जिस प्रकार से एक स्थान से दूसरे स्थान को रेल अथवा मोटर को ले जाने के लिए केवल रेल या मोटर की आवश्यकता नहीं होती वरन् कुशल चालक या ड्राइवर भी जरूरी होता है, उसी प्रकार व्यावसायिक सफलता के लिए सफल व्यावसायिक उपक्रम होने के साथ-साथ सफल व्यवसायी होना भी आवश्यक होता है जो व्यवसाय रूपी रेल या मोटर को कुशलतापूर्वक चला सके। एक सफल व्यवसायी से आशय ऐसे व्यक्ति से होता है जो कुशलता के साथ व्यवसाय का मार्ग-दर्शन व संचालन कर सके।
क्या व्यावसायिक योग्यता अर्जित की जा सकती है?
व्यावसायिक योग्यता से आशय है व्यवसाय को सफलतापूर्वक संचालित करने की क्षमता। यह क्षमता दो प्रकार की हो सकती है-
(i) प्रकृति-दत्त, और
(ii) अर्जित।
प्राचीन काल से लेकर 18वीं शताब्दी तक प्रायः लोगों की, यह धारणा रही है कि 'व्यावसायिक क्षमता एक जन्मजात प्रतिभा है, अर्थात् कुशलतापूर्वक व्यवसाय का संचालन करने के लिए एक व्यक्ति में जिन गुणों व विशेषताओं का होना आवश्यक होता है, वे गुण कुछ व्यक्ति विरासत में लेकर पैदा होते हैं। इस विचारधारा के समर्थकों का कहना है कि जिस प्रकार कुशल गायक कलाकार के कण्ठ एवं कुशल नर्तकी के पांव ईश्वर की देन हैं, उसी प्रकार व्यवसायी के गुण भी भगवत् कृपा के परिणाम हैं, उन्हें विकसित नहीं किया जा सकता।
इस विचारधारा में सत्यता का कुछ अंश अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि रुचि, साहस, जोखिम उठाने की क्षमता, नेतृत्व, आदि गुण कुछ बच्चों में जन्म से ही दिखलाई पड़ते हैं तथा आयु बढ़ने के साथ-साथ अनुकूल वातावरण मिलने पर उनकी प्राकृतिक प्रतिभाओं में निखार आने लगता है। किन्तु ज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं प्रशिक्षण की सुविधाओं में विकास ने उपर्युक्त विचारधारा में एक इन्कलाब पैदा कर दिया है। आज व्यवसाय का स्वामित्व एवं प्रबन्ध अलग-अलग हो गये हैं, प्रशिक्षण प्रदान करने को नई-नई प्रणालियां विकसित हो गयी हैं तथा प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं का भी विकास हो गया है और सफल व्यवसायियों का स्थान प्रशिक्षित व पेशेवर लोग ग्रहण करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में व्यावसायिक योग्यता को केवल जन्मजात प्रतिभा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
वर्तमान युग में ऐसे अनेक व्यवसायी हैं जिन्होंने देश-विदेश में प्रबन्ध विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त विभिन्न व्यवसायों में विशिष्ट उपलब्धियां प्राप्त कीं जबकि उनके माता-पिता का व्यवसाय से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि 'व्यावसायिक योग्यता एक जन्मजात प्रतिभा ही नहीं है वरन् अर्जित प्रतिभा भी है।' इसी कारण विश्व के चोटी के विकसित देशों में (जैसे- अमेरिका, इंगलैण्ड, जर्मनी व जापान) व्यवसाय सम्बन्धी उच्च शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था महाविद्यालय, विश्वविद्यालय तथा विशिष्ट व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों में दी जाती है जहां देश-विदेश के अनेक विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करके सफल व्यवसायी बनते हैं।
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व्यावसायिक सफलता के विषय में विभिन्न मत
(1) सर एडवर्ड बैनथोल (Sir Edward Benthol)- "व्यावसायिक सफलता व्यवसायी के चातुर्य व परिश्रम, व्यावसायिक सम्बन्ध तथा कीर्ति, विचार-शक्ति, साहस, व्यावसायिक सच्चाई, व्यावसायिक योग्यता, शिक्षा एवं व्यवस्थापक का कर्मचारियों पर विश्वास तथा जन सहयोग, आदि बातों पर निर्भर करती है।"
(2) हैनरी फोर्ड (Henry Ford)- "प्रत्येक व्यवसायी का उद्देश्य होना चाहिए कि पहले, उपभोक्ताओं की सेवा और फिर लाभ।"
(3) एस. आर. डावर (S. R. Davar)- "विवेक शक्ति, व्यावसायिक नैतिकता, योग्यता, प्रशिक्षण तथा पूंजी, आदि बातों पर व्यावसायिक सफलता निर्भर करती है।"
(4) रॉबर्ट लुइस स्टेवेन्सन (Robert L. Stevenson)- "सफलता अत्यन्त सरल है, किन्तु हमें कठिन परिश्रम करना पड़ेगा, सहनशील बनना पड़ेगा एवं विश्वासपात्र बनना पड़ेगा। मनुष्य को बिना पीछे की ओर देखे हुए निरन्तर आगे ही बढ़ते चला जाना चाहिए।"
(5) ए. कार्नेगी (A. Carnegie)- "एक व्यक्ति जो कल्पनाशील नहीं है, जिसमें उन्नति की आकांक्षा नहीं है तथा जो अपने जीवन को उच्च ध्येय की ओर निर्देशित नहीं करते, वे कभी सफल नहीं हो सकते।"
(6) प्रो. डिक्सी के अनुसार- "व्यावसायिक सफलता तीन बातों पर निर्भर करती है-
(अ) रुचि, चातुर्य एवं उत्साह,
(ब) पर्याप्त पूंजी,
(स) व्यावसायिक सम्बन्ध तथा कीर्ति प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन।"
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व्यावसायिक सफलता के मूल तत्व
व्यावसायिक सफलता के कुछ आधारभूत तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) लक्ष्य-निर्धारण
व्यावसायिक सफलता का प्रथम तत्व है लक्ष्य निर्धारित करना, अर्थात् यह तय करना कि व्यवसाय की स्थापना किस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए की जा रही है, व्यवसाय समाज की किस प्रकार से सेवा करेगा, अमुक वस्तु या सेवा किस प्रकार समाज को सन्तोष प्रदान करेगी। लक्ष्य निर्धारण से योजनाओं का कार्यान्वयन अत्यन्त सरल हो जाता है। संस्था के समस्त अधिकारियों तथा प्रमुख कर्मचारियों को लक्ष्यों से परिचित होना आवश्यक है जिससे कि वे उद्देश्यविहीन न हों तथा निरन्तर योजनानुसार कार्य करते रहें।
(2) पूर्वानुमान करना
लक्ष्य निर्धारण के उपरान्त पूर्वानुमान लगाना आवश्यक होता है। व्यवसाय में विभिन्न बातों का पूर्वानुमान लगाना पड़ता है जैसे स्थायी एवं कार्यशील पूंजी कितनी-कितनी होगी तथा कहां से प्राप्त की जायेगी? उत्पादन की लागत क्या होगी ? विभिन्न घटकों के पारिश्रमिक की दर क्या होगी? विक्रय कितना, कहां तक, किस मूल्य पर किया जायेगा ? लाभांश नीति क्या होगी? इत्यादि। इसके अतिरिक्त जनसंख्या, लागत मूल्य, तेजी-मन्दी, आदि के सामान्य पूर्वानुमान का भी ध्यान रखना पड़ता है।
(3) उपयुक्त संगठन का नियोजन तथा उसकी स्थापना
व्यावसायिक सफलता हेतु उपयुक्त संगठन का गठन करके संस्था का भावी कार्यक्रम निश्चित करना चाहिए। कुशल, अनुभवी व प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए जो निष्ठावान तथा ईमानदार हों। दूसरे, कार्यालयीन संगठन भी विधिवत करना चाहिए। तीसरे, वित्तीय व अवित्तीय अभिप्रेरण द्वारा कर्मचारियों को प्रेरित करना चाहिए।
(4) पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था
स्थायी व कार्यशील व्ययों हेतु संस्था के पास पर्याप्त मात्रा में पूंजी होनी चाहिए। अति या न्यून पूंजीकरण न होकर उचित पूंजीकरण होना चाहिए।
(5) शोध व विकास सुविधाएं
संस्था में शोध व विकास की भी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे प्रयोग, अनुसन्धान एवं नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित किया जा सके।
(6) कुशल एवं गत्यात्मक नेतृत्व
संगठन का नेतृत्व प्रगतिशील होना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यवसायी में अनेक गुणों का संगम हो, जैसे- दूरदर्शिता, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता, दृढ़ता, व्यावसायिक ज्ञान, कठोर परिश्रम की आदत, सहयोग से काम करना, साहस, आदि।
(7) मोर्चाचन्दी या व्यूह रचना
इसका आशय यह है कि अपना नियोजन करते समय प्रतिद्वन्द्वियों की योजनाओं को भी ध्यान में रखा जाय। जिस प्रकार, युद्ध-स्थल में दुश्मन की तैयारी को ध्यान में रखकर मोर्चाबन्दी करनी पड़ती है, उसी प्रकार व्यवसायी को भी नियोजन करते समय मोर्चाबन्दी की आवश्यकता होती है। इसे 'रणनीति' या 'व्यूह-रचना' भी कहते हैं। वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करते समय व्यवसायी को यह देखना पड़ता है कि उसके अन्य प्रतिस्पर्धी उपभोक्ताओं से क्या मूल्य ले रहे हैं। जब दो अथवा अधिक संस्थाएं समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करती हैं, तो प्रतिद्वन्द्वियों की योजनाओं को ध्यान में रखकर बनायी गयी योजना सफल होने में सन्देह रहता है अतः प्रतिद्वन्द्वियों की योजनाओं का सामना करने के लिए मोर्चाबन्दी करनी पड़ती है। व्यावसायिक नियोजन में व्यूह-रचना का विशेष महत्व है क्योंकि वर्तमान विषम प्रतिस्पर्द्धा के युग में बिना रणनीति के सफलता पाना कठिन हो जाता है।
सफल व्यवसायी के आवश्यक गुण
(1) प्रभावशाली व्यक्तित्व
व्यावसायिक सफलता बहुत कुछ व्यवसायी के 'व्यक्तित्व' पर निर्भर करती है। सामान्यतः प्रभावी व्यक्ति का आशय लोग व्यक्ति की सुन्दर मुखाकृति, उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर तथा उसके गौर वर्ण से लगाते हैं, किन्तु यह विचारधारा पूर्णतः सत्य नहीं है। 'प्रभावशाली व्यक्तित्व' के अन्तर्गत निम्न गुणों का भी समावेश किया जाता है-
- सफल व्यवसायी की मुखाकृति सुन्दर एवं आकर्षक होनी चाहिए,
- व्यवसायी स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट हो ताकि अधिक समय तक परिश्रम से एवं लगन से कार्य कर सके,
- ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए व्यवसायी को सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए,
- उसे अपने व्यवसाय में रुचि होनी चाहिए,
- व्यवसायी में कार्य करते समय आत्म-विश्वास की भावना होनी चाहिए,
- व्यवसायी को पूर्ण उत्साह, तन-मन-धन एवं लगन से कार्य करना चाहिए तथा आशावादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
(2) विवेकशील, कल्पनाशील एवं महत्वाकांक्षी
विवेक से कार्य करने का आशय है कि किसी कार्य को करने से पूर्व उसके परिणाम पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना, तत्पश्चात् उस कार्य को दृढ़तापूर्वक सम्पन्न करना चाहिए अन्यथा परिणाम गलत भी हो सकता है। विवेकशील होने के साथ-साथ व्यवसायी को कल्पनाशील एवं महत्वाकांक्षी भी होना चाहिए। किन्तु स्मरण रहे कि कोरी कल्पना से भी सफलता नहीं मिल सकती। एक कवि के शब्दों में, "सुन्दा स्वप्न देखना श्रेष्ठ है, परन्तु उन सुन्दर स्वप्नों को वास्तविकता में परिवर्तित कर देना सर्वश्रेष्ठ है।" अतएव व्यवसायी में कल्पना के साथ-साथ उसको साकार रूप में परिणत करने के लिए लगन, तत्परता एवं सामर्थ्य भी होनी चाहिए।
(3) उत्साह, साहस, तत्परता एवं दूरदर्शिता
एक सफल व्यवसायी में कार्य करने की उमंग, उत्साह अवश्य होना चाहिए। व्यवसायी को साधारण व्यक्ति से अधिक साहसी भी होना आवश्यक है। व्यापार में जोखिम प्रत्येक स्तर पर बनी रहती है। व्यापार में व्यवसायी को कठिनाइयों एवं असफलता के समय निरुत्साहित एवं विचलित नहीं होना चाहिए। प्रो. टॉमस के अनुसार, 'लाभ जोखिम का पुरस्कार है।' तत्परता से आशय कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने से है। दूरदर्शिता का आशय होता है कि व्यवसायी को किसी कार्य करने का निर्णय लेने के पूर्व उसके प्रभावों एवं परिणामों पर पूर्ण विचार कर लेना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि व्यावसायिक सफलता के लिए व्यवसायी में उक्त गुणों का होना नितांत आवश्यक है अन्यथा छोटी-छोटी समस्याओं तथा असफलताओं के कारण व्यापार समाप्त हो जाता है।
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(4) अथक परिश्रम
अथक परिश्रम व्यावसायिक सफलता की आधारशिला है। परिश्रमी व्यक्ति ही अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से मेहनत से काम करा सकता है। यदि किसी व्यवसाय का स्वामी स्वयं आलसी है, तो उसके नियन्त्रण में काम करने वाले कर्मचारी भी कमजोर होंगे।
(5) सिद्धान्त एवं सदाचार
एक सफल व्यवसायी को सिद्धान्तवादी होना चाहिए। प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में कुछ पूर्व-निश्चित सिद्धान्त होने चाहिए और उन्हीं के आधार पर दृढ़-प्रतिज्ञ होकर कार्य करना चाहिए। व्यवसाय में ईमानदारी के बिना सफलता प्राप्त करना असम्भव है। जो व्यक्ति बेईमानी करते हैं, वे कुछ समय तक भले ही फूलें-फलें किन्तु न तो उन्हें आत्मिक शान्ति मिल सकती है और न वास्तविक सफलता ही। ईमानदारी से संस्था की कीर्ति बढ़ती है तथा यह कीर्ति संस्था की सफलता में बहुत सहायक सिद्ध होती है। कहते भी हैं कि "ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।"
(6) लाभ की अपेक्षा सेवा को प्राथमिकता
व्यवसायी का उद्देश्य लाभ कमाने के साथ-साथ 'सेवा-भावना' भी होना चाहिए। हैनरी फोर्ड (Henry Ford) ने उचित ही कहा है कि, "एक व्यवसायी का प्रथम उद्देश्य उपभोक्ता की सेवा होना चाहिए, तत्पश्चात् लाभ।" इस कथन का स्पष्ट आशय है कि व्यवसाय की सफलता के लिए ग्राहकों की सन्तुष्टि परमावश्यक है। अतः व्यावसायिक सफलता के व्यवसायी को अपने इस उत्तरदायित्व को निभाना चाहिए।
(7) व्यवसाय में रुचि एवं विशिष्ट शिक्षा
व्यवसाय में पूर्ण सफलता तभी सम्भव हो सकती है जब हम रुचिपूर्वक परिश्रम से कार्य करें। किन्तु केवल रुचि से व्यावसायिक सफलता नहीं मिल सकती। मनुष्य अपनी रुचि द्वारा चुने हुए व्यवसाय में तभी सफलता प्राप्त कर सकता है जब वह उसके लिए योग्य भी हो। उदाहरण के लिए, यदि किसी को वकालत के व्यवसाय में रुचि है तो इसका यह आशय नहीं है कि वह इस व्यवसाय में सफल हो ही जायगा।
कारण, उसमें वकालत के व्यवसाय को करने की योग्यता भी होनी चाहिए जो तीन प्रकार की होती है- जन्मजात, अनुभव द्वारा प्राप्त तथा विशेष शिक्षा के द्वारा प्राप्त। जन्मजात योग्यता पर तो हमारा कोई अधिकार नहीं है, किन्तु अन्य योग्यताओं को अनुभव और शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
(8) ग्राहक का विश्वास
व्यवसाय में प्रवेश करने वाले इच्छुक नवयुवक को यह न भूलना चाहिए कि 'ग्राहक ही समस्त व्यवसाय का केन्द्र-बिन्दु होता है।' व्यापारिक भवन ग्राहकों के लिए है, न कि ग्राहक व्यापारिक भवन के लिए। व्यापार का तो मुख्य उद्देश्य ही ग्राहकों को आकर्षित करना तथा उनको सन्तुष्ट करना होता है। यदि कोई ग्राहक असन्तुष्ट हो गया है तो उसकी शिकायतों के निवारण के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। जो व्यापारी ग्राहकों का अनादर करता है तथा उन्हें सन्तुष्ट करना नहीं जानता, वह कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।
(9) चरित्रवान
यदि प्रतिभाओं को चारित्रिक बल मिल जाय, तो वे निखर उठती हैं।
प्रोफेसर हौकिंग के शब्दों में, "चरित्रवान व्यक्ति अपनी आत्मा, अपनी वाणी तथा अपने व्यवहार के द्वारा अन्य व्यक्तियों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डाल सकता है एवं उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।" चरित्र-बल की महत्ता के सम्बन्ध में एक अंग्रेजी कहावत है कि "यदि धन चला जाय तो कोई हानि नहीं है, स्वास्थ्य खराब हो जाय तो कुछ हानि है एवं चरित्र बिगड़ जाय तो सर्वनाश समझना चाहिए।" चरित्र एक अत्यन्त व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत निम्न बातों का समावेश किया जा सकता है-
- सत्य एवं ईमानदारी में विश्वास,
- उच्च आदर्श,
- दूरदर्शिता,
- नियमितता,
- कर्तव्यपरायणता,
- सद्व्यवहार एवं सहानुभूति,
- नम्रता, एवं
- उच्च मनोबल ।
(10) योजनाओं को परखने व निर्णय लेने की शक्ति
व्यावसायिक सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि व्यवसायी एक सफल आलोचक हो। उसे अपनी योजनाओं की अच्छाइयों तथा बुराइयों का अच्छी तरह अध्ययन करना चाहिए और तत्पश्चात् ही उन्हें कार्यान्वित करना चाहिए। आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए, विनाशात्मक नहीं। यदि आलोचना केवल आलोचना के लिए है तो वह निरर्थक होगी। कुशल आलोचक होने के साथ-साथ व्यवसायी में शीघ्र निर्णय लेने का भी गुण होना चाहिए।
(11) परिवर्तनशील गतिविधियों से परिचित
कुशल व्यापारी के लिए कूपमण्डूकता हानिकारक होती है। जो व्यवसायी व्यापार में सफलता पाना चाहता है, उसे अपने तक ही सीमित न रहकर विश्व की परिवर्तनशील गतिविधियों से भी परिचित होना चाहिए। कुशल व्यापारी वही है जो विश्व की गतिविधियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चले।
(12) मतभेदों को दूर करने की क्षमता
एक कुशल व्यवसायी में मतभेदों को सुलझाने की क्षमता भी होनी चाहिए। उसमें समझौता करने, ग्रहण करने, अवसर के अनुकूल बदलने तथा दूसरों की आलोचना एवं सलाह सुनने व अध्ययन करने की शक्ति होनी चाहिए।
(13) अनुशासनप्रिय
अनुशासन व्यावसायिक संगठन का प्राण है, अतः कर्मचारियों में अनुशासन में रहने की आशा करने वाले व्यापारी को स्वयं अनुशासन का पालन करना चाहिए। यदि वह स्वयं अनुशासन में है तो निश्चय ही उसके नेतृत्व में किया जाने वाला प्रत्येक कार्य अनुशासनयुक्त होगा।
(14) स्वतन्त्र विचार
शक्ति एक सफल व्यवसायी के लिए नितान्त आवश्यक है कि वह स्वतन्त्र विचार वाला हो। उसे अन्य लोगों या परामर्शदाताओं के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली नहीं होना चाहिए। उसका दृष्टिकोण जितना अधिक व्यापक व उदार होगा, व्यावसायिक समस्याओं को हल करने में उसे सफलता भी उतनी ही अधिक मिलेगी।
(15) व्यावसायिक कीर्ति या साख
व्यवसाय की समस्त सम्पत्तियों में संस्था की कीर्ति सबसे महत्वपूर्ण है। यदि व्यवसाय की साख होगी तो ग्राहक स्वयं ही उसके व्यवसाय की ओर वस्तु क्रय करने के लिए अग्रसर होंगे और व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करने लगेगा। इसके विपरीत, साख के अभाव में उसका व्यवसाय असफल हो जायगा।
(16) समय का मूल्यांकनकर्ता
व्यवसाय में 'समय' सबसे अधिक मूल्यवान होता है, अतः सभी कार्य नियत समय पर ही करने चाहिए।
(17) अन्य गुण
उपरोक्त गुणों के अलावा व्यवसायी पें अन्य गुण भी होने चाहिए, जैसे अवसर न चूकना तथा उसका लाभ उठाना, प्रबन्ध-ज्ञान की जानकारी तथा उसके सिद्धान्तों का उपयोग करना, अनुभव के अनुसार काम करना, इत्यादि।
निष्कर्ष
उपर्युक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि एक सफल व्यापारी में उपरोक्त गुण होने चाहिए। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि उसमें उपरोक्त गुण नहीं हैं तो वह एक सफल व्यापारी नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति टाटा और बिड़ला ही होंगे। जिस व्यक्ति में उपरोक्त में से जितने अधिक गुण होंगे, वह उतना ही सफल व्यापारी होगा। उचित शिक्षा व प्रशिक्षण से इनमें वृद्धि की जा सकती है तथा दैविक गुणों को निखारा जा सकता है।
पुस्तकीय बनाम व्यावहारिक ज्ञान
प्रायः कहा जाता है कि पुस्तकीय ज्ञान बेकार है, क्योंकि हमारे विद्यार्थी जब डिग्रियां लेकर विश्वविद्यालय से निकलकर जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो उनसे कुछ भी करते नहीं बनता। वे पत्र-व्यवहार भी ठीक से नहीं कर सकते। अतः ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ? वास्तव में, पुस्तकीय ज्ञान मनुष्य को 'पूर्ण' नहीं बनाता। जिस प्रकार मनुष्य को चलने के लिए दो पैरों की आवश्यकता है, उसी प्रकार व्यापार में सफलता पाने के लिए नवागन्तुक को पुस्तकीय एवं क्रियात्मक दोनों ही प्रकार का ज्ञान होना चाहिए। एक के बिना दूसरा अपर्याप्त है। यदि हमारे विद्यार्थियों को बड़ी-बड़ी फर्मों के साथ 'कार्य' का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिले तो जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में प्रवेश करते समय उनकी बुद्धि अधिक निखरी हुई होगी।