राजपूत काल में उद्योग एवं व्यापार
यद्यपि राजपूत काल में भी लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि ही था, किन्तु इस काल में विभिन्न उद्योगों एवं व्यापार ने भी पर्याप्त प्रगति की। इस काल में वस्त्र उद्योग, धातु उद्योग, बुनाई उद्योग, इस्पात उद्योग आदि विशेष रूप से विकसित हुए। यातायात के साधनों के विकास ने भी इस ओर सकारात्मक योगदान दिया। राजपूत काल में व्यापार के विकास में वैश्य वर्ण की प्रमुख भूमिका रही। व्यापारिक संघ अत्यधिक शक्तिशाली थे। प्राचीन काल की भाँति व्यापार अत्यधिक उन्नत अवस्था में था।
उद्योग धन्धे एवं हस्तकला
राजपूत काल में पुशपालन भी एक प्रमुख उद्यम था। गाय, भेड़, बकरी, खच्चर, बैल, सुअर आदि पालतू पशु थे। पशुओं के जीवित रहने पर दूध, मक्खन आदि प्राप्त किये जाते थे तथा उनके मरणोपरान्त चर्म, हड्डी आदि काम में लाये जाते थे। अन्य उद्योग-धन्धों में कताई, बुनाई गृह-निर्माण, अस्त्र-शस्त्र निर्माता एवं सुनार आदि आते थे। इस काल में भारत का वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। कहा जाता था कि जैसे महीन व सुन्दर कपड़े भारत में बुने जाते हैं वैसे अन्यत्र नहीं। वे इतने महीन होते हैं कि पूरा थान एक अँगूठी से होकर निकल जाता है। कारीगर व्यवसाय के आधार श्रेणियों (Guids) में संगठित हो गये थे तथा व्यवसाय के आधार पर श्रेणियों के नाम रखे गये थे। उल्लेखनीय है कि श्रेणियों का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से रहा था। पूर्व काल में श्रेणियाँ संगठित संस्थाएँ थीं किन्तु राजपूत काल में राजनीतिक विषमता के कारण इन श्रेणी संगठनों ने अपने-अपने व्यवसायों को एक महत्वपूर्ण दिशा देने का प्रयास किया था।
व्यापार, (Trade)
राजपूत काल में आन्तरिक एवं विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार समुन्नत अवस्था में था। इस काल में भारत अपने वैभव, बहुमूल्य वस्तुओं, रेशम, मलमल, हाथी दाँत, मसालों एवं हीरे मोती आदि के लिए विश्वभर में विख्यात था। मौर्यकाल में आन्तरिक अथवा अन्तर्देशीय व्यापार का पर्याप्त विकास हो चुका था तथा सम्पूर्ण भारत में एक सिरे से दूसरे सिरे तक लम्बे व्यापारिक मार्ग बन चुके थे। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में आन्तरिक व्यापार सार्थों अथवा काफिलों द्वारा होता था। विदेशी व्यापार, विशेषकर सामुद्रिक व्यापार भी पर्याप्त विकसित था। पहले यह सामुद्रिक व्यापार पश्चिम के साथ विकसित था किन्तु राम साम्राज्य के पतन के उपरान्त विदेशी व्यापार का केन्द्र चीन बन गया। सातवीं शताब्दी ई. तक भारत का विदेशी व्यापार फलता-फूलता रहा। सातवीं शताब्दी के उपरान्त व्यापार का ह्रास होने लगा क्योंकि कोई केन्द्रीय शक्ति नहीं रह गई थी। शनैः शनैः सामुद्रिक मार्गों पर अरबों का अधिकार होता गया।
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व्यापारिक मार्ग
प्राचीन भारत में मौर्यकाल तक ही सम्पूर्ण भारत में एक सिरे से दूसरे सिरे तक लम्बे व्यापारिक मार्ग बन चुके थे। गुप्त काल में भी ये व्यापारिक मार्ग पूर्ण सुरक्षित थे। राजपूत काल में भी यह व्यवस्था कायम रही। अन्तर्देशीय व्यापार काफिलों द्वारा होता था। काफिले (सार्थ) स्थान, मार्गों द्वारा बैलगाड़ियों से तथा जलमार्गों द्वारा नावों से सामान ले जाते थे। सार्थ का नेता 'सार्थवाह' कहलाता था। प्रचुर उत्पादन वाले स्थानों से सामग्री अभाव वाले स्थानों तक ले जाई जाती थी।
सातर्वी शताब्दी में विदेशी व्यापार भी पर्याप्त रूप से विकसित था। ताम्रलिपि व पूर्व के अन्य बन्दरगाहों से भारतीय जहाज लंका, हिन्द महासागर के द्वीपों, मलय, चम्पा, कम्बोज व चीन आदि स्थानों तक जाते थे। इसी प्रकार पश्चिमी तट के भरुकच्छ आदि बन्दरगाहों से भारतीय जहाज अफ्रीका, यूरोप व पश्चिमी एशिया जाते थे। सातवीं शताब्दी के उपरान्त भारत का सामुद्रिक व्यापारिक मार्गों पर नियन्त्रण कमजोर हो गया तथा इन मार्गों पर अरबों का अधिकार हो गया।
चोल युग में दक्षिणी भारत आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध था। जल व स्थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। बन्दरगाह व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। कावेरी नदी के मुहाने पर स्थित बन्दरगाह विशेष प्रसिद्ध था। इसके निकट ही यूनानी बन्दरगाहों की बस्तियाँ भी थीं। विदेशी व्यापारियों के निवास स्थान भी इस बन्दरगाह के निकट थे। भारत से माल सुदूर देशों को भेजा जाता था। बंगाल की खाड़ी प्रमुख व्यापारिक मार्ग था तथा' चोलों की झील' के नाम से प्रसिद्ध था।
व्यापार व हस्तकला में संलग्न
श्रेणी संगठन प्राचीन भारत में उद्योगों एवं व्यापार के क्षेत्र में कतिपय छोटी-छोटी समितियाँ थीं जिन्हें श्रेणी कहा जाता था। इन श्रेणियों का कार्य सभासदों द्वारा चलाया जाता था। सभासद कोई योग्य व ईमानदार व्यक्ति था जिसकी सहायतार्थ प्रायः पाँच सदस्य होते थे। श्रेणी का एक लिखित संविधान होता था। श्रेणियों में जनता अपना धन भी जमा कराती थी इसके लिए उनको ब्याज मिलता था। जमाकर्ता की मृत्यु होने पर धन ब्याज सहित उसके उत्तराधिकारियों को लौटा दिया जाता था। उत्तराधिकारी न होने पर धन श्रेणी के सदस्यों में बाँट दिया जाता था। व्यापारियों एवं श्रमिकों सभी की श्रेणियाँ होती थीं। श्रेणी का अध्यक्ष 'श्रेष्ठि' कहलाता था। शनैः शनैः ये श्रेणियाँ सुसंगठित होती चली गईं तथा राजपूत युग में ये श्रेणियाँ पर्याप्त विकसित रूप में विद्यमान थीं।
उद्योगों की तीव्र विकास के परिणामस्वरूप औद्योगिक क्षेत्र में श्रम-विभाजन व विशेषीकरण की समस्या उत्पन्न हुई। उद्योगों के स्थानीकरण से व्यवसायियों को एक स्थान पर बसने एवं पूर्वजों के व्यवसायों को अपनाने की प्रेरणा मिली। इसी भावना के तहत व्यावसायिक संगठनों का जन्म हुआ। व्यापार एवं हस्तकला के क्षेत्र में अनेक संघ अस्तित्व में आये। सामान्यतया एक ही व्यवसाय करने वाले अपना एक 'संघ' या 'श्रेणी' बना लेते थे। यह श्रेणी आधुनिक व्यावसायिक संघ के सामन होती थी। कई बार विविध श्रेणियाँ स्वलाभ की दृष्टि से एक बड़े संघ में संगठित हो जाती थीं जिन्हें 'महासंघ' तथा उनके अध्यक्ष को 'महाश्रेष्ठिन' कहा जाता था।
संघों में संगठित हो जाने से शिल्पियों को पर्याप्त राजनीतिक व आर्थिक शक्ति प्राप्त हो गई थी। संघों को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होती थी। पूर्व मध्य युग में व्यापारियों की तीन प्रमुख श्रेणियाँ थीं-
- प्रास्तारिक- ये विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों का व्यापार करते थे।
- सांस्थानिक विभिन्न पशुओं का व्यापार करते थे।
- कठिनान्तिक- ये बाँस, लाख, चमड़ा आदि वस्तुएँ बेचते थे। कारीगरों की प्रमुख श्रेणियाँ निम्नलिखित थीं-कुलाल (कुम्हार), कर्मकार (लुहार), नापित (नाई), मणिकार (जौहरी), हिरण्यकार (स्वर्णकार), शिल्पकार (मूर्तिकार, सूचीकार (सुई बनाने वाला) आदि।
चोल राज्य के व्यापार तन्त्र का उल्लेख करते हुए रोमिला थापर ने लिखा है, "व्यापार का नियन्त्रण वणिक श्रेणियाँ करती थीं जिनमें 'मणिग्रामम' एवं 'बलंजियार' अधिक विख्यात था और इस काल के आर्थिक जीवन में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। वे व्यापारियों के द्वारा अपने व्यापार की रक्षा के लिए संगठित संस्थाएँ थीं।" व्यापारियों की स्थानीय श्रेणियों को 'नगरम्' कहा जाता था। उत्पादित माल को खरीदकर उसके विक्रय का प्रबन्ध करना इन श्रेणियों का ही कार्य था।
राजपूतकालीन शिलालेखों व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में 505 वणिकजनों के संगठन थे तथा 99 जिलों के 18 उपमण्डलों के वणिकजनों के सम्मेलन का वर्णन भी मिलता है। यद्यपि अभिलेखों से इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है किन्तु साहित्यिक कृतियाँ इस सम्बन्ध में खामोश हैं। पूर्व मध्यकाल में राजनीतिक विषमता के कारण श्रेणी संगठन कमजोर हो गये थे।
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नगरीय व्यवस्था
भारत में प्रारम्भ से ही आर्थिक जीवन का प्रमुख आधार कृषि था किन्तु शनैः शनैः व्यापार का विकास होने के परिणामस्वरूप नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। प्रतिक्रियास्वरूप गाँवों की स्थिति में भी परिवर्तन आया। नगरों के विकास के परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थों के अधिक उत्पादन की आवश्यकता हुई। परमार काल में मालवा पठार में बीस, आन्ध्र में सत्तर तथा चाहमान राज्य में इकत्तीस व्यापारिक नगर थे। ये व्यापारिक नगर विभिन्न व्यापारिक मार्गों से परस्पर सम्बद्ध थे। इस काल के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि नगरों में मण्डियों एवं हाटों की भी पूर्ण व्यवस्था थी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि नगरीय व्यवस्था गत्यात्मकता एवं कार्य-कलापों से परिपूर्ण थी।
विनिमय का स्वरूप
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस काल में विनिमय के साधन के रूप में अनेक सिक्के प्रचलित थे जैसे कि सोने का 'स्वर्ण', चाँदी का 'रुप्यक' व 'दुम्म', ताँबे का 'पूषण', दीनार एवं निष्क। राजपूत काल में व्यापारिक श्रेणियों की अपनी मोहरें व सिक्के होते थे। उनकी मोहरों को सर्वत्र मान्यता प्राप्त थी।
सूद (ब्याज) एवं मजदूरी
इस काल में व्यापारिक श्रेणियाँ बैंक का भी कार्य करती थीं। ये श्रेणियाँ आवश्यकता पड़ने पर लोगों को ऋण देती थीं तथा ब्याज के साथ धन वसूल करती थीं। श्रेणियाँ बाजारों में वस्तुओं के मूल्यों पर भी नियन्त्रण रखती थीं। चोल राज्य में मन्दिर पूँजी निवेशक के रूप में कार्य करते थे। नियमित आज की प्राप्ति हेतु विभिन्न व्यापारिक उद्योगों में मन्दिर की पूँजी का निवेश किया जाता था। इस प्रकार मन्दिर बैंक एवं महाजन के रूप में कार्य करते थे। ब्याज की दर 12% थी।
जहाँ तक मजदूरी अथवा वेतन का प्रश्न है तो सेवाओं के बदले भूमि-अनुदान देने की प्रथा आरम्भ हो गई। इस प्रथा के अनुसार वेतन के स्थान पर भूमि अनुदान में दी जाती थी। भूमि प्राप्तकर्त्ता कर वसूलने के लिए पूर्णतया स्वतन्त्र थे। इस प्रकार के बदले भूमिदान की प्रथा ने जागीरदारी प्रथा को जन्म दिया।