भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ
भक्ति आन्दोलन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(1) सरल तथा आडम्बरहीन स्वरूप- भक्ति आन्दोलन का स्वरूप अत्यन्त सरल तथा आडम्बरहीन था। इसमें परम्परागत चले आ रहे अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों का तनिक भी स्थान नहीं था। सरल रूप से भगवान के प्रति प्रेम तथा सच्चे हृदय से भक्ति करना, इस मत का प्रमुख आधार था।
(2) मूर्ति-पूजा का विरोध- इस आन्दोलन की दूसरी विशेषता यह थी कि भक्त सन्तों ने मूर्ति-पूजा में विशेष रुचि नहीं दिखायी और कुछ सन्तों ने तो स्पष्ट विरोध किया, जिनमें कबीर प्रमुख हैं।
(3) एक ईश्वर में विश्वास- इस आन्दोलन में भाग लेने वाले सन्त विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करने के बजाय एक ईश्वर में विश्वास करते थे। यह सत्य है कि कोई राम की उपासना करता था तो कोई कृष्ण की परन्तु सबका मूल उद्देश्य सर्वशक्तिमान भगवान की उपासना करना मात्र था।
(4) जाति-पाँति का विरोध- भक्ति आन्दोलन के सन्त मनुष्य मात्र को एक मानते थे। उनमें जाति-पाँति को महत्व देने जैसी क्षुद्र प्रवृत्तियाँ नहीं थीं।
रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार, "इस शिक्षा को द्विजेत्तर जातियों ने बड़े उत्साह से ग्रहण किया।" कबीर, नानक, दादू, आदि ने जो कुछ भी कहा वह एक विशाल जनता की आवाज थी। ऊपर की जाति वालों को यह शिक्षा ठीक नहीं लगती थी। रामानन्द ने कबीर और रैदास को शिष्य बनाया, गोसाईं बिठ्ठलदास ने रसखान को दीक्षा दी। उन्होंने केवल यही शर्त लगायी कि भगवान की शरण में आने के बाद मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं रह जाता है। चैतन्य के शिष्य हरिदास अछूत थे। इसी प्रकार नामदेव के शिष्य चोखमेला भी अछूत थे।
(5) हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल- भक्ति युग के सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर विशेष बल दिया। कबीर ने यदि हिन्दुओं की आलोचना की तो साथ में मुसलमानों को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों में बढ़ती हुई कटुता को समाप्त करने के लिए दोनों की आलोचना की-
अरे इन दोउन राह न पायी।
हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई॥
कबीर ने अपनी ओजपूर्ण शैली में हिन्दू और मुसलमान दोनों की एकता पर बल दिया। उनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य थे। गुरु नानक एवं रैदास भी हिन्दू- मुस्लिम एकता के पक्षपाती थे। चैतन्य तथा नामदेव के शिष्यों में भी हिन्दू-मुस्लिम दोनों थे। इस काल के प्रतिभाशाली कवियों ने हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति तथा धार्मिक भावना में समन्वय करने का प्रयास किया।
(6) जनभाषा का प्रयोग- भक्ति मार्ग के सन्तों ने बुद्ध एवं महावीर की भांति जनभाषा का प्रयोग किया, जिसके परिणामस्वरूप इस आन्दोलन के सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार हुआ। कबीर तथा नामदेव ने हिन्दी में, नानक ने पंजाबी में, मीरा ने राजस्थानी में काव्य की रचना की। जनसाधारण की भाषा का प्रयोग करने के कारण भक्ति समुदाय के सिद्धान्तों का प्रचार तीव्रता से हुआ।
(7) संन्यास के विरोधी- इस आन्दोलन के प्रवर्तक कर्मकाण्ड और आडम्बरों के तो विरोधी थे, परन्तु संन्यास लेने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार में ईश्वर को प्राप्त करने के लिए संन्यास ग्रहण करना आवश्यक नहीं था। उनका विचार था कि भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति गृहस्थ में रहकर भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।