प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोतों का वर्णन करें

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत 

इसमें सन्देह नहीं है कि भारत का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण है तथापि इस युग के इतिहास का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने के प्रामाणिक साधनों का हमें अभाव प्रतीत होता है। यही कारण है कि पाश्चात्य जगत के अनेक इतिहासकारों ने यह आरोप लगाया है कि प्राचीन भारतीयों में 'इतिहास-बुद्धि का पूर्णतः अभाव' था। उन्होंने भारत के प्राचीन काल को 'अन्धकार युग' की संज्ञा दी है। अंग्रेज इतिहासकार एलफिन्स्टन ने लिखा है कि "भारतीय इतिहास की सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व की किसी महत्वपूर्ण घटना की तिथि निश्चित नहीं की जा सकती।"

इसी प्रकार मुस्मि इतिहासकार अलबरूनी ने अपनी पुस्तक 'तहकीके-हिन्द' में लिखा है कि हिन्द तथ्यों के ऐतिहासिक स्वरूप की ओर विशेष ध्यान नहीं देते। वे कालक्रमानुसार वंश का परिचय देने में वही असावधानी दिखाते हैं और जब भी वे सूचना देने के लिए बाध्य होते हैं तब वै किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कथाएँ कहना प्रारम्भ कर देते हैं।

उपर्युक्त तर्कों को यद्यपि पूर्ण रूप से तो नहीं स्वीकार किया जा सकता, परन्तु फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि भारतीयों ने ऐसे किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की जिसे आधुनिक दृष्टिकोण से इतिहास-ग्रन्थ माना जा सके। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि तत्कालीन भारतीय की 'इतिहास' की परिभाषा आधुनिक परिभाषा से भिन्न थी, जैसे कि कौटिल्य ने 'इतिहास' के अन्तर्गत पुराण, इतिवृत्ति, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र को भी स्थान दिया है परिणामस्वरूप उसकी कृतियों में ऐतिहासिक वृत्तों के साथ-साथ कल्पित और अतिरंजित उल्लेखों का भी समावेश होना आवश्यक था।

यह सत्य है कि प्रामाणिक साधनों की कमी के कारण प्राचीन भारतीय इतिहास का क्रमबद्ध एवं निश्चित ज्ञान प्राप्त करना कठिन है। फिर भी अनेक विद्वानों ने अधिक प्रयास करके एवं पुरातत्व विभाग की खोजों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक स्रोतों का पता लगाया है और उनके आधार पर इस युग के भारतीय इतिहास को लिपिबद्ध किया है।

स्रोतों अथवा साधनों का वर्गीकरण

प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी हमें जिन साधनों से प्राप्त होती है उन्हें निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है-

(क) धार्मिक साहित्य

प्रांचीन भारत का क्रमबद्ध इतिहास लिखने में विद्वानों को धार्मिक ग्रन्थों से विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है। इन धार्मिक ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

(1) वेद- वेद वैदिक साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं। इन वेदों की संख्या चार है, जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। ऋग्वेद को सबसे प्राचीन माना गया है तथा इससे यह पता लगता है कि प्राचीन भारत के निवासी कौन थे तथा उनका निवास-स्थान कहाँ था और उनका आन्तरिक विभाजन किस प्रकार हुआ। इसके साथ-साथ ही इन ग्रन्थों से वैदिक युग के भारत की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का बोध होता है। यद्यपि पार्जिंटर की मान्यता है कि वैदिक साहित्य में 'ऐतिहासिक बोध' का अभाव है, जिसके कारण उस पर सदा विश्वास नहीं किया जा सकता, परन्तु उसमें बिखरे हुए ऐतिहासिक सूत्र भारत में प्राचीनतम इतिहास की एक छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

(2) उपनिषद् एवं ब्राह्मण ग्रन्थ- उपनिषदों के माध्यम से हमें राजा परीक्षित के बाद से लेकर बिम्बिसार के पूर्व की समस्त घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। इनसे वैदिक मन्त्रों, राजनीतिक व सामाजिक जीवन का भी ज्ञान प्राप्त होता है। 'शतपथ ब्राह्मण' में गान्धार, शल्य, कैकेय, कुरु, पांचाल, कोशल, विदेह आदि प्रदेशों का वर्णन मिलता है। ऐतरेय, तैत्तरीय व पंचविंश आदि ब्राह्मण ग्रन्थों से भी ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है। उपनिषदों के विषय में विद्वानों का मत है कि इनकी रचना बिम्बिसार के पूर्व काल में हुई।

(3) सूत्र साहित्य- सूत्र साहित्य से भी भारतीय इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सूत्र साहित्य के तीन भाग हैं-

  • गृह सूत्र, 
  • कल्प सूत्र तथा 
  • धर्म सूत्र। 

कल्प सूत्र में वैदिक यज्ञों का वर्णन है। गृह सूत्र में संस्कारों, कर्मकाण्डों व मौसम सम्बन्धी यज्ञों का वर्णन है तथा सामाजिक व धार्मिक जीवन पर इसमें काफी प्रकाश डाला गया है। धर्म सूत्र में सामाजिक, राजनीतिक व वैधानिक व्यवस्था का सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है।

(4) वेदांग- वेदों की पूरक विधाओं को वेदांग कहते हैं, जिनकी संख्या छः है-

  • शिक्षा- शिक्षा शुद्ध उच्चारण का शास्त्र है।
  • व्याकरण- इसके द्वारा भाषा को सुन्दर बनाने व शुद्ध भाषा लिखने व बोलने पर प्रकाश डाला गया है।
  • छन्द- इसमें छन्द-रचना पर प्रकाश डाला गया है।
  • ज्योतिष- इसमें ज्योतिष का वर्णन है।
  • कल्प- कल्प में यज्ञ आदि के विधान का विस्तृत वर्णन है।
  • निरुक्त- यह शब्दों की उत्पत्ति व निर्माण का शास्त्र माना जाता है।

(5) महाकाव्य- रामायण व महाभारत भारतीय संस्कृति के दो प्राचीन महाकाव्य माने जाते हैं। रामायण के माध्यम से तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक दशा का ज्ञान प्राप्त होता है, महाभारत में प्राचीन इतिहास-आख्यानों व उपदेशों का संकलन है। राजनीतिक दृष्टिकोण से महाभारत अधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि दोनों ही ग्रन्थ साहित्यिक रूप में है, किन्तु उनके द्वारा प्राप्त सूचनाएँ ऐतिहासिक महत्व रखती हैं।

(6) पुराण- पुराण का अर्थ प्राचीन होता है। पुराणों के अन्तर्गत भारत के धर्म, इतिहास, विज्ञान, आख्यान आदि का विवरण है। पुराणों की संख्या 18 मानी गयी है, जिसमें से पाँच पुराणों मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु एवं ब्रह्माण्ड को ही अधिक ऐतिहासिक महत्व प्राप्त है। पुराणों से प्राचीन भारतीय राजाओं की वंशावली का ज्ञान प्राप्त होता है। यद्यपि यूरोपीय इतिहासकार इन वंशावलियों को अधिक महत्व नहीं देते फिर भी पुराणों के विषय में डॉ. स्मिथ ने लिखा है, "यदि पुराणों को ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए तो बहुत अच्छी एवं मूल्यवान सामग्री प्राप्त हो सकती है।"

(7) बौद्ध साहित्य- बौद्ध साहित्य ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बौद्ध साहित्य को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। जिनमें जातक, पिटक व निकाय प्रमुख हैं। जातकों में महात्मा बुद्धि के पूर्वजन्म की घटानाओं का सुन्दर वर्णन है। जातकों के द्वारा महात्मा बुद्ध के पूर्व की आर्थिक व्यवस्था से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त होती है। सुत्त पिटक में बुद्ध के धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। अभिधम्म पिटक में वेदान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा है। विनय पिटक में मठ के अनुशासन आदि पर प्रकाश डाला गया है। पालि सहित्य में मिलिन्दपन्हो, दीपवंश व महावंश आदि ग्रन्थ आते हैं। दीपवंश व महावंश में लंका के इतिहास का वर्णन है। इसके साथ-साथ कतिपय टीकाओं, सुमंगल विलासिनी, सामन्त प्रसादिका, महावंश टीका आदि से भी ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है, संस्कृति में लिखित ग्रन्थ महावस्तु ललित विस्तार आदि में बुद्ध के जीवन व सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। दिव्यावदान से अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक के इतिहास के बारे में ऐतिहासिक घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। मन्जूश्री मूलकल्प ग्रन्थ में प्राचीन राजवंश का संक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है।

(8) जैन साहित्य- प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान जैन साहित्य से भी होता है। इतिहास की जानकारी के लिए सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ हेमचन्द्र द्वारा रचित 'परिशिष्ट पर्वन' है। भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के समय के इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है। त्रिलोक प्रशस्ति, भगवती सूत्र, कथा कोष, कालिका पुराण व लोक विभाग भी ऐतिहासिक घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

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(ख) समसामयिक एवं ऐतिहासिक साहित्य

कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो धर्म से सम्बन्धित होते हुए भी तत्कालीन समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दशा के विषय में जानकारी देते हैं। इन ग्रन्थों का वर्णन निम्नलिखित है-

(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र- कौटिल्य द्वारा उचित अर्थशास्त्र ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। चौथी शताब्दी ई. पू. में रचित इस ग्रन्थ में तत्कालीन भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक हलचल देखने को मिलती है। यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें मौर्यकालीन भारत की शासन-पद्धति, राजनीतिक व्यवस्था तथा सामाजिक-आर्थिक जीवन का विशद् विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ का महत्व इस दृष्टिकोण से और भी अधिक है कि इसका लेखक कौटिल्य मौर्य शासक चन्द्रगुप्त का सलाहकारक था और राज्य में घटने वाले प्रत्येक घटना का प्रत्यक्षदर्शी था।

(2) पतंजलि का महाभाष्य- इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण है।

(3) मालविकाग्निमित्रम्-चौथी-पाँचवीं शताब्दी में रचित इस नाटक में पुष्यमित्र शुंग व यवनों के मध्य युद्ध का उल्लेख है।

(4) हर्षचरित- महाकवि बाण द्वारा रचित इस ग्रन्थ में हर्ष के जीवन व उसके समय के भारत की अवस्था पर प्रकाश डाला गया है।

(5) बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र- 9वीं-10वीं शताब्दी में रचित इस ग्रन्थ में राजकीय कर्तव्यों का विवरण प्राप्त होता है।

(6) राजतरंगिणी- इस ग्रन्थ की रचना कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी में की गई थी। इसमें कश्मीर के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(7) नवसहसांकचरित- प‌द्मगुप्त द्वारा रचित इस ग्रन्थ में परमार वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

(8) पाणिनी का व्याकरण- इस व्याकरण ग्रन्थ से पूर्व-मौर्यकालीन सभ्यता का ज्ञान प्राप्त होता है।

(9) गार्गी संहिता- इस ग्रन्थ में यवनों के आक्रमणों का उल्लेख है।

(10) मुद्राराक्षस- विशाखदत्त द्वारा रचित इस नाटक से चाणक्य व चन्द्रगुप्त द्वारा नन्दवंश के विनाश की कथा का पता चलता है।

(11) विक्रमांकदेवचरित- महाकवि बिल्हण द्वारा रचित इस ग्रन्थ से कल्याणी के चालुक्य वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

(12) पृथ्वीराज रासो- चन्दबरदाई द्वारा रचित इस ग्रन्थ से पृथ्वीराज चौहान के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।

(ग) विदेशी यात्रियों व लेखकों के विवरण 

समय-समय पर भारत में अनेक विदेशी यात्री आए तथा उन्होंने भारत के विषय में अनेक ग्रन्थ लेखों का अनुवाद किया। इन लेखों से भारत की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहस की रूपरेखा का निर्धारण करने में हमें सुविधा प्राप्त होती है। इन यात्रियों के द्वारा विभिन्न विषयों पर लिखी जो सामग्री उपलब्ध होती है उसको एक-साथ मिलाकर अध्ययन करने से प्राचीन भारतीय इतिहास की रूपरेखा बना पाने में अत्यधिक सहायता मिलती है। इन विदेशी लेखकों का सविस्तार वर्णन इस प्रकार है-

(1) यूनानी लेखक- प्राचीन भारतीय इतिहास की विशेष जानकारी देने का श्रेय यूनानी लेखकों को है। सिकन्दर से पूर्व भारत के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले स्काईलैक्स, हिकेटियस तथा मिलेटस थे। इनके साथ-साथ हैरोडोटस व कर्टियस भी दो मुख्य लेखक थे। हैरोडोटस ने पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में 'हिस्टोरिका' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें उसने भारत के विषय में जानकारी दी। उसे 'इतिहास' का जन्मदाता कहा जाता है। कर्टियस ने 'पारसिका' की रचना की जिसमें भारत व ईरान के इतिहास का वर्णन है। 

सिकन्दर के भारत आक्रमण के समय स्ट्रैबो, प्लिनी व एरियन आदि लेखक भी सिकन्दर के साथ थे, जिसके लेखों से भी भारतीय ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। सिकन्दर के उपरान्त के मुख्य लेखकों में मैगस्थनीज व डेमेकस आदि का नाम आता है, जिन्होंने चन्द्रगुप्त एवं बिन्दुसार के शासन काल की घटनाओं का वर्णन किया है। मैगरथनीज रचित 'इण्डिका' ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यद्यपि इण्डिका मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, परन्तु परवर्ती लेखकों में इसके अत्यधिक उदाहरण मिलते हैं जिनसे हमें मौर्यकालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दशां के विषय में पर्याप्त ज्ञान होता है।

100 ई. पू. के एक अनाम यूनानी यात्री का' पेरीप्लस ऑफ एरिथ्रियन सी' (Periplus of The Erythrean Sea) नामक एक ग्रन्थ भी मिलता है, जो तत्कालीन व्यापार और व्यापार-मार्गों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।।

(2) चीनी लेखक- चीन के बहुत से यात्री प्राचीन काल में तीर्थाटन, पुस्तकं अन्वेषण व बौद्ध धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करने भारत आए। इन चीनी यात्रियों के विवरणों से भी तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति पर काफी प्रकाश पड़ता है। सर्वप्रथम चीनी यात्री सु-मा-चीन था, जिसने ई. पू. प्रथम शताब्दी के प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डाला। 'फाह्यान' (399-414 ई.) चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में भारत आया। उसने 15 वर्ष भारत में रहकर अपनी यात्रा पुस्तक में भारत की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक स्थिति का वर्णन किया है।

629 ई. में ह्वेनसांग हर्षवर्धन के समय में भारत आया। उसने अपनी पुस्तक 'सी-यू-की' (Si-Yu-Ki) में भारतीय इतिहास पर प्रकाश डाला। सातवीं शताब्दी में इत्सिंग नामक चीनी यात्री भारत आया जिसने नालंदा व विक्रमशिला विश्वविद्यालयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। इस प्रकार हम देखते हैं कि इतिहास की दृष्टि से चीनी यात्रियों के वर्णन निष्पक्ष एवं महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन लेखकों ने कालक्रम का विशेष ध्यान रखा है।

(3) तिब्बती लेखक- तिब्बती लेखकों में लासा तारानाथ का नाम प्रसिद्ध है। उसने अपने ग्रन्थों 'कंग्युर' तथा 'तंग्युर' में भारत का वर्णन किया है।

(4) मुस्लिम लेखक- 1030 ई. में मुस्लिम लेखक अलबरूनी द्वारा रचित पुस्तक 'तहकीके-हिन्द' में तत्कालीन भारत के निवासियों का विस्तृत वर्णन है। इसके अलावा अन्य मुस्लिम लेखक सुलेमान, अलमसूदी, हसन निजामी, फरिश्ता, मिनहाज-उस-सिराज, अब्दुल्ला व निजामुददीन अहमद आदि की रचनाओं से भी भारत के इतिहास का वर्णन प्राप्त होता है।

(घ) पुरातात्विक सामग्री

पुरातात्विक सामग्ग्री भारतीय इतिहास के निर्माण में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस सामग्री को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं- 

  • अभिलेख, 
  • मुद्राएँ, 
  • स्मारक में बाँट सकते हैं-

(1) अभिलेख- प्राचीन भारत की महत्वपूर्ण जानकारी देने में अभिलेख अधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं। ये अभिलेख अनेक स्थानों पर निम्नलिखित रूपों में प्राप्त हुए हैं-

  • स्तम्भ लेख- भारत में स्तम्भ बनवाने की परम्परा अति प्राचीन है। कालान्तर में इन स्तम्भों को लेखन कार्यों में प्रयोग किया जाने लगा। अशोक के स्तम्भ लेख,, जैनियों की दीप स्तम्भ, वैष्णवों के गरुड़-ध्वज स्तम्भ व राजपूतों के कीर्ति स्तम्भ लेख इस प्रकार के उदाहरण हैं। इसके साथ ही चन्द्रगुप्त द्वितीय का मेहरौली स्तम्भ लेख, स्कन्दगुप्त का भीतरी अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
  • गुहा लेख- ये लेख पर्वतीय प्रदेशों में अत्यधिक संख्या में प्राप्त हुए हैं। इनमें अशोक के बराबर गुहा-लेख, दशरथ के नागार्जुनी गुहा-लेख, सातवाहनों के नासिक, नानाघाट व कार्ली के गुहा-लेख तथा गुप्तकालीन अनेक गुहा-लेखों से प्राचीन इतिहास पर विशेष जानकारी प्राप्त होती है।
  • प्राकार अभिलेख- प्राचीन मन्दिरों व स्तूपों के चारों ओर प्राकार बनाए जाते थे, जिन पर लेख लिखे जाते थे। भरहुत स्तूप के प्राकार पर 'सुगन रज' लिखा है, जिससे पता चलता है कि स्तूप का निर्माण शुंग राजाओं ने कराया था।
  • ताम्रपत्र अभिलेख- प्राचीनकाल में राजाओं द्वारा अपने धन आदि का वर्णन ताम्रपत्रों पर कर दिया जाता था, जिसके द्वारा भी इतिहास में विषय में महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुए हैं। गुप्तकालीन इतिहास की विशेष जानकारी इन ताम्रपत्रों से ही मिलती है।
  • शिला लेख- पहाड़ी प्रदेशों में चट्टानों को साफ व समतल करके उन पर अभिलेख लिखवाए जाते थे। अशोक के शिलालेख, पुष्यमित्र शुंग का अयोध्या अभिलेख, खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख आदि इतिहास के निर्माण में सहायक हैं। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से उसके शासन के तेरह वर्षों की घटनाओं और विजयों का पता चलता है तथा रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से इस बात का ज्ञान होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का सौराष्ट्र पर भी अधिकार था।
  • मूर्ति लेख- प्राचीन काल में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मानुयायियों के द्वारा अनेक मूर्तियों का निर्माण हुआ, जिन पर अनेक लेख लिखे गये।
  • पात्र अभिलेख- कुछ धातु-पात्रों व मिट्टी के बर्तनों पर भी अभिलेख प्राप्त हुए है, जैसे सिन्धु प्रदेश की खुदाई से प्राप्त अभिलेख आदि।
  • मुद्रा अभिलेख- कुछ राजाओं ने अपनी मुद्राओं पर भी लेख लिखवाए थे। इससे भी प्राचीन इतिहास के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त होती है।

(2) मुद्राएँ- प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में सिक्के भी बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुए हैं। जिन सिक्कों पर तिथि अंकित रहती है उनके द्वारा भारतीय इतिहास के तिथि क्रम को निश्चित करने में सहायता मिली है। भारत में राज्य करने वाले अनेक विदेशी राजवंशों, बैक्ट्रियन-ग्रीक, शक, कुषाण आदि का पता केवल उनके द्वारा प्रचलित मुद्राओं से चलता है। अनेक राजाओं के विशेष गुणों तथा उनके कार्यों का पता भी मुद्राओं से ही लगता है। सिक्कों की धातु की शुद्धता राज्य की आर्थिक स्थिति का बोध कराती है तथा प्राप्ति स्थान किसी राज्य की राज्य-सीमा निर्धारित करने में सहायता देता है। कुषाणकालीन कुछ सिक्कों से कुषाण शासकों का क्रम निर्धारित करने में बहुत सुविधा मिलती है।

(3) स्मारक- ये निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-

  • देशी स्मारक- मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व यहाँ पर एक अत्यन्त उत्कृष्ट सभ्यता विद्यमान थी। तक्षशिला की खुदाई से पाषाण काल के इतिहास का पता चलता है। हड़प्पा, मोजनजोदड़ो नालन्दा, हस्तिनापुर, विराटनगर, रोपड़ आदि स्थानों की खुदाई से भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में एक नई जानकारी प्राप्त हुई है। पाटलिपुत्र व नालन्दा के भग्नावशेष मौर्यकालीन कला को दर्शित कराते हैं। इसी प्रकार एलोरा, अजन्ता तथा बाघ के भित्तिचित्रों का भी चरित्र महत्व है।
  • विदेशी स्मारक- विदेशों में प्राप्त स्मारक भारतीय संस्कृति में एक नया अध्याय जोड़ते हैं। जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया आदि दक्षिण-पूर्वी देशों से प्राप्त अनेक मन्दिरों व कलाकृतियों के अवशेषों से भी प्राचीन भारतीय संस्कृति व इतिहास तथा विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार का पता चलता है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमें प्राचीन भारतीय को जानने के लिए बहुत-से महत्वपूर्ण तथ्यों का सहारा लेना पड़ता है। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि "इतिहासकार को आकर, श्रमिक की भाँति फावड़े से काम लेना है। उसके शूल व फावड़े अध्यवसाय व सतर्क धारणा हैं। इन्हीं की सहायता से वह अतिरंजकता व अलंकार के शब्द-जाल से रहित इतिहासरूपी स्वर्ण हस्तगत कर सकता है।"

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