पृथ्वीराज चौहान की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।.

विग्रहराज के पश्चात् उसके पुत्र अपरगांगेय ने कुछ समय शासन किया किन्तु शीघ्र ही जग‌देव के पुत्र पृथ्वीराज द्वितीय (1164-1169 ई.) ने उनकी हत्या कर दी व स्वयं शासक बन गया। उसने 1169 ई. तक शासन किया। तत्पश्चात् पृथ्वीराज द्वितीय के चाचा सोमेश्वर ने शासन किया। उसने 1169 ई. से 1177 ई. तक शासन किया।

पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.) 

सोमेश्वर के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीराज चाहमान-साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। पृथ्वीराज इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी राजा प्रमाणित हुआ। सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के समय उसकी आयु ग्यारह वर्ष की थी, अतः पृथ्वीराज के शासक बनने पर उसकी माता कर्पूरीदेवी ने संरक्षिका के रूप में कार्य किया। कर्पूरीदेवी को संरक्षिका के रूप में शासन करने में मुख्यमंत्री कदम्बवास ने उसकी सहायता की। कदम्बवास अत्यन्त योग्य, वीर व स्वामिभक्ति था। भुवनैक मल्ल नामक एक अन्य मंत्री ने भी उसकी पर्याप्त सहायता की। पृथ्वीराज को उसके प्रारम्भिक युद्धों में सफलता दिलाने का श्रेय कदम्बवास व भुवनैकमल्ल को ही है। 

पृथ्वीराज विजय के अनुसार, "इन दोनों ने पृथ्वीराज की वैसे ही सेवा की जैसे गरुड़ व हनुमान ने श्रीराम की की थी।"

(i) पृथ्वीराज की नीति- 

पृथ्वीराज ने 1180 ई. के लगभग शासन की वागडोर अपने हाथों में ली। शीघ्र ही उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। अनेक शक्तिशाली राजा उसके प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे, अतः इसके लिए आक्रामक नीति अपनाना अत्यन्त आवश्यक था। इसके अतिरिक्त, युवा पृथ्वीराज अत्यन्त महत्वाकांक्षी था, अतः उसने शासक बनते ही आक्रामक नीति का पालन किया व अपनी मृत्यु तक इसी नीति पर चलता रहा।

(ii) नागार्जुन के विद्रोह का दमन-

विग्रहराज चतुर्थ के पुत्र नागार्जुन ने पृथ्वीराज के विरुद्ध 1180 ई. में विद्रोह किया व गुड़पुर पर अधिकार कर लिया। नागार्जुन को प्रारम्भ में सफलता प्राप्त हुई व उसने कुछ दिन अजमेर पर शासन भी किया। शीघ्र ही पृथ्वीराज ने कदम्बवास के नेतृत्व में विशाल सेना इस विद्रोह को दबाने के लिए भेजी। नागार्जुन ने स्वयं को दुर्ग में सुरक्षित रखना चाहा किन्तु शीघ्र ही उसे अपने प्राणों की रक्षा के लिए भागना पड़ा। नागार्जुन के सम्बन्धी बन्दी बनाये गये। नागार्जुन के सैनिक यद्यपि देवभट्ट के नेतृत्व में युद्ध करते रहे किन्तु शीघ्र ही उन सबको मौत के घाट उतार दिया गया।

(iii) भण्डानक विजय- 

1182 ई. में भण्डानकों ने विद्रोह किया। इनके राज्य में भिवानी तहसील, रिवाड़ी तहसील व अलवर के कुछ भाग आते थे। पृथ्वीराज ने इन पर विजय प्राप्त कर इस विद्रोह को दबाया।

(iv) चन्देलों से युद्ध- 

पृथ्वीराज तृतीय का समकालीन चन्देल शासक परमर्दी था। 'पृथ्वीराजरासो' से ज्ञात होता है कि चाहमान शासक ने चन्देलों की राजधानी पर विजय प्राप्त की, जिसमें चन्देल शासक की ओर से आल्हा व ऊदल ने भी युद्ध में भाग लिया था। पृथ्वीराज ने चन्देलों पर विजय प्राप्त की इसकी पुष्टि मदनपुर अभिलेखों से होती है। पृथ्वीराज चन्देल साम्राज्य पर अधिक समय तक अधिकार न रख सका व परमर्दी ने कुछ समय पश्चात् पुनः अधिकार कर लिया।

(v) गुजरात पर आक्रमण- 

पृथ्वीराजरासो से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर व चौलुक्य शासक भीम के मध्य संघर्ष हुआ था जिसमें भीम द्वितीय ने सोमेश्वर की हत्या कर दी थी व नागौर पर अधिकार कर लिया था। पृथ्वीराज ने शासक बनने पर अपने पिता की पराजय का प्रतिशोध भीम की हत्या करके लिया। 'पृथ्वीराजरासो' का यह वर्णन प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता क्योंकि भीम के शासक बनने से पूर्व ही सोमेश्वर की मृत्यु हो चुकी थी। चौलुक्य विवरणों से ज्ञात होता है कि चौलुक्यों व चाहमानों के मध्य संघर्ष 1184 ई. के पश्चात् हुआ।

(vi) गहड़वालों से सम्बन्ध- 

पृथ्वीराज चौहान का समकालीन गहड़वाल शासक जयचन्द्र था। इनके पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में 'पृथ्वीराजरासो' से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस ग्रन्थ में पृथ्वीराज के द्वारा जयचन्द्र को परास्त किये जाने का उल्लेख मिलता है। जयचन्द्र भी एक शक्तिशाली शासक था, उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया व इसी अवसर पर अपनी पुत्री संयोगितां के स्वयंवर की भी व्यवस्था की। चाहमान शासक पृथ्वीराज को इसमें आमन्त्रित नहीं किया गया था, किन्तु पृथ्वीराज ने संयोगिता का अपहरण कर लिया फलतः दोनों में वैमनस्य और भी बढ़ गया। डॉ. दशरथ शर्मा ने स्वयंवर की घटना की ऐतिहासिकता में सन्देह व्यक्त किया है। जयचन्द्र व पृथ्वीराज के मध्य किसी युद्ध होने का निश्चिय प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।जयचन्द्र व पृथ्वीराज के मध्य इस शत्रुता का लाभ मुहम्मद गोरी को हुआ।

(vii) तुर्कों से संघर्ष-

मुहम्मद गोरी 1173 ई. में गजनी का गवर्नर नियुक्त हुआ था। 1175 ई. में उसने भारत का प्रथम अभियान किया तथा गुजरात पर आक्रमण कर वहाँ लूटपाट की। 1181 ई. में गोरी ने सियालकोट में एक दुर्ग का निर्माण कराया तथा 1186 ई. में उसने पंजाब पर अधिकार कर लिया। यद्यपि 'हम्मीर महाकाव्य' व 'पृथ्वीराज विजय' में उल्लेख है कि पृथ्वीराज ने लगभग सात बार गोरी को परास्त किया था, किन्तु इस वर्णन को प्रामाणिक स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(अ) तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)- गोरी व पृथ्वीराज की सेनाओं के मध्य प्रथम युद्ध 1191 ई. में तराइन के मैदान (थानेश्वर से 14 मील दूर) में हुआ था। गोरी सरहिन्द पर अधिकार कर लेने के पश्चात् आगे बढ़ा तो पृथ्वीराज ने तराइन के मैदान में उसका सामना करने का निर्णय किया। गोरी के आक्रमण की विभीषता एवं अत्याचार का वर्णन चन्द्रराज (दिल्ली के गवर्नर गोविन्दराज का पुत्र) ने इस प्रकार किया, "गोरी ने उसको लूटा एवं जला दिया, नारियों का अपमान किया व उन सबकी दुर्दशा कर दी है। अनके राजपूत घराने उनके सामने नष्ट हो गये हैं या भाग गये हैं।" 

इस वर्णन को सुनकर दुःखी पृथ्वीराज ने तुरन्त गोरी का तराइन के मैदान में सामना किया। पृथ्वीराज की सेना के भीषण आक्रमण व विशाल संख्या के समक्ष गोरी के सैनिक टिक न सके। शीघ्र ही गोरी की सेना पराजित होकर भागने पर विवश हुई। गोरी भी घायल हुआ किन्तु किसी प्रकार युद्ध क्षेत्र से भागने में सफल हो गया। पृथ्वीराज ने भागती हुई तुर्क सेना का राजपूतानी आन के कारण पीछा न किया, किन्तु यह उसकी बहुत बड़ी भूल थी। उसे गोरी की सेना का पीछा करके उसे पूर्णतः नष्ट कर देना चाहिए था। पृथ्वीराज को इस गलती का परिणाम शीघ्र ही भुगतना पड़ा।

(ब) तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)- गोरी अपनी इस अपमानजनक पराजय को भूल न सका। उसने पुनः युद्ध की तैयारी की व गजनी से एक लाख तीस हजार चुने हुए घुड़सवारों के साथ भारत की ओर प्रस्थान किया व पुनः तराइन के मैदान तक पहुँचकर पृथ्वीराज को सन्देश भिजवाया कि वह इस्लाम धर्म को स्वीकार कर ले, किन्तु पृथ्वीराज प्रत्युत्त में सेना सहित उसके सम्मुख जा पहुँचा। पृथ्वीराज ने गोरी को पत्र लिखकर सूचित किया कि यदि वह वापस लौट जाये तो वह गोरी को हानि नहीं पहुँचायेगा। गोरी ने धूर्तता से काम लिया। उसने पृथ्वीराज को कहलवाया कि वह अपने भाई की आज्ञा से भारत पर आक्रमण करने आया है, अतः उसने आज्ञा लेना आवश्यक है तथा मैं अपने भाई के पास सन्देश भेज रहा हूँ।

इस पत्र के प्राप्त होने पर पृथ्वीराज की सेना विश्राम करने लगी तब गोरी ने अचानक उस पर आक्रमण कर दिया। पृथ्वीराज की सेना में अचानक हुए इस आक्रमण से भगदड़ मच गयी, किन्तु पृथ्वीराज ने स्थिति को नियन्त्रण में कर गोरी को पीछे हटने पर विवश किया। गोरी ने पुनः कूटनीति से कार्य किया व अपनी सेना कई भागों में विभाजित कर दिन निकलने से पूर्व ही आक्रमण कर दिया। यद्यपि राजपूत सेना ने भयंकर युद्ध किया किन्तु उन्हें परास्त होना पड़ा। पृथ्वीराज को बन्दी बनाया गया, तथा एक लाख भारतीय सैनिक मारे गये। पृथ्वीराज की भी बाद में हत्या कर दी गयी।

इस प्रकार शक्तिशाली शासक पृथ्वीराज का दुःखद अन्त हुआ। तराइन के द्वितीय युद्ध में उसके पराजित होने के प्रमुख कारणों में, गोरी द्वारा छल की नीति, जयचन्द्र से पृथ्वीराज को सहायता प्राप्त न होना व पृथ्वीराज का तराइन के प्रथम युद्ध के पश्चात् विलासी हो जाना था।. पृथ्वीराज निःसन्देह एक योग्य सेनापति था, किन्तु उसमें राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी थी। यही कारण था कि वह अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए भी पराजित हो गया। तराइन के द्वितीय युद्ध के विषय में विभिन्न विद्वानों की प्रतिक्रियाएँ इस प्रकार हैं- 

डॉ. डी.सी. गांगुली के अनुसार- "तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय ने न केवल चाहमानों की राजशक्ति को समाप्त कर दिया वरन् भारत के लिए भी दुर्दशा का कारण बनी।" प्रो. हेमचन्द्र राय के शब्दों में, "इस युद्ध ने शाकम्भरी के चाहमानों के प्रभुत्व को यथार्थ में समाप्त कर दिया।" हेग के अनुसार, इस विजय द्वारा मुहम्मद (गोरी) को दिल्ली के द्वारा लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत प्राप्त हो गया।"

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