लार्ड विलियम बैंटिंक के सामाजिक सुधार
(1) सती प्रथा का अन्त
सती शब्द का अर्थ है एक 'पवित्र तथा सच्चरित्र नारी'। हिन्दू परम्परा में विवाह एक संस्कार माना जाता है अर्थात् आत्माओं का सम्बन्ध। स्त्री और पुरुष का बन्धन शाश्वत तथा जन्म-जन्मान्तर में रहने वाला है अर्थात् यह माना जाने लगा कि स्त्री को अपने पति के साथ ही मर जाना चाहिए और इसके शरीर के साथ ही अपने शरीर को भस्म कर देना चाहिए। बहुत सी प्राचीन जनजातियों में पुरुष के साथ उसके खाने का सामान, शराब का प्याला, कुत्ते और सर्वप्रिय स्त्रियाँ इत्यादि भी दफना दिये जाते थे।
कुछ भारतीय राजाओं, मराठों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, अंग्रेज गवर्नर जनरल कार्नवालिस, मिण्टो, लॉर्ड हेस्टिंग्ज आदि ने सती प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास किया था किन्तु इसमें उनको सफलता नहीं मिली थी।
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राजा राममोहन राय जैसे प्रबुद्ध भारतीय सुधारकों ने विलियम बैंटिक को इस प्रथा को अवैध घोषित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कई लेख और पुस्तिकाएँ लिखीं। बहुत से समकालीन प्रगतिशील समाचार-पत्रों ने इसका समर्थन किया। विलियम बैंटिक पर इसका प्रभाव पड़ा। उसने सती प्रथा से सम्बन्धित प्रासंगिक तथ्यों को एकत्रित किया, सैनिक अधिकारियों के, न्यायाधीशों के, पुलिस अधीक्षकों इत्यादि के विचार लिये और इस निर्णय पर पहुँचा कि यदि सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाय तो विद्रोह की कोई संभावना नहीं है। दिसम्बर 1829 ई. के निमय 17 द्वारा विधवाओं को जलाना अवैध घोषित कर दिया गया। इसमें यह भी व्यवस्था कर दी गयी कि जो लोग सती बनने की प्रेरणा देंगे, वे लोग मानव हत्या के अपराधी माने जायेंगे। प्रारम्भ में यह कानून केवल बंगाल प्रेसीडेन्सी पर लागू किया गया और 1830 ई. में यह नियम बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेन्सियों पर भी लागू कर दिया गया।
इस कानून के बनने पर कोई अव्यवस्था नहीं फैली। कुछ रूढ़िवादियों ने इसके विरुद्ध प्रिवि-काउन्सिल में अपील की। दूसरी ओर राजा राममोहन राय तथा देवेन्द्रनाथ टैगोर आदि प्रबुद्ध लोगों ने बैंटिक के प्रति आभार प्रकट किया और ब्रिटिश सम्राट को पत्र लिखे।
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(2) ठगी को समाप्त करना
ठग शब्द का प्रयोग आज प्रायः उन व्यक्तियों के लिये किया जाता है जो धोखे से रुपया छीन लेते हैं। किन्तु उस समय में ठग डाकुओं और हत्यारों का एक समूह था जो निर्दोष तथा असुरक्षित व्यक्तियों को लूटकर निर्वाह करते थे। सम्भवतः उनके लिये अधिक उचित शब्द 'फांसीगर' था। इस शब्द की व्युत्पत्ति रूमाल के फंदे, जिससे वे अपने शिकार का गला घोंट देते थे, से हुई है।
ठगों के दलों की सदस्य संख्या कई बार 400 तक पहुँच जाती थी तथा हत्यारे एक-एक दर्जन व्यक्तियों की एक ही समय में हत्या कर देते थे। सत्ती के प्रश्न पर तो कुछ मतभेद था भी, किन्तु ठगों के विषय में समस्त जनता ने सरकार को समर्थन दिया। क्योंकि उस समय रास्ते असुरक्षित हो गये थे, एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करना खतरनाक हो गया। मार्गों में सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं था, ठग लोग स्वच्छन्द रूप से घूमा करते थे। इसलिये विलियम बैंटिक ने ठगों का दमन करने का निश्चय किया। उसने कर्नल स्लीमन को ठों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये नियुक्त किया। स्थानीय रियासतों को भी इस अभियान में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। उसने 1500 के लगभग ठगों को बन्दी बना लिया। अनेक ठगों को फांसी दे दी गयी। कुछ ठगों को बन्दीगृह में डाल दिया गया। बन्दियों के चरित्र सुधार के लिये बैंटिक ने जबलपुर में एक औद्योगिक विद्यालय की स्थापना की, वहाँ उन्हें सम्मानपूर्वक जीविका कमाने की शिक्षा दी गयी। इस प्रकार बैंटिक ने ठगों का अन्त कर दिया।
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(3) प्रेस के प्रति उदार दृष्टिकोण
समाचार पत्रों के प्रति बैंटिक की नीति उदार थी। वह प्रेस को असंतोष से रक्षा का अभिद्वार मानता था। उसके भत्ता बन्द करने तथा उसके अन्य वित्तीय सुधारों पर समाचार पत्रों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। इस पर भी वह उनकी स्वतन्त्रता के पक्ष में ही रहा।
(4) बाल-हत्या तथा मानस बलि का निषेध
भारत के कुछ भागों में (मद्रास) भू-देव को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य की बलि दी जाती थी। उड़ीसा में खोंद लोगों में भी यह प्रथा प्रचलित थी। भारतीय समाज में नवजात-बालिकाओं को मार डालने की प्रथा थी। विशेष रूप से राजपूतों में यह प्रथा प्रचलित थी। राजपूत कन्याओं को कलह तथा अपमान का कारण मानते थे। बैंटिक ने इन कुप्रथाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
(5) दास प्रथा का अन्त
भारत में दास प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही थी। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी के कारण तथा ऋण चुकाने के लिए कुछ लोग अपने बच्चों को बेच दिया करते थे। कभी-कभी मजदूरी में स्वयं भी दास बनने के लिए बाध्य होते थे। बैंटिक ने 1832 ई. में दास प्रथा पर पाबन्दी लगा दी।
(6) धर्म परिवर्तन की सुविधा
हिन्दुओं में यह प्रथा प्रचलित थी कि जो व्यक्ति अपना धर्म बदल लेता था, वह अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित कर दिया जाता था। इसलिए अनेक प्रलोभन देने पर भी लोग ईसाई बनने को तैयार नहीं होते थे। अतः बैंटिक ने यह आदेश जारी किया कि जो लोग अपना धर्म छोड़कर ईसाई बनना चाहेंगे, उनको पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा। यह आदेश ईसाई धर्म के प्रचार के लिए जारी किया था।