शारीरिक व मानसिक प्रयासों पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ, एक वकील के घर पर मुवक्किलों की भीड़ लगी रहती है, जबकि दूसरे वकील के घर मुश्किल से सप्ताह में एक या दो मुवक्किल आते हैं।

व्यवसाय के उद्देश्य

व्यवसाय के उद्देश्यों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- 

  • आर्थिक या लाभार्जन करने का उद्देश्य, 
  • सामाजिक या सेवा उद्देश्य; 
  • मानवीय उद्देश्य, और 
  • राष्ट्रीय उद्देश्य। 

इनका विस्तृत विवरण निम्न प्रकार प्रस्तुत है-

(I) आर्थिक या लाभार्जन उद्देश्य

व्यवसाय के आर्थिक उद्देश्य से तात्पर्य है लाभ कमाना। यह सत्य है कि व्यवसाय एक ऐसी मानवीय क्रिया है जो वस्तुओं के क्रय विक्रय के द्वारा लाभ कमाने के लिए सम्पन्न की जाती है। व्यवसाय में लाभ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए रेल्फ हॉरविज (Ralph Horwitz) ने लिखा है कि "लाभ व्यावसायिक क्रिया का नवजीवन स्रोत है। लाभ के बिना व्यावसायिक क्रियाओं का संचालन नहीं किया जा सकता। लाभ का व्यवसाय में वही महत्व है जो सत्ता का राजनीति में होता है।"

अधिकतम लाभ कमाने के पक्ष में तर्क

फ्राइडमेन (Friedmen), जायल डीन (Joel Dean), पीगू (Pigou), कोल (Cole), कीथ एवं गुबेलिनी (Kieth and Gubellini) आदि विद्वानों ने अधिकतम लाभ कमाने के पक्ष में तर्क दिए हैं। इनके मतानुसार प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में लाभों को अधिकाधिक करना ही प्रबन्ध का मुख्य सामाजिक दायित्व है। इस विचारधारा के पक्ष में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं- 

  1. व्यवसाय स्थापित पर अधिक लाभ न कमाना मार्ग से भटकना है। 
  2. लाभ आर्थिक कल्याण का आधार है। 
  3. यह निर्णयन का भी आधार है। 
  4. न्यूनतम या सन्तोषप्रद लाभ व्यवसाय की सफलता का कोई माप नहीं है। 
  5. लाभ भावना से संसाधनों का मितव्ययता से प्रयोग किया जाता है। 
  6. इससे पूंजी के निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है। 
  7. लाभ व्यवसाय के विकास व विस्तार की आधारशिला है। 
  8. अधिक लाभ के बल पर विषम प्रतिस्पर्द्धा का सामना आसानी से किया जा सकता है। 
  9. अधिकतम लाभ अर्जित करके ही नवीनतम तकनीकों व अनुसन्धानों का व्यवसाय में समावेश किया जा सकता है। 
  10. अधिकतम लाभ अनिश्चितता व जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा कवच है। 
  11. लाभ भावना आत्मसन्तुष्टि प्रदान करती है। 
  12. इससे कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। 
  13. यह भौतिक सुख-सुविधाओं की ऊर्जा है। 

अधिकाधिक लाभ कमाने के विपक्ष में तर्क

कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के मतानुसार अधिकतम लाभ कमाना कानूनी डाका है। यह मानव जीवन की भव्यता के प्रति एक प्रकार की हिंसा है। इससे मानवता का पतन होता है। बर्नार्ड शॉ (Barnard Shaw), उर्विक (Urwick), जार्ज टेरी (George Terry), पीटर इकर (Peter Drucker) आदि विद्वान अधिकतम लाभ कमाने के विरुद्ध है। इनके तर्क संक्षेप में निम्नानुसार हैं- 

  1. अधिकाधिक लाभों से समाज में शोषण बढ़ता है तथा वर्ग-संघर्ष पैदा होता है। 
  2. इससे ग्राहकों व कर्मचारियों के हितों की उपेक्षा होती है। 
  3. समाज में नैतिक पतन को बढ़ावा मिलता है। 
  4. व्यक्तिगत स्वार्थ एवं भौतिकवाद को प्रेरणा मिलती है। 
  5. मानवीय मूल्यों का ह्रास होता है। 
  6. एकाधिकार व केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियां पनपती हैं।  
  7. व्यवसायी अपने सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करने लगता है। 
  8. कालाबाजारी, घूसखोरी, मिलावट व भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। 
  9. तस्करी को प्रोत्साहन मिलता है। 
  10. निर्धन अधिक दरिद्र तथा अमीर अधिक धनाढ्य हो जाते हैं जिससे असन्तोष बढ़ता है। 

अतः अधिकतम लाभ की धारणा अव्यावहारिक है।

उचित लाभ की अवधारणा 

पक्ष एवं विपक्ष में प्रस्तुत तर्कों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि व्यवसायी को मात्र उचित लाभ ही लेना चाहिए। लाभ आर्थिक क्रिया के लिए मुख्य प्रेरणा प्रदान करने वाला तत्व है। व्यवसाय के अस्तित्व को जीवित रखने के लिए लाभ अर्जित करना आवश्यक भी है, किन्तु इसकी मात्रा उचित होनी चाहिए अनुचित नहीं। उचित लाभ कमाने के पक्ष में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं- 

  1. लाभ व्यवसाय की प्रेरण शक्ति है, अतः व्यवसाय को जीवित रखने के लिए उचित लाभ होना ही चाहिए। 
  2. यह व्यवसायी की सेवाओं व साहस का प्रतिफल है। 
  3. व्यवसाय के स्वामी अंशधारियों को लाभांश का भुगतान लाभों से ही किया जा सकता है। 
  4. यह व्यवसायी के अभिप्रेरणा के लिए जरूरी है। 
  5. नव प्रवर्तन व व्यवसाय का विकास लाभों द्वारा ही सम्भव हो सकता है। 
  6. उचित लाभ व्यवसाय की प्रतिष्ठा एवं मान्यता का प्रतीक है। 
  7. यह ग्राहकों का भी सृजनकर्ता है।

(II) सामाजिक उद्देश्य

आर्थिक उद्देश्य के साथ-साथ व्यवसाय का उद्देश्य ग्राहक व समाज की सेवा करना भी होना चाहिए। वर्तमान प्रतियोगी युग में ग्राहक ही बाजार का राजा है। वर्तमान अर्थव्यवस्था ग्राहक प्रधान है तथा ग्राहक सदैव सही है के आधार पर ही व्यवसाय का सफल संचालन किया जा सकता है।

हेनरी एल. गैण्ट (Henry L. Gant) के शब्दों में, "व्यवसाय में सेवा आवश्यक है, न कि लाभ जो श्रेष्ठतम सेवा प्रदान करेगा वही अधिकतम लाभ कमायेगा।" अतः एक व्यवसायी को ग्राहकों की सेवा एवं सन्तुष्टि के लिए निम्नलिखित कार्य करने चाहिए- 

  1. अधिकतम श्रेष्ठतम व सस्ती वस्तुओं का निर्माण करना चाहिए, 
  2. वस्तुओं व सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट नहीं लाना चाहिए, 
  3. विक्रय उपरान्त सेवा पर विशेष ध्यान देना चाहिए, 
  4. वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करके उपभोक्ताओं को संकट में नहीं डालना चाहिए, 
  5. वस्तुओं की नियमित पूर्ति बनाए रखना चाहिए, 
  6. झूठे विज्ञापन देकर उपभोक्ताओं के साथ कपट नहीं करना चाहिए, 
  7. उपभोक्ताओं के साथ मधुकर व्यवहार बनाये रखना चाहिए, 
  8. माल का प्रमाप निश्चित करना चाहिए, 
  9. नवीन उत्पादों तथा उनसे प्रयोगों को विकसित करना चाहिए, 
  10. उपभोक्ताओं की शिकायतों पर ध्यान देकर उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए, 
  11. सभी स्तर के उपभोक्ताओं का ध्यान रखना चाहिए, 
  12. विक्रयकला में उन्हें दक्ष होना चाहिए, 
  13. आश्वासन एवं शर्तों का पालन करना चाहिए। 
  14. व्यवसायी को समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति अपने दायित्व को निभाना चाहिए।

यह विचार त्रुटिपूर्ण है कि लाभ व सेवा उद्देश्य दो प्रतिद्वन्द्वी शत्रु हैं तथा उन्हें एक-दूसरे को समाप्त करना चाहिए। तथ्य यह है कि- 

  • दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, 
  • उनमें उचित सामंजस्य आवश्यक है, 
  • सेवा 'आदर्श' तथा लाभ 'प्रेरणा' स्वरूप होना चाहिए, 
  • किसी भी उद्देश्य की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

लाभ बनाम सेवावृत्ति

आजकल कुछ व्यवसायियों ने लाभवृत्ति को पुत्रवत एवं सेवावृत्ति को पुत्री तुल्य होने की भ्रामक मान्यता दी है। उनकी धारणा है कि पुत्र पिता की आंखों का तारा होता है, कुलदीपक होता है, तथा वृद्धावस्था में अपने माता-पिता का एकमात्र सहारा होता है। यही कारण है कि पिता के प्यार के स्रोत का प्रवाह भी पुत्र की ओर ही अधिक प्रवाहित होता है। इसके विपरीत, पुत्री को आर्थिक कष्टों का भार समझकर उसकी सुख-सुविधाओं की पूर्ति के प्रति कृपणता बरती जाती है। इसी दृष्टिकोण को मान्यता प्रदान करने वाले व्यवसाय व सैवावृत्ति के सामाजिक दायित्व को भी एक आर्थिक भारस्वरूप समझकर उपेक्षापूर्ण भाव रखते हैं। इस भार को हल्का करने हेतु व्यवसायी ने समाज-विरोधी घृणित सिद्धान्तों को (जैसे-मिलावट, बेईमानी, जमाखोरी, चोरबाजारी, कम तौल एवं नाप, आदि) अपने व्यवसाय में अपनाने का प्रयास किया है, जो उसकी स्वार्थ-सम्पन्नता का द्योतक है।

किन्तु नवीन सामाजिक चेतना व परिवर्तन के साथ अब वह समय आ गया है कि व्यवसायी अपने दृष्टिकोण को बदलें। यदि व्यवसायीगण अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग होकर कार्य नहीं करेंगे तो समाज भी उनके विरुद्ध क्रान्ति कर देगा और फलतः व्यवसायी की सम्पन्नता का भव्य महल हिल उठेगा। अतः व्यवसायी का यह सोचना युक्तिसंगत ही होगा कि लाभ और सेवा तत्व दो विरोधी धारणाएं नहीं हैं। ये तो मानवता रूपी इन्जन के दो पहिये सदृश्य हैं, जिसमें से किसी एक के बिना भी मानवता रूपी पटरी के सहारे आर्थिक विकास की मंजिल तक ही नहीं वरन् उपभोक्ता वर्ग की सन्तोष की अन्तिम मंजिल तक पहुंचना व्यवसायी के लिए कठिन हो जायेगा। अन्ततः सामाजिक असन्तोष की इस तीव्र ज्वाला से व्यवसाय का वट-वृक्ष-शुष्क होकर काष्ठ मात्र रह जाएगा क्योंकि व्यवसाय की उन्नति प्रारम्भ से अन्त तक उपभोक्ता के सन्तोष पर ही है।

(III) मानवीय उद्देश्य

व्यावसायिक क्रियाओं का तीसरा उचित उद्देश्य 'मानवीय' कहा जा सकता है। व्यवसाय में भूमि, कच्चा माल व मशीन जैसे जड़-पदार्थ ही नहीं होते, वरन् उनमें प्रबन्धक, संगठनकर्ताओं व श्रमिकों की एक विशाल सेना भी होती है। इन लोगों के साथ व्यवसाय के स्वामी या स्वामियों को मानवता का व्यवहार करना चाहिए। यदि मानवीय दृष्टिकोण में समस्याओं का समाधान किया जाय, तो वास्तव में कोई उलझन रहेगी ही नहीं। एक बार हेनरी फोर्ड के कारखाने में श्रमिकों ने हड़ताल की तथा निम्न शब्दों के कहते ही हड़ताल तोड़ दी और खुशी से काम पर चले गये, "आप मेरे बच्चे हैं मैं आपका पिता हूं, जाइए काम कीजिए।" जनरल फोर्ट्स कारपोरेशन के भूतपूर्व अध्यक्ष क्लेरेन्स फ्रांसिस (Clarence Francis) ने भी कहा है कि 'कर्मचारियों के साथ मानवता का व्यवहार करना चाहिए, उनको उपयुक्त पारिश्रमिक देना चाहिए, समस्त आवश्यक जानकारी प्रदान करनी चाहिए तथा समय-समय पर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए।' मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति हेतु व्यवसायी को निम्न कार्य करने चाहिए- 

  1. पूंजी के विनियोजकों को उचित लाभांश देना चाहिए, 
  2. पूर्तिकर्ताओं को उचित मूल्य देना चाहिए, 
  3. कर्मचारियों को उचित वेतन व भत्ते देना चाहिए, 
  4. उनके लिए कार्य की श्रेष्ठ दशाएं प्रदान की जाएं, 
  5. श्रम कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा की समुचित व्यवस्था हो, 
  6. दुर्घटनाओं की रोकथाम की जाय, 
  7. कर्मचारियों को प्रबन्ध में भागीदारी दी जाय, 
  8. शिक्षण व प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था हो, 
  9. रोजगार के नए अवसर प्रदान किए जाएं, 
  10. कर्मचारियों के विकास की समुचित व्यवस्था हो, इत्यादि।

(IV) राष्ट्रीय उद्देश्य

इससे आशय राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन किए जाने से है। इस हेतु निम्न कार्य किए जा सकते हैं- 

  1. सरकार के नियमों को धर्म समझकर दृढ़ता से पालन करना चाहिए, 
  2. करों का समय पर भुगतान करना चाहिए, 
  3. संयन्त्र की उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग किया जाए, 
  4. आर्थिक नियोजन में सक्रिय सहयोग करना, 
  5. देश की सीमित साधनों का अनुकूलतम उपयोग करना, 
  6. तस्करी, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, जमाखोरी, मिलावट जैसी असामाजिक प्रवृत्तियों से दूर रहना, 
  7. पर्यावरण नियोजन करना, 
  8. प्रदूषण की समस्या के निवारणार्थ सभी सम्भव उपाय करना, 
  9. मूल्यों में स्थायित्व रखना, 
  10. आधारभूत व सुरक्षा उद्योगों के विकास में सहयोग देना, 
  11. क्षेत्रीय असन्तुलन दूर करना, 
  12. संविधान का आदर करते हुए उसके अनुरूप आचरण बनाए रखना, 
  13. अनावश्यक प्रतिस्पर्धा से दूर रहना।

उपसंहार- जहां तक भारतीय व्यवसायियों का सम्बन्ध है, बृहत व्यवसायी आर्थिक, सामाजिक एवं मानवीय उद्देश्यों का विशेष ध्यान रखते हैं, किन्तु लघु व्यवसायियों में साधनों की कमी के कारण कुछ मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति का अभाव देखा जाता है। हां, व्यवसायियों में शनैः-शनैः सामाजिक उत्तरदायित्व की चेतना बढ़ रही है।

व्यावसायिक संगठन के अध्ययन का महत्व अथवा व्यावसायिक संगठन के लाभ

व्यावसायिक संगठन की उपयोगिता व महत्व के विषय में निम्न बातें उल्लेखनीय हैं-

1. व्यावसायिक संगठन आधुनिक व्यापार, उद्योग व वाणिज्य का जीवन रक्त है जिससे विषम प्रतियोगिता का दृढ़तापूर्वक सामना किया जा सकता है- आज व्यवसाय के क्षेत्र में गहन प्रतिस्पर्द्धा का साम्राज्य फैला हुआ है। वह राष्ट्रीय संस्थाओं के पदार्पण से आज न बाजार छोटा है और न प्रतियोगिता सीमित। आधुनिक विषम प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि न्यूनतम व्यय पर श्रेष्ठतम उत्पादन किया जाए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक संगठन का अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है। यही कारण है कि आज विश्व के सभी देशों में व्यवसाय संगठन की शिक्षा बच्चों को विद्यालयों में प्रारम्भ से दी जाती है।

(2) उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के मध्य प्रभावपूर्ण सहकारिता स्थापित करने के लिए- उत्पत्ति के विभिन्न साधनों (जैसे- भूमि, श्रम, पूंजी, साहस व संगठन अथवा संक्षेप में तीन 'म' (Three M's) - मानव, माल व मशीन - Man, Money and Material) के मध्य प्रभावपूर्ण समन्वय होना किसी व्यावसायिक इकाई की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है। किन्तु समन्वय स्थापित करने का यह कार्य प्रभावशाली व्यावसायिक संगठन द्वारा ही सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

(3) कुशल व्यापारी, वाणिज्यिक एवं उद्योगपति बनने के लिए- वाणिज्य शिक्षा का मूल उद्देश्य कुशल व्यापारी, वाणिज्यिक व उद्योगपति तैयार करना है। किन्तु यह उसी दशा में सम्भव हो सकता है जबकि उन्हें व्यावसायिक संगठन के सिद्धान्तों का समुचित ज्ञान हो।

यही कारण है कि आज देश में वाणिज्य शिक्षा के क्षेत्र में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे हैं तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण के अनेक नये संस्थान खोले जा रहे हैं। अहमदाबाद व कोलकाता के इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेण्ट (I. I. M.) इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। 

(4) देश के नियोजित विकास के लिए- आज प्रत्येक देश अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए विशाल योजनाओं का निर्माण कर रहा है। इन योजनाओं के कुशल क्रियान्वयन के लिए व्यवसायियों व उद्योगपतियों का परामर्श भी आवश्यक है जिससे कि उनमें सामर्थ्य के अनुसार औद्योगिक विकास हो सके। सही परामर्श के लिए व्यावसायिक संगठन के सिद्धान्तों का ज्ञान आवश्यक है। आज केवल निजी क्षेत्र में ही नहीं, वरन् सार्वजनिक क्षेत्र में भी उद्योगों का विकास किया जा रहा है। समाज के धन का समुचित प्रयोग तथा जनकल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति उसी दशा में सम्भव है जबकि क्षेत्र के उद्योगों में भी व्यावसायिक संगठन के मूल सिद्धान्तों का पालन किया जाय।

(5) श्रम-समस्याओं के निवारण हेतु- आज बड़े उद्योगों में सहस्रों की संख्या में श्रमजीवी कार्य करते हैं। उनकी अनेक समस्याएं होती हैं, जैसे भर्ती, प्रशिक्षण, मजदूरी व बोनस निर्धारण, कल्याण कार्य, सामाजिक सुरक्षा, आदि। इन विविध समस्याओं के निवारणार्थ बड़े उद्योगों में कर्मचारी प्रशासन विभाग की स्थापना की जाती है। इस विभाग का सुचारु संचालन वही व्यक्ति दक्षता के साथ कर सकता है जिसे व्यावसायिक संगठन के सिद्धान्तों की पूर्ण व सही जानकारी हो।

(6) वस्तुओं एवं सेवाओं का कुशलतापूर्वक उत्पादन एवं वितरण करने के लिए- यदि हम न्यूनतम व्यय पर श्रेष्ठतम व सस्ती वस्तुओं का उत्पादन करके उन्हें दूर-दूर तक फैले गांवों तक पहुंचाना चाहते हैं, तो हमें व्यावसायिक संगठन के सिद्धान्तों का अध्ययन करना होगा।

(7) चारित्रिक एवं नैतिक मनोबल ऊंचा उठाने के लिए- सच्चाई, ईमानदारी एवं नैतिकता का व्यवहार करके व्यवसाय को ऊंचा उठाया जा सकता है। अतः यदि हम चाहते हैं कि हमारे व्यवसायियों का चारित्रिक एवं नैतिक स्तर ऊंचा उठे, तो इस हेतु व्यावसायिक संगठन का अध्ययन करना होगा।

(8) सामाजिक जीवन को उन्नत करने के लिए- व्यावसायिक संगठन कुशलता से वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन व वितरण करता है, आर्थिक समस्याओं का निवारण करके जन-साधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाता है जिससे उच्चतर सामाजिक जीवन सम्भव है।

(9) आर्थिक समस्याओं का निवारण- व्यावसायिक संगठन एवं उसकी पद्धति का भली-भांति अध्ययन करके व्यापार में सफलता प्राप्त की जा सकती है तथा आर्थिक समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है।

(10) क्षेत्रीय असमानताओं को समाप्त करने के लिए- व्यावसायिक संगठन के सिद्धान्तों और तकनीकों का प्रयोग करने से क्षेत्रीय असमानताओं को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

(11) सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह हेतु- व्यवसाय के संगठन का ज्ञाता ही कुशल प्रबन्ध के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों (जैसे- कर्मचारी, उपभोक्ता, ऋणदाता, सरकार, आदि) के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का एक साथ निर्वाह कर सकता है।

(12) व्यक्तियों के विकास के लिए- व्यावसायिक प्रबन्ध वस्तुओं का निर्देशन नहीं वरन् व्यक्तियों का विकास है। उपयुक्त प्रशिक्षण व अन्य प्रबन्धकीय तकनीकों के माध्यम से व्यावसायिक संगठन संस्था के कर्मचारियों को श्रेष्ठतर बनाने का प्रयास करता है।

(13) मधुर श्रम-पूंजी समबन्धों की स्थापना यद्यपि औद्योगिक विस्तार श्रम-समस्याओं को जन्म देता है, किन्तु कुशल व्यावसायिक संगठन ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिससे समस्याओं का शीघ्र निदान हो जाता है एवं श्रम व पूंजी के मधुर सम्बन्ध बने रहते हैं।

(14) अन्तर्राष्ट्रीय विवेक जाग्रत करना- विश्व के विभिन्न देशों के मध्य प्रबन्ध के क्षेत्र में परस्पर सहयोग एवं विचार-विमर्श की भावना जाग्रत करने से अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता को बढ़ावा मिल सकता है जिसके परिणामस्वरूप मतभेद या युद्ध के स्थान पर विश्व-शान्ति तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना पनपेगी।

(15) अन्य लाभ- व्यापार एवं वाणिज्य के विकास से ही अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा मिला है। इसके द्वारा ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रम-विभाजन व विशिष्टीकरण का लाभ प्राप्त करना सम्भव हुआ है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा ने वैज्ञानिक प्रगति को भी प्रोत्साहित किया है।

संक्षेप में, मानव जीवन को सुखमय तथा समृद्धशाली बनाने में व्यावसायिक संगठन का जितना अधिक योगदान है उतना अन्य किसी भी घटक का नहीं है।

भारत में व्यावसायिक संगठन का महत्व

भारत की आर्थिक प्रगति सफल व्यावसायिक संगठन में ही निहित है। इसके महत्व के सम्बन्ध में निम्न बिन्दु स्मरणीय हैं-

(1) प्राकृतिक संसाधनों का समुचित विदोहन करने के लिए- भारत में प्रचुर प्राकृतिक साधन उपलब्ध हैं। औद्योगिक कच्चा माल, खनिज पदार्थ, वन सम्पदा, जल सम्पदा, आदि सभी दृष्टियों से हम धनी हैं। फिर भी । अरब 2 करोड़ 70 लाख जनसंख्या वाला यह देश अपने संसाधनों का सपयोग करने में असमर्थ रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशियों ने हमारे प्राकृतिक साधनों का उपयोग भारत के हित में न करके अपने हित में किया तथा मनमाने ढंग से उनका विनाश किया। अतः आज व्यावसायिक संगठन के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की आवश्यकता है, तभी देश अर्द्ध-विकसित की सीमा से हटकर विकास की ओर अग्रसर हो सकता है।

(2) तेज गति से औद्योगीकरण के लिए- निवारण का एकमात्र उपाय है तेज गति से औद्योगीकरण करना। आज हमारे वृहत उद्योग जैसे- लोहा एवं इस्पात, सीमेंट, सूती वस्त्र मिल तथा जूट उद्योग- अपनी विद्यमान क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। लघु उद्योगों की दशा भी सन्तोषप्रद नहीं है। अतः यदि लागत को कम करके उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना है तो यह कुशल व्यावसायिक संगठन के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। तभी विकास की गति में तेजी लाई जा सकती है। 

(3) गरीबी व बेकारी को दूर करने के लिए- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पांच दशक समाप्त होने के बाद भी आज देश की 40% से अधिक जनसंख्या ऐसी है जो गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन-यापन कर रही है। गरीबी के साथ देश में अदृश्य बेरोजगारी भी विद्यमान है। ऐसी स्थिति में देश में उद्योग-धन्धों का विकास अपरिहार्य हो जाता है। भारत में व्यवसाय का विकास किए बिना गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, आदि दानवों से मुक्ति पाना कठिन है।

(4) रोजगार के नवीन साधनों का विकास करने के लिए- भारत में कृषि पर जनसंख्या का भार अत्यधिक है तथा मात्र 17% जनसंख्या ही उद्योगों एवं व्यापार व वाणिज्य में संलग्न है। अतः रोजगार के नवीन अवसरों का सृजन करने के लिए व्यावसायिक क्रियाओं में तीव्रता लाना आवश्यक है।

(5) जनता के जीवन-स्तर में वृद्धि करने के लिए- हमारे देश में जनसाधारण का जीवन स्तर पाश्चात्य देशों की तुलना में बहुत नीचा है जिसे उन्नत करने के लिए व्यावसायिक प्रगति आवश्यक है। व्यवसाय उच्च जीवन-स्तर तथा आर्थिक ऊर्जा प्रदान करता है। व्यवसाय से ही हमें मजदूरी, ब्याज, लाभांश, वेतन, महंगाई भत्ता, आदि के रूप में धन प्राप्त होता है जिससे क्रय शक्ति बढ़ती है तथा विकसित उपभोग से जीवन-स्तर ऊंचा उठता है।

(6) उत्पादकता में वृद्धि हेतु- व्यावसायिक विकास से उत्पादकता में निश्चित वृद्धि होगी जिसकी देश को आज आवश्यकता है। साथ ही वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन करना भी सम्भव होगा।

(7) आर्थिक नियोजन की सफलता हेतु- पंचवर्षीय आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत उत्पादन के जो लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं, उनको प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक संगठन एक अनिवार्यता है।

(8) उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में कमी लाने तथा उनकी उपलब्धता को सुगम बनाने के लिए भी व्यावसायिक संगठन नितान्त आवश्यक है।

(9) लोकतन्त्रात्मक समाजवाद की स्थापना में भी व्यवसाय सहयोग प्रदान करता है। प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी, व्यवसाय के सामाजिक दायित्व पर बल तथा भारत सरकार द्वारा उद्योगों के नियमन व नियन्त्रण हेतु बनाये गये सन्नियम ने लोकतन्त्रात्मक समाजवाद की स्थापना में सहयोग दिया है।

(10) पूंजी का निर्माण- भारतीय पूंजी आज भी काफी शर्मीली है अतः पूंजी के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए व्यावसायिक संगठन बहुत आवश्यक है।

(11) अर्थव्यवस्था के आधार को उन्नत करने के लिए भी व्यावसायिक क्रियाओं को विकसित करना जरूरी है। आधारभूत उद्योग के विकास से ही अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है। भारत में मानव व राष्ट्र को अभावों से मुक्ति दिलवाकर समृद्धि की ओर अग्रसर करने वाला व्यवसाय ही है।

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