चोलों की शासन-व्यवस्था
चोल राजा महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता ही न थे, बल्कि वे सुयोग्य शासक भी थे। उनके लेखों से पता लगता है कि उनकी शासन-व्यवस्था बहुत ही सुदृढ़ एवं व्यवस्थित थी।
(1) केन्द्रीय शासन
राजा समस्त शासन-तन्त्र का प्रमुख संचालक था। उसके ऊपर किसी लोकतान्त्रिक संस्था का नियन्त्रण न था। वह शासन कार्य मन्त्रियों की सलाह तथा सहायता से करता था। राजा अधिकतर आज्ञाएँ मौखिक देता था। उसका निजी सचिव उसकी आज्ञाओं को नोट करता और मुख्यमंत्री तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों के हस्ताक्षर करवाकर जारी करता था। साम्राज्य प्रान्तों में बँटा हुआ था, जो मण्डल कहलाते थे। प्रान्तों की संख्या बदलती रहती थी जो कभी 6 थी या कभी 8। उनका शासन बहुधा राजवंशों के सदस्यों के हाथों में होता था। प्रान्तों को कोट्टमों में तथा कोट्टमों को नाडुओं में विभक्त किया गया था। प्रत्येक नाडु में अनेक ग्राम संघ थे जिन्हें कुर्रम और तारकुर्रम कहा जाता था।
(2) स्थानीय शासन
चोल शासन-व्यवस्था की विशेषता यह थी कि गाँव, नगर, जिला, प्रान्त आदि सभी शासन इकाइयों के प्रबन्ध के लिए सार्वजनिक समितियाँ हुआ करती थीं जो शासन-व्यवस्था का संचालन करती थीं। मण्डलों की समितियों के विस्तृत कार्य थे। वे अकाल आदि पड़ने पर लगान की छूट का निर्णय करतीं। नाडुओं की समितियाँ नाट्टर कहलाती थीं। व्यापारियों की अलग समितियाँ होती थीं जिन्हें 'नागरत्तार' कहते थे। इसी प्रकार गाँव के लिए समितियाँ होती थीं, जिनका नाम उर था। ब्राह्मण-गाँवों की समितियों को महासभा कहते थे। उनका विशेष मान था। गाँव-सभा के कार्य विस्तृत थे। गाँव की सभी भूमि पर उसका अधिकार होता था। जंगलों आदि को साफ करके वह नयी भूमि प्राप्त करती थी। सभा ही गाँव की भूमि किसानों में बाँटती, लगान वसूली का प्रबन्ध करती और लगान न देने पर भूमि वापस ले लेती थी। राज्य के निरीक्षक सभा के हिसाब की जाँच करते थे। इसके अतिरिक्त सभा के कार्य में राज्य की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता था, साधारण झगड़ों का फैसला करने तथा अपराधियों को दण्ड देने का भी सभा को अधिकार था। गाँवों के बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध भी इसी सभा के हाथ में होता था। कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिए सभा छोटी-छोटी समितियों को नियुक्त करती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि गाँवों का प्रबन्ध पूर्ण लोकतान्त्रिक ढंग से होता था।
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(3) राज्य की आय के स्रोत
राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। उपज का छठवाँ भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था। इसके अलावा कोरियों, तेलियों, सुनारों, व्यापारियों, पशुपालकों आदि से कर वसूल किये जाते थे। बाजारों में चुंगी भी लगती थी। राज्य की ओर से भूमि की उचित नाप करवायी जाती थी और उसका लेखा-जोखा रखा जाता था। सिंचाई के लिए राज्य की ओर से उचित प्रबन्ध था। बाँध बनवाये जाते तथा तालाब, कुएँ खुदवाये जाते थे।
(4) सैनिक संगठन
चोल राजा विशाल सेना रखते थे। धनुर्धारी, घुड़सवार, पैदल तथा हाथी सेना के मुख्य अंग थे। इसके अतिरिक्त उनके पास विशाल नौ-सेना भी थी, जिसकी सहायता से उन्होंने दूर-दूर के देश जीते थे। सेना छावनी में रखी जाती थी और बड़ा अनुशासन था।
(5) राज्य का व्यय
राज्य के व्यय का मुख्य शीर्षक राजा और उसका दरबार, नागरिक प्रशासन , कर्मचारी, सेना, सड़कें, सिंचाई तथा मन्दिरों का धन और दान था।
(6) जल सेना
चोलों के पास शक्तिशाली नौ-सेना थी जिसकी सहायता से वे कोरोमण्डल और मालाबार तटों की रक्षा करते थे। बंगाल की खाड़ी एक चोल झील बन गई थी। व्यापारिक जहाजों को सेना के आवागमन के लिए प्रयोग किया जाता था।
(7) न्याय व्यवस्था
न्याय व्यवस्था उच्चकोटि की थी। स्थानीय संस्थाएँ मुकदमों का निर्णय करतीं, अन्तिम अपील राजा के पास थी। चोलों की दण्ड व्यवस्था उदार थी।