प्राचीन भारत में भागवत धर्म, ब्राह्मण धर्म और शैव धर्म का उदय और विकास

भागवत धर्म

भागवत धर्म की उत्पत्ति जैन एवं बौद्ध धर्म के उदय के काल में ही हुई। भागवत धर्म में विष्णु को सर्वोच्च्च भगवान् माना गया है। इस मत में यज्ञ एवं कठोर तपस्या को कोई स्थान प्रदान नहीं किया गया और भक्ति को मोक्ष अथवा निर्वाण का साधन माना गया है। विष्णु का छिट-पुट सन्दर्भ हमें ऋग्वेद में भी मिलता है, परन्तु उत्तर वैदिक काल में देवी-देवताओं में विष्णु को महत्वपूर्ण स्थान मिला और उपनिषदों एवं पुराणों ने भी विष्णु को अत्यधिक गौरवशाली स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया। पुराणों के समय तक तो विष्णु की भक्ति अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी। इस मत के विकास के साथ-साथ पूर्व वैदिककालीन देवता जैसे सवितृ का तो महत्व बिल्कुल समाप्त हो गया, वरुण इत्यादि पृष्ठभूमि में चले गये एवं सूर्य का अस्तित्व अन्य देवताओं में मिल-जुल-सा गया। भगवद्‌गीता, जो कि श्री कृष्ण के द्वारा महाभारत के दौरान धर्मयुद्ध के सम्बन्ध में दिया गया। उपदेश इस मत का दार्शनिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक आधार है। आत्मा की मुक्ति अथवा निर्वाण इस मत का अन्तिम लक्ष्य है जो ज्ञान, भक्ति अथवा कर्म के द्वारा पृथक् पृथक् अथवा तीनों के माध्यम से सम्भव है, परन्तु भक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान है।

भागवत धर्म में ज्ञान का अर्थ है कि आत्मा आकारहीन, रूपहीन एवं अमर है। न इसको बाणों से भेदा जा सकता है और न अग्नि के द्वारा जलाया जा सकता है और इनसे उत्पन्न किया जा सकता है, परन्तु इससे भक्ति सम्भव है। ईश्वर पर सर्वोच्च आत्मा है जिसका एक भाग है पृथक् पृथक् आत्माएँ। कर्म का अर्थ है वस्तुओं को जिस रूप में वे हैं स्वीकार करना, धर्म के नियमों के आधार पर जीवन यापन करना अर्थात् निश्चित मूल्यों पर आधारित जीवन। गीता में कार्य पर अत्यधिक महत्व दिया गया है और निरन्तर इसी बातt को दोहराया गया है कि व्यक्ति को फल की आकांक्षा किए बिना निरन्तर कर्मगत रहना चाहिए। व्यक्ति के अच्छे कर्म ही उनकी निर्वाण-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। तीसरा पक्ष है भक्ति जिसका अर्थ सामूहिक पूजा अथवा प्रार्थना से नहीं है वरन् समस्त चीजों से हटकर पूर्ण आस्था एवं विश्वास के साथ ईश्वर की अडिग भक्ति है। कृष्ण ने गीता में सब कुछ त्यागकर इसी बात का अवलम्बन करने का उपदेश दिया है।

भागवत मत वैदिक धर्म के घोर कर्मकाण्ड के प्रतिक्रिया के स्वरूप जन्मा। इसमें पशु-बलि आदि की निन्दा की गयी है एवं आत्मसंयम एवं अनुशासन को विशेष महत्व दिया गया है। इस धर्म में अवतारवाद की धारणा को मान्यता दी गयी है एवं यह विश्वास है कि धर्म की हानि होने पर धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। भागवत धर्म में विष्णु को परमब्रह्म माना गया है जिसमें बाद में वासुदेव कृष्ण को भी एक अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया। वैष्णव धर्म इसी भागवत धर्म का परवर्ती रूप है जिसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों का वर्णन है जिसमें से दसवाँ एवं अन्तिम अवतार अभी होने को है। ऐसा विश्वास है कि इस अवसर पर विष्णु कल्कि के रूप में सफेद घोड़े पर चढ़कर आयेंगे। बाद में ब्रह्मा एवं शिव भी प्रमुख देवताओं के रूप में स्वीकार कर लिए गये जिससे त्रिमूर्ति का विचार भी उत्पन्न हुआ। इस मत में विकास के साथ-साथ इसमें स्त्री देवताओं एवं अन्य छोटे-छोटे देवताओं को भी सम्मिलित कर लिया; जैसे- पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश एवं कार्तिकेय। बाद में इन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु जैसी प्राकृतिक शक्तियाँ तथा पीपल एवं तुलसी का वृक्ष एवं गंगा, यमुना जैसी नदियाँ भी पूजनीय कर लिये गये। इसमें मूर्तिपूजा का भी समावेश कर लिया गया।

भागवत धर्म वैदिक धर्म की कठोरता एवं ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरोध एवं प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुआ। भागवत धर्म ने वैदिक देवी-देवताओं को ही प्रतिष्ठित किया और धर्म में विभिन्न देवी-देवताओं को स्थान देकर सहिष्णुता का आधार प्रदान किया। मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन इसी भागवत मत का पूर्ण विकसित स्वरूप एवं अभिव्यक्ति था।

ब्राह्मण धर्म

ब्राह्मण धर्म वैदिक धर्म के सिद्धान्त एवं क्रियाओं का ही अविच्छिन्न रूप है, जिसमें यज्ञ, बलि एवं प्रकृति के विभिन्न देवताओं इन्द्र, वरुण, अग्नि एवं वायु की पूजा पर बल दिया गया है। इस धर्म में वेदों विशेषकर ऋग्वेद को सर्वोच्च माना गया है जिसे धर्म के आधार स्तम्भ एवं आध्यात्मिकता तथा दर्शन के क्षेत्र में अन्तिम वाक्य स्वीकार किया गया है। अब वेद ईश्वरीय वाक्य या अभिव्यक्ति माने जाने लगे थे। इस धर्म में जाति प्रथा पर भी बल दिया गया है जिसमें ब्राह्मण का वर्चस्व था, क्योंकि यही वर्ग वेदों का सही अर्थ बता सकता है और यज्ञ एवं बलि का कार्य सम्पन्न कर सकता है।

विस्मय की बात तो यह है कि ब्राह्मण धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों, यथा- कर्म, पुनर्जन्म एवं मोक्ष में भागवत धर्म के उन सिद्धान्तों से कोई अन्तर नहीं है जिनमें आत्मा के अस्तित्व एवं महत्व पर समान बल दिया गया है। यह अवश्य है कि इसमें आत्मा के परागमन पर विशेष बल दिया गया एवं इसकी यह मान्यता है कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मोक्ष) तभी मिल सकती है जबकि आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाये। ब्राह्मण धर्म नैतिकता पर विशेष बल देता है। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि पर महत्व दिया गया है। बाद में इसमें मूर्तिपूजा को भी स्थान प्रदान कर दिया गया।

शैव मत/धर्म

हिन्दू धर्म में शिव का स्थान अनोखा एवं कुछ सीमा तक रहस्यमय एवं गूढ़ रहा है। यह केवल त्रिमूर्ति में से ही नहीं है वरन् स्वयं में भी पूर्ण है। रामायण एवं महाभारत में राम एवं कृष्ण के द्वारा शिव की पूजा किए जाने का उल्लेख है। सिन्धु घाटी सभ्यता में शिव की लिंग एवं पशुपति रूप में निश्चित रूप से पूजा होती थी। वैदिक सभ्यता में शिव, ऋग्वेद में रुद्र एवं यजुर्वेद में शकर के रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं। इसके बाद शिव त्रिमूर्ति में समा गये और अपनी पत्नी पार्वती एवं पुत्रों गणेश एवं कार्तिकेय के साथ पूजे जाने लगे। देवताओं की त्रिमूर्ति में ब्रह्मा सृष्टिकर्ता के रूप में, विष्णु पालनकर्ता के रूप में एवं शिव पापों से आक्रान्त सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में चित्रित किये गये थे। संहारकर्ता की यह भूमिका शिव की अन्तर्निहित शक्तियों एवं अतुल सामर्थ्य की द्योतक है।

आगे आने वाली शताब्दियों में शैव धर्म में वैदिक धर्म एवं वैष्णव धर्म दोनों से भी अधिक परिवर्तन हुए। शैव धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय बने जिनमें लिंगायत (वीर शैव) शैव सिद्धान्त एवं शिवाद्वैत प्रधान हैं। कुछ शैव मतावलम्बी श्मशानों में घूमते थे तथा भूत-प्रेत सम्बन्धी अनेक क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते थे। शैव मत का दक्षिण में अत्यधिक प्रचार हुआ। ईसा की दूसरी शताब्दी तक शैव धर्म भारत में भली-भाँति विकसित हो चुका था। गुप्त युग में शैव धर्म की लोकप्रियता में पर्याप्त वृद्धि हुई। छठी शताब्दी के बाद भारत में शैव धर्म का काफी प्रचार हुआ। कालिदास, भवभूति, सुबन्धु तथा बाण जैसे महाकवि शिव के उपासक थे। तथा शैव धर्म का मूर्तिपूजा में विश्वास था।

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