व्यवसाय की स्थापना किसे कहते हैं | व्यापार की स्थापना class 12 | Establishment of business

प्रारम्भिक प्राचीन काल में व्यवसाय का क्षेत्र अत्यन्त सीमित व संकुचित था। उत्पादन छोटे पैमाने पर तथा कुटीर आधार पर किया जाता था। व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए न तो किसी विशेष समस्या का सामना करना पड़ता था और न ही इसके लिए किसी विशेष प्रकार की शिक्षा-दीक्षा या अनुभव की ही आवश्यकता होती थी। किन्तु आज परिस्थितियां बदल गई हैं। व्यापार का आकार तथा व्यावसायिक जटिलताओं में वृद्धि हो गई है। आधुनिक, विशिष्टीकरण एवं 'गलाकाट प्रतिस्पर्धा' के युग में किसी नवीन व्यवसाय अथवा उद्योग को स्थापित करना उतना ही कठिन है जितना कि एक नए शिशु को जन्म देना। जिस प्रकार नए शिशु को जन्म देने में अनेक नयी-नयी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार एक नए व्यवसाय या उद्योग की स्थापना करते समय अनेक नई-नई कठिनाइयां व्यवसायी के समक्ष आती हैं। अतः आज के युग में किसी नए व्यवसाय की स्थापना से पूर्व सम्भावित समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

व्यवसाय की स्थापना किसे कहते हैं | व्यापार की स्थापना class 12 | Establishment of business

व्यवसाय की स्थापना से पूर्व विचारणीय घटक

किसी नवीन व्यवसाय की स्थापना से पूर्व निम्न घटकों पर विचार करना आवश्यक होगा-

(1) व्यवसाय का चयन 

व्यवसाय की स्थापना करने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम निर्णय करना चाहिए कि वह कैसा व्यवसाय प्रारम्भ करे। इसके लिए वह अपने परिवार-जनों, मित्रों एवं सम्बन्धियों से सलाह ले सकता है, किन्तु उसे व्यवसाय का चयन करने में 

(i) अपनी व्यक्तिगत रुचि, 

(ii) व्यक्तिगत योग्यता, 

(iii) उपलब्ध क्षेत्र, 

(iv) पूंजी की मात्रा तथा, 

(v) जोखिम की मात्रा, पर ध्यान देना होगा तथा उसी के अनुसार अपनी सामर्थ्य तथा योग्यता के अनुरूप ही व्यक्ति को व्यवसाय का चयन करना चाहिए। व्यापार के अनेक स्वरूप हो सकते हैं, जैसे- स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय, थोक व्यापार, फुटकर व्यापार, किसी वस्तु का निर्माण करना, अथवा निर्मित वस्तु का क्रय-विक्रय करना, किसी विशिष्ट सेवा को प्रदान करना, आदि। 

अतः व्यवसाय का चयन करने में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-

(अ) व्यक्तिगत रुचि- इच्छुक व्यक्ति को उसी व्यवसाय का चयन करना चाहिए जिसमें रुचि हो क्योंकि अरुचिपूर्ण कार्य से न तो सुख व शान्ति मिलती है और न ही सफलता।

(ब) योग्यता व दक्षता- व्यक्तिगत रुचि के साथ-साथ व्यवसायी में काम करने की योग्यता व दक्षता भी होनी चाहिए। अतः उसे अपनी योग्यता व दक्षता की सीमाओं के अन्दर ही कार्य करना चाहिए तथा शिक्षा तथा अनुभव का भी ध्यान रखना चाहिए।

(स) प्रवर्तन का क्षेत्र- व्यावसायिक सुअवसरों की खोज करना और खोज के पश्चात् उन अवसरों से लाभ कमाने के उद्देश्य से किसी व्यावसायिक या औद्योगिक इकाई की स्थापना एवं संगठन करना ही 'प्रवर्तन' कहलाता है। अतः व्यवसाय में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि जिस व्यवसाय की वह स्थापना करना चाहता है उसमें उसकी सफलता का क्या क्षेत्र है। उसे ऐसे व्यवसाय का चयन करना चाहिए जिसमें प्रतिस्पर्धा न्यूनतम हो तथा मांग की पूर्ति पूर्ण न हुई हो अथवा जहां मांग तीव्रता से बढ़ रही हो।

(द) पूंजी की उपलब्धता- व्यवसाय को प्रारम्भ करने के पूर्व व्यवसायी को उसके संचालन के लिए आवश्यक पूंजी का पहले से ही अनुमान लगा लेना चाहिए। पूंजी की आवश्यकता तीन कार्यों के लिए होती है- 

(i) स्थायी सम्पत्तियां- जैसे- भूमि, भवन, मशीन व फर्नीचर, आदि क्रय करने के लिए, 

(ii) चालू सम्पत्तियां- जैसे- कच्चा माल, ईंधन, आदि के क्रय करने के लिए, 

(iii) कार्यशील पूंजी- विभिन्न दैनिक कार्यों को चलाने के लिए, आदि। कम पूंजी की दशा में कार्य रुक जाते हैं तथा अधिक पूंजी होने पर पूंजी व्यर्थ पड़ी रहती है। अतः पूंजी व्यवसाय की आवश्यकता के अनुकूल होनी चाहिए, न कम और न अधिक। 

(य) लाभ एवं जोखिम की मात्रा- व्यवसाय से प्राप्त होने वाले लाभ का भी अनुमान लगा लेना चाहिए और जिस व्यवसाय में लाभ की लेशमात्र भी सम्भावना न हो, उसको नहीं करना चाहिए। दूसरे, लाभ के साथ जोखिम की मात्रा का भी अनुमान लगाना आवश्यक है। जोखिमपूर्ण व्यवसाय में तभी प्रवेश करना चाहिए जब लाभ की सम्भावना निश्चित हो।

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(2) व्यापारिक संगठन का स्वरूप 

एक नये व्यवसाय की स्थापना के पूर्व यह निश्चित करना भी आवश्यक है कि व्यवसाय के संगठन का स्वरूप क्या हो। व्यावसायिक संस्थाएं मुख्यतः चार प्रकार की हो सकती हैं, जैसे- 

(अ) एकाकी व्यवसाय- संगठन के इस स्वरूप में व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व एक ही व्यक्ति के कन्धों पर होता है। व्यापार की सारी जोखिम उसे ही झेलनी पड़ती है। वही व्यापार का स्वामी, प्रबन्धक और कर्मचारी होता है। एकल स्वामित्व की दशा में एक ही व्यक्ति समस्त लाभ का अधिकारी होता है। अतः यह भावना, कि सारा लाभ उसी की झोली में जायेगा, उसे बड़ी प्रेरणा प्रदान करता है। एकाकी व्यवसाय उन व्यवसायों के लिए सर्वश्रेष्ठ है- 

(i) जो कि छोटे हैं। 
(ii) जिनमें कम पूंजी और कम योग्यता की आवश्यकता पड़ती है। 
(iii) जिनमें व्यक्तिगत देख-रेख महत्वपूर्ण होती है और 
(iv) जिनमें अधिक जोखिम नहीं होती। 

(ब) साझेदारी का व्यदसाय- यदि योग्य साझेदार मिल जाय, तो व्यवसाय की आर्थिक सामर्थ्य बढ़ जाती है। साझेदारी ऐसे कार्यों के लिए अधिक उपयुक्त है जिनमें जोखिम अधिक है और साथ ही अधिक लाभ होने की सम्भावना है। 

(स) संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी- इस प्रकार के संगठन के अन्तर्गत बहुत अधिक मात्रा में पूंजी एकत्रित की जा सकती है। इसका अस्तित्व भी स्थायी होता है। इसमें अंशधारियों का दायित्व सीमित होता है। प्रवन्ध एवं संचालन का कार्य संचालकों द्वारा किया जाता है। परन्तु इस स्वरूप में सबसे बड़ा दोष यह है कि कम्पनी के निर्माण के लिए अनेक वैधानिक औपचारिकताओं का पालन करना पड़ता है। बड़ी मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए कम्पनी रूपी व्यावसायिक संगठन श्रेष्ठ है। 

(द) सहकारी व्यापार का आयोजन- सहकारी व्यापार का आयोजन सहकारिता के सिद्धान्तों पर किया जाता है। इसका मूल मन्त्र "एक सबके लिए तथा सब एक के लिए।" यह व्यवस्था अल्प-साधन वाले व्यक्तियों के लिए विशेष उपयोगी है। गांवों में ऐसी समितियां बहुत लोकप्रिय हो रही हैं। सेवा-भाव इनका मूल मन्त्र होता है।

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(3) वस्तु तथा बाजार विश्लेषण

व्यवसायी जिस वस्तु का उत्पादन करना चाहता है, उसे उस वस्तु के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। इसे ही 'वस्तु-विश्लेषण' कहा जाता है। व्यवसायी को उपभोक्ताओं से सम्पर्क करके वस्तु के बारे में उनकी पसन्द एवं आवश्यकता की जानकारी करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, व्यवसायी को वस्तु-निर्माण की श्रेष्ठ विधियां, उसके विभिन्न प्रयोग, आदि की जानकारी भी कर लेनी चाहिए। 'बाजार-विश्लेषण' का आशय बाजार में प्रस्तावित वस्तु की मांग, उपभोक्ताओं की रुचि, वस्तु की नई डिजायनों, किस्मों एवं उपयोगों तथा नए बाजारों की खोज से है। अतः 'बाजार-विश्लेषण' किया जाना भी नितान्त आवश्यक है।

(4) व्यवसाय के स्थान का चयन

व्यवसाय स्थल का चयन करते समय व्यवसायी को सबसे पहले प्रदेश का, फिर उस प्रदेश में क्षेत्र विशेष का, तत्पश्चात् उस क्षेत्र विशेष में स्थल विशेष का चयन करना चाहिए। व्यवसाय के स्थान का चयन करते समय सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की उपलब्धता, कच्चे माल की उपलब्धता, सस्ते ईंधन व शक्ति की उपलब्धता, बैंक व साख सुविधाएं, यातायात व सन्देशवाहन की सुविधाएं, स्थानीय कर एवं नियम, सरकारी नीति, आदि महत्वपूर्ण घटकों को ध्यान में रखना चाहिए। प्रो. शुबिन के शब्दों में, "वह व्यावसायिक स्थल सर्वश्रेष्ठ होता है जहां प्रति इकाई उत्पादन तथा वितरण की लागत कम-से-कम है एवं जहां बिक्री की मात्रा तथा उसके मूल्य से अधिकतम लाभ प्राप्त हो।"

(5) व्यावसायिक इकाई का आकार 

व्यावसायिक इकाई का आकार इस प्रकार का होना चाहिए कि व्यवसायी को न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यावसायिक इकाई व संयन्त्र का अनुकूलतम आकार हो। अनुकूलतम आकार का निर्धारण करते समय तकनीकी तत्व, वित्तीय तत्व, प्रबन्धकीय तत्व, विपणीय तत्वों तथा जोखिम के तत्वों को ध्यान में रखना चाहिए। इन सबमें पूर्ण समन्वय होने पर ही न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

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(6) संयन्त्र अभिन्यास अर्थात् संयन्त्र का फैलाव 

संयन्त्र के फैलाव का आशय कारखाने के भवन में यन्त्रों, मशीनों और औजारों का स्थान नियत करने और अन्य साज-सज्जा, वस्तु, गैस, पानी, आदि के लिए समुचित व्यवस्था करने के कार्य से है। एक श्रेष्ठ ले-आउट उत्पादन सम्बन्धी कार्य-कलापों के कुशल संचालन में सहायक होता है।

(7) मानव, माल व मशीन की उपलब्धता

मानव, माल व मशीन तीन 'म' आधुनिक व्यवसाय की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। व्यवसायी को व्यवसाय की स्थापना के पूर्व ही कुशल, परिश्रमी व ईमानदार श्रमिकों, अच्छे व सस्ते कच्चे माल एवं उन्नत व अधिक कार्यक्षम मशीनों की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। इनके अभाव में उत्पादन सम्भव नहीं है।

(8) भवन संरचना 

इस बात पर भली प्रकार विचार कर लेना चाहिए कि एक-मंजिली इमारत लाभदायक रहेगी या बहुमंजिली, प्रत्येक मंजिल में क्या साज-सामान होना चाहिए, उन्हें किस ओर खुला रखा जाय और कार्य पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, कृत्रिम प्रकाश की क्या व्यवस्था होगी, इत्यादि।

(9) लाइसेन्स प्राप्त करना 

औद्योगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत वर्णित प्रावधानों के अनुसार केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिना न तो कोई बड़ा उपक्रम स्थापित किया जा सकता है, न किसी नयी वस्तु का उत्पादन किया जा सकता है, न किसी विद्यमान औद्योगिक इकाई का विस्तार किया जा सकता है और न किसी औद्योगिक उपक्रम के स्थान में परिवर्तन किया जा सकता है। सरकार को उद्योगों को लाइसेन्स देने या दिये हुए लाइसेन्स रद्द करने का अधिकार है। जिन उद्योगों में 5 करोड़ रुपये से अधिक पूंजी का विनियोग होता है उनके लिए लाइसेन्स लेना जरूरी है। कुछ उद्योग (जैसे- वे उद्योग जो आयातित कल-पुर्जी व कच्चे माल का उपयोग नहीं करते) लाइसेन्स व्यवस्था से मुक्त रखे गये हैं।

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(10) सरकार की अर्थ 

वाणिज्यिक नीति व्यापार को आरम्भ करने से पूर्व ही प्रवेशकर्ता को चाहिए कि सरकार की व्यापार तथा अर्थ-नीतियों व नियमों, आदि का पूरा-पूरा अध्ययन कर लें ताकि बीच में कोई रुकावट न पड़े। उदाहरण के लिए, यदि उद्योग जिसकी हम स्थापना करने जा रहे हैं उस वर्ग का है जिसे सरकार ने अपने लिए सुरक्षित कर रखा है तो ऐसे उद्योग की स्थापना हम नहीं कर सकेंगे।

(11) कार्यालय का संगठन

पत्र-व्यवहार के लिए राइटिंग पैड, कागज, टाइपराइटर, फाइलें, डुप्लीकेटर, तिथि यन्त्र, फर्नीचर, आदि सामग्री व्यवसाय के आकार के अनुसार होनी चाहिए। ठीक-ठीक हिसाब-किताब रखने के लिए उपयुक्त बहियां या रजिस्टर भी होने चाहिए। कार्यालय की कार्यप्रणाली अत्यन्त सरल हो, जिससे कोई भी नवीन कर्मचारी उसे सुविधापूर्वक ग्रहण कर सके।

(12) कर्मचारियों का चयन 

व्यवसाय की स्थापना के लिए योग्य कर्मचारियों का चयन करना भी जरूरी है। प्रत्येक व्यवसाय के लिए लिपिकों, टाइपिस्ट, लेखापाल, रोकड़िया, वर्क्स मैनेजर तथा अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होती है जिनकी संख्या व्यवसाय के आकार व क्षेत्र पर निर्भर करती है। इन कर्मचारियों का चयन वैज्ञानिक विधि से करना चाहिए। कुशल, दक्ष, परिश्रमी, उत्साही, ईमानदार व निष्ठावान कर्मचारियों की ही नियुक्ति करनी चाहिए। कार्य का आवण्टन भी कर्मचारियों की शारीरिक व मानसिक योग्यता के अनुसार ही करना चाहिए।

(13) उत्पादन, क्रय एवं विक्रय नीति 

उत्पादन नीति के अन्तर्गत यह निश्चय कर लेना चाहिए कि किस वस्तु या सेवा का निर्माण करना है। क्रय नीति के अन्तर्गत इस बात पर विचार करना चाहिए कि समस्त उत्पादन अपने यहां ही करना है अथवा कुछ भागों को अन्यत्र स्थानों से मंगाना है। यदि माल बाहर से मंगाना है तो यह निश्चय करना चाहिए कि क्या क्रय करना है, कब क्रय करना है एवं कहां से क्रय करना है तथा कितनी मात्रा में क्रय करना है। क्रय हेतु ग्राहकों की रुचि व सुझावों को ध्यान में रखना चाहिए। क्रय मांग के अनुरूप होना चाहिए। आवश्यकता से अधिक क्रय करने पर अनावश्यक पूंजी फंसने की आशंका रहती है। इसी प्रकार विक्रय नीति भी स्पष्ट एवं सर्वेक्षण के अनुरूप होनी चाहिए। विक्रय को प्रोत्साहित करने के लिए किन आधुनिक साधनों (जैसे- रेडियो, दूरदर्शन, आदि) का उपयोग किया जायगा, यह भी निश्चय कर लेना चाहिए।

(14) संगठनात्मक कलेवर की रचना 

व्यवसाय के मुख्य कार्यकारी विभाग क्या होंगे, उन्हें किन-किन खण्डों में बांटा जायेगा तथा उनके अध्यक्ष व अन्य अधिकारियों के क्या कर्तव्य व दायित्व होंगे, आदि विषयों पर भी विचार करना जरूरी है।

(15) कुशल प्रबन्ध व्यवस्था 

बिना कुशल प्रबन्ध के कोई भी व्यवसाय आगे नहीं बढ़ सकता। इसके अन्तर्गत व्यावसायिक नियोजन, संगठन, संचालन तथा नियन्त्रण का समावेश किया जाता है।

निष्कर्ष- 

व्यवसाय की स्थापना के लिए उपरोक्त सभी तत्वों पर ध्यान देना नितान्त आवश्यक है, तभी व्यवसायी सफलता पाने की आशा कर सकता है। यदि बिना सोचे-विचारे व्यवसाय प्रारम्भ कर दिया गया है तो उसमें सफलता प्राप्त करना नितान्त असम्भव है।

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