राजपूतकालीन जाति व्यवस्था व आधुनिक जाति व्यवस्था में काफी समानता है। प्राचीन काल से चले आ रहे चार जातियों के अतिरिक्त राजपूत काल में अनुलोम व प्रतिलोम विवाहों तथा जीविकोपार्जन के विभिन्न व्यवसायों के आधार पर, अनेक नवीन जातियों का प्रादुर्भाव हो गया था। लोगों के व्यवसाय के नाम पर ही उनकी जाति का नाम पड़ गया था। उदाहरणार्थ, सोने के व्यवसायी को स्वर्णकार, लोहे का कार्य करने वाले को लुहार कहा जाने लगा। शनैः शनैः इनकी भी उपजातियाँ उत्पन्न हो गईं, जिसने वर्ण-व्यवस्था को अत्यधिक जटिल बना दिया।
ब्राह्मण
समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार भारत में ब्राह्मणों को देवताओं के समान पूजा जाता था। अरब यात्री मसूदी, जिसने दसवी सदी में भारत की यात्रा की थी, ने भी लिखा है कि भारत की समस्त जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ समझे जाते थे। अलबरूनी भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। ब्राह्मण धार्मिक व आध्यात्मिक ज्ञान के विद्वान माने जाते थे। यद्यपि उनका प्रमुख कार्य अध्ययन, अध्यापन, धार्मिक संस्कारों व यज्ञों का अनुष्ठान करना ही था, परन्तु राजपूत युग तक आते-आते वे सैन्य कार्य भी करने लगे थे। जिन व्यवसायों की अनुमति ब्राह्मणों को दी गई थी, उनके अतिरिक्त भी ब्राह्मण वर्ण विभिन्न प्रकार के कार्यों में संलग्न था। राजतरंगिणी तथा राजपूतों के अनेक अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि कुछ ब्राह्मण अच्छे योद्धा थे, कुछ सरकारी कर्मचारी थे व कुछ खेती तथा व्यवसाय करते थे। ब्राह्मणों की भी इस काल में अनेक उपजातियाँ बन गई थीं, जैसे- गौड़, कन्नौजिया, कान्यकुब्ज, सारस्वत, सरयूपारी आदि।
यद्यपि ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था परन्तु डॉ. अल्तेकर का विचार है कि "उन्हें भी राजपूतों के सम्मुख झुकना होता था, यद्यपि उन्हें ऐसा सिर्फ राजपूत अधिकारियों के प्रति ही करना होता था।"
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क्षत्रिय
क्षत्रियों का भी समाज में उच्च स्थान था तथा वह स्वयं को ब्राह्मणों के बराबर ही समझते थे। क्षत्रियों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होने का प्रमुख कारण उनके हाथों में शक्ति का केन्द्रित होना था। क्षत्रियों के विशिष्ट कर्तव्य प्राणियों की रक्षा, शस्त्र द्वारा जीविकोपार्जन, सत्पुरुषों का आदर, दीन-दुःखियों का उद्धार तथा युद्ध-भूमि में कायरता न दिखाना माने जाते थे। क्षत्रियों में देश के प्रति प्रेम, उत्साह व राज्य भक्ति का अद्भुत मिश्रण था।
इस काल की एक महत्वपूर्ण घटना राजपूतों का अभ्युदय है जो सम्भवतः वैदिककालीन क्षत्रियों के ही वंशज थे। बारहवीं शताब्दी तक राजपूतों की 36 जातियों का प्रादुर्भाव हो चुका था।
इस युग में कुछ क्षत्रिय उनके लिए निर्धारित कार्यों के अतिरिक्त, अन्य कार्य भी करते थे। कुछ क्षत्रिय वैश्यों के व्यवसाय (खेती, व्यापार) भी करते थे। ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों में अनेक उपजातियों ने जन्म ले लिया था।
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वैश्य
इस युग में वैश्यों के प्रमुख कार्य कृषि, पशुपालन, व्यापार व वाणिज्य थे। राजा की सेना के साथ वैश्य आवश्यक वस्तुओं की बिक्री करने हेतु यात्रा करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में वैश्यों का प्रमुख कार्य व्यापार ही था व कृषि कार्य प्रायः शूद्र करते थे, यद्यपि शूद्र व वैश्यों की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं था। अलबरूनी ने लिखा है कि "समाज में वैश्यों को वेद सुनने का भी अधिकार न था, परन्तु इस युग के अन्य ग्रन्थों से उक्त कथन की पुष्टि नहीं होती है।" वैश्यों में भी अनेक उपजातियाँ बन गई थीं; जैसे- श्रीमाल, प्रागवाट आदि।
शूद्र
शूद्रों की समाज में स्थिति अच्छी न थी। यद्यपि उनकी आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार हुआ था क्योंकि अधिकांश शूद्र कृषि कार्य करने लगे थे। शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार न था और न ही वे जप अथवा होम करा सकते थे। उच्च जाति के लोग शूद्र की छाया पड़ने पर भी स्वयं को अपवित्र हुआ मानते थे। व्यवसाय के आधार पर शूद्रों की भी अनेक उपजातियाँ बन गई थीं। शूद्रों में भी अत्यंजों की स्थिति और अधिक शोचनीय थी। इन लोगों के जीवन में धर्म, अर्थ व काम का कोई महत्व न था। अलबरूनी के अनुसार चमारों, धोबियों, मल्लाहों, मछुआरों आदि को अत्यंज की श्रेणी में रखा जाता था। अत्यंज गाँवों या शहरों की सीमा के बाहर रहते थे।
कायस्थ
इस युग में कायस्थ नाम की एक नवीन जाति का प्रादुर्भाव हुआ। गुप्त काल में लेखक को कायस्थ कहा जाता था, किन्तु बारहवीं शताब्दी तक आते-जाते व्यवसाय के आधार पर इस जाति को कायस्थ ही कहा जाने लगा। इस जाति की भी अनेक उपजातियाँ बन गई थीं जैसे- सक्सेना, माथुर, गौड़ आदि।
उपरोक्त जातियों के अतिरिक्त भी बारहवीं शताब्दी में भारत में अनेक जातियाँ; जैसे- खत्री (सम्भवतः क्षत्रिय पिता व ब्राह्मण माता की सन्तान), जाट, खस, आभीर, आदि विद्यमान थीं।