जीवन परिचय
भक्त कवि नाभादास ने अपनी रचना भक्तमाल में कबीर और रैदास को रामानन्द का शिष्य बताया है। स्वयं रैदास ने भी 'रामानन्द मोहि गुरु मिल्यो' कहकर इसकी पुष्टि की है। प्रायः सभी विद्वान् इस धारणा पर भी सहमत हैं कि कबीर (जन्म संवत् 1455 सन् 1398) और रैदास समकालीन थे। रैदास आयु में उनसे कुछ छोटे थे। इस आधार पर रैदास का जन्म संवत् 1456 (सन् 1399) के आस-पास मान लेने पर उनके रामानन्द का शिष्य और कबीर का समकालीन होने की पुष्टि हो जाती है।
रैदास के माता-पिता के नाम के विषय में भी विद्वान एक मत नहीं हैं। रैदास की गद्दी के उत्तराधिकारियों तथा अखिल भारतीय रविदासी महासभा के सदस्यों एवं 'रैदास-वाणी' के सम्पादक के अनुसार उनके पिता का नाम रग्धू और माता का नाम घुरबनिया या कर्मा था। लोगों में यह भी विश्वास प्रचलित हैं कि इनकी पत्नी का नाम 'लौणा' या 'लोना' था। कहते हैं कि चित्तौड़ की रानी झाली इन्हें अपना गुरु मानती थीं।
रानी ने उनके सम्मान में एक बड़ा लोक-भोज दिया। इस भोज में ब्राह्मणों ने यह कहकर भोजन करने से इनकार कर दिया कि हम बिना जनेऊधारी रैदास के साथ भोजन नहीं कर सकते। इस पर रैदास ने अपनी त्वचा चौरकर उसमें से सोने का जनेऊ निकालकर सबको विस्मित कर दिया। कहते हैं कि जनेऊ की चमक से सभी की आँखें बन्द हो गई और रैदास केवल अपने पद-चिह्न छोड़कर विलीन हो गए। चित्तौड़ की रानी ने उनकी स्मृति में वहाँ एक स्मारक भी बनवाया।
यह स्मारक आज रैदास की छतरी के नाम से प्रसिद्ध है। रैदास सम्प्रदाय के पक्षधरों का मानना है कि उनका निर्वाण चैत्र मास की चतुर्दशी को हुआ था। भक्त कवि अनन्तदास ने उनके देहत्याग का समय संवत् 1584 (सन् 1527) और स्थान चित्तौड़ बताते हुए लिखा है-
पन्द्रह सौ चउ असी, भई चितौर महं भीर।
जर-जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर।।
साहित्यक परिचय
सन्त रैदास ने स्वयं किसी काव्य की रचना अपने हाथों से नहीं की है। उनके भक्त शिष्यों ने उनकी वाणी को लिपिवद्ध करके प्रकाशित कराया। इनके फुटकर पद 'वाणी' नाम से संकलित हैं। आदि गुरुग्रन्थ साहिब में इनके चालीस पद और एक दोहा संकलित हैं, जिनकी प्रामाणिकता पर किसी को सन्देह नहीं है। बैलवेडियर प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित रैदासजी की वाणी में 84 पद और 6 साखियों है। आचार्य आजादजी ने विभिन्न शीर्षकों से 198 साखियाँ 'रविदास दर्शन' नाम से और डॉ० बेणीप्रसाद शर्मा ने 177 पद और 49 साखियाँ प्रमाणिक रूप से सम्पादित करने का प्रयास किया है।
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भाषा
रैदास ने अपनी काव्य रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं।
शैली
रैदास की शैली 'गेयात्मक' है, जिसमें उपदेशात्मकता सर्वत्र दिखाई पड़ती है। इन्होंने दोहे, चौपाई तथा पदों की शैली को अपनाकर, उनका सफलतापूर्वक प्रयोग किया। इनकी शैली में सजीवता, स्वाभाविकता, स्पष्टता तथा प्रवाहमयता के दर्शन होते हैं।
साहित्य में स्थान
रैदास एक ज्ञानमार्गी सन्त व श्रेष्ठ कवि थे। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में फैले आडम्बरों का विरोध किया तथा अज्ञान में डूबी हुई मानवता को प्रकाशित किया। रैदास उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक थे। रैदास रचनात्मक दृष्टि से दोनों धर्मों को समान भाव से मानवता के मंच पर लाते हैं।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी
भूमिका (काव्य के विषय में)
रैदास के मन में ईश्वर के प्रति भक्ति का भाव है। रैदास जी स्वयं को ईश्वर का दास समझ बैठे हैं। ईश्वर के प्रति उनको अनन्य भक्ति है। ईश्वर के प्रति इस प्रकार की भक्ति रखने वाले लोग इस संसार के मोह-माया से मुक्त हो जाते हैं।
काव्य संदेश
ईश्वर ने मनुष्य को बनाया न कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया का अर्थ है कि सभी को ईश्वर ने बनाया है और इस पृथ्वी पर समान अधिकार है। ईश्वर हो हर असम्भव कार्य को सम्भव करने की सामर्थ्य रखता है। ईश्वर सदैव श्रेष्ठ और सर्वगुण सम्पन्न रहा है। अतः हमें उस भगवान की शरण में जाना चाहिए क्योंकि वही हमें इस संसार रूपी सागर से पार लगा सकता है। हमें किसी की सिर्फ इसलिए पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह किसी पूजनीय पद पर है। यदि कोई व्यक्ति ऊँचे पद पर तो है पर उसमें उस पद के योग्य गुण नहीं हैं तो उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति जो किसी ऊँचे पद पर तो नहीं है परन्तु उसमें पूजनीय गुण हैं तो उसका पूजन अवश्य करना चाहिए।
काव्य प्रवेश
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।
प्रभु जी तुम घन वन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा ।।