टीपू सुल्तान का प्रारम्भिक जीवन
टीपू सुल्तान हैदर अली का पुत्र था। उसका जन्म 1749 ई. में हुआ था। वह शिक्षित था तथा वह अनेक भाषाओं का ज्ञाता था। उसने हैदर अली के साथ अनेक सैनिक अभियानों में भाग लिया था। 7 दिसम्बर, 1782 ई. को हैदर अली की मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के उपरान्त टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर आसीन हुआ। जब टीपू मैसूर का शासक बना, उस समय दक्षिण की राजनीतिक स्थिति अत्यन्त जटिल थी। मराठे तथा निजाम दोनों ही मैसूर राज्य के कुछ प्रदेशों पर अपना अधिकार जता रहे थे। इस स्थिति में अंग्रेजों को मैसूर राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो सकता था। अतः टीपू सुल्तान ने विस्तारवादी नीति अपनाकर अपने विरोधियों का दमन करने का फैसला कर लिया।
टीपू सुल्तान और मराठे
1785 ई. में टीपू सुल्तान ने नारगुण्ड तथा कित्तूर पर अधिकार कर लिया। ये दोनों प्रदेश मराठों के अधिकार में थे। मराठा के नाना फड़नवीस ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह असफल रहा। इसके बाद नाना फड़वीस ने निजाम को सहायता से बादामी तथा गजेन्द्रगढ़ के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसी मध्य अंग्रेजों त्ते अपनी एक सेना पूना की ओर भेजी जिससे टीपू चिन्तित हुआ। उसने समझा कि मराठों ने उसके विरुद्ध अंग्रेजों का सहयोग प्राप्त कर लिया है। अतः 1787 ई. में टीपू ने मराठों से सन्धि कर ली।
इस सन्धि के अनुसार दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेशों को लौटाने का वचन दिया तथा मराठों ने टीपू से लिए जाने वाले खिराज में कमी कर दी। इसके अतिरिक्त टीपू ने मराठा युद्धबन्दियों को रिहा कर दिया।
टीपू सुल्तान का अंग्रेजों से संघर्ष टीपू सुल्तान एक महत्वाकांक्षी शासक था। वह अंग्रेजों को अपना घोर शत्रु मानता था। यद्यपि 1784 ई. में मंगलौर की सन्धि के अनुसार टीपू सुल्तान तथा अंग्रेजों में शान्ति स्थापित हो गई थी, लेकिन शीघ्र ही दोनों पक्षों के मध्य कटुता में वृद्धि होती गई और दोनों पक्ष युद्ध में कूद पड़े जिसके परिणामस्वरूप 1790 ई. में तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध आरम्भ हुआ।
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तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण
1790 ई. में टीपू सुल्तान तथा अंग्रेजों के मध्य तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध आरम्भ हुआ जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) एक-दूसरे के प्रति घृणा
टीपू सुल्तान अपने पिता हैदर अली के समान ही अंग्रेजों से घृणा करता था। वह मैसूर राज्य की राजनीति में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं था। दूसरी ओर अंग्रेज भी टीपू से नफरत करते थे। वे दक्षिण में टीपू की बढ़ती हुई शक्ति एवं प्रभाव से चिन्तित थे। अतः वे टीपू की शक्ति को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे। ऐसी परिस्थितियों में दोनों पक्षों में युद्ध होना अपरिहार्य था।
(2) टीपू द्वारा विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त करना
टीपू सुल्तान विदेशी शक्तियों के सहयोग से अंग्रेजों को दक्षिण भारत से बाहर खदेड़ देना चाहता था। अतः उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। 1786 ई. में उसने गुलाम अली खाँ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल कुस्तुन्तुनिया में तुर्की के सुल्तान के सम्मुख भेजा। 1787 ई. में टीपू ने एक अन्य प्रतिनिधिमण्डल फ्रांस भेजा। इससे अंग्रेज अत्यधिक चिन्तित हुए और उन्होंने टीपू की शक्ति को नष्ट करने का निर्णय कर लिया। टीपू के अंग्रेज-विरोधी कार्यों से अंग्रेज समझ गए कि टीपू विदेशी शक्तियों के सहयोग से उनकी शक्ति को समाप्त कर देना चाहता था। अतः वे टीपू के साथ संघर्ष को आवश्यक मानते थे।
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(3) कार्नवालिस की महत्वाकांक्षा
लॉर्ड कार्नवालिस एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह टीपू के साथ संघर्ष को आवश्यक समझता था। उसने अनुभव किया कि दक्षिण में अंग्रेजों की प्रभुता स्थापित करने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल बनी हुई थीं। उस समय मराठे तथा निजाम दोनों टीपू की शक्ति को कुचल देने के लिए प्रयासरत थे। अतः कार्नवालिस ने मराठों तथा निजाम् के सहयोग से टीपू की शक्ति को नष्ट करने का निर्णय कर लिया।
(4) गण्टूर पर टीपू सुल्तान का अधिकार
टीपू सुल्तान ने अपनी शक्ति में वृद्धि करने के उद्देश्य से अपने पड़ौसी राज्यों पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया। उसने हैदराबाद पर आक्रमण कर गुण्टूर पर अधिकार कर लिया। इस पर हैदराबाद के निजाम ने कार्नवालिस से टीपू के विरुद्ध सैनिक सहायता प्रदान करने की प्रार्थना की। 7 जुलाई, 1789 ई. को कार्नवालिस ने निजाम को सूचित करते हुए कहा कि कम्पनी उसे इस शर्त पर सैनिक सहायता प्रदान करने को तैयार है कि निजाम अंग्रेजी सेना का उपयोग कम्पनी के मित्रों के विरुद्ध नहीं करेगा। कार्नवालिस ने कम्पनी के मित्रों की सूची में जान बूझकर टीपू का नाम नहीं दिया। अतः परोक्ष रूप से कार्नवालिस टीपू के विरुद्ध निजाम को सैनिक सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हो गया। कार्नवालिस के इस कार्य से टीपू अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और उसे विश्वास हो गया कि अंग्रेज उसके विरुद्ध युद्ध के लिए मौकों की तलाश कर रहे हैं।
(5) टीपू सुल्तान द्वारा ट्रावनकोर पर आक्रमण
ट्रावनकोर का राजा अंग्रेजों का मित्र था। अतः टीपू ट्रावनकोर पर अधिकार कर लेना चाहता था। इसके अतिरिक्त सामरिक दृष्टि से भी ट्रावनकोर अत्यधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि ट्रावनकोर पर अधिकार करके टीपू समुद्र तक पहुँच सकता था तथा फ्रांसीसियों से सैनिक सहायता प्राप्त कर सकता था। अतः 29 दिसम्बर, 1789 ई. को टीपू ने ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। कार्नवालिस ने टीपू की इस कार्यवाही का भारी विरोध किया और 1790 ई. में टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
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युद्ध की घटनाएँ
लॉर्ड कार्नवालिस ने युद्ध शुरू करने से पूर्व मराठों तथा निजाम के साथ सन्धियाँ कर र्ली जिसके अनुसार दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया। इसके पश्चात् अप्रैल 1790 ई. में कार्नवालिस ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जून 1790 ई. में कार्नवालिस ने जनरल मीडोज के नेतृत्व में एक सेना मैसूर पर आक्रमण करने के लिए भेज दी लेकिन उसे टीपू के विरुद्ध कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई। टीपू ने अंग्रेजी सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजित किया। इससे कार्नवालिस अत्यधिक चिन्तित हुआ और उसने 12 नवम्बर, 1790 ई. को डूण्डास को लिखा था कि "युद्ध की शीघ्र और सफल समाप्ति की श्रेष्ठ उम्मीद अब कुछ धुँधली हो गई है। हम युद्ध खो चुके हैं और हमारे शत्रुओं ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है।"
अतः 1791 ई. में कार्नवालिस ने स्वयं मद्रास पहुँचकर टीपू के विरुद्ध सेना की कमान अपने हाथ में सँभाली। 12 मार्च, 1791 ई. को कार्नवालिस ने बंगलौर पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् वह मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम की ओर बढ़ा तथा 13 मई, 1791 ई. को श्रीरंगपट्टम के समीप पहुँच गया। इस अवसर पर टीपू ने कुशल सैन्य संचालन का परिचय दिया। उधर वर्षा शुरू होने तथा खाद्य सामग्री का अभाव होने के कारण कार्नवालिस को लौटकर बंगलौर आना पड़ा। नवम्बर 1791 ई. में टीपू ने कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया। लेकिन अब उसकी शक्ति निर्बल होती जा रही थी। शीघ्र ही अंग्रेजी सेना ने टीपू के अनेक दुर्गों पर अधिकार कर लिया। फरवरी 1702 ई. में कार्नवालिस श्रीरंगपट्टम तक पहुँच गया जिससे टीपू की स्थिति बहुत ज्यादा संकटपूर्ण हो गई। मजबूर होकर टीपू को सन्धि की बातचीत शुरू करनी पड़ी। परिणामस्वरूप मार्च 1792 ई. में दोनों पक्षों के मध्य श्रीरंगपट्टम की सन्धि हो गई।
श्रीरंगपट्टम की सन्धि
23 मार्च, 1792 ई. को टीपू तथा अंग्रेजों के बीच श्रीरंगपट्टम की सन्धि हो गई जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-
(1) टीपू को अपना आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। टीपू से प्राप्त प्रदेशों को अंग्रेजों, निजाम तथा मराठों ने आपस में विभक्त कर लिया। अंग्रेजों को मालाबार, डिण्डीगल, बारामहल आदि के प्रदेश प्राप्त हुए। निजाम को कृष्णा नदी के आस-पास का प्रदेश प्राप्त हुआ तथा मराठों को कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के मध्य का क्षेत्र प्राप्त हुआ।
(2) टीपू ने युद्ध के रूप में 30 लाख पौण्ड अंग्रेजों को देना मंजूर कर लिया।
(3) टीपू ने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बन्धक के रूप में रखना स्वीकार कर लिया।
(4) टीपू ने कुर्ग के राजा की स्वतन्त्रता स्वीकार कर ली। कालान्तर में कुर्ग के शासक ने अंग्रेजों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध से टीपू की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को बहुत भारी धक्का लगा। इस युद्ध के पश्चात् मैसूर राज्य की सुरक्षात्मक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। कार्नवालिस मराठों तथा निजाम के सहयोग से टीपू की शक्ति को कमजोर करने में सफल हुआ। कार्नवालिस ने अत्यन्त गर्व के साथ कहा था कि "अपने मित्रों को अत्यधिक शक्तिशाली बनाए बगैर ही हमने अपने शत्रु को बुरी तरह से विकलांग बना दिया है।"
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध
1799 ई. में टीपू सुल्तान तथा अंग्रेजों के मध्य चतुर्थ मैसूर युद्ध शुरू हुआ जिसमें टीपू की निर्णायक पराजय हुई।
युद्ध के कारण
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) सैन्य-शक्ति में वृद्धि करना
टीपू ने अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए अपनी सैन्य-शक्ति में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया। उसने अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा की व्यवस्था की तथा अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की भी सुदृढ़ किलेबन्दी की। अंग्रेज टीपू की सैनिक तैयारियों को देखकर अत्यधिक चिन्तित हुए और उन्होंने टीपू की शक्ति को कुचलने का निर्णय कर लिया।
(2) विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त करना
टीपू अंग्रेजों को अपना घोर शत्रु मानता था। अतः उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त करने का अथक प्रवास किया। उसने काबुल, तुर्की, अरब, मारीशस एवं फ्रांस में अपने राजदूत भेजे। वह विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहता था। अंग्रेज टीपू की विदेशी शक्तियों से साँठ-गाँठ बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे।
(3) फ्रांसीसियों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना
टीपू और फ्रांसीसियों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित थे। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने हेतु अपना राजदूत फ्रांस भी भेजा था। 1789 ई. में अनेक फ्रांसीसी सैनिक टीपू की सहायता के लिए मंगलौर पहुँचे। टीपू ने पेरिन नामक एक फ्रांसीसी सैनिक अधिकारी को अपनी सेना में नियुक्त किया था ताकि उसकी सेना को यूरोपियन तरीके से प्रशिक्षित किया जा सके। लॉर्ड वेलेजली टीपू और फ्रांसीसियों के गठबन्धन से अत्यधिक चिन्तित हुआ तथा उसने टीपू की शक्ति का दमन करने का निश्चय कर लिया।
(4) फ्रांसीसी अधिकारियों का सार्वजनिक सम्मान
टीपू का फ्रांसीसियों से तालमेल लॉर्ड वेलेजली के लिए असहनीय था। जब टीपू ने अपने राज्य में 99 फ्रांसीसी अधिकारियों का सार्वजनिक सम्मान किया, तो वेलेजली अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और उसने टीपू को दण्डित करने का निर्णय कर लिया। उसने 12 अगस्त, 1798 ई. को अपने एक पत्र में लिखा था कि "टीपू के राज्य में फ्रांसीसी अधिकारियों का सम्मान एक स्पष्ट, असंदिग्ध और निश्चित युद्ध की घोषणा के समान है।"
(5) लॉर्ड वेलेजली की महत्वाकांक्षा
लॉर्ड वेलेजली एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह भारत से फ्रांसीसियों के प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजी कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित कर देना चाहता था। वह टीपू सुल्तान की शक्ति का दमन करके मैसूर राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लेना चाहता था। अतः वह टीपू के विरुद्ध युद्ध करने के लिए मौके की तलाश करने लगा। उसने टीपू पर श्रीरंगपट्टम की सन्धि का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। 1799 ई. में उसने टीपू सुल्तान को सहायक सन्धि की शर्तें स्वीकार करने के लिए कहा, लेकिन उसने इस सन्धि को स्वीकार करने से मना कर दिया। अतः फरवरी 1799 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
यूद्ध की घटनाएँ
लॉर्ड वेलेजली ने युद्ध शुरू करने से पूर्व निजाम तथा मराठों को अपने पक्ष में कर लिया। इसके पश्चात् उसने फरवरी 1799 ई. में जलरल हेरिस के नेतृत्व में एक सेना टीपू के विरुद्ध भेज दी, उसकी सहायता के लिए आर्थर वेलेजली को भेजा गया। इसके अतिरिक्त बम्बई से भी एक सेना जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में मैसूर पर आक्रमण के लिए भेजी गई। यद्यपि टीपू सुल्तान ने अंग्रेजी सेनाओं का वीरतापूर्वक सामना किया, लेकिन उसे सदासीर तथा मल्लावली नामक स्थानों पर पराजय का आलिंगन करना पड़ा। टीपू को मजबूर होकर श्रीरंगपट्टम के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। 7 अप्रैल, 1799 ई. को अंग्रेजी सेनाओं ने श्रीरंगपट्टम के दुर्ग को घेर लिया। अतः टीपू ने बाध्य होकर सन्धि-वार्ता प्रारम्भ की। इस पर अंग्रेजों ने सन्धि के लिए टीपू के सम्मुख अपमानजनक शर्तें रखीं जिन्हें टीपू ने स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। टीपू ने बुद्ध जारी रखा और अंग्रेजों का वीरतापूर्वक सामना करता रहा। अन्त में वह 4 मई, 1799 ई. को लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ। टीपू के मरते ही श्रीरंगपट्टम पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और इसके साथ ही युद्ध भी समाप्त हो गया।
युद्ध के परिणाम
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के निम्नलिखित परिणाम हुए-
(1) मैसूर राज्य के अधिकांश भाग पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया।
(2) इस युद्ध के बाद कोयम्बटूर, श्रीरंगपट्टम, कनारा तथा धारापुरम् के प्रदेश अंग्रेजों को प्राप्त हुए। गूंटी, गोरुमकोण्ड तथा चित्तल दुर्ग के प्रदेश निजाम को सौंप दिए गए। अंग्रेजों ने उत्तर-पश्चिम के कुछ प्रदेश मराठा को देने चाहे, लेकिन मराठों ने इन प्रदेशों को लेने से मना कर दिया। इस पर ये प्रदेश निजाम तथा अंग्रेजों ने आपस में बाँट लिये।
(3) भारत में फ्रांसीसियों का प्रभाव भी समाप्त हो गया।
(4) मैसूर का शेष भाग मैसूर के प्राचीन हिन्दू राजवंश के एक राजकुमार कृष्णराज को दिया गया। दे
(5) लॉर्ड वेलेजली ने मैसूर के राजा कृष्णराज के साथ सहायक सन्धि कर ली, जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-
- मैसूर राज्य की रक्षा के लिए एक अंग्रेजी सेना रखी जायेगी।
- इस सेना के व्यय के लिए मैसूर राज्य 7 लाख पेगोड़ा वार्षिक कम्पनी को देगा।
- कृष्णराज ने कम्पनी को 22 लाख रुपये वार्षिक खिराज देने का वचन दिया।
- वह मैसूर में एक अंग्रेज रेजीडेण्ट रखेगा और उसके परामर्श के अनुसार शासन का संचालन करेगा।
- वह अपने राज्य में अंग्रेज विरोधी यूरोपियन लोगों को नहीं रखेगा। वह अंग्रेजों की अनुमति के बगैर किसी दूसरे राज्य से किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार नहीं करेगा।
- कम्पनी सरकार आन्तरिक कुशासन के आधार पर मैसूर के शासन में हस्तक्षेप कर सकेगी तथा आवश्यकतानुसार उसे अपने हाथों में भी ले सकेगी।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का महत्व
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का आधुनिक भारत के इतिहास में अत्यधिक महत्व है। इस युद्ध में अंग्रेजों ने अपने घोर प्रतिद्वन्द्वी टीपू की शक्ति को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। इसके परिणामस्वरूप भारत में फ्रांसीसियों का प्रभाव भी समाप्त हो गया। मैसूर राज्य के अधिकांश भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अब मैसूर की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति पर कम्पनी का नियन्त्रण स्थापित हो गया। कुछ समय उपरान्त निजाम ने मैसूर राज्य पर अपना भाग भी कम्पनी को सौंप दिया जिसके परिणामस्वरूप मैसूर राज्य चारों ओर से अंग्रेजी राज्य से घिर गया। टीपू जैसे शक्तिशाली शत्रु के विनाश के कारण लॉर्ड वेलेजली को 'मार्विव्स' की उपाधि प्रदान की गई। डीन हट्टन का कथन है कि "सैनिक, आर्थिक और शान्ति स्थापना की दृष्टि से मैसूर की विजय क्लाइव के समय के पश्चात् अंग्रेजी शक्ति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विजय थी।"
टीपू सुल्तान की असफलता के कारण
अंग्रेजों के विरुद्ध टीपू सुल्तान की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखत थे-
(1) राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव
टीपू सुल्तान में राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव था। वह अपने पिता हैदर अली के समान चतुर कूटनीतिज्ञ नहीं था। उसने निजाम तथा मराठों को अपने समर्थन में करने का प्रयत्न नहीं किया। इसके विपरीत अंग्रेज निजाम तथा मराठों को अपने पक्ष में करने में सफल रहे। वह अपने विरुद्ध संगठित शत्रु-संघों को भंग करने में असफल रहा।
(2) घुड़सवार सेना की उपेक्षा
टीपू ने घुड़सवार सेना की उपेक्षा कर भयंकर भूल की। उसने अपनी पैदल सेना तथा किलेबन्दी पर अधिक जोर दिया लेकिन ये दुर्ग अंग्रेजी तोपों के सम्मुख निर्बल सिद्ध हुए।
(3) रक्षात्मक नीति अपनाना
टीपू सुल्तान की असफलता का एक कारण यह भी था कि उसने आक्रामक नीति को अपनाने के स्थान पर रक्षात्मक नीति अपनाई। यह नीति तभी सफल हो सकती थी, जबकि उसे पड़ोसी राज्यों का सहयोग प्राप्त होता।
(4) फ्रांसीसियों पर आवश्यकता से अधिक निर्भर रहना
टीपू सुल्तान की यह भी एक भूल थी कि वह फ्रांसीसियों पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करता रहा। लेकिन दुर्भाग्य से संकटपूर्ण परिस्थितियों में उसे फ्रांसीसियों से पर्याप्त सहायता नहीं प्राप्त हो सकी, परिणामस्वरूप उसे अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता हाथ नहीं लगी।
(5) अहंकारी
टीपू अहंकारी था। वह अनेक अवसरों पर अपने सेनानायकों की सलाह को नकार दिया करता था। उसके कठोर व्यवहार के कारण उसके पदाधिकारी भी उससे असन्तुष्ट रहते थे।
(6) विश्वासघातियों की भूमिका
टीपू की असफलता के लिए उसके विश्वासघाती पदाधिकारी भी उत्तरदायी थे। मीर सादिक नामक एक उच्च पदाधिकारी ने अंग्रेजों को श्रीरंगपट्टम पर आक्रमण का उचित अवसर बताया था तथा टीपू के दुर्ग से भाग निकलने का द्वार बन्द करवा दिया था।
अपनी इन गलतियों के कारण टीपू सुल्तान को असफलता का आलिंगन करना पड़ा। विल्कस का कथन है कि "हैदर अली एक साम्राज्य का निर्माण करने के लिए उत्पन्न हुआ था और टीपू उसे खोने के लिए।" लेकिन विल्कस के कथन को पूर्ण रूप से उचित नहीं माना जा सकता।
टीपू सुल्तान का मूल्यांकन
टीपू सुल्तान का मूल्यांकन निम्न प्रकार है-
(1) एक व्यक्ति के रूप में
टीपू एक सुशिक्षित व्यक्ति था तथा फारसी, उर्दू, कन्नड़ आदि भाषाओं का ज्ञाता था। वह एक कठोर परिश्रमी व्यक्ति था तथा आलस्य से नफरत करता था। वह एक चरित्रवान व्यक्ति था तथा विलासिता से परे रहता था। ईश्वर में उसकी अगाध आस्था थी। उसमें धैर्य, साहस, आत्म-विश्वास आदि गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे।
(2) वीर योद्धा तथा कुशल सेनापति
टीपू सुल्तान एक वीर योद्धा एवं कुशल सेनापति था। वह युद्ध-संचालन में अत्यधिक निपुण था। उसने अनेक युद्धों में अंग्रेजों को पराजित किया और अपने युद्ध-कौशल का प्रमाण दिया। उसने तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई.) में अंग्रेज सेनापति जनरल मीडोज को पराजित किया। अन्त में मजबूर होकर स्वयं लॉर्ड कार्नवालिस को सेना की बागडोर अपने हाथ में लेनी पड़ी। टीपू में साहस, धैर्य, पराक्रम आदि के गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। वह अपनी पराजयों एवं असफलताओं से निरुत्साहित नहीं होता था तथा अपनी पूरी शक्ति के साथ अपने शत्रु का प्रतिरोध करता था। उसने चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध में अपने सीमित साधनों के बावजूद अंग्रेजों का डटकर सामना किया और अन्त में युद्ध में लड़ते हुए 4 मई, 1799 ई. को वीर गति को प्राप्त हुआ।
(3) योग्य शासक
टीपू सुल्तान एक योग्य शासक भी था। उसने प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार किये और अपनी प्रशासनिक योग्यता का प्रमाण दिया। उसने सेना, व्यापार, मुद्रा, नाप-तौल के साधनों आदि विविध क्षेत्र में सुधार किये। वह एक प्रजावत्सल शासक था तथा अपनी प्रजा की नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए हमेशा प्रत्यत्नशील रहता था। उसके राज्य में जनता सुखी तथा सम्पन्न थी तथा कृषि, उद्योग तथा व्यापार आदि उन्नत स्थिति में थे।
(4) राजनीतिज्ञ के रूप में
टीपू अपने पिता हैदर अली के समान चतुर राजनीतिज्ञ नहीं था। उसमें राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव था। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध निजाम तथा मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। वह अपने पिता हैदर अली की भाँति अपने विरुद्ध निर्मित किए गए शत्रु-संघों को तोड़ने में असफल रहा। फिर भी यह कहना अनुचित है कि उसमें कूटनीतिक योग्यता नहीं थी। उसने अंग्रेजों के घोर शत्रु-फ्रांसीसियों के साथ घनिष्ठ सम्बद्ध स्थापित किये और उनसे सहायता प्राप्त की। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए काबुल, तुर्की, मॉरीशस आदि देशों में अपने राजदूत भेजे। लेकिन यह उसकी राजनीतिक भूल थी कि वह फ्रांसीसियों पर अत्यधिक विश्वास करता रहा तथा अपने पड़ोसी राज्यों से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया।
(5) उदार एवं धर्म-सहिष्णु
कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू को धर्मान्ध, क्रूर एवं बर्बर शासक बताया है। लिल्कस का कथन है कि "टीपू के असीम अत्याचारों के कारण उसके राज्य का प्रत्येक हिन्दू उसके शासन से नफरत करने लगा था।" कर्क पैट्रिक के अनुसार, "टीपू घोर निर्दयी, क्रूर, अत्याचारी एवं अन्यायी शासक था।" बाउरिंग के अनुसार, "टीपू ईसाइयों के प्रति निर्दयी था।"
उपरोक्त अंग्रेज इतिहासकारों के कथनों में सत्यता नहीं है। वास्तव में अंग्रेज टीपू सुल्तान से नफरत करते थे तथा उसे अपना घोर शत्रु मानते थे। यह कहना कि टीपू गैर-मुसलमानों के प्रति पूर्ण रूप से अमानवीय हो गया था, अनुचित है। वास्तव में वह हिन्दुओं के साथ अच्छा व्यवहार करता था तथा हिन्दू मन्दिरों को दान-दक्षिणा देता था। सरकारी नौकरियों के द्वार भी हिन्दुओं के लिए खुले हुए थे। पूर्णिया तथा कृष्णराज जैसे हिन्दू उच्च पदों पर नियुक्त थे। यदि टीपू ईसाइयों के प्रति निर्दयी था, तो यह बात समझ में नहीं आती कि उसने फ्रांसीसियों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कैसे स्थापित कर लिये। वास्तविक बात तो यह है कि वह गैर-मुसलमानों के प्रति नहीं, बल्कि देशद्रोहियों तथा अपने शत्रुओं के प्रति अधिक क्रूर था।
(6) स्वतन्त्रता सेनानी
टीपू सुल्तान एक उच्च कोटि का देशभक्त तथा महान् स्वतन्त्रता सेनानी था। वह मैसूर राज्य की स्वतन्त्रता के लिए अपने जीवन के अन्तिम समय तक संघर्ष करता रहा और एक स्वतन्त्रता सेनानी के समान लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु एक आदर्श वीर की मृत्यु थी।