वित्त का अर्थ, परिभाषा, भूमिका एवं प्रकार

वित्त का अर्थ

किसी भी उद्योग की स्थापना में वित्त जीवन-रक्त के समान आवश्यक है। क्योंकि व्यवसाय में भूमि व भवन, मशीनरी व यन्त्र आदि की व्यवस्था एवं कार्यशील पूँजी के लिए वित्त अत्यन्त आवश्यक है। वित्त किन-किन संसाधनों से कितनी मात्रा में एकत्र हो सकता है और उसका लाभकारी विनियोग कैसे और कहाँ किया जायेगा, ये सभी क्रियाएँ वित्त से सम्बन्धित हैं। वित्त एक व्यापक शब्द है और वित्त के द्वारा ही किसी व्यवसाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन को एकत्र करना और उसके समुचित विनियोग से है।

वित्त की परिभाषायें

वित्त के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों की परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

पी. जी. हैस्टिंक्स के अनुसार- "वित्त धन प्राप्त करने तथा व्यय करने की कला एवं विज्ञान का नाम है।"

प्रेथर एवं बर्ट के अनुसार- "वित्त मुख्यतः उद्योगों के गैर-वित्तीय क्षेत्रों में कार्यरत निजी स्वामित्व वाली व्यावसायिक इकाइयों द्वारा कोषों की प्राप्ति, उनका प्रशासन एवं वितरण की विवेचना करता है।"

गुथमैन एवं दुग्गल के अनुसार- "व्यवसाय वित्त का आशय ऐसी क्रियाओं से है, जो व्यवसाय में प्रयुक्त कोषों के नियोजन, संग्रहण, नियन्त्रण एवं प्रशासन से जुड़ी हुई हों।"

अर्थव्यवस्था में वित्त की भूमिका

वित्त आधुनिक एवं वर्तमान अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक पहलू/तथ्य है। वित्त प्रत्येक व्यक्ति के आर्थिक जीवन, उद्योग, व्यापार, सेवा, सरकार एवं अन्य संस्थाओं के संचालन में गति प्रदान कर अहम् भूमिका निभाता है। वित्त का सम्बन्ध व्यक्तियों एवं संस्थाओं की आय-व्यय तथा उनके पारिवारिक बजट के समायोजन से है। साथ ही आय के निर्माण, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऋणों के लेन-देन में विशेष भूमिका है। अर्थव्यवस्था में वित्त की भूमिका को निम्न शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है-

(1) साख का सृजन- व्यापारिक बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाएँ अपनी जमाओं के कोषों की उपलब्धता के आधार पर उद्योगों, व्यवसायों एवं जनता को ऋण उपलब्ध कराती हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और देश में पूँजी निर्माण भी होता है। समस्त आर्थिक क्रियाएँ वित्त पर ही आधारित हैं और वित्तीय प्रणाली वित्त को गति प्रदान करने तथा वित्तीय संस्थाओं से उधार के लेन-देन का कार्य किया जाता है। जो वर्तमान में देशी बैंकर तथा महाजनों से लेकर आधुनिक बैंकिंग संस्थाओं तक व्याप्त है।

(2) पूँजी निर्माण का आधार- किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में वित्त पूँजी निर्माण पर आधारित है। सभी प्रकार की बचतों को उत्पादकीय कार्यों तथा प्रतिभूतियों में निवेश कर पूँजी निर्माण किया जाना चाहिए। पूँजी परिसम्पत्तियों का सृजन ही पूँजी निर्माण है। यदि किसी देश में घरेलू बचतें पर्याप्त नहीं हैं तो विदेशी सरकार या कम्पनियों से ऋण लेना पड़ेगा जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है।

(3) बचतों को गतिशील बनाना- एक विकासशील राष्ट्र की जनता की आय कम होने के कारण बचत भी कम होती है, जबकि वित्त बचतों का आधार है। अतः विकासशील राष्ट्र में बचत को प्रोत्साहित करने के लिए कुशल वित्तीय प्रणाली को अपनाना आवश्यक है, जिससे मुद्रा या वस्तु के रूप में जुड़ी बचतों को उत्पादन कार्यों में विनियोजित कर, पूँजी निर्माण में भी सहयोग करें।

(4) नियोजित आर्थिक विकास में सहायक- वित्त के अभाव में आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। क्योंकि नियोजित आर्थिक विकास प्रमुख रूप से धन के एकत्र की सफल प्रणाली पर आधारित है। जिस प्रकार मनुष्य को जीवित रहने के लिए रक्त की पर्याप्त मात्रा आवश्यक है उसी प्रकार अर्थशास्त्र के विभिन्न अंगों (कृषि, उद्योग, यातायात, उत्पादन, वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) प्रक्रिया को सुगम एवं सरल बनाने के लिए वित्त भी आवश्यक है। वित्त के अभाव में बड़ी-बड़ी योजनाएँ असफल हो जाती हैं।

(5) तकनीकी विकास- आधुनिक युग तकनीकी का युग है, जिससे विशेष तकनीकों के माध्यम से नवीनतम एवं आधुनिक मशीनों का निर्माण किया जाता है। यह मशीनरी मनुष्य के कार्य को सरल, सुगम तथा सुविधाजनक बनाती है। तकनीकी का ज्ञान अभी विकसित देशों के पास है और विकसित देश आधुनिक तकनीक के लिए विभिन्न प्रकार के अनुसन्धान करके अपनी आय का बहुत अधिक भाग व्यय करते हैं, जिसके लिए पर्याप्त मात्रा में वित्त आवश्यक है।

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(6) निजी व्यक्तियों के सन्दर्भ में भूमिका- कोई भी व्यक्ति आय के स्रोत के रूप में विभिन्न साधनों (जैसे- मजदूरी, वेतन, व्याज, किराया, लगान व अन्य प्रकार के लाभों) का उपयोग कर सकता है, जिससे कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर जीवन स्तर को ऊँचा उठा सके। वह अपनी आय के कुछ अंश को बचाकर, भविष्य की आवश्यकताओं की भी पूर्ति करना चाहता है, जिससे कि उसका भविष्य भी सुरक्षित हो सके। भविष्य को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से वह अन्य लाभकारी विनियोगों (जैसे- बीमा पॉलिसी, फिक्स डिपोजिट, पारस्परिक कोष, पेंशन कोष आदि) में अपनी बचत को निवेश कर सकता है। किसी भी व्यक्ति के लिए बचत का जितना महत्व है, उससे अधिक महत्व अर्थव्यवस्था को भी है क्योंकि इससे देश का आर्थिक विकास होता है और सरकार भी बचत के प्रोत्साहन के लिए विभिन्न कार्यक्रम और तरीकों का विस्तार करती है।

(7) रोजगार सुविधाओं का विस्तार- किसी भी व्यक्ति/संस्था को रोजगार सुविधाओं के विस्तार के लिए वित्त/धन की आवश्यकता होती है। जब तक पूँजीगत स्रोत नहीं बढ़ेंगे, तब तक रोजगार की सुविधा का विकास भी सम्भव नहीं हो सकता है। हम वित्तीय संसाधनों के माध्यम से नवीनतम साधनों को एकत्रित कर सकते हैं और श्रम-शक्ति को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसरों का विकास हो सकता है।

(8) मानवीय एवं भौतिक पूँजी का निर्माण- किसी देश के आर्थिक विकास में मानवीय एवं भौतिक पूँजी के निर्माण का विशेष योगदान होता है क्योंकि किसी भी व्यावसायिक संस्थान को मानव संसाधन विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्त आवश्यक है जिससे कि शिक्षा, खेल, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ तकनीकी ज्ञान पर व्यय करके मानवीय एवं भौतिक पूँजी का निर्माण हो सके और श्रमिक वर्ग की कार्यक्षमता एवं कुशलता में भी सुधार सम्भव हो सके।

(9) विदेशी वित्त की निर्भरता में कमी- भारत विकासशील देशों की श्रेणी में है। कोई भी विकासशील देश (जैसे-जर्मन, इटली आदि) आधुनिक तकनीकी, कच्ची सामग्री, आधुनिक मशीनरी को प्राप्त करने के लिए विकसित देशों के ऊपर ही निर्भर रहता है। विकासशील देश आर्थिक एवं तकनीकी ज्ञान के अभाव में विदेशी सहायता पर ही निर्भर रहता है। यदि विकासशील देशों के पास पर्याप्त मात्रा में वित्त उपलब्ध होगा, तो विदेशी सहायता का मुँह ताकना नहीं पड़ेगा और देश की विकास दर भी अग्रेतर होगी।

निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह स्पष्ट है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पूर्ण विकसित हो या अर्द्धविकसित हो, उसमें वित्त की अपनी विशेष भूमिका है। यही कारण है कि अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था में वित्त के विकास को महत्वपूर्ण माना जाता है।

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वित्त के प्रकार

वित्त के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों एवं अर्थशास्त्रियों ने अपने मत व्यक्त किये हैं, जिसके अनुसार 'वित्त' को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) समय के आधार पर वित्त के प्रकार

वित्त की आवश्यकता विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय के आधार पर पड़ती है। जैसे कोई विनियोजन स्थायी रूप से कम से कम 5 वर्ष या अधिक वर्षों के लिए करना हो तो दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होगी। यदि वित्त की आवश्यकता 5 वर्ष से कम परन्तु एक वर्ष से अधिक के लिए है और वह अपने व्यवसाय की रुकी गति को गतिशीलता प्रदान करना चाहता है, तो उसे मध्यकालीन वित्त की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार यदि वित्त की आवश्यकता एक वर्ष या कम अवधि के लिए है और वह केवल व्यवसाय की कार्यशील पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति करना चाहता है तो उसे अल्पकालीन वित्त की आवश्यकता होगी। अतः इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न परिस्थितियों में वित्त की आवश्यकता समयावधि के तत्व पर निर्भर है।

समय के आधार पर वित्त के अग्र तीन प्रकार हैं-

(1) दीर्घकालीन वित्त- दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता स्थायी रूप से निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक होती है। यदि वित्त की आवश्यकता व्यवसाय या अन्य किसी कार्य के संचालन हेतु पड़ती है और वित्त की आवश्यकता अवधि कम-से-कम 5 वर्ष या अधिक हो तो ऐसे वित्त को दीर्घकालीन वित्त की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है। किसी भी कृषक को अपनी कृषि क्रिया से सम्बन्धित भूमि कम करने, भूमि का स्थायी सुधार करने या कृषि उपकरण कम करने के लिए दीर्घकालीन वित्त उधार लेने की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार किसी व्यवसायी या उद्यमी को फैक्ट्री बनाने, आधुनिक महँगी मशीन क्रय करने के लिए दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता. होती है, कोई भी कम्पनी जो कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत भारत में पंजीकृत है, वह भी अपने अधिमान तथा पूर्वाधिकार अंशों के निर्गमन के द्वारा दीर्घकालीन वित्त की व्यवस्था करती है।

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(2) अल्पकालीन वित्त- अल्पकालीन वित्त की व्यवस्था व्यवसाय के सामान्य संचालन हेतु कार्यशील पूँजी की पूर्ति हेतु की जाती है। अल्पकालीन वित्त के अन्तर्गᾳ ऐसे ऋणों को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी अवधि एक वर्ष या इससे कम हो।

(3) मध्यकालीन वित्त- मध्यकालीन वित्त की आवश्यकता विभिन्न वर्गों द्वारा बचतों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से व्यापारिक एवं वाणिज्यिक बैंकों में जमा करते हैं, जिन्हें परिपक्व होने से पूर्व भुनाया जा सके। मध्यकालीन वित्त सामान्यतः एक वर्ष से 5 वर्ष तक की अवधि के अन्तर्गत माना जाता है। मध्यकालीन वित्त व्यवसाय या संस्था की अवरुद्ध गति को नियमित करने के लिए आवश्यक होता है। जब व्यवसाय के नियमित संचालन के लिए सामान्य तकनीकी ज्ञान एवं मशीनरी की पूर्ति हेतु वित्त की आवश्यकता होती है तो उन मध्यकालीन वित्त की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है।

(ब) स्वामित्व के आधार पर वित्त के प्रकार

स्वामित्व के आधार पर वित्त दो प्रकार का होता है-

(1) लोक वित्त- लोक वित्त का अभिप्राय सरकारी वित्त या सार्वजनिक वित्त से है जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की सरकारों (केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार एवं स्थानीय सत्ताएँ) की आय व व्यय क़ी व्यवस्था का प्रावधान है। सरकार अपने अनुमानित व्यय के आधार पर आय की योजना बनाती है। सरकारी आय योजना के अन्तर्गत जनता से करारोपण आय के रूप में वसूली करके, उसे जनता के हितार्थ ही व्यय कर दिया जाता है।

(2) निजी वित्त- अर्थव्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वित्त की व्यवस्था निजी वित्त की श्रेणी में आती है और इस वित्त की व्यवस्था देश में उपलब्ध अपने ही संसाधनों के माध्यम से की जाती है और इस व्यवस्था का उत्तरदायित्व निजी हाथों में ही होता है।

(स) अन्य आधार

(1) प्रकृति के आधार पर- इस आधार पर वित्त को निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • कार्यशील वित्त,
  • स्थायी वित्त ।

(2) प्रयोग के आधार पर वित्त- इस आधार पर वित्त को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • कृषि वित्त,
  • विकास वित्त,
  • औद्योगिक वित्त।

(3) क्षेत्र के आधार पर वित्त- इस आधार पर वित्त को निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • राष्ट्रीय वित्त,
  • अन्तर्राष्ट्रीय वित्त।

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