मुद्रा की पूर्ति से आप क्या समझते हैं ? मुद्रा पूर्ति के निर्धारक तत्वों का वर्णन करें।

मुद्रा की पूर्ति का अर्थ एवं परिभाषा

मुद्रा की पूर्ति के सम्बन्ध में तीन प्रकार की विचारधाराएँ विद्यमान हैं जिसमें प्रथम विचारधारा के अनुसार, "मुद्रा की पूर्ति का आशय लोगों के पास नकद मुद्रा एवं व्यापारिक बैंकों के पास माँग जमा राशि से है, इसे M1 द्वारा व्यक्त किया जाता है, जिसका अभिप्राय माँग होने पर तुरन्त भुगतान करना होता है।" इसी प्रकार द्वितीय विचारधारा के अनुसार मुद्रा की पूर्ति को "मुद्रा के परिमाण" सिद्धान्त से सम्बन्धित माना गया है। इस सम्बन्ध में प्रो. फ्रीडमेन कहते हैं कि "किसी विशेष समय में मुद्रा की पूर्ति का आशय डॉलरों की वह राशि है, जो लोगों की जेब में होती है, जो लोगों को बैंक में जमा होती है और जो माँग खातों में जमा होती है। अथवा व्यापारिक बैंकों में सावधि-जमा खातों में होती है।" इस परिभाषा के अनुसार मुद्रा के 'मूल्य-संचय' कार्य को महत्ता प्रदान को गई है। इसे अमेरिका तथा ब्रिटेन में M2 तथा M3 क्रमशः नाम से जाना जाता है। इसके बाद मुद्रा की पूर्ति की तीसरी व आखिरी विचारधारा अधिक विस्तृत है तथा इस विचारधारा के समर्थक प्रो. गर्ले एवं शॉ हैं जिनके अनुसार मुद्रा की पूर्ति में उपर्युक्त M2 में बचत बैंक खातों में जमा एवं अन्य जमा राशियों को भी सम्मिलित किया गया है।

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भारत में मुद्रा की पूर्ति के मापक व संघटक या अंग

देश में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा की आपूर्ति की चार प्रकार की अवधारणाओं के आधार पर मुद्रा की मात्रा का निर्धारण किया जाता है और इन्हीं अवधारणाओं को मुद्रा की पूर्ति का अंग माना जाता है। इन विचारधाराओं को क्रमशः M1, M2, M3 तथा M4 के रूप में व्यक्त किया गया है।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित अभिलेखों के अनुक्रम में मुद्रा की पूर्ति के चारों अंगों को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-

(1) M1 (मुद्रा की पूर्ति की प्रथम अवधारणा)- भारत जैसे विकासशील देश के लिए मुद्रा की पूर्ति की यह संकुचित अवधारणा अधिक महत्वपूर्ण है। इस अवधारणा में तीन तत्वों को सम्मिलित किया जाता है, जैसे निम्न समीकरण द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है- 

M2=C+DD+OD

C = जनता के पास जमा मुद्रा या करेन्सी,

DD = बैंक की विशुद्ध जमा राशि या माँग जमाएँ,

OD = भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा एवं अन्य राशि या अन्य जमाएँ।

(2) M2 (मुद्रा की पूर्ति की द्वितीय अवधारणा)- मुद्रा की पूर्ति की इस अवधारणा को निम्न सूत्र के द्वारा व्यक्त किया जाता है-

M2 = M1 + डाकघरों के बचत खातों में जमा करेन्सी

इस सूत्र के अनुसार M1 की तीनों करेन्सी के साथ-साथ डाकघरों के बचत खातों में जमा राशि को भी शामिल किया जाता है।

(3) M3 (मुद्रा की पूर्ति की तृतीय अवधारणा)- इस अवधारणा में M1 तथा बैंकों में जमा सावधि खाते की करेन्सी को भी शामिल किया गया है। जिसे निम्न समीकरण द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है-

M3 = M1 + व्यापारिक एवं सहकारी बैंकों की सावधि खाते में जमा करेन्सी

M3 की अवधारणा को 'समय मौद्रिक साधन' या 'व्यापक मुद्रा' भी कहा जा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक M3 की वार्षिक वृद्धि दर का लक्ष्य प्रायः घोषित करती है।

(4) M4 (मुद्रा की पूर्ति की चतुर्थ अवधारणा)- मुद्रा की पूर्ति की चतुर्थ (M4) अवधारणा काफी विस्तृत है। इस विचारधरा के अन्तर्गत M3 की करेन्सी के अतिरिक्त डाकघरों की सभी प्रकार की जमाओं को भी शामिल किया जाता है। इसे अग्र समीकरण के रूप में व्यक्त कर सकते हैं-

M4 = M3 + डाकघरों की कुल जमा करेन्सी

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर स्पष्ट है कि M4 मुद्रा की पूर्ति का वह अंग है, जिसमें सबसे कम तरलता है। M1 मुद्रा की पूर्ति का वह अंग है, जिसमें सबसे अधिक तरलता है। M2 M3 तथा M4  को मिलाकर उच्च स्तरीय या आरक्षित मुद्रा का निर्माण किया जाता है। M4 मुद्रा की पूर्ति की स्कन्ध अवधारणा है। इन सभी मुद्रा अंगों का नियमन एवं नियन्त्रण सम्बन्धी कार्य भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा सम्पन्न किया जाता है।

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मुद्रा की पूर्ति के निर्धारक तत्व

भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति को निर्धारित करने के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त हैं। इस प्रकार प्रथम सिद्धान्त मुद्रा की पूर्ति को केन्द्रीय बैंक के माध्यम में निर्धारित करता है तथा द्वितीय सिद्धान्त मुद्रा की पूर्ति का निर्धारण आर्थिक क्रियाओं के उतार-चढ़ाव के विश्लेषण के आधार पर करता है। मुद्रा की पूर्ति को निर्धारित करने वाले निम्न प्रमुख तत्व हैं-

(1) तरल कोषानुपातों का स्तर- बैंकों द्वारा रखे जाने वाले तरल कोषों का भी मुद्रा की पूर्ति पर विशेष प्रभाव पड़ता है। अतः इस तत्व को भी मुद्रा की पूर्ति के निर्धारण का तत्व माना जाता है। देश की व्यापारिक बैंकों को केन्द्रीय बैंक के अतिरिक्त अपनी कुल जमाओं का एक निश्चित भाग अपने पास तरल रूप में भी रखना पड़ता है, जो वर्तमान स्थिति के अनुरूप अनिवार्य भी है। इस निश्चित माँग का निर्धारण देश की केन्द्रीय बैंक द्वारा किया जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिस बैंक के पास वह तरल कोष का अनुपात जितना अधिक होगा तो वह जनता को कम मात्रा में ही उधार दे सकेंगे और मुद्रा की पूर्ति में कमी हो जायेगी। इसके विपरीत यदि तरल कोष का अनुपात कम हो तो मुद्रा की पूर्ति अधिक हो जायेगी।

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(2) सुरक्षित निधि अनुपात- सुरक्षित निधि अनुपात मुद्रा की पूर्ति को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण तत्व है। देश की व्यापारिक एवं सहकारी बैंकों को अपने कुल जमा राशि का एक निश्चित भाग केन्द्रीय बैंक के पास सुरक्षित निधि के रूप में रखना अनिवार्य होता है। जब केन्द्रीय बैंक द्वारा इस सुरक्षित निधि के अनुपात में परिवर्तन कर दिया जाता है तो देश में मुद्रा की पूर्ति पर प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत यदि वह अनुपात केन्द्रीय बैंक द्वारा घटा दिया जायेगा तो मुद्रा की पूर्ति बढ़ जायेगी।

(3) उच्च स्तरीय मुद्रा शक्ति- मुद्रा की पूर्ति के निर्धारण हेतु उक्त तीनों घटकों का वर्णन किया गया है। इन तीनों घटकों के उपरान्त अन्य घटक उच्च मुद्रा शक्ति है। इन घटकों को मौद्रिक नीति के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। इस घटक के अनुसार व्यापारिक बैंकों में जमा सुरक्षित कोष एवं जनता के पास रखी नकद करेन्सी (सिक्के या नोट) की चलन मात्रा इन दोनों के योग को सम्मिलित किया जाता है।

सामान्यतः उच्च मुद्रा शक्ति का मुद्रा की पर्ति से सीधा सम्बन्ध होता है और उच्च शक्ति बढ़ने या घटने पर मुद्रा की पूर्ति भी क्रमशः बढ़ या घट जाती है।

(4) नकद मुद्रा तथा जमाओं के प्रति मनोवृत्ति- मुद्रा की पूर्ति के निर्धारक का एक घटक यह भी है कि व्यक्ति बैंकों में जमा राशि के किस अनुपात में हिसाब से कितनी नकद मुद्रा/धन अपने पासं तिजोरी में रखना चाहता है? यदि व्यक्ति अपने पास एकद मुद्रा कम रखने की प्रवृत्ति बनाता है तो बैंकों में जमा धनराशि बहुत अधिक हो जायेगी और मुद्रा की पूर्ति भी अधिक होगी। इसके विपरीत यदि लोगों में बैंकिंग पद्धति पर विश्वास नहीं है या वह अस्पष्ट व गैर-कानूनी साधनों से आय कमा रहे हैं और अपनी नकद मुद्रा को बैंकों के स्थान पर अपनी ही तिजोरी में रखना चाहते हैं तो मुद्रा तो कम होगी ही, साथ ही देश की मुद्रा निष्क्रिय एवं अनार्थिक भी हो जायेगी जो देश के लिए घातक परिस्थिति हो सकती है।

(5) मुद्रा की पूर्ति के अन्य घटक-

  • मुद्रा प्रसार द्वारा मुद्रा की पूर्ति,
  • साख मुद्रा का प्रभाव,
  • खुले बाजार की क्रियाएँ,
  • बैंक की दरें,
  • वस्तुओं एवं उत्पादन की मात्रा एवं किस्म,
  • सामाजिक परम्परा एवं व्यक्तिगत स्वभाव,
  • आर्थिक विकास का स्तर आदि।

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