राजपूत काल में भारत की कृषि अर्थव्यवस्था क्या थी ?

राजपूत काल : आर्थिक संरचना

राजपूतकालीन आर्थिक संरचना मुख्यतया कृषि पर आधारित थी, किन्तु इस काल में उद्योगों एवं व्यापार का भी पर्याप्त विकास हो चुका था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था जिसका मुख्य आधार कृषि ही था, का शनैः शनैः विकास हुआ था। वैदिक आर्यों के जीवन का मुख्य आधार कृषि व पशुपालन था। कृषि कार्यों में केवल वैश्य वर्ण ही संलग्न रहता था। ब्राह्मणों व क्षत्रियों का इस क्षेत्र में कोई योगदान नहीं था। बौद्ध काल तक कृषि का समुचित विकास हो चुका था। कौटिल्य ने मौर्ययुगीन कृषि व्यवस्था के विस्तार का उल्लेख किया है। गुप्त युग तक कृषि अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गई थी। इस काल में कृषि सम्बन्धी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हो गयी थी। साथ ही सिंचाई सम्बन्धी साधनों का पर्याप्त विकास हो चुका था। पूर्व मध्यकाल अथवा राजपूत युग में कृषि अपने इसी विकसित स्वरूप में विद्यमान थी।

भूमि दान

यद्यपि कृषि क्षेत्र में भूमि-दान की प्रथा गुप्त युग के उपरान्त ही अस्तित्व में आ चुकी थी, किन्तु राजपूत युग में इसका अत्यन्त विकसित रूप देखने को मिला। भूमि-दान की प्रथा का प्रारम्भ सातवाहनों ने किया था। उन्होंने मन्दिरों के रख-रखाव हेतु भूमि के रूप में धार्मिक अनुदान देना आरम्भ किया। प्रारम्भ में यह भूमि ब्राह्मणों एवं भिक्षुओं को दान में दी जाती थी। अनुदान में प्राप्त भूमि करों से मुक्त होती थी। यद्यपि प्रारम्भ में यह भूमि अनुदान धार्मिक भावना से प्रेरित था, किन्तु बाद में सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कार्यों के लिए भी भूमि-अनुदान दिया जाने लगा। कालान्तर में इन अनुदानों ने राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया तथा राज्य सेवाओं के बदले भूमि- अनुदान किया जाने लगा। राज्य कर्मचारियों को वेतन के बदले भूमि देने की प्रथा प्रारम्भ हो गई। भूमि प्राप्तकर्ता अपनी भूमि पर कर वसूलने के लिए स्वतन्त्र थे। शनैः शनैः निजी लाभ के लिए वे करों की मात्रा में वृद्धि करते चले गये तथा अपनी निजी सेना भी रखने लगे। इस प्रकार 'जागीरदारी प्रथा' (सामन्तवाद) का प्रारम्भ हुआ। इसका परिवर्तित स्वरूप ही बाद में 'जमींदारी प्रथा' कहलाया। सामान्यतया तीन प्रकार की भूमि होती थी- 

  • प्रथम श्रेणी की भूमि' परती भूमि' कहलाती थी तथा उस पर राज्य का स्वामित्व होता था। यह भूमि वेतन के रूप में दी जाती थी। 
  • द्वितीय श्रेणी की भूमि सर्वाधिक उपजाऊ होती थी तथा उस पर भी राज्य का ही स्वामित्व होता था। सामान्यतया यह भूमि दान के रूप में नहीं दी जाती थी। 
  • तृतीय श्रेणी की भूमि निजी स्वामित्व में थी।

प्रारम्भ में अनुदान में प्राप्त भूमि के स्वामियों को उस भूमि पर केवल कर वसूलने का अधिकार था किन्तु बाद में उन्हें उस भू-क्षेत्र के कृषकों एवं नागरिकों पर दीवानी, फौजदारी एवं न्यायिक अधिकार भी प्राप्त हो गये। भूमि का विक्रय कर देने पर ये समस्त अधिकार नये स्वामी को हस्तान्तरित हो जाते थे। भूमि अनुदान की इस प्रथा एवं सम्बन्धित अधिकारों ने सामन्तवाद के विकृत स्वरूप को जन्म दिया जिसमें भूमि पर आश्रित लोगों के हितों की पूर्ण अवहेलना की जाती थी। लोगों के प्रति उत्तरदायित्व का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इसके विपरीत शोषण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला। कृषि पर अत्यधिक निर्भरता ने कृषकों की संख्या एवं शोषण की मात्रा में भी वृद्धि कर दी। भूमि का विक्रय होने पर काश्तकार भी नये स्वामी को हस्तान्तरित हो जाते थे जिसके परिणामस्वरूप काश्तकारों को निकाले जाने, बंधुआ मजदूर एवं बेगार आदि की प्रथा का प्रारम्भ हुआ। शोषण की इस प्रक्रिया में न केवल कृषक को वरन् उसकी पत्नी व बच्चों को भी बेगार के लिए विवश किया जाता था। समाज स्पष्टतया दो वर्गों में विभक्त हो गया था सम्पन्न वर्ग (Haves) एवं निर्धन वर्ग (Have-nots)। राजा आर्थिक एवं सैनिक सहायता के लिए इन भू-स्वामियों पर अधिकाधिक आश्रित होता चला गया। इसके परिणामस्वरूपं विघटन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला।

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कृषि विस्तार

भूमि अनुदान की प्रथा के राजनीतिक परिणाम भले ही नकारात्मक रहे हों, किन्तु इस व्यवस्था से कृषि विस्तार को अवश्य प्रोत्साहन मिला। अनुदान में प्राप्त बिना जुती हुई भूमि की जुताई योग्य बनाने के प्रयास किये गये। कृषि विस्तार का एक अन्य पहलू यह था कि कृषि उत्पादन की वस्तुओं में विधिवता आई। अनाज, फल, फूल, सब्जियाँ आदि सभी कुछ उगाया जाने लगा। कृषि विस्तार की दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम यह था कि सिंचाई हेतु यद्यपि प्राकृतिक साधन तो थे ही, किन्तु साथ ही विभिन्न कृत्रिम साधनों का भी प्रयोग किया गया। कुओं, तालाबों, नहरों व झीलों का निर्माण किया गया। साथ ही बाढ़-नियन्त्रण हेतु बाँध निर्मित किये गये।

भूमि-राजस्व राजा या जागीरदार की आय का प्रमुख स्रोत भूमि-राजस्व था। भू-राजस्व की दर विभिन्न क्षेत्रों में पृथक् पृथक् थी। सामान्यतया उपज का 1/6 भाग लिया जाता था, किन्तु आर्थिक दबाव की स्थिति में यह दर 1/3 तक बढ़ा दी जाती थी। भूमि-पैमाइश की भी विभिन्न प्रणालियाँ प्रचलित थीं। कृषकों से अन्य प्रकार के कर भी लिए जाते थे यथा भाग, भोग, बलि, हिरण्य, उद्रंग, उपरिकर, उद्रक भाग, प्रतिभाग आदि। अन्न एवं धन दोनों रूपों में कर वसूल किया जाता था। पहले यह कर ग्राम पंचायतों द्वारा वसूल किया जाता था किन्तु राजपूत काल में कर सामन्तों एवं राजकर्मचारियों द्वारा एकत्रित किये जाते थे। अस्थायी कृषकों से लिया जाने वाला भूमि कर 'सस्कन्धक' कहलाता था।

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विभिन्न राजपूत राजवंशों के अधीन कृषि व्यवस्था

गुजरात के चालुक्यों की आर्थिक दशा अच्छी थी। उनका मुख्य व्यवसाय भी कृषि था। अधिकतर शूद्र ही खेती करते थे किन्तु शूद्रों के अतिरिक्त ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के पास भी अपनी भूमि थी। यद्यपि भू-स्वामी किसी भी वर्ण से सम्बन्धित हो सकते थे किन्तु श्रमिक केवल शूद्र वर्ण से ही सम्बन्धित होते थे। मुख्य पैदावार गेहूँ, जौ व चावल की थी। इसके अतिरिक्त आम व सेब भी उत्पन्न किये जाते थे। कृषि देश में पशुपालन भी एक स्वाभाविक बात है। लोग गाय, भैंस, बकरी, घोड़े, हाथी इत्यादि पालते थे।

चोल युग भी आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध था। कृषि अत्यन्त उन्नत अवस्था में थी। कृषि-उत्पादन को बढ़ाना एवं कृषि भूमि का विस्तार राजा के हित में था। यही कारण था कि सिंचाई सुविधाओं के विस्तार, बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना एवं जंगलों को साफ करके कृषि योग्य बनाने आदि कार्यों की ओर राज्य द्वारा विशेष ध्यान दिया जाता था। इस काल में दो प्रकार की भूमि थी प्रथम प्रकार की भूमि पंचायत के अधिकार में रहती थी तथा द्वितीय प्रकार की भूमि पर निजी स्वामित्व होता था। निजी स्वामित्व की भूमि भी दो प्रकार की होती थी'ब्रह्मदेय' एवं 'देवदेय'। ब्राह्मणों को दान में दी गई भूमि 'ब्रह्मदेय' तथा मन्दिरों को दान में दी गई भूमि 'देवदेय' कहलाती थी। राज्य के स्वामित्व की भूमि 'प्रभुमान्यम्' कहलाती थी।

चोल युग में कृषि से सम्बद्ध व्यक्तियों की दो श्रेणियाँ थीं 'आसामी कृषक' एवं 'खेत मजदूर'। आसामी कृषकों को भूमि का लगान देना पड़ता था जबकि खेत मजदूरों को नहीं। खेत मजदूरों को ग्राम सभा में सम्मिलित नहीं किया जाता था। खेत मजदूरों की स्थिति कृषक दासों के समान थी। ये खेत मजदूर निम्न जाति से सम्बन्धित होते थे। यद्यपि ये मन्दिरों के खेतों में कार्य करते थे किन्तु इन्हें मन्दिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी।

चोल राजाओं ने सिंचाई की भी समुचित व्यवस्था की थी। उन्होंने नदियों के ऊपर बाँध निर्मित कराये तथा अनेक नहरों का निर्माण कराया। राजेन्द्र प्रथम ने अपनी राजधानी 'गंगईकौंड चोलपुरम्' के निकट एक जलकुण्ड का निर्माण कराया जिसमें 'कोलेरन' एवं 'वेल्डर' नामक नदियों का जल सिंचाई हेतु एकत्रित किया जाता था। इस जलकुण्ड से कृषक अत्यधिक लाभान्वित हुए। चोल राजाओं ने सड़कों के निर्माण की ओर भी विशेष ध्यान दिया।

पल्लव शासनकाल की कृषक अर्थव्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए ह्वेनसांग लिखता है कि, "काँची नगर तथा इसके आस-पास के समस्त पल्लव क्षेत्रों की भूमि बड़ी ही उपजाऊ है तथा यहाँ की जलवायु भी उन्नतिशील है। यहाँ फलों की अच्छी पैदावार होती है तथा यहाँ की जलवायु उष्ण है।" स्पष्ट है कि पल्लव काल में भी कृषि की दशा उन्नत थी। भूमि एवं सिंचाई के साधनों की अच्छी व्यवस्था थी। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था किन्तु इसके अतिरिक्त भी 18 प्रकार के कर ग्रामों से प्राप्त होते थे।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि यद्यपि राजपूत काल में कृषि उन्नत अवस्था में थी, किन्तु कृषकों की दशा विशेष अच्छी नहीं थी। इस काल की कृषि अर्थव्यवस्था में भावी विकास की सम्भावनाएँ अत्यन्त सीमित थीं।

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