दक्षिण भारत की तीन महिला संत
दक्षिण भारत की तीन महिला संतों का विवरण निम्न प्रकार है-
(1) महान कवित्री मोल्ला
लोकभाषा तेलुगु में रामकाव्य की रचना करने वाली आतुकूरी मोल्ला तेलुगु साहित्य की प्रथम कवयित्री कही जाती हैं। वह आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं तथा जाति से कुम्हारिन थी। ध्वनिपूर्ण ठेठ तेलुगु शब्दों में उनकी काव्य रचना मन को मोह लेती है। आन्ध्र प्रदेश के लोक-जीवन में श्रीरामचन्द्र से बढ़कर इष्टदेव कोई और नहीं है। श्रीराम प्रभु ने वनवास के 14 वर्षों का अधिकतम समय दण्डकारण्य और गोदावरी के किनारे पर ही बिताया। तेलुगु भाषा में रामकाव्य की जितनी बहुलता है उतनी अन्य भाषाओं में नहीं।
तेलुगु भाषा में रंगनाथ रामायण,भास्कर रामायण, मोल्ला रामायण, रामाभ्युदयमु, रघुनाथ रामायण, एकोजी रामायण, गोपीनाथ रामायण आदि प्रसिद्ध हैं। आन्ध्र प्रदेश में महिला कृत चार रामायण प्रसिद्ध हैं। मोल्ला रामायण, मधुरवाणीकृत रघुनाथ रामायण, शूरभु सुभद्रमाम्बाकृत सुभद्रा रामायण, चेब्रोलु सरस्वतीकृत रामायण और आधुनिक युग में विश्वनाथ सत्यनारायण कृत श्रीरामायण कल्पवृक्षमु हैं। दीर्घकाव्यों में रंगनाथ और संक्षेप काव्यों में मोल्ला रामायण का बहुत प्रचार है। अत्यन्त पिछड़ी कुम्हार जाति में जन्मी मोल्ला द्वारा रचित यह रामायण हिन्दू समाज की स्वाभाविक अन्तः एकता को दर्शाती है।
(2) संत वेमना, आन्ध्र का कबीर (ई. सन् 15वीं शताब्दी)
संत वेमना के काल के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मत हैं किन्तु उनकी विलक्षण प्रतिभा के बारे में सभी एक मत है। कुछ लोग उन्हें शूद्र तो कुछ उन्हें ब्राह्मण बतलाते हैं। जीवन के प्रारम्भ के वर्ष तो उन्होंने वैभव सम्पन्नता में व्यतीत किये किन्तु बाद में सभी कुछ छोड़कर के विरक्त हो गए तथा निर्वस्त्र होकर जंगल में रहते थे। 'योगी वेमना का शतक' नामक पुस्तक अत्यन्त सरल भाषा में लिखी गई हैं। अपने पदों को समाप्त करते समय वे लिखते हैं 'विश्वदाभिराम विनुरवेमा'। अर्थात् विश्व को सदैव आनन्द प्रदान करने वाले विश्वनियंता श्रीराम को स्मरण करके वेमना कहता है।
संत वेमना ने अपने जीवन भर जातिगत भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया। वे समाज की बुराइयों तथा कुरीतियों को दूर करने के लिये संघर्ष करते हैं। समाज में सद्गुणों का विकास हो तथा लोग नीति पर चलें इस दृष्टि से वेमना ने सैकड़ों पद लिखे हैं। संत वेमना दूध तथा पुष्प के उदाहरण से मनुष्य के अन्तःकरण में निवास करने वाले परमेश्वर के समभाव को समझाते हैं-
पसुला बन्ने वेरु पालेल्ला ओक्कटे ।
पुष्पजाति वेरु पूजा ओक्कटे ।
दर्शनंबुलारु दैवंबु ओक्कटे ।
विश्वदाभिराम विनुरवेमा ॥
(3) भक्तिन आण्डाल (8वीं शताब्दी)
भक्ति परम्परा में आण्डाल का स्थान उत्तर भारत की मीरा एवं ऋषि परम्परा की अरुंधती जैसा है। आंडाल का जन्म ई. सन् 716 में माना जाता है। आण्डाल की जाति अज्ञात ही रही। पेरियालवार को एक नन्हीं नवजात कन्या बगीचे में फूलों के ऊपर लेटी हुई मिल गई थी। भक्त पेरियालवार ने इस बालिका का प्रेमपूर्वक पालन किया। यही आगे चलकर आलवारों की भक्ति परम्परा में एक अकेली महिला सन्त रूप में अपना स्थान बनाने में सफल हो गई। 12 आलवार संतों की श्रृंखला में एकमात्र महिला संत आण्डाल है।
मदुरई के निकट श्रीविल्लिपुत्तुर ग्राम के भक्त पेरियालंवार की कन्या का नाम भगवद्भक्ति के कारण 'गोदा' (फूलों का गुच्छा) रखा गया। श्रीरंगनाथजी को सुगन्धित माला बनाकर पहनाने का कार्य ही 'गोदा' का था। यही आगे चलकर आण्डाल नाम से प्रसिद्ध हो गयी। इसने अपनी सभी सहेलियों तथा पड़ोसियों को भी भक्ति में सराबोर कर दिया। आण्डाल का अर्थ होता है भगवान् के प्रति उत्कटभाव प्रकट करने वाली। आण्डाल ने भक्ति में सभी को समान समझा। किसी के साथ छोटे-बड़े या उच्च-नीच का व्यवहार नहीं करने दिया। सभी उस परम कृपालु परमात्मा के पुत्र स्वरूप हैं फिर भेदभाव कैसा ? आण्डाल ने श्रीरंगनाथजी को ही अपना पति स्वीकार कर लिया था। उसके आग्रह पर श्रीरंगनाथजी के साथ ही उसका विवाह सम्पन्न किया गया। आण्डाल ने कृष्ण को ही अपना पति स्वीकार किया।
एक सुन्दर पद में वह अपने स्वप्न का वर्णन करती है कि किस प्रकार माधव आये थे-
सखि, सुमधुर सपना देखा। मधुसूदन को आते देखा॥
गज सहस्र वरसज सज आये। पुर मग तोरण से अति भाये॥
वर-वर पट धर बहुजन आये। रथ गज सुन्दरतम बहु लाये॥
प्रियतम हरि को आते देखा। सखि, सुमधुर सपना देखा॥