वाणिज्य के पटल पर आप देश-विदेश की सम्पूर्ण गतिविधियों, सभ्यता व संस्कृति का अवलोकन कर सकते हैं। यह व्यापार का व्यापक रूप है जिसमें नगर, राज्य व देश-विदेश में होने वाले क्रय-विक्रय के अतिरिक्त इन व्यापारिक गतिविधियों में सहायता पहुंचाने वाले साधन (जैसे- डाक-तार व बैंक की सेवाएं, परिवहन व संचार सेवाएं, बीमा, आदि) भी सम्मिलित हैं। वाणिज्यिक विकास के साथ देश-विदेश में होने वाले औद्योगिक विकास का दर्शन भी आप इस विषय की सीमा में कर सकते हैं। व्यापार, वाणिज्य व उद्योग आज समाचार-पत्रों के मुख्य पृष्ठ की सूचनाएं होती हैं जिनके अध्ययन में सभी रुचि रखते हैं। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (जैसे दूरदर्शन) द्वारा सुगम संगीत के साथ वाणिज्यिक विज्ञापनों का कितना प्रचार-प्रसार किया जाता है। वर्तमान युग वाणिज्य का युग है। आज विश्व के सभी देश वाणिज्यिक व औद्योगिक प्रगति के लिए प्रयत्नशील हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इसके माध्यम से ही वे अपने को विकसित करके अधिक सभ्य राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंचा सकते हैं। आधुनिक सभ्यता की गंगोत्री (या उद्गम स्थली) सचमुच व्यापार व वाणिज्य ही है।
वाणिज्य और आधुनिक सभ्यता का सम्बन्ध
'वाणिज्य' (Commerce) आधुनिक सभ्यता के विकास का उद्गम है। इस कथन के 'विश्लेषण के पूर्व 'वाणिज्य' व 'सभ्यता' शब्दों के सामान्य अर्थ पर प्रकाश डालना अनावश्यक न होगा। 'वाणिज्य' मानव की व्यावसायिक क्रियाओं का वह भाग है जो वितरण से सम्बन्ध रखता है, और उत्पादन सम्बन्धी क्रियाओं को 'उद्योग' की संज्ञा दी जाती है। उदाहरण के लिए, वसुन्धरा के गर्भ से खनिज सम्पदाओं को निकालना, प्रकृतिदत्त व अन्य कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करना, सेवाओं द्वारा वस्तुओं की उपयोगिता में वृद्धि करना, आदि औद्योगिक क्रियाएं हैं; जबकि विविध पदार्थों के वितरण से सम्बन्धित क्रियाएं वाणिज्य के अन्तर्गत आती हैं। वाणिज्यिक क्रियाएं प्रत्यक्ष विनिमय से भी सम्बन्धित होती हैं जैसे व्यापार और अप्रत्यक्ष रूप से भी जिसमें उपयोगिता का सृजन किया जाता है। संक्षेप में, वाणिज्य से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाएं मानव को सन्तुष्टि, सुख व शान्ति प्रदान करती हैं एवं उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाती है। वाणिज्य अनिवार्य रूप से एक भौतिक आर्थिक क्रिया है जिससे भौतिक सम्पन्नता में चार चांद लग जाते हैं।
दूसरा शब्द है 'सभ्यता' (Civilization) जिससे आशय है विवेकपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत करना, उन्नत पदार्थों व सेवाओं का श्रेष्ठतम उपयोग करना तथा वसुधैव कुटुम्ब की भावना के साथ मानव जाति का कल्याण करना। पौष्टिक भोजन करने वाला, सुन्दर वस्त्र धारण करने वाला, साफ-सुथरे व हवादार मकानों में निवास करने वाला, आधुनिक भौतिक सामग्री (जैसे टी. वी., कम्प्यूटर, श्रम बचत के साधन, आदि) का उपयोग करने वाला व्यक्ति आज सभ्य लोगों की श्रेणी में गिना जाता है।
आधुनिक सभ्यता वाणिज्य की देन है
गम्भीरता से विचार करने के बाद हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आधुनिक सभ्यता वाणिज्य की देन है। आधुनिक सभ्यता की चोटी पर पहुंचे हुए देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, जर्मनी, सोवियत रूस, आदि का नाम प्रथम पंक्ति में आता है इन विकसित राष्ट्रों की प्रगति का आधार उनका व्यापारिक व वाणिज्यिक विकास ही है। निज की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के उपरान्त ये विश्व के अनेक प्राणियों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हैं। बहु-राष्ट्रीय व्यापार ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व भाई-चारे को बढ़ावा दिया है जिससे सर्वत्र सुख व शान्ति की लहर फैल रही है। प्रातः लखनऊ में नाश्ता करके दोपहर का भोजन हांगकांग में करना और रात्रि का खाना टोकियो में लेना वाणिज्यिक विकास व आधुनिक सभ्यता में समन्वय का एक ज्वलन्त उदाहरण है।
'वाणिज्य व सभ्यता' सहगामी व एक-दूसरे के पूरक हैं
यह सत्य है कि व्यापारिक व वाणिज्यिक प्रगति के साथ सभ्यता के रूप में निखार आता है और सभ्यता के विकास से वाणिज्यिक विकास की गति में वृद्धि होती है। यही कारण है कि आज सभ्य से सभ्यतर बनने की आकांक्षा रखने वाला प्रत्येक देश अधिक से अधिक वाणिज्यिक विकास करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। विपणन के क्षेत्र में अग्रणी कोका कोला व पेप्सी कोला आज विश्व के असंख्य लोगों की प्यास बुझा रहे हैं। यह वाणिज्य का ही चमत्कार है।
सृष्टि के प्रारम्भ से मानव अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि तथा अपने जीवन को अधिक सुखी बनाने के लिए प्रकृति से संघर्ष करता आया है। प्रारम्भ में वह आत्मनिर्भर था। किन्तु जैसे-जैसे वह सभ्यता के पथ पर आगे बढ़ता गया, उसकी आत्मनिर्भरता समाप्त होने लगी। विभिन्न देशों तथा एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के परिणामस्वरूप विनिमय प्रणाली (Exchange) का जन्म हुआ। विनिमय प्रणाली ने अन्य देशों के साथ सहयोग व अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता को प्रोत्साहित किया जिसके परिणामस्वरूप व्यावसायिक क्रियाओं का स्वरूप विकसित होता गया। व्यवसाय के विभिन्न अंग जैसे-
- (i) 'व्यापार' (Trade) (देशी व विदेशी),
- (ii) 'व्यापार के सहायक' (Aids to Trade) (जैसे परिवहन एवं सन्देश वाहन के साधन, डाक व तार विभाग, विज्ञापन, भण्डारगृह, बैंक व बीमा कम्पनी, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, आदि),
- (iii) 'वाणिज्य' (Commerce) अर्थात व्यापार व्यापार के सहायक,
- (iv) 'उद्योग' (Industry) (जननिक, निष्कर्षण, निर्माणी तथा रचनात्मक) एवं
- (v) 'प्रत्यक्ष सेवाएं' (Direct Services) (जैसे वकील, डॉक्टर, इन्जीनियर, चार्टर्ड लेखापाल, कम्पनी सेक्रेटरी, लागत एवं प्रबन्ध विशेषज्ञ, आदि की सेवाएं)
उपरोक्त से स्पष्ट है कि विविध व्याव सायिक क्रियाओं के श्रेष्ठ प्रबन्ध एवं संचालन के परिणामस्वरूप ही सभ्यता का विकास होता है तथा सभ्यता के विकास से वाणिज्य के विकास को गति प्राप्त होती है। अतः वाणिज्य एवं सभ्यता एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं। वास्तव में, किसी देश का वाणिज्यिक विकास उस दर्पण के समान है जिसमें उस देश की सभ्यता प्रतिबिम्बित होती है।
निष्कर्ष- संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि निरन्तर बढ़ते हुए व्यापार व वाणिज्य ने-
- मानव को अधिक सभ्य बनाया है,
- उसके जीवन स्तर में आशातीत वृद्धि की है,
- नई-नई वस्तुओं के उपभोग को सम्भव बनाया है,
- नवीन सेवाओं का संचार किया है,
- पर्यटन में चार चांद लग गए हैं तथा
- अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व भाई चारा को बढ़ावा मिला है।
साथ ही आधुनिक सभ्यता की लहर ने-
- व्यापार व वाणिज्य को राष्ट्रीय चाहरदीवारियों से उठाकर अन्तर्राष्ट्रीय बना दिया है,
- द्विपक्षीय व बहु-पक्षीय समझौतों को बढ़ावा दिया है,
- अनेक देशों की संस्कृतियों के संगम से सभ्यता में निखार के साथ व्यापार का स्वरूप भी बदला है, तथा
- बढ़ता हुआ विश्व एक-दूसरे के निकट आने लगा है।
व्यवसाय के विकास की क्रमागत अवस्थाएं / वाणिज्य के विकास की अवस्थाएं
आधुनिक युग 'उद्योग एवं वाणिज्य' का युग है। वर्तमान में विश्व के समस्त देश औद्योगिक एवं वाणिज्यिक प्रगति की ओर तीव्रगति से अग्रसर होते हैं। वाणिज्य के क्षेत्र में विकास आधुनिक युग की ही देन है। व्यापार में सहायता पहुंचाने वाली क्रियाएं जैसे परिवहन एवं संचार के साधनों का विकास, विशिष्टीकरण, श्रम विभाजन, स्वचालन, बैंक और बीमा सुविधाओं का विकास, आदि ने वाणिज्य के विकास में अत्यधिक सहयोग प्रदान किया है।
आधुनिक युग की इन विशेषताओं का ज्ञान होने के बाद यह प्रश्न उठता है कि क्या हम सदैव प्रारम्भ से ही उद्योग एवं वाणिज्य-प्रधान रहे हैं? यदि हम इस बात पर गम्भीरता से विचार करें तो पता चलेगा कि ऐसा नहीं है। वास्तव में, वाणिज्य का विकास मानव सभ्यता की प्रगति के साथ-साथ हुआ है। अनादि काल में उद्योग और वाणिज्य का अस्तित्व भी नहीं था। आधुनिक वाणिज्य मानव के दीर्घकालीन क्रमिक विकास के इतिहास का परिणाम है। वर्तमान वाणिज्य-स्तर तक पहुंचने में मानव समाज को अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ा। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इन अवस्थाओं को निम्नांकित शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है :
1. आत्मनिर्भरता/आखेट का युग (Stage of Self-Sufficiency or Hunting Stage)-
आदिकाल में मनुष्य की आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित थीं और उनकी सन्तुष्टि भी बड़ी सरलता से हो जाती थी। आवश्यकताओं, क्रियाओं और सन्तुष्टि में प्रत्यक्ष सम्बन्ध था।
अन्य शब्दों में, जो भी आवश्यकता किसी भी व्यक्ति की होती थी उसे वह स्वयं पूरा कर लेता था। भूख सम्बन्धी आवश्यकताएं कन्दमूल-फल खाकर या शिकार करके पूरी की जाती थी। वरुत्र आदि की पूर्ति पेड़ों की छालों से या जानवरों की खालों से की जाती थी। आश्रय की आवश्यकता की पूर्ति पेड़ों की शाखाओं और पत्तियों को एकत्र करके झौंपड़ी बनाकर अथवा गुफाओं में निवास करके की जाती थी। चूंकि इस युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं के प्रयत्न से सरलतापूर्वक कर लिया करता था अतः इसे 'आत्मनिर्भरता का युग' (Era of Self-Sufficiency) कहते हैं। चूंकि इस युग में मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह शिकार करके करता था, अतः इसे 'आखेट युग' (Hunting Stage) भी कहा जाता है। मनुष्य खानाबदोश थे तथा उनका कोई स्थायी निवास नहीं था। इस युग में व्यापार, वाणिज्य अथवा उद्योग नाम की कोई स्थायी चीज नहीं थी। उत्पादन केवल स्वयं की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु किया जाता था न कि विनिमय के लिए।
यह भी पढ़ें- व्यावसायिक संगठन का अर्थ, क्षेत्र, उद्देश्य व महत्व
आत्मनिर्भरता/आखेट का युग की विशेषताएं
इस युग की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित थीं -
(i) आखेट या शिकार करना,
(ii) भ्रमणशील जीवन,
(iii) जानवरों की खालों तथा पेड़ों की छालों से शरीर को ढंकना,
(iv) पत्थर से बने नुकीले हथियारों का उपयोग करना,
(v) मानव का मांसाहारी होना।
निष्कर्ष- इस युग का मानव जंगली और असभ्य था। वह पूर्णरूप से स्वावलम्वी था। व्यापार और विनिमय का नामोनिशान भी नहीं था।
2. पशुपालन युग (Pastoral Stage)-
जब मनुष्य ने सभ्य होना प्रारम्भ किया तो उसकी समझ में आया कि पशु मारना लाभदायक नहीं है। यदि पशुओं का पालन किया जाय तो इनसे अनेक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। अतः उसने पशुओं को पालना प्रारम्भ किया। इस अवधि में पशु पालने का इतना चलन था कि लोग पशुओं को लिये हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को चरागाह की तलाश में जाया करते थे। अतः विभिन्न स्थानों के लोगों में सम्पर्क बढ़ा। सम्पर्क ही सभ्यता का आधार है।
पशुपालन युग की विशेषताएं
इस युग की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित थीं-
(1) पशु-पालन मनुष्य का प्रमुख व्यवसाय था।
(2) इस अवधि में व्यक्तिगत सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ क्योंकि पशु किसी व्यक्ति विशेष की ही सम्पत्ति होते थे।
(3) मनुष्य कबीले व टोलियों में रहते थे। मनुष्यों का जीवन भ्रमणशील था।
(4) परिवहन के साधन के रूप में पशुओं का उपयोग किया जाता था।
(5) इस अवधि में दास-प्रथा का जन्म हुआ, एक कबीला दूसरे कबीले के पराजित मनुष्यों को दास बनाकर रखता था।
(6) विनिमय की क्रियाओं से लोग अनभिज्ञ थे।
(7) अधिकांश लोग स्वावलम्बी थे।
निष्कर्ष- इस युग में दास, पशु और हाथियार व्यक्तिगत सम्पत्ति माने जाते थे। भूमि पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार नहीं था। धीरे-धीरे इस युग में वस्तु विनिमय प्रणाली का भी श्रीगणेश हुआ।
3. कृषि युग (Agricultural Stage)-
पशुओं के लिए हुए चरागाह की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के बाद गनुष्यों को महसूस हुआ कि चरागाह तभी हो सकते हैं जबकि पौधों को उगाने एवं उनकी रक्षा हेतु विशेष ध्यान दिया जाये। इस युक्ति के कारण उनमें ज्ञान पैदा हुआ कि पौधों को उगाने के प्रयत्न होने चाहिए और इसी ज्ञान के कारण जानवरों के लिए चारे वाले पौधे उगाए गये और फिर मनुष्य के खाने से सम्बन्धित पौधे उगाए जाने लगे, और इस प्रकार कृषि काल का जन्म हुआ। गांव बसने लगे, भूमि को व्यक्तिगत सम्पत्ति माना जाने लगा। कृषि में स्वयं खेती करना और दूसरों के द्वारा खेती कराना भी शामिल हो गया।
कृषि युग की विशेषताएं
कृषि युग की प्रमुख विशेषताएं निम्न थीं-
(1) कृषि मनुष्य का प्रधान व्यवसाय था।
(2) इस युग में गांव का भी जन्म हुआ।
(3) मनुष्य स्थायी रूप से गांवों में रहने लगा।
(4) भूमि व्यक्तिगत सम्पत्ति समझी जाने लगी तथा इसके साथ-साथ हल-बैल, आदि भी व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गये।
(5) दास-प्रथा पहले से अधिक दृढ़ हो गई तथा इसके साथ-साथ श्रमिक वर्ग का भी जन्म हुआ।
(6) इस अवधि की प्रारम्भिक अवस्था में जो व्यक्ति जहां कृषि करने लगे, वे उसी भाग के स्वामी बन बैठे। बाद में कुछ लोगों ने स्वयं खेती करना तो बन्द कर दिया और वे अपने खेतों को दूसरों से बुवाने लगे। इस प्रकार कृषि श्रमिकों (Agricultural labour/Tenants) का प्रादुर्भाव हुआ।
(7) इसी अवधि में गांवों का जन्म हुआ और धीरे-धीरे इन्हीं ने नगरों का रूप धारण कर लिया।
(8) गांवों में कृषि के अतिरिक्त कुछ लोग अन्य चीजों का निर्माण करने लगे, जैसे-कपड़ा बुनना, मिट्टी के बर्तन बनाना, लकड़ी का काम करना, जूता बनाना, हथियार व लोहे की अन्य वस्तुएं बनाना, तेल निकालना, इत्यादि।
(9) एक गांव में साथ रहने के कारण लोगों में सामाजिक चेतना का प्रादुर्भाव हुआ।
निष्कर्ष- इस युग का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। कृषि के अतिरिक्त कुछ व्यक्ति छोटे-छोटे कार्य; जैसे मिट्टी के बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, आदि करने लगे। वस्तु विनिमय प्रणाली का श्रीगणेश हो चुका था। मुद्रा का चलन अभी नहीं हुआ था।
4. हस्तशिल्प कला का युग (Handicraft Stage)-
सामाजिक जीवन एवं अवकाश के कारण मनुष्य की आवश्यकताओं में शनैः शनैः वृद्धि होने लगी। उसने अवकाश के क्षणों में हाथ से वस्तुएं बनाना प्रारम्भ किया। कार्यकुशलता के आधार पर मनुष्य के कार्यों का विभाजन हुआ। छुहार, बढ़ई, सुनार, कुम्हार, धोबी, किसान, आदि जातियां बन गईं। कुछ कार्यों में मनुष्य विशिष्टता प्राप्त करने लगा तथा वस्तुओं को बनाने की कला दस्तकारी कही जाने लगी।
हस्तशिल्प कला की विशेषताएं
इस युग की निम्नांकित विशेषताएं थीं :
(1) वस्तु विनिमय का प्रारम्भ- प्रथम बार मनुष्यों ने इस युग में यह महसूस किया कि जिन वस्तुओं की उसके पास कमी है, उन्हें वह दूसरों से ले सकता है और इनके बदले में जो वस्तुएं उसके पास अधिक हैं वो दे दे। इस प्रकार वस्तुओं द्वारा क्रय-विक्रय, जिसे अब व्यापार का भाग माना जाता है, प्रारम्भ हो गया।
(2) श्रम विभाजन- जब अपनी अतिरिक्त वाली वस्तुएं लोग दूसरों को देने लगे तो इन वस्तुओं को बनाने की ओर अधिक ध्यान देने लगे जिन वस्तुओं को वह नहीं बना पाते थे उन्हें दूसरों से लेने के कारण उत्पादन प्रक्रिया में एक विशेष प्रकार की क्रांति हुई अर्थात् लोगों ने अपने को केवल उन वस्तुओं के उत्पादन पर केन्द्रित किया जिन्हें बनाने में वह कार्य-कुशल थे। यही श्रम विभाजन की प्रथम सीढ़ी थी, जिसने बढ़ते-बढ़ते आज के युग में तहलका मचा दिया है।
(3) द्रव्य विनिमय- इसी काल में मुद्रा का जन्म हुआ और वस्तु-विनिमय के साथ-साथ मुद्रा द्वारा विनिमय होने लगा।
(4) पेशों या धन्धों की प्रगति-विभिन्न प्रकार के पेशे एवं धन्धे प्रारम्भ हो गए। इस काल में वस्तुएं अधिकतर हाथों से बनायी जाती थीं। लोहे का कार्य करने वाला लुहार, लकड़ी का कार्य करने वाले बढ़ई, हाथों से डलिया बनाने वाले एवं बहुत-से कुटीर उद्योग वाले पेशों का जन्म हुआ।
(5) बाजारों की स्थापना- वस्तु-विनिमय, द्रव्य विनिमय एवं श्रम-विभाजन, आदि के कारण बाजारों की स्थापना हुई। मनुष्यों को अब विभिन्न प्रकार की वस्तुएं एक ही स्थान पर मिल सकती थीं, उन्हें इनकी पूर्ति के लिए विभिन्न स्थानों पर नहीं जाना पड़ता था।
(6) यातायात के साधनों में वृद्धि- बाजारों में वस्तुएं बेचने के लिए एवं क्रय करने के लिए लोग विभिन्न स्थानों से आया करते थे। अतः सड़क यातायात एवं जल यातायात की प्रगति हुई। अधिकतर यातायात घोड़ों एवं बैलगाड़ियों द्वारा होता था। नदियों के किनारे वाले लोग नाव के द्वारा व्यापार करते थे। इस काल की झलक के कुछ अंश वर्तमान काल में भी कुछ गांवों में मौजूद हैं जहां लोग अब भी महीने में एक या दो बार घोड़े या बैलगाड़ी पर सामान लादकर गांव-गांव बेचने जाते हैं।
(7) अच्छे नगरों की स्थापना- बाजारों एवं यातायात, आदि की प्रगति के कारण अच्छे नगर स्थापित हो गये। लोगों ने वहीं पर रहना शुरू कर दिया जहां बड़े-बड़े बाजार लगते थे और जहां उन्हें हाथ से बनाने वाली वस्तुओं का सामान अर्थात कच्चा माल उपलब्ध था।
(8) सभ्यता का विकास- उपर्युक्त वर्णित व्यापारिक प्रगति से सभ्यता में वृद्धि हुई और इस वृद्धि ने नई आवश्यकताएं पैदा कीं जिनसे हस्तकला में काफी प्रगति हुई।
निष्कर्ष- इस युग से बड़े नगरों का निर्माण आरम्भ होता है। व्यापार का प्रारम्भ एवं बाजारों की स्थापना। मुद्रा का प्रादुर्भाव। समाज का विभिन्न धन्धों में विभाजित होना, जैसे-जुलाहा, मोची, लुहार, आदि प्रारम्भ हो गया।
5. गृह-उद्योग युग (Stage of Domestic Production)-
सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान का पर्याप्त विकास होने के कारण इस युग में कृषि और वस्तुओं का उत्पादन दो अलग-अलग व्यवसाय बन गए। बाजार के विस्तार के कारण व्यापारियों ने ग्रामीण दस्तकारों को कच्चा माल देकर आदेशानुसार वस्तुएं बनवाने की प्रथा का श्रीगणेश किया। दस्तकार अपने परिवार के सदस्यों की सहायता से माल तैयार करने लगे और इन्हें राजा-महाराजाओं का संरक्षण भी प्राप्त होने लगा। मुद्रा तथा नाप-तौल की पद्धतियों के विकास के कारण वस्तु-विनिमय की कठिनाइयों का निवारण होने लगा। सभी वस्तुओं का निर्माण घर पर होने के कारण इस युग को 'गृह-उद्योग युग' के नाम से पुकारा जाने लगा। कृषि करने से जो समय बचता था वह समय लोग उद्योगों में लगाने लगे।
गृह-उद्योग युग की विशेषताएं
(1) मध्यस्थों का प्रारम्भ- कुछ लोगों ने उन परिवारों से जो गृह-उद्योगों में व्यस्त थे, माल क्रय किया और उसे दूसरे लोगों को जिन्हें इनकी आवश्यकता थी बेचा। ऐसे भी मध्यस्थ पैदा हो गए जो उद्योगों में लगे हुए लोगों को धन, औजार और कच्चा माल देकर उनसे वस्तुएं बनवाते थे और फिर उन्हें दूसरों को बेचते थे।
(2) साधारण औजारों का प्रयोग- इस युग में मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था वरन् साधारण प्रकार के औजार प्रयोग किए जाते थे, जिनका निर्माण भी मनुष्य हाथों से ही करते थे। इनके निर्माण के अलग से वर्ग भी बन गए थे।
(3) छोटी मात्रा में उत्पादन- इस युग में उत्पादन बहुत छोटे पैमाने पर होता था तथा प्रत्येक परिवार छोटी मात्रा में ही वस्तु उत्पादित करता था।
(4) वर्ग भेद- इस युग में पूंजीपति और श्रमिक वर्ग का उदय आर्थिक आधार पर हुआ।
(5) मुद्रा तथा माप-तौल का विकास- इस युग में वस्तु-विनिमय का अन्त होकर विनिमय का एकमात्र माध्यम मुद्रा बन गई। प्रत्येक वस्तु की माप-तौल सुनिश्चित हुई।
(6) श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण- इस युग में श्रम-विभाजन को अधिक प्रोत्साहन मिला जिससे कारीगरों में निपुणता आ गई तथा विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिला।
(7) सामाजिक एवं आर्थिक विकास मनुष्य की सम्पन्नता- आर्थिक आधार पर मापी जाने लगी। व्यापार, वाणिज्य तथा यातायात के साधनों का पर्याप्त विकास होने से मानव-जीवन अधिक सरल व सुखमय बन गया।
निष्कर्ष- उत्पादन यन्त्रों के प्रयोग के बिना होता था। हाथ से बने औजार प्रयोग में लाये जाते थे। उत्पादन कम मात्रा में होता था। मध्यस्थों का जन्म हुआ जिनका प्रमुख कार्य निर्माता एवं अन्तिम उपभोक्ता के बीच सम्बन्ध स्थापित करना था।
6. वर्तमान औद्योगिक युग (Present Industrial Stage)-
इस युग में बड़े पैमाने पर उद्योगों को चलाए जाने की प्रथा प्रारम्भ हुई। वाणिज्यिक एवं आर्थिक विकास की गति को यान्त्रिक आविष्कारों ने प्रेरित किया। इस युग में इतने विचित्र तथा चमत्कारिक परिवर्तन हुए कि लोग इसे 'औद्योगिक क्रान्ति' (Industrial Revolution) के नाम से पुकारने लगे। यह क्रांति अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सबसे पहले इंगलैण्ड में प्रारम्भ हुई, इस युग में मशीनों का बहुत प्रयोग हुआ। वर्तमान काल में विश्व के लगभग समस्त देशों में औद्योगीकरण हो गया है। इसे सभ्यता का युग माने जाने लगा है।
वर्तमान औद्योगिक युग की विशेषताएँ
इस युग की निम्नांकित विशेषताएं हैं :
(1) शक्ति का प्रयोग होना- इस अवधि में बड़े पैमाने के उत्पादन के लिए कोयला, तेल एवं पानी से उत्पन्न की हुई शक्ति का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ। यहां तक कि ईंधनों की कमी महसूस होने लगी और अब सौर शक्ति (Solar Energy) का प्रयोग भी प्रारम्भ हो गया है और इस दिशा में विशेष अनुसंधान हो रहे हैं। अणु-शक्ति (Atomic Power) के प्रयोग की ओर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है ताकि वर्तमान उत्पादन में शक्ति की कमी महसूस न हो।
(2) मशीनीकरण- इस युग में सम्पूर्ण कार्य मशीनों की सहायता से होने लगा। इनका प्रयोग इतना अधिक हो गया है कि इस युग को 'मशीन युग' कहा जाने लगा है।
(3) बड़े पैमाने पर उत्पादन- बड़े-बड़े कारखानों और उद्योगों में प्रयुक्त होने वाली स्वचालित मशीनों के कारण श्रम और समय की बचत होने लगी तथा उत्पादन का पैमाना बढ़ गया।
(4) परिवहन का अधिकतम विकास- युग में मोटर गाड़ियों, रेल गाड़ियों, जलयानों, हवाई जहाजों, आदि के आविष्कार से परिवहन के तीव्रगामी साधनों का अत्यधिक विकास हुआ है।
(5) संचार के साधनों का विकास- टेलीफोन, तार, रेडियो, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, जैसे संचार के साधनों के प्रयोग से व्यापार-वाणिज्य का अत्यधिक विकास हुआ।
(6) पूंजीवाद और साम्यवाद का उदय- इसी युग में आर्थिक आधार पर पूंजीवाद और साम्यवाद का उदय हुआ तथा आर्थिक असमानता बढ़ी।
(7) पत्र-मुद्रा व साख-मुद्रा का जन्म- इस युग में धातु-मुद्रा के अतिरिक्त कागजी मुद्रा तथा साख-मुद्रा प्रचलित हुई।
(8) व्यापार के सहायक साधनों का विकास- इस युग में डाक, तार, बैंक, बीमा, गोदाम, आदि व्यापार के सहायक साधनों का विकास हुआ।
(9) आर्थिक समस्याओं का जन्म- आर्थिक तन्त्र का प्रभुत्व स्थापित होने के कारण उत्पादन की समस्या, श्रम समस्या, वितरण की समस्या, आदि अनेक आर्थिक समस्याओं का जन्म होने लगा।
(10) वैज्ञानिक युग- यह युग मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञाने तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों से प्रभावित हुआ। इसके कारण व्यापारिक क्षेत्र में नियोजन, अनुसंधान, प्रशिक्षण, वैज्ञानिक प्रबन्ध, प्रमापीकरण, आदि का प्रयोग होने लगा।
निष्कर्ष- सौर-शक्ति तथा अणुशक्ति के नवीनतम उपयोग, वैज्ञानिक प्रबन्ध के क्षेत्र में हुए बहु-दिशाई विकास, ऑपरेशन, रिसर्च, कम्प्यूटर प्रणाली के विकास ने तो मानव के मानसिक चिन्तन में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये हैं। औद्योगिक क्रान्ति से होने वाले परिवर्तन भी अब प्राचीन हो गये हैं। औद्योगिक विकास एक नवीन दिशा की ओर अग्रसर है तथा आधुनिक युग में होने वाले परिवर्तनों को 'द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति' कहा जा सकता है