मानव जीवन को सुखी व समृद्धशाली बनाने के लिए विकसित व विकासशील राष्ट्र तेज गति से औद्योगीकरण कर रहे हैं। समाज की विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुएं व सेवाएं प्रदान करने के उद्देश्य से ही आज अनेक बहु-राष्ट्रीय निगम (Multi-national Corporations) औद्योगिक क्षितिज पर पनप रहे हैं। एक ओर तो बढ़ते हुए औद्योगीकरण ने कृषि पर जनसंख्या के भार को कम करते हुए उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि की है; रोजगार के नये अवसर प्रदान किये हैं एवं उपभोक्ताओं की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की सन्तुष्टि की है, किन्तु इससे उत्पन्न 'प्रदूषण' (POLLUTION) ने अब अधिक औद्योगीकरण के मार्ग में एक प्रश्नवाचक चिह्न-सा लगा दिया है तथा उसके भयंकर दुष्परिणामों को रोकने का दायित्व व्यवसाय तथा उसके प्रबन्धकों पर डाला है।
पर्यावरण के सन्तुलन के डगमगा जाने से उसके विभिन्न तत्वों- वायु, जल, ध्वनि, भूमि, आदि में प्रदूषण की समस्या बड़ा विकट रूप धारण करती जा रही है। यद्यपि पर्यावरण सुरक्षा के समर्थक विगत दशक से प्रदूषण के खतरों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, किन्तु जनवरी 1984 के भोपाल के यूनियन कार्बाइड काण्ड ने इन 'धीमे जहर' (Slow Poisoning) के प्रति जनमानस को झकझोर दिया है। आज मानव, पशु एवं वनस्पति जगत मात्र ही नहीं, कला व संस्कृति के प्रतीक भी इस 'जहरीली तकनीक' से अछूते नहीं बचते हैं। नीचे प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों का विश्लेषण करना अनावश्यक न होगा।
I. वायु प्रदूषण
मनुष्य के स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए तीन वस्तुएं आवश्यक होती हैं- भोजन, जल व वायु। इनसे अधिक आवश्यक वायु है। वायु जीवनदायिनी है। भोजन के अभाव में मनुष्य कई दिन जीवित रह सकता है। जल के बिना भी वह कुछ दिनों रह सकता है। किन्तु वायु के बिना कुछ मिनटों में ही दम घुटकर मृत्यु हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल श्वसन क्रिया द्वारा शुद्ध वायु अन्दर खींचता है तथा अशुद्ध वायु बाहर निकलता है। वायु वास्तव में अनेक तत्वों का सम्मिश्रण है, जैसे ऑक्सीजन (21%), नाइट्रोजन (79%), कार्बन-डाइ- ऑक्साइड (0.03%), ओजोन (0.02%), हाइड्रोजन (0.11%), आदि। इसके अतिरिक्त वायु में अमोनिया, जल वाष्प, धूल के कण, बैक्टीरिया, आदि भी हैं, जिनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है।
वायु के कारण मुख्यतः औद्योगिक केन्द्रों में प्रदूषण या कलुषीकरण की समस्या पायी जाती है। सामान्यतः अशुद्ध वायु होने के पांच कारण हैं-
(1) जीवधारियों के श्वास प्रक्रिया से- इस क्रिया से वायु की ऑक्सीजन का शोषण हो जाता है तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड निकलकर वायु में मिल जाती है।
(2) वस्तुओं के जलने से- कोयला, लकड़ी, तेल, मोमबत्ती, आदि के जलने से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड अधिक मात्रा में उत्पन्न होकर वायु को अशुद्ध कर देती है। यदि कोयला भली-भांति न जले तो एक और अधिक हानिकारक गैस कार्बन मोनो ऑक्साइड उत्पन्न होती है।
(3) धूल के कणों से- वायु में धूल के कण मिल जाते हैं। औद्योगिक केन्द्रों तथा भीड़-भाड़ के अन्य स्थलों में जली हुई राख, रोगों के जीवाणु, शुष्क बलगम, टूटी-फूटी चीजों के कण, आदि के टुकड़े वायु में मिश्रित होते हैं। जब मनुष्य सांस लेता है तो यह कीटाणु वाली दूषित वायु शरीर में प्रवेश करके बीमारियां फैला देती हैं।
(4) वस्तुओं के सड़ने से- जब कोई वानस्पतिक वस्तु या मांस, आदि सड़ता है, तो उसमें हाइड्रोजन, कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, सल्फाइड, अमोनियम, कार्बन-डाइसल्फाइड विषैली गैस वायु में मिलकर उसे अशुद्ध बना देती है। इस प्रकार की गन्दी वायु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।
(5) जीवाणु की उपस्थिति- अनेक रोगों, जैसे राजयक्ष्मा, एनफ्लूऐंजा, चेचक, खसरा, आदि के कीटाणु वायु में उड़ते हैं। ऐसी वायु में श्वास लेने से जीवाणु सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और रोग उत्पन्न कर देते हैं।
औद्योगिक केन्द्रों में वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
- परिवहन के साधन, जैसे रेल, मोटर, टैक्सी, ट्रक, साइकिल, आदि से वायु का कलुषित होना,
- कारखानों व मिलों में वस्तुओं के जलने से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, आदि गैसें पैदा होती हैं,
- औद्योगिक प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप जो वेस्ट-पदार्थ (Waste Material) होते हैं, उनके सड़ने-गलने से भी वायु खराब होती है। लोहा-इस्पात, सीमेण्ट, पेपर-पल्प, पेट्रोलियम रिफाइनिंग, फर्टिलाइजर प्लाण्ट्स, कोयला, तांबा, शीशा, जस्ता, एल्यूमिनियम, आदि उद्योगों में बहुत अधिक मात्रा में वेस्ट-पदार्थ निकलता है जिसके परिणामस्वरूप वातावरण दूषित, कलुषित व अपवित्र हो जाता है। मुम्बई, कोलकाता, दुर्गापुर, भिलाई, बड़ोदरा व अहमदाबाद में धूम-कोहरा या धुआं वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। एक अनुमान के अनुसार यदि भारत से प्रमुख औद्योगिक नगरों में वायु- प्रदूषण की समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया गया तो आगामी दशाब्दी में स्थिति नियन्त्रण के परे हो जायेगी।
II. जल प्रदूषण
जल जीवन का सार है। दैनिक जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति जल द्वारा होती है। पानी का उपयोग खेतों की सिंचाई, चीनी, चमड़े, कपड़े, आदि की मिलों में होता है। शक्कर की स्वच्छता, सड़कों की सफाई, आदि पानी द्वारा ही होती है। जल के अभाव में शरीर सूखने लगेगा, खेत सूख जायेंगे, भोज्य पदार्थों की कमी हो जायेगी, मिल व कारखाने बन्द हो जायेंगे तथा मानव का जीवन दुखमय हो जाएगा।
औद्योगिक नगरों में जल-प्रदूषण अधिकांशतः निम्न कारणों से होता है-
- अशुद्ध जल का सेवन करने से,
- नदियों, तालाबों व समुद्र में गन्दे औद्योगिक वेस्ट (Waste) के मिश्रण से,
- पानी के स्रोत में रासायनिक पदार्थों से युक्त गन्दे व विषैले पदार्थों के मिश्रण से। पेट्रोलियम, स्टील, कार्बनिक रसायन तथा कागज उद्योगों में इस प्रकार के गन्दे पदार्थ बहुत निकलते हैं,
- मल प्रवाह (Sewage system) की उपयुक्त व्यवस्था न होने से। अनेक देशों में मल पदार्थ कच्चे रूप में ही जल में बहा दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छ जल भी अशुद्ध हो जाता है। भारत के औद्योगिक नगरों में अधिक से अधिक 10% नगरों में ही मल प्रवाह की उपयुक्त व्यवस्था होगी तथा शेष जल प्रदूषण के शिकार हैं। गांव की अपेक्षा नगरों में यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है। नगरीय क्षेत्रों की 50% से अधिक जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में शुद्ध जल उपलब्ध नहीं हो पाता है।
कुछ राज्यों में जल प्रदूषण नियन्त्रण केन्द्रों (Water Pollution Control Centres) की स्थापना की गयी है; किन्तु जल प्रदूषण विषयक नियमों के अभाव में उनका क्रियान्वयन सन्तोषजनक ढंग से नहीं हो रहा है। अनेक नगरों में सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट्स नहीं हैं मुम्बई ऐसा पहला नगर है जहां सन् 1981 में सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लग गया है जिसके परिणामस्वरूप कच्चे रूप में ही मल-मूत्र, आदि का जल में मिश्रण न होगा। इस सन्दर्भ में यह लिखना अनावश्यक न होगा कि संयुक्त राज्य अमरीका की पांच बड़ी मीठे पानी की झीलें सुपीरियर, मिशीगन, ह्यूरन, पीरी तथा ओण्टरियो का जल कलुषीकरण के कारण पीने के योग्य नहीं रहा है।
अत्यधिक औद्योगीकरण परिवहन से इन झीलों का जल दूषित हो गया। वहां अनेक स्थलों पर इस आशय के संकेत बोईस लगे हैं कि 'पानी पीने योग्य नहीं है', 'पानी पीने से मृत्यु हो सकती है' आदि। पर्यावरण-विशेषज्ञों के अनुसार गंगा जैसी पवित्र नदी का जल भी आज पीने योग्य नहीं रहा है। मध्य प्रदेश में मालवा क्षेत्र के कारखाने व्यर्थ पदार्थों को क्षिप्रा नदी में प्रवाहित करते हैं। प. बंगाल की हुगली नदी में जूट मिलों का लाखों टन अशुद्ध प्रतिदिन उनमें गिरता है। पानी में ऑक्सीजन की कमी निरन्तर बढ़ती जा रही है। महासागरों में भी प्रदूषण तेज गति से बढ़ रहा है।
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III. शोरगुल प्रदूषण (ध्वनि प्रदूषण)
शोरगुल भी बढ़ते हुए औद्योगीकरण का उत्पाद है और इसके परिणामस्वरूप भी नगरों का शान्तमय वातावरण कलुषित हो जाता है। आजकल अधिकांश राष्ट्रों में तेज गति से औद्योगीकरण करने का एक नशा-सा छाया हुआ है। प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में लोग गांवों को छोड़कर नगरों व शहरों में आकर बसने लगे हैं। फलतः नगरों का आकार बढ़ता चला जा रहा है और वहां भीड़-भाड़ व शोरगुल की समस्या गम्भीर से अत्यधिक गम्भीर होती चली जा रही है। नगरों का कोलाहल इस पराकाष्ठा पर पहुंच रहा है कि मानव जीवन के लिए वह असहनीय सिद्ध होने लगा है। एक सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि भारत में शोरगुल की समस्या सबसे अधिक भयंकर रूप से मुम्बई में है जहां ढाई लाख से अधिक वाहन हैं। मुम्बई द्वीप में तो रात्रि भी शान्तिपूर्ण नहीं होती क्योंकि अनेक स्थलों पर कल-कारखाने व वाहन शोरगुल पैदा करने में व्यस्त रहते हैं। मशीनें, मोटरें, रेलें, जेट विमान, आदि हम सुविधा के लिए प्रयोग करते हैं, किन्तु इनसे उत्पन्न शोर परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है। शोर से हाइपरटेन्शन हो सकता है जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग जैसे घातक रोगों को जन्म देता है। डॉ. मयूर का मत है, कि अवांछित आवाज से संचार व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है। रॉक संगीत शोर प्रदूषण के कारणों में एक नयी कड़ी है।
संक्षेप में, आज आवश्यकता है विश्व के विकसित देशों की भांति भारत में भी प्रदूषण के दुष्प्रभावों के विषय में जन-चेतना पैदा करने की, तभी इस अदृश्य शत्रु से छुटकारा पाया जा सकता है।
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पर्यावरण प्रदूषण का व्यापार तथा उद्योग पर प्रभाव
आज भारत समेत विश्व के अधिकांश देश पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त हैं। उदारीकरण की नीति के अन्तर्गत भारत तीव्रगति से औद्योगीकरण की ओर अग्रसर है। परिवहन, चमड़ा, रासायनिक उर्वरक एवं प्लास्टिक से सम्बन्धित उद्योगों का तेजी से विकास एवं विस्तार हो रहा है जिनके कारण भूमि तथा वायु प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है। केन्द्र तथा राज्य सरकारें प्रदूषण नियन्त्रण सम्बन्धी नियमों तथा कानूनों का भी ठीक प्रकार से पालन नहीं करा पा रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली को 9 हजार औद्योगिक इकाइयों को शहर से बाहर ले जाने के आदेश, नदियों के जल का प्रदूषण कम न होना आदि इसी के परिणाम हैं।
भारत में औद्योगिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या निरन्तर गम्भीर होती जा रही है। इस समस्या पर नियन्त्रण पाने के उद्देश्य से केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने अनेक प्रकार के नवीन उद्योगों की स्थापना पर प्रतिबन्ध लगा दिया है तथा प्रदूषण फैलाने वाले विद्यमान उद्योगों के स्थानान्तरण किये जाने के आदेश जारी कर दिए हैं।
संक्षेप में पर्यावरण प्रदूषण व्यापार एवं उद्योगों को निम्न प्रकार प्रभावित करता है-
(1) उत्पादन तथा उत्पादकता पर प्रभाव
पर्यावरण प्रदूषण का उद्योगों के उत्पादन तथा उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके कारण उत्पादन की मात्रा तथा उसकी गुणवत्ता दोनों ही में गिरावट आती है। उद्योगों को शुद्ध जल तथा वायु नहीं मिल पाती है। श्रमिक अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं। इससे उनकी कार्यक्षमता का हास होता है। श्रमिकों तथा कारीगरों का पलायनं आरम्भ हो जाता है। सरकार द्वारा उद्योगों के विकास तथा विस्तारं पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। इससे व्यापार तथा उद्योगों के स्थानान्तरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। पर्यावरण प्रदूषण से भारत का मत्स्य उद्योग सर्वाधिक प्रभावित हुआ है।
(2) विकास की प्रक्रिया में अवरोध
पर्यावरण प्रदूषण से व्यापार तथा उद्योगों के विकास की प्रक्रिया में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। इनके विकास तथा विस्तार सम्बन्धी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं व्यापारी तथा उद्योगपतियों को सरकार तथा जनता दोनों के विरोध का सामना करना पड़ता है। कारखानों से निकलेने वाले जहरीले धुएं तथा गैसों, तेज आवाज तथा कचड़े से फैलने वाली गन्दगी का स्थानीय जनता द्वारा घोर विरोध किया जाता है। यही नहीं प्रकृति के संसाधनों का अभाव उत्पन्न होने लगता है।
(3) उद्योगों के स्थानान्तरण की समस्या
जब किसी औद्योगिक क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या अत्यन्त गम्भीर हो जाती है तो जनता तथा सरकार द्वारा उद्योगों के यथा शीघ्र स्थानान्तरण की मांग होने लगती है। स्थानान्तरण के कारण उद्योगों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(4) श्रमिकों की कार्य क्षमता का हास
पर्यावरण प्रदूषण का श्रमिकों की कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। व्यवसाय तथा उद्योगों में लगाए हुए श्रमिकों की कार्यक्षमता वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण के कारण गिर जाती है। श्रमिक अनेक प्रकार की बीमिरियों से ग्रस्त हो जाते हैं। उनके स्नायु शिथिल हो जाते हैं। उनमें काम के प्रति अरुचि, नीरसता, थकान उत्पन्न होने लगती है। वे तनाव ग्रसित हो जाते हैं? इससे उद्योगों का उत्पादन गिर जाता है।
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(5) व्यापारियों तथा उद्योगपतियों के मनोवल तथा नैतिकता में गिरावट
जल, वायु, मृदा तथा ध्वनि प्रदूषण के कारण व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का मनोबल गिर जाता है। उनका नैतिक पतन होने लगता है। वे अपनी हानि को कम करने के लिए मिलावट, घट तौली, हिसाब-किताब में गड़बड़ी, बेईमानी आदि भ्रष्ट तरीके अपनाने लगते हैं। इनके कारण देशी तथा विदेशी बाजारों में भारतीय व्यापारियों तथा उद्योगपतियों की ख्याति में तीव्रगति से गिरावट आई है। जनता इन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने लगती है।
(6) व्यापार के विकास पर प्रभाव
पर्यावरणीय स्थिति का देश के देशी तथा विदेशी व्यापार की मात्रा तथा प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसी से यह निर्धारित होता है कि व्यापार में कृषि उत्पादों अथवा औद्योगिक उत्पादों में से किसकी प्रधानता रहेगी। इसी से विदेशी व्यापार की दिशा भी निर्धारित होती है। अतः पर्यावरण प्रदूषण का व्यापार के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उत्पादों की गुणवत्ता में कमी आने के कारण उनके व्यापार का पतन होने लगता है। खाद्य पदार्थों का व्यापार सर्वाधिक प्रभावित होता है।
(7) कृषि विकास पर प्रभाव
पर्यावरणीय परिस्थितियों का कृषि पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में कृषि को भी उद्योग का दर्जा दिया जाने लगा है। कृषि विकास का उद्योगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अनेक प्रकार के उद्योगों जैसे चीनी उद्योग, खाद्यान्न व वनस्पति घी उद्योग, जूट उद्योग को कच्चा माल कृषि से ही मिलता है। व्यापार में भी कृषि उपजों की ही मात्रा अधिक रहती है, लेकिन पर्यावरण प्रदूषण का कृषि पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण देश में लाखों एकड़ भूमि बेकार होती जा रही है। भूमि की प्रकृति रेगिस्तानीकरण की तीव्र प्रक्रिया के कारण बिगड़ती जा रही है।
(8) औद्योगिक विकास पर प्रभाव
पर्यावरण किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास को गति भी प्रदान करता है तथा उसे अवरुद्ध भी करता है। यह पर्यावरण की स्थिति पर निर्भर करता है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण औद्योगिक विकास की गति मन्द पड़ जाती है। नवीन उद्योगों की स्थापना तो दूर रही, विद्यमान उद्योगों को भी अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उनका पतन आरम्भ हो जाता है।
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(9) परिवहन के विकास पर प्रभाव
परिवहन के साधन देश के व्यापार तथा उद्योगों की प्रगति को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। परिवहन के साधनों में रेल तथा सड़क एवं वायु मार्ग तथा जल मार्ग महत्वपूर्ण हैं। पर्यावरण प्रदूषण इन सबके विकास को प्रभावित करता है। अतः इनका व्यापार तथा उद्योगों के विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण मात्रा के स्थानान्तरण को प्रभावित करता है।
(10) विविध प्रभाव
पर्यावरण प्रदूषण के कुछ अन्य प्रभाव भी हैं; जैसे-
- बेरोजगारी फैलना,
- आर्थिक विकास में गतिरोध उत्पन्न होना,
- औद्योगिक क्षेत्र में अन्वेषण तथा अनुसन्धान क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना,
- ऊर्जा संकट उत्पन्न होने से उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना,
- योग तथा पूर्ति में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न होना।
पर्यावरणीय नियोजन कैसे हो?
पर्यावरणीय या वातावरण सम्बन्धी प्रदूषण को रोकने के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं :
(1) नगरों का विकेन्द्रीकरण
प्रदूषण की समस्या मुख्यतः औद्योगिक नगरों में अधिक गम्भीर है। अतः भविष्य में नगरों का विस्तार करते समय इस तथ्य को विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिए। नगरों के विस्तार की जो योजनाएं बनायी जाए उनका आधार विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। हमारा लक्ष्य सन्तुलित विकास की प्राप्ति होना चाहिए, न कि क्षेत्रीय विकास की। वायु, जल अथवा शोरगुल से सम्बन्धित प्रदूषण की समस्याएं औद्योगिक केन्द्रीकरण के ही कारण हैं। यदि नगरों का अनुकूलतम स्तर तक ही विकास किया जाए, तो निश्चित है कि कलुषीकरण की समस्या पैदा न होगी। जिन क्षेत्रों में औद्योगिक विकेन्द्रीकरण किया जाय वहां एक आदर्श नगर की समस्त सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। नगरीय नियोजन इस ढंग से किया जाय कि वेस्ट (Waste) व गन्दे पदार्थों की निकासी की समुचित व्यवस्था हो।
(2) प्रदूषण-नियन्त्रण
तकनीक का उपयोग औद्योगिक प्रदूषण से उत्पन्न दोषों पर नियन्त्रण पाने की अपेक्षा प्रारम्भ से ही ऐसे उपचार करना अधिक हितकर होगा जिससे कि प्रदूषण की समस्या पैदा न हो। इस प्रकार अनेक उपाय किये जा सकते हैं, जैसे-
- जिन उद्योगों के विषय में ऐसी आशंका है कि प्रदूषण निश्चय होगा तो उनके लिए प्रदूषण नियन्त्रण-तकनीक का उपयोग करना अनिवार्य होना चाहिए,
- यदि वित्तीय कठिनाइयों के कारण वे नियन्त्रण तकनीक की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं तो उन्हें चाहिए कि नगर से दूर अत्यन्त खुले व सुरक्षित क्षेत्र में उद्योग की स्थापना करें, और यदि यह सम्भव न हो तो या तो उद्योग प्रारम्भ न करें और यदि वह चल रहा हो तो उसे बन्द कर दें। किसी भी उद्योग को मानव के जीवन के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं है,
- नगर निगमों को चाहिए कि वे निश्चित नियमों के आधार पर ही अपनी सीमा के भीतर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करें। प्रदूषण के शिकार उद्योगों के विकास व विस्तार के सम्बन्ध में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए,
- नगरीय नियोजन के लिए पहले से सर्वेक्षण किया जा सकता है,
- उद्योगों का जो भी वेस्ट पदार्थ हो उसका अधिकतम उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। संयुक्त राज्य अमरीका ये गत पांच-सात वर्षों में ऐसे संयन्त्रों की स्थापना की गयी है जो शत-प्रतिशत वेस्ट पदार्थों से ही कागज का निर्माण करते हैं।
3. पर्यावरणीय नियोजन विषयक मन्त्रालय की स्थापना
नगरीय क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या के समुचित नियन्त्रण के लिए यह भी आवश्यक है कि केन्द्र व राज्यों में पर्यावरणीय नियोजन विषयक पृथक् मन्त्रालय की स्थापना की जाय। नगर-निगमों में इस कार्य हेतु एक स्वतन्त्र विभाग होना चाहिए। इस मन्त्रालय या विभाग के निम्नलिखित कार्य हो सकते हैं-
- पर्यावरणीय दशाओं के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्रित करना,
- वायु, जल व शोर-गुल सम्बन्धी प्रदूषण को रोकने के लिए कानून व नियम बनाना,
- नगरों के विकास हेतु 'मास्टर योजनाएं' तैयार करना तथा उसमें आवश्यक संशोधन करना,
- प्रदूषण नियन्त्रण हेतु आवश्यक तन्त्र का निर्माण करना,
- प्रदूषण नियन्त्रण के लिए शोध की व्यवस्था करना,
- प्रदूषण नियन्त्रण के लिए प्रमाप व नार्मस् की स्थापना करना जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हो सकते हैं, जैसे मल-मूत्र प्रवाह पद्धति, अवशिष्ट का उपयोग, ड्रेनेज, आदि।
4. प्राकृतिक हरियाली व सौन्दर्य को बनाये रखना
जहां तक हो सके नगरों के प्राकृतिक सौन्दर्य को नष्ट नहीं करना चाहिए। अच्छा होगा यदि कृत्रिम साधनों से सौदर्य में वृद्धि करने का प्रयास किया जाय जैसे पार्क, समुद्र तट, झीलों, नदियों, तालाबों, आदि के निकट वृक्षा रोपण करके सौन्दर्य में चार चांद लगाना। प्रत्येक मिल क्षेत्र में एक सुन्दर गार्डन होना चाहिए।
5. पर्यावरणीय नियोजन सम्बन्धी शिक्षा का प्रचार व प्रसार
पर्यावरणीय नियोजन क्या है, औद्योगिक प्रदूषण के क्या कारण हैं? इसे कैसे रोका जाय ? आदि बातों के सम्बन्ध में शिक्षा का प्रचार व प्रसार करना चाहिए जिससे जन-साधारण में प्रदूषण की समस्या के प्रति चेतना पैदा हो।
6. अन्य उपाय
- जनसंख्या नियन्त्रण पर ध्यान दिया जाय,
- जल व वायु के शुद्धिकरण के लिए दृढ़ प्रयास किये जायें,
- शोर-गुल को रोकने के लिए प्रशासकीय, प्रबन्धकीय व यान्त्रिक व्यवस्था की जाय,
- उप-पदार्थों के उपभोग के प्रयोग किए जाएं, तथा
- वातावरण को सुन्दर, सुखद व आकर्षक बनाया जाय।
प्रदूषण-निवारण के उपाय
वायु प्रदूषण पर नियन्त्रण के उपाय
(i) सभी नगरों व महानगरों के व्यस्त क्षेत्रों, प्रधान राष्ट्रीय राजमार्गों एवं सघन आवासीय क्षेत्रों में प्रदूषण नियन्त्रण के उपकरण नियत दूरी पर एवं निर्धारित समय चक्र के अनुसार सुचारु रूप से संचालित किए जाएं। इससे जैव जगत एवं मानव की क्रियाशीलता पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इससे प्रदूषण स्तर हानिकारक होते ही तत्काल कार्यवाही की जा सकेगी।
(ii) वायु में धूल, धुआं, Smoke या उड़ती राख फैलाने वाले उद्योगों की चिमनियों पर ऐसे सूक्ष्म कण एकत्रित करने की जालियां व उपकरण तो लगाए जाएं, साथ ही इनकी चिमनियों को 90 से 150 मीटर तक ऊंचा रखा जाए। अब 25 लाख जनसख्या से बड़े भारत के महानगरों एवं लैटिन अमेरिका के अनेक नगरों में ऐसी व्यवस्था की जाने लगी है। ऐसे उपकरणों से अनेक उप-उत्पाद भी प्राप्त होंगे जिनका विशेष कार्यों में उपयोग हो सकेगा।
(iii) दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों में औद्योगिक बस्तियां नगरों से 8-10 किमी. दूर स्थित हों एवं वहां ऐसा कोई उद्योग स्थापित नहीं किया जाए, जो धुआं या रासायनिक अथवा घातक वस्तुओं का निर्माण करता हो। जहरीले रासायनिक पदार्थों के निर्माण की स्वीकृति राष्ट्रीय हित में भी निर्जन प्रायः प्रदेशों में ही दी जानी चाहिए।
(iv) वाहनों से निकलने वाले धुएं का स्तर न्यूनतम रखना अनिवार्य किया जाए। इसकी अवज्ञा को गैर-जमानती अपराध माना जाए। महानगरों के सार्वजनिक वाहनों की धुआं निकालने की क्षमता की निरन्तर जांच की जानी चाहिए। यातायात के व्यस्त व संग्रथित स्थलों एवं अधिक धुआं उगलने वाले वाहनों पर निरन्तर कठोर नजर रखी जानी चाहिए ताकि धुएं का स्तर बढ़ते ही प्रवाह मार्ग को नियन्त्रित व धुएं के स्तर को पुनः न्यूनतम लाया जा सके। प्रदूषण बढ़ाने वाले वाहनों को फौरन सड़क से हटा दिया जाना चाहिए।
(v) महीन कण उगलने वाले सीमेण्ट के कारखाने, सुपर थर्मल पावर स्टेशन, धुआं व रसायन उगलने वाले पेट्रो-रसायन, खनिज तेल के कुओं पर जलती प्राकृतिक गैस, आदि पर यथासम्भव व यथाशीघ्र नियमितता लाई जाए।
(vi) नहरों, सड़कों, रेलमार्गों, आदि के आसपास हरी पट्टी का अनिवार्यतः राष्ट्रव्यापी विकास किया जाए। ऐसे पेड़ों को नियमित रूप से लगाकर उनका रेकार्ड रखकर उन्हें वन पट्टियों के रूप में विकसित किया जाए। इससे धुआं व धूल के अनेक प्रकार के प्रदूषक काफी नियन्त्रित बने रह सकेंगे।
(vii) जहरीली व घातक प्रभाव वाली गैसों, RDX जैसे घातक रसायन के उत्पादन को पूर्णतः राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था से जोड़ दिया जाना चाहिए। इसी भांति उपर्युक्त प्रकार के प्रदूषणों के उद्योगों एवं आणविक संस्थाओं में पूर्णतः प्रदूषण मुक्त प्रणाली (Fool proof device) को ही प्रभावी बनाया जाए। आणविक कचरे को भी ठोस ईंटों में बदलकर उन्हें दोहरे पोलीथीन के डिब्बों में पैक कर पुनः शीशा मढ़े इस्पात के दोहरे चादर वाले पहले छोटे डिब्बों में फिर 25 या 50 ईंटों को एक डिब्बा बनाकर पुनः इसी विधि से पैक किया जाए।
इन्हें तब गहरे सागर तल में डालने से पूर्व मोटी सीमेण्ट कंक्रीट की टंकियों में सील किया जाए। ऐसी व्यवस्था से ही इनका घातक प्रदूषण या रेडियमधर्मिता पूरी तरह नियन्त्रण में रह सकेगी।
जल प्रदूषण के नियन्त्रण के उपाय
यद्यपि वायु एवं जल प्रदूषण दोनों ही घातक होते हैं एवं इन पर यथाशीघ्र नियन्त्रण अनिवार्य माना जाना चाहिए। फिर भी जल प्रदूषण एक चक्रीय व्यवस्था है एवं जल के माध्यम से प्रदूषण के तत्व कई प्रकार से भोजन श्रृंखला एवं भू-जैव रसायन तत्वों की क्रियाशीलता में प्रवेश कर सम्पूर्ण जैव जगत में प्रसरित होकर बहुगुणित होते जाते हैं। अतः इस पर नियन्त्रण में कोई भी ढिलाई घातक मानी जानी चाहिए। नगरों के प्रदूषित जल एवं ठोस कचरा आदि, उद्योगों से निकलने वाले जहरीले रसायन, घातक व अम्लीय प्रभाव वाले तरल पदार्थ एवं पेट्रो-रसायन का कचरा, आदि सभी पानी में विविध विधि से घुलते रहते हैं। अतः इनसे बचाव हेतु ऐसे प्रदूषकों को उनके उद्गम या विकसित होने वाले स्थल पर ही नियन्त्रित करना आवश्यक है।
वर्तमान में सभी विकसित देशों के नगरों में मिश्रित एवं दूषित द्रव व ठोस कचरे को उपचारित करने के यन्त्र लगाए गए हैं। यहां से निकला पानी कृषि के लिए प्रदूषण रहित एवं विशेष उपयोगी माना जाता है। राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं गुजरात के पर्यावरण विभागों ने यह स्वीकार किया है कि उनके राज्यों के विविध केन्द्रों पर विकसित हो रही रंगाई, छपाई, ब्लीचिंग, डाईंग व प्रिंटिंग, चमड़ा सफाई जैसी निरन्तर बढ़ती कार्यवाही से ही निकट के नालों, सरिताओं, तालाबों एवं कुओं में अनेक प्रकार के अवांछित तत्व, बदबू एवं प्रदूषित जल के कुप्रभाव स्पष्टतः देखे गए हैं। कृषि व्यवस्था में उर्वरक व कीटनाशक भी जल को जहरीला व प्रदूषित बना देते हैं। अतः जल प्रदूषण निवारण या नियन्त्रण हेतु निम्न उपायों के आधार पर समुचित कार्यवाही आवश्यक है-
(i) महानगरों एवं अन्य नगरों के मल-जल एवं अन्य दूषित जल व कूड़ा-करकट को स्वच्छ जल में घुलने से रोकने हेतु उनकी निकासी व्यवस्था को ISI या अन्य प्रामाणिक संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय परिस्थितियों के आधार पर प्रामाणिक मॉडल दशा विकसित की जाय। उन्हीं के अनुसार सभी नगरों में तत्काल सुधार भी किया जाना चाहिए। भारतीय नगरों में पेय जल में दूषित जल का या कचरे के सड़े-गले तत्वों का रिसाव एक आम शिकायत है। इसे पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ सुधार कर रोका जाना चाहिए।
(ii) सभी नगरों एवं महानगरों में मल-जल (Sewage) एवं अन्य दूषित जल व कचरे को उपचारित करने के लिए स्थानीय दशा के अनुसार मानव श्रम पर आधारित स्वदेशी तकनीक का विकास किया जाना चाहिए। इनमें प्रदूषित कचरे को कम्पोस्ट में बदलते समय मिथेन गैस से रसोई गैस बनाई जाए। ऐसे कम्पोस्ट को खेतों में खाद हेतु नाममात्र के मूल्य पर दिया जाए।
(iii) मल-जल एवं नालियों व गटर के दूषित जल को नगर से दूर ले जाकर स्वच्छ करके जांच कर उसे सिंचाई के लिए काम में लाया जाए। भारत में ऐसे जल को स्वच्छ करने के लिए जिन-जिन महानगरों में विदेशी या यूरोपीय तकनीकी अपनायी गयी वहां ऐसी तकनीक पूर्णतः असफल, बहुत महंगी, खर्चीली एवं स्पेयर हिस्से-पुर्जे नहीं मिलने के कारण भारस्वरूप बनी रही। अतः स्वदेशी तकनीक व श्रम का अधिकाधिक उपयोग करना ही बुद्धिमानी है। ऐसे स्वैच्छ किए गए जल के तालाबों में मछली पालन कार्य भी किया जा सकता है।
(iv) बड़े-बड़े उद्योगों का अधिकांश जहरीला, प्रदूषित व विविध रसायनयुक्त जल वर्तमान में निकट के जलाशयों एवं नदियों में बहा दिया जाता है। इसी कारण आज उत्तरी भारत की प्रायः सारी ही नदियां बुरी तरह प्रदूषित हो रही हैं। पवित्र गंगा, यमुना, दामोदर, सोन, लूनी, सावरमती, आदि नदियां तेजी से जहरीली बनती जा रही हैं। अतः सभी बड़े उद्योगों के लिए अपने यहां से बहने वाले या प्राप्त प्रदूषित पदार्थों के उपचार की व्यवस्था व इससे सम्बन्धित मशीनें व इकाइयां लगाना कानूनन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। इससे जल एवं वायु प्रदूषण दोनों पर तेजी से नियन्त्रण लगेगा एवं जल संसाधन व जल-जैव जगत का स्वतः एवं समुचित पोषण हो सकेगा। भारत सरकार ने 1986 से ही पहले गंगा को व बाद में अन्य नदियों को साफ करने या प्रदूषण से मुक्ति दिलाने हेतु विशेष योजना क्रियान्वित की है। ऐसी योजना उत्तरी भारत के प्रत्येक नदी बेसिन में तत्काल क्रियान्वित की जानी चाहिए। सौभाग्यवश दक्षिणी भारत की अधिकांश नदियां आज भी प्रदूषण के घातक स्तर से प्रायः मुक्त हैं।
(v) सिंचित क्षेत्रों में खाद, DDT एवं ऐसे ही घातक रसायनों को नियन्त्रित किया जाना चाहिए। इससे जल में घुलकर आने वाले विजातीय एवं रसायन पदार्थों की मात्रा में पर्याप्त कमी आयेगी।
जल प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए एक कानून द्वारा 1974 में भारत सरकार ने एक बोर्ड की स्थापना की है एवं उसी के समकक्ष राज्य सरकारों ने भी केन्द्रीय निर्देश एवं तकनीकी सहयोग से ऐसे ही बोर्ड बनाये हैं। इनका उद्देश्य नदी, तालाबों एवं कुओं व भूमिगत जल को प्रदूषित होने से बचाना है। अतः अब ऐसे बोर्डों के कार्यों एवं प्रभाव तन्त्र को तत्काल सक्रिय किया जाना अनिवार्य है।
IV. भूमि एवं मिट्टी प्रदूषण नियन्त्रण
मिट्टी में अनेक प्रकार के विजातीय पदार्थ, रसायन एवं वस्तुएं कचरे की भांति फेंक दी जाती हैं। वायु एवं जल के माध्यम से भी मिट्टी में अवांछित विजातीय पदार्थ अनेक प्रकार से प्राप्त होते रहते हैं। इनके नियन्त्रण व इनसे बचाव के लिए निम्न प्रयास व सुझाव उल्लेखनीय हैं-
(i) विभिन्न प्रकार के कचरे का ढेर इकट्ठा करने के बजाय उसे जला दिया जाना चाहिए। कपड़े, कागज, त्याज्य घास-फूंस को सड़ने देने से तो उन्हें तत्काल जलाना अधिक उपयुक्त है।
(ii) सिंचाई वाले प्रदेशों में मिट्टी में क्षार, अम्लीयता, रेह, आदि को रोकने के लिए नियन्त्रित सिंचाई अनिवार्य है। जहां भी ऐसी अनुपजाऊ या दलदली भूमि विकसित होने लगे तो वन विभाग की सलाह से वहां विभिन्न प्रकार से उपयोगी वृक्षों के कुंज लगा दिये जाएं।
(iii) ढालू भूमि के कटाव को रोकने के सभी उपाय पेड़ या झाड़ियां या कंटीली झाड़ियां लगाना, समोच्च बन्ध एवं खेतों की ऊंची मेड़बन्दी कार्यक्रम को राष्ट्रीय स्तर पर बीहड़ वाले, पठारी एवं पर्वतीय ढालू भू-भाग पर पेड़ लगाने का कार्यक्रम तत्काल लागू किया जाना चाहिए। 1986 के प्रारम्भ से ही ऐसे कुछ कार्यक्रमों को लागू किये जाने की ओर कदम उठाये गये हैं। सामाजिक वानिकी सहकारी स्तर एवं निजी स्तर पर वन क्षेत्रों का विस्तार, आदि ऐसे ही पवित्र कार्यक्रम हैं।
(iv) सड़कों, नहरों, नदियों एवं रेलमार्गों के दोनों ओर अनिवार्य रूप से पर्याप्त चौड़ाई में जलवायु के अनुसार वृक्षों की पट्टी लगाकर उनकी सुरक्षा की जानी चाहिए। इससे मिट्टी कटाव रुकेगा। रासायनिक पदार्थ एवं धूल पर नियन्त्रण लाया जा सकेगा। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषण में तेजी से कमी आने लगेगी।
(v) नगरों से प्राप्त कठोर पदार्थ, कांच, चीनी मिट्टी, प्लास्टिक, धातुओं की वस्तुएं, भवनों का मलवा, आदि को इधर-उधर नहीं फेंककर उन्हें निचले स्थानों को भरने के काम में लाया जाना चाहिए अथवा कांच व प्लास्टिक को एकत्रित कर सम्बन्धित उद्योगों को ही पुनः बेच दिया जाना चाहिए।
(vi) अनावश्यक जैविक एवं खाद्य-पदार्थ व मरे हुए पशुओं को खुले स्थान पर छोड़ने व उनके सड़ते रहने से वायु, जल व मिट्टी तीनों ही प्रकार के प्रदूषण बढ़ते हैं एवं लघु पशु व पक्षी ऐसे प्रदूषित तत्वों को दूर-दूर तक फैलाकर अनेक रोगों के कीटाणुओं को प्रसारित करते रहते हैं। अतः इन्हें गड्डों में डालकर उन्हें तत्काल मिट्टी से दबा दिया जाए।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु किए जा रहे प्रयत्न
उत्तर प्रदेश पर्यावरण निदेशालय पर्यावरण संरक्षण हेतु काफी जागरूक है। निदेशालय द्वारा मऊ (आजमगढ़) की कपड़ा मिलों से निकले उठावाह से टौंस नदी की जैविक सम्पदा पर पड़ने वाले प्रभाव, शारदा कमाण्ड क्षेत्र में जल भराव से होने वाले पर्यावरणीय अपघटन, आगरा और मैनपुरी जिलों में फ्लोराइड के दांतों व हड्डियों पर पड़ने वाले प्रभाव, वाराणसी क्षेत्र में फसलों और मृदा पर पड़ने वाले प्रभाव, आदि का अध्ययन कर पर्यावरण संरक्षण हेतु रणनीति तैयार करने के कार्यक्रम चलाए गए। प्रदेश के तीन प्रमुख महानगरों-आगरा, कानपुर तथा वाराणसी में पर्यावरण सुधार हेतु सुलभ शौचालयों का निर्माण कराया जा रहा है। प्रदेश के 6 नगरों मेरठ, बरेली, आगरा, वाराणसी, गोरखपुर तथा इलाहाबाद में 100 होर्डिंग्स की स्थापना की गई है।