मीराबाई का जीवन परिचय : Meerabai Ka Jeevan Parichay Class-9

कवयित्री को जानें

ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थी। मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बन्द कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में राठौर रत्नसिंह के घर में गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया।

मीराबाई का जीवन परिचय : Meerabai Ka Jeevan Parichay Class-9

आइए, कुछ नया जानते हैं?

जब मीराबाई ने राणा के अत्याचारों से तंग आकर घर त्याग दिया था तो उस क्षेत्र में अकाल मृत्यु, महामारी, अकाल, (दुर्भिक्ष) की मार शुरू हो गई थी। ज्योतिषियों ने बताया कि आपके नगर से संत रुष्ट होकर चला गया है। जिस कारण से यह उपद्रव हो रहा है। समाधान बताया कि यदि वह संत जीवित मिल जाए और वापिस मनाकर प्रसन्न करके लाया जाए तो वह आशीर्वाद देकर सब ठीक कर सकता है।

कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थी। जब मीरा की नजर श्रीकृष्ण की मूर्ति एफ गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयी। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।

जीवन परिचय

मीराबाई का जन्म सन् 1498 में राजस्थान के प्रसिद्ध राठौर वंश में हुआ। इनके पिता का नाम राव रत्नसिंह था। इनका जन्म-स्थान मेड़ता राज्य का चौकड़ी ग्राम माना जाता है। मीराबाई जब छोटी थीं तभी इनकी माता का निधन हो गया; अतः इनका लालन-पालन इनके बाबा राव दूदा ने किया।

राव दूदा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृत्ति के थे, जिसका प्रभाव मीरा के जीवन पर भी पड़ा था। आठ वर्ष की मीरा ने कब श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार लिया, यह बात कोई न जान सका।

मीराबाई का विवाह राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ सन् 1516 में हुआ था। काल की ऐसी गति हुई कि कुछ वर्ष बाद ही मीराबाई विधवा हो गई। युवावस्था का वैधव्य मीराबाई की जीवन-धारा को ही प्रभावित कर गया। इनकी सारी चित्तवृत्तित्वं गिरिधर गोपाल में केन्द्रित हो गई। विधवा होने के बाद इनका अधिकांश समय साधु सन्तों की संगति में व्यतीत होने लगा। इनका यह व्यवहार उदयपुर की राजमर्यादा के विरुद्ध था अतः परिवार के लोग इनसे रुष्ट रहते थे, परन्तु इन पर इस बात का कोई असर नहीं था कहा जाता है कि यह प्रेम-दीवानी द्वारिका में कृष्ण की मूर्ति के समक्ष 'हरि तुम हरो जन की पीर' गाती हुई उस मूर्ति में ही सन् 1546 में समा गई। इस प्रकार कृष्ण की दीवानी मीरा कृष्णमय हो गईं।

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साहित्यिक परिचय

मीराबाई का काव्य सगुण भक्ति रस में डूबा है। इनके आराध्य श्रीकृष्ण हैं और इनकी भक्ति साधना ही काव्य साधना है। इनके काव्य में इनके हृदय की सरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। ईश्वर से दाम्पत्य-प्रेम के रूप में व्यक्त इनकी भावानुभूतियों मधुर गीत बनकर एक धरोहर बन गई हैं। विरह की स्थिति में इनके वेदनापूर्ण गीत अत्यन्त हृदयस्पर्शी बन पड़े हैं। इनका प्रत्येक पद सच्चे प्रेम की पीर से परिपूर्ण है। भाव-विभोर होकर गाये गये तथा प्रेम एवं भक्ति से ओत-प्रोत इनके गीत आज भी तन्मय होकर गाये जाते हैं। कृष्ण के प्रति प्रेमभाव की व्यञ्जना ही इनकी कविता का उद्देश्य रहा है।

हिन्दी-साहित्य में जो स्थान सूरदास, कबीरदास और तुलसीदास को प्राप्त है, वही मीराबाई को भी है। वह हिन्दी-साहित्य-सरोवर की एक अद्वितीय छटा है। हिन्दी-साहित्य उद्यान इस कोकिला-कण्ठी से सदैव मुखरित रहेगा। मीराबाई के काव्य का भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही समृद्ध है। हिन्दी-साहित्याकाश मीराबाई की मधुर वाणी से युग-युग तक गुंजित होता रहेगा।

कृतियाँ

भक्ति-रस में सराबोर इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नवत् हैं

  1. नरसी जी का मायरा
  2. गीत-गोविन्द की टीका
  3. राग-गोविन्द
  4. मीराबाई की मल्हार
  5. राग-सोरठा के पद
  6. गरबा गीत
  7. राग-विहाग तथा फुटकर पद
  8. मीरा की पदावली

नरसी जी का मायरा कृति में मौरा द्वारा गुजरात के प्रसिद्ध भक्त कवि नरसी मेहता की प्रशंसा की गई है।

भाषा

मीराबाई के पदों में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषा का मिश्रण पाया जाता है। कहीं-कहीं पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी भाषा का प्रयोग भी मिल जाता है। भक्ति और प्रेम रस में डूबी मीरा ने उपयुक्त शब्दों का सहज रूप से प्रयोग करते हुए अपने पदों की भाषा को भावपूर्ण बनाया है।

शैली

मीराबाई के सभी पद गीतात्मक है। इनमें लय और संगीतात्मकता की प्रधानता है। इसलिए इनमें भावपूर्ण शैली और मुक्तक शैली के दर्शन होते हैं।

साहित्य में स्थान

साहित्यकारों ने मीराबाई के काव्य में प्रेम और भक्ति की गहनता देख उन्हें 'प्रेम दीवानी मीरा' की संज्ञा प्रदान की है। मध्ययुगीन राजस्थानी और हिन्दी साहित्य में उनका काव्य अनुपम है।

मीराबाई ने तुलसीदास को गुरु बनाकर रामभक्ति भी की। कृष्णभक्त मीरा ने राम भजन भी लिखे हैं, हालांकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है, लेकिन कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि मीराबाई और तुलसीदास के बीच पत्रों के जरिए संवाद हुआ था। माना जाता है मीराबाई ने तुलसीदास जी को पत्र लिखा था कि उनके घर वाले उन्हें कृष्ण की भक्ति नहीं करने देते। श्रीकृष्ण को पाने के लिए मीराबाई ने अपने गुरु तुलसीदास से उपाय माँगा। तुलसीदास के कहने पर मीरा ने कृष्ण के साथ ही रामभक्ति के भजन लिखे। जिसमें सबसे प्रसिद्ध भजन है- पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

पदावली

भूमिका (काव्य के विषय में)

पदावली काव्य का वर्ण्य-विषय एकमात्र नटवर नागर श्रीकृष्ण का मधुर प्रेम है। विनय तथा प्रार्थना सम्बन्धी पद-जिनमें प्रेम सम्बन्धी आतुरता और आत्मस्वरूप समर्पण की भावना निहित है। कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन सम्बन्धी पद-जिनमें मनमोहन श्रीकृष्ण के मनमोहक स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गयी है। मीरा को रामरतन रूपी धन प्राप्त हो गया है, इस घन की विशेषता है कि इसको खर्च नहीं किया जा सकता है और न चुराया जा सकता है अपितु प्रयोग करने से दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहता है। मीरा सतगुरु से राम ताम रूपी रत्न पाकर स्वयं को धन्य मान रही है। उनके अनुसार यह नाम-रत्न अमूल्य धन है। यह उन्हें गुरु कृपा से ही प्राप्त हुआ है।

काव्य संदेश

भगवान की दिव्य उपस्थिति का अनुभव करने का एक ही साधन है- वह है भक्ति।

काव्य प्रवेश

 

बसो मेरे में नंदलाल।

मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरुण तिलक दिये भाल।।

मोहनि मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल।

अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल ।।

छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल ।।

 

पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।

जनम जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।

खरचै नहिं कोड़ चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो ।।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भव-सागर तर आयो।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायो॥

 

माई री मैं तो लिया गोविन्दो मोल।

कोई कहै छाने कोई कहे चुपके, लियो री बजन्ता ढोल ।।

कोई कहै मुँहघो कोई कहै सुहह्यो, लियो री तराजू तोल।

कोई कहै कारो कोई कहै गोरो, लियो री अमोलक मोल।।

याही कूँ सब जाणत हैं, लियो री आँखी खोल।

मीरा कूँ प्रभु दरसण दीन्यौ, पूरब जनम कौ कौल॥

 

मैं तो साँवरे के रंग राँची।

साजि सिंगार बाँधि पग घुँघरू, लोक-लाज तजि नाँची ।।

गयी कुमति लई साधु की संगति, भगत रूप भई साँची।

गाय-गाय हरि के गुण निसदिन, काल ब्याल सूँ बाँची।।

उण विन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची।

मीरा श्री गिरधरन लाल हूँ, भगति रसीली जाँची ।।

 

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई ।।

तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई।

छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।

संतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।

अँसुवन जल सींधि-सींचि, प्रेम बेलि बोई।

अब तो बेल फैल गयी, आणंद फल होई।

भगति देखि राजी हुई. जगत देखि रोई ॥

दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोई ।।


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