साधारण शब्दों में मुद्रा वह है जो वैधानिक नियमों के अधीन निर्गमित की जाती है तथा जनता द्वारा विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, धन के संचय एवं भावी भुगतानों के आधार के रूप में स्वीकार की जाती है। अतः मुद्रा के अन्तर्गत धातु मुद्रा, पत्र मुद्रा एवं साख मुद्रा, तीनों को ही सम्मिलित किया जाता है।
मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषाएँ
मुद्रा अंग्रेजी भाषा के शब्द 'Money' का पर्यायवाची है। मनी (Money) लैटिन भाषा के शब्द मोनेटा (Moneta) से बना है। 'मोनेटा' देवी 'जूनो' का प्रारम्भिक नाम है। जिसके मन्दिर में प्रचलित रोम राज्य की टकसाल थी। भारत में मुद्रा शब्द का प्रयोग संकेत चिह्न के लिए होता था, जो दरबार विशेष व्यक्तियों को प्रदान करता था। आजकल मुद्रा से आशय उन सांकेतिक सिक्कों से है जो राज्य द्वारा जारी किये जाते हैं एवं जिनके द्वारा देश में लेन-देन सम्पन्न होता है।
मुद्रा वह वस्तु है जिसका उपयोग विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, स्थगित भुगतानों के मान तथा मूल्यों के संचय के साधन के रूप में सामान्य रूप से लोगों द्वारा किया जाता है और जिसे सरकारी मान्यता प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, मुद्रा के अन्तर्गत वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं, जो विनिमय के माध्यम के रूप में बिना किसी सन्देह एवं जाँच के सामान्यतया स्वीकार को जाती हैं। इस दृष्टि से मुद्रा के अन्तर्गत धातु मुद्रा (धातु के सिक्के), पत्र मुद्रा (करेंसी नोट) एवं साख मुद्रा (चेक, बिल, प्रोमिसरी नोट व हुण्डियाँ) को शामिल किया जाता है।
अध्ययन की सुविधा के लिए विभिन्न परिभाषाओं को दो प्रकार से वर्णित किया जा सकता है-
(अ) प्रकृति पर आधारित परिभाषाओं का वर्गीकरण
प्रकृति के आधार पर दी गई परिभाषाओं को निम्न तीन उपवर्गों में विभक्त किया जा सकता है- वर्णनात्मक, वैज्ञानिक एवं सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाएँ।
(i) वर्णनात्मक परिभाषाएँ (Descriptive Definitions)- यह परिभाषाएँ मुद्रा की विशेषताओं पर और कार्यों पर बल देती हैं। इसलिए इन्हें कार्यवाहक परिभाषाएँ भी कहा जाता है। इस वर्ग में वाकर, विदर्स, सिजविक, नोगारो और टॉमस आदि के द्वारा दी गई परिभाषाएँ आती हैं।
वाकर (Waker) और हार्टले विदर्स (Hartley Withers) के अनुसार- "मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करे।"
टॉमस के अनुसार- "मुद्रा एक वस्तु है जो मूल्य मापक तथा अन्य सब वस्तुओं के बीच विनिमय माध्यम का कार्य करने के लिए एकमत होकर चुन ली जाती है।"
(ii) वैधानिक परिभाषाएँ (Legal Definitions)- ये परिभाषाएँ मुद्रा से सम्बन्धित कानूनी दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। कानूनी दृष्टिकोण के अनुसार किसी भी वस्तु के मुद्रा होने के लिए वैधानिक मान्यता आवश्यक है। इसमें प्रो. नैप एवं हाट्रे की परिभाषाएँ मुख्य हैं।
प्रो. नैप (Knapp) प्रथम के अनुसार- "कोई भी वस्तु जो राज्य द्वारा मुद्रा घोषित कर दी जाती है, मुद्रा कही जाती है।"
हाट्रे (Howtrey) का मत है कि "मुद्रा के विषय में दो बातें उल्लेखनीय हैं, प्रथम वह ऋणों के कानूनी शोधन के लिए साधन प्रदान करे और दूसरे मूल्य के मापक का कार्य करते हुए साख की अस्थिरता को ठीक करे।"
(iii) सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाएँ (Definitions based on General Acceptability)- इन परिभाषाओं में सामान्य स्वीकृति को मुद्रा का आवश्यक गुण बताया गया है।
सैलिगमैन (Seligman) के अनुसार- "मुद्रा वह वस्तु है जिसे सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो।"
प्रो. कीन्स (Keynes) के अनुसार- "मुद्रा वह वस्तु है जिसे देकर ऋण तथा मूल्य सम्बन्धी भुगतान को निपटाया जाता है तथा जिसके रूप में सामान्य क्रय-शक्ति को संचित किया जाता है।"
मार्शल (Marshall) के अनुसार- "मुद्रा में वे सब वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं जो किसी विशेष समय या स्थान में बिना सन्देह अथवा विशेष जाँच-पड़ताल के वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने और व्यय का भुगतान करने के साधन के रूप में सामान्यतया प्रचलित होती हैं।"
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(ब) विचारधारा पर आधारित परिभाषाएँ
मुद्रा की विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह पता चलता है कि विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा के बारे में या तो व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है अथवा संकुचित दृष्टिकोण।
संकुचित दृष्टिकोण- मुद्रा के दो रूप होते हैं- मूर्त (Concreate) एवं अमूर्त (Abstract)। मुद्रा का अमूर्त रूप इसके मूल्य मापक तत्व को व्यक्त करता है और मुद्रा के लेखे की इकाई (Unit of account) के रूप में प्रस्तुत करता है। मूर्त रूप से विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों आदि को व्यक्त करता है जिनका दैनिक भुगतानों में प्रयोग किया जाता है। अर्थशास्त्री गैस्टल कैसेल (Gustaul Cassel) के अनुसार, "मुद्रा वह वस्तु है जो अन्य वस्तुओं का मूल्यांकन करने के लिए सामान्य मापक का कार्य करती है।" मुद्रा का प्रमुख और मौलिक कार्य एक ऐसी गणना के आधार पर करना है, जिसके द्वारा विनियोग वस्तुओं के मूल्य निर्धारण किये जा सकें।
व्यापक दृष्टिकोण- व्यापक दृष्टिकोण वाले अर्थशास्त्री हर ऐसी वस्तु को मुद्रा में गिनते हैं जो मुद्रा का कार्य करे। वाकर तथा विदर्स ने इसी दृष्टिकोण को अपनाया। कार्ल हैलिफरिच (Karl Heliferich) ने तो इतनी व्यापक परिभाषा दी है, "मौद्रिक प्रणाली का सम्बन्ध वस्तुओं और संस्थाओं से है जो एक दिये क्षेत्र और एक दी हुई प्रणाली में आर्थिक व्यक्तियों के बीच आर्थिक सहयोग (मूल्य अन्तरण) में सुविधा पहुँचाती है।"
मुद्रा की एक उपयुक्त परिभाषा
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि, "मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जिसे एक व्यापक क्षेत्र में विनिमय के माध्यम, मूल्य-मापक, ऋण-भुगतान और मूल्य संचय के रूप में स्वतन्त्र और सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो।"
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मुद्रा के कार्य
आधुनिक युग में मुद्रा अनेक कार्य करती है लेकिन अर्थशास्त्र में साधारणतः मुद्रा के चार कार्यों पर ही अधिक बल दिया गया है- विनिमय माध्यम, मूल्य मापक, स्थगित भुगतान का मान एवं अर्द्ध-संचय। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस चार कार्यों के अतिरिक्त मुद्रा के अन्य कार्य भी बताये हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इनको निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(I) मुद्रा के प्रमुख कार्य (Main Functions of Money)
मुद्रा है ऐसे कार्य जिन्हें मुद्रा ने प्रत्येक काल, प्रत्येक देश तथा प्रत्येक स्थिति में किया है, मुद्रा के प्रमुख कार्य कहलाते हैं। समय-समय पर विभिन्न वस्तुएँ मुद्रा के रूप में उपयोग की गई हैं, किन्तु उन सभी वस्तुओं ने कम-से कम इन कार्यों को अवश्य किया। ये कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) विनिमय का माध्यम- यह मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि सम्पूर्ण आर्थिक जीवन विनिमय पर ही आधारित है। प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय में अनेक कठिनाइयाँ होती हैं। मुद्रा का प्रयोग इन सब कठिनाइयों को दूर करके विनिमय कार्य को सुगम बना देता है।
(2) मूल्य का मापक- जब प्रत्येक व्यक्ति समस्त वस्तुओं का एक खास वस्तु (अर्थात् द्रव्य) से बदला करने लगता है, तो वह सभी वस्तुओं का मूल्य उस वस्तुं से मापने लगता है। जिस प्रकार हम कपड़े को गज या मीटर से नापते हैं, सोने-चाँदी को तोले, माशा, रत्ती या ग्राम में नापते हैं, उसी प्रकार हम वस्तुओं का अर्द्ध को द्रव्य से नापते हैं।
(II) मुद्रा के सहायक कार्य (Subsidiary Functions of Money)
इस वर्ग में उन कार्यों को सम्मिलित किया गया है जो कि मुद्रा द्वारा उसी अवस्था में सम्पन्न किये जाते हैं, जबकि समाज में आर्थिक जीवन का एक अंश तक विकास हो चुका है। ये कार्य मुद्रा के मुख्य कार्यों में उत्पन्न होते हैं इसलिए इनको सहायक कार्य भी कहा जाता है। ये कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) क्रय-शक्ति का संचय- द्रव्य द्वारा विनिमय शक्ति का संचय किया जा सकता है। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति यह स्वभाव होता है कि वह भविष्य के लिए कुछ न कुछ बचाकर रखे। आर्थिक विकास के आदिकाल में जब नाशवान वस्तुओं से द्रव्य का कार्य लिया जाता था, तब तक विनिमय-शक्ति का संचय बहुत कम तथा बहुत थोड़े समय के लिए होता था, परन्तु जब से धातुओं को द्रव्य पदार्थ माना गया है तब से विनिमय-शक्ति का संचय बड़ा सुविधाजनक हो गया है। अब हम अपनी बचत को द्रव्य के रूप में सुरक्षित रख सकते हैं।
(2) भावी भुगतानों का आधार- द्रव्य का मूल्य स्थायी रहता है, अतः व्यापारिक सौदे जिनमें ऋण भी शामिल हैं, द्रव्य द्वारा ही तय होते हैं। लोगों को यह विश्वास रहता है कि उस सौदे की अवधि में मुद्रा की क्रय-शक्ति परिवर्तित नहीं होगी और जितना उन्होंने लेन-देन की अपेक्षा की है उतना ही उनको प्राप्त हो जायेगा। व्यवहार में द्रव्य और रुपये की क्रय-शक्ति पूर्णतः स्थिर नहीं रहती, इसके मूल्य में किंचित परिवर्तन होता रहता है, जिससे किसी लेन-देन के निपटारे में कोई खास लाभ-हानि नहीं होती है, लेकिन अन्य वस्तुओं; जैसे कि गेहूँ के मूल्य में बड़े परिवर्तन होते रहते हैं।
(3) मूल्य का स्थानान्तरण- आज जबकि हम अपनी बचत एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना चाहें तो द्रव्य इसमें सहायता देता है। यदि द्रव्य न हो, तो यह स्थानान्तरण कठिन और हानिप्रद हो जाये।
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(III) मुद्रा के आकस्मिक कार्य (Contingent Functions of Money)
द्रव्य के सम्भाव्य कार्यों से आशय उन कार्यों का है, जिनको मुद्रा सर्वदा और हर स्थान पर नहीं करती। जो देश सभ्य हैं और आर्थिक दृष्टि से प्रगति कर चुके हैं, उन्हीं देशों में ऐसे कार्य मुद्रा द्वारा सम्पन्न होते हैं। ये कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) सभी प्रकार की पूँजी को सामान्य रूप प्रदान करना- जिस प्रकार किसी द्रव्य को जिस बर्तन में रखते हैं उसी का रूप धारण कर लेता है ठीक उसी प्रकार मुद्रा के रूप में रखी गई सम्पत्ति अपने स्वामी की इच्छानुसार किसी भी वस्तु के रूप में बदली जा सकती है, अर्थात् सम्पत्ति के मुद्रा-रूप में होने पर उससे कोई भी वस्तु खरीद सकते हैं। इस गुण के कारण ही पूँजी को पुराने और अलाभपूर्ण उद्योगों से निकालकर नये व लाभप्रद उद्योगों में लगाना सम्भव हो गया है और पूँजी की उत्पादकता बढ़ गई है।
(2) पूँजी की गतिशीलता में सहायक- वस्तु की अपेक्षा द्रव्य में भार के अनुपात में मूल्य अधिक होता है। अतः द्रव्य के रूप में पूँजी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरलतापूर्वक भेजा जा सकता है। इस गतिशीलता के कारण ही अमेरिकन पूँजी भारतीय उद्योगों में लगाई जा रही है। भारत में पूँजी की कमी है और अमेरिका में पूँजी का आधिक्य।
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(3) साख का आधार- आज का व्यापार साख पर आधारित है और साख का आधार मुद्रा ही है। शाख पत्रों; जैसे-चेक, ड्राफ्ट, विनिमय बिल आदि का प्रयोग विस्तृत रूप से किया जाने लगा है और बैंक साख का निर्माण करते हैं। यह सब तभी सम्भव हो पाता है जब बैंकों के पास कोष में मुद्रा जमा हो। मुद्रा साख के निर्माण का आधार है। इस प्रकार, मुद्रा न केवल स्वयं भुगतान के माध्यम के रूप में कार्य करती है, बल्कि भुगतान के अन्य साधनों के निर्माण का आधार भी है।
(4) श्रम-विभाजन का आधार- आज जो बड़े पैमाने पर उत्पत्ति होने लगी है और सूक्ष्मतम श्रम-विभाजन पाया जाता है वह सब द्रव्य की कृपा का प्रासाद है। अनेक व्यक्तियों के प्रयत्नों से जो उत्पत्ति होती है उसे द्रव्य में विनिमय कर लिया जाता है। चूँकि द्रव्य चाहे जितने अंश में विभाजित किया जा सकता है। इसलिए प्रत्येक साधक को उसकी सेवा के अनुसार ठीक ठीक वितरित किया जा सकता है। द्रव्य के अभाव में ऐसा होना कठिन था।
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(IV) अन्य कार्य (Other Functions)
(1) शोधन क्षमता की गारण्टी- यदि कोई फर्म अपने दायित्व को मुद्रा में चुकाने में असमर्थ होती है तो उसे दिवालिया माना जाता है। चाहे उस समय भी फर्म की सम्पत्तियाँ उसके दायित्वों से बहुत अधिक क्यों न हों। इसी प्रकार जब कोई फर्म भविष्य में भुगतान का वचन देती है तब उसका यह अर्थ होता है कि फर्म ने भविष्य में मुद्रा द्वारा अपने दायित्व को चुकाने का वचन दिया है। इस तरह अपनी शोधन क्षमता को बनाये रखने के लिए प्रत्येक फर्म को अपने पास तरल रूप में कुछ न कुछ मुद्रा अवश्य जमा रखनी पड़ती है।
(2) तरलतादायक- हम तमाम सम्पत्ति एवं पूँजी को मुद्रा के रूप में रख सकते हैं जिससे आवश्यकतानुसार समय-समय पर वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, अर्थात् मुद्रा सब प्रकार की पूँजी को तरल रूप देती है। इस गुण के कारण ही पूँजी को पुराने और अलाभपूर्ण उद्योगों से निकालकर नये और लाभपूर्ण उद्योगों में लगाना सम्भव हो गया है और पूँजी की उत्पादकता बढ़ गयी है।
(3) निर्णय का वाहक- प्रो. ग्राहम ने मुद्रा के इस कार्य पर विशेष जोर दिया है। उनका कहना है मुद्रा द्वारा क्रय-शक्ति का जो संचय सम्भव हो जाता है, उसमें जमा करने वाले के लिए भविष्य में अवसर रहता है कि वह भावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए संचित क्रय-शक्ति का उत्तम उपयोग कर सके । मनुष्य जिस समय धन संचय करता है, उस समय इस धन संचय का उद्देश्य निर्धारित करना कठिन होता है और यदि उद्देश्य निर्धारित कर भी लिया जाता है तब यह आवश्यक नहीं है कि भविष्य में मनुष्य का उद्देश्य पहले जैसा ही रहे। इसमें परिवर्तन भी हो सकता है।
मुद्रा का महत्व
मुद्रा के महत्व को स्पष्ट करते हुए क्राउथर ने लिखा है- "जो महत्व यन्त्रशास्त्र में पहिए का है, विज्ञान में अग्नि का तथा राजनीति में मत का है वही स्थान मनुष्य के जीवन में मुद्रा के आविष्कार का है।" वर्तमान समय में मुद्रा के महत्व को निम्न शीर्षकों के तहत् स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) आर्थिक जीवन का नियन्त्रक- देश के आर्थिक जीवन की रचना करने में मुद्रा की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। मुद्रा के स्वरूपों में परिवर्तन होने के साथ-ही-साथ आर्थिक जीवन के स्वरूपों में भी परिवर्तन होता रहता है। हमारा जीवन सहज होगा या अस्त-व्यस्त, इसका अनुमान अपने देश की मुद्रा प्रणाली से लगा सकते हैं। जैसे ही मुद्रा सहज गति से कार्य करना बन्द कर देती है, वैसे ही प्रत्येक चीज प्रभावित होती है।
(2) सामाजिक सुधार का महत्वपूर्ण साधन- मुद्रा रहित अवस्था में जब लगान और मजदूरी का भुगतान वस्तुओं के रूप में किया जाता था, तब किसानों और श्रमिकों को भारी नुकसान सहन करना पड़ता था, लेकिन अब मुद्रा का प्रयोग होने पर, उन्हें मजदूरी मुद्रा में मिलती है तथा लगान भी मुद्रा में चुकाना पड़ता है। इससे वे दासता से मुक्त हो गये हैं और अपने श्रम का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। इस प्रकार मुद्रा एक अत्यन्त मूल्यवान साधन है जिसने आर्थिक कल्याण में वृद्धि की है।
(3) पूँजी प्राप्त करने में सुगमता- उत्पादक मुद्रा के कारण ही अपने लिए आवश्यक पूँजी प्राप्त करने में सफल होता है। यदि मुद्रा न होती तो धन एकत्र करना असम्भव था और उसके परिणामस्वरूप बड़ी कम्पनियों एवं साझेदारियों का जन्म भी असम्भव था।
(4) राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत होना- विनिमय का आधुनिक यन्त्र मुद्रा देश में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में सहायक होती है। मुद्रा के अधिक प्रयोग से तथा विनिमय यन्त्र के जटिल होने से गाँव की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी और लोगों को एक-दूसरे पर निर्भर रहने के लाभों का पता चल गया। इससे लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ।
(5) बड़े पैमाने पर उत्पादन सम्भव- उत्पादक कच्चा माल मुद्रा द्वारा क्रय कर सकता है, श्रमिकों को किराये पर रख सकता है और उत्पादन की समस्त आवश्यकताओं को मुद्रा द्वारा पूरी कर सकता है। इस प्रकार मुद्रा द्वारा ही बड़े पैमाने पर उत्पादन सम्भव हो सका है।
(6) भविष्य में भुगतान- मुद्रा के कारण ही यह संम्भव हो सका है कि उपभोक्ता वर्तमान में क्रय की गई वस्तु का मूल्य भविष्य में दे।
(7) क्रय-शक्ति- मुद्रा में क्रय-शक्ति है। मनुष्य मुद्रा से संसार की प्रत्येक वस्तु क्रय कर सकता है। साधारण वस्तुओं और सेवाओं की तो बात ही क्या, वह मुद्रा द्वारा प्रेम, दया, शक्ति, मान आदि भी पा सकता है। समाज में उसी का मान बढ़ता है, जिसके पास मुद्रा है जिसके पास मुद्रा नहीं है वह अत्यन्त गरीब एवं दीन समझा जाता है। मुद्रा में क्रय-शक्ति होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति इसे पाने का इच्छुक रहता है।
(8) मुद्रा का संचय- प्रत्येक व्यक्ति भविष्य की विपत्तियों के हेतु कुछ न कुछ धन बचाना चाहता है, जिससे उसे भविष्य में कठिनाई न उठानी पड़े। उपभोक्ता मुद्रा का संचय करके भविष्य में अन्य वस्तुओं को क्रय करने का अधिकार प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मुद्रा का यह संग्रह भविष्य के लिए सीमा का कार्य करता है।
(9) राजनीतिक जागृति को बढ़ावा- मुद्रा ने राजनैतिक स्वतन्त्रता के विकास में बड़ी सहायता की है। इसी के फलस्वरूप राजनैतिक स्वाधीनता का निर्माण हुआ है। जब मनुष्य अपनी आय का कुछ भाग कर के रूप में देते हैं तो उन्हें खटकता है और उनमें नागरिकता की चेतना जाग्रत हो जाती है। जनतन्त्र का तो यह नारा बन गया है कि बिना प्रतिनिधित्व कोई कर नहीं। इसके कारण जनता सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षक बन जाती है और उसे असुरक्षित रखने के लिए शासन वर्ग के अधिकारों की माँग करती है।
(10) मुदा समाज की आर्थिक उन्नति की सूचक होती है- जिस प्रकार एक बैरोमीटर किसी स्थान का तापक्रम और थर्मामीटर शरीर के तापक्रम सूचित कर देता है, उसी प्रकार मुद्रा भी समाज की आर्थिक उन्नति का सूचक है। कौन-सा देश आर्थिक क्षेत्र में उन्नति कर चुका है उसका पता हमें वहाँ की मुद्रा प्रणाली से चल सकता है, क्योंकि जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे मुद्रा प्रणाली में भी उसके अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं।