लोक संस्कृति की अवधारणा का प्रतिपादन रॉबर्ट रेडफील्ड ने किया है। यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना है कि जिन अर्थों में रेडफील्ड ने 'Peasant Culture' (लोक संस्कृति) शब्द का प्रयोग किया, उन्हीं अर्थों में जार्ज एम. फोस्टर ने 'Folk Culture' (लोक संस्कृति) शब्द का। इस प्रकार 'Peasant Culture' एवं 'Folk Culture' एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं। मूल रूप इन दोनों ही विद्वानों का सम्बन्ध वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिए 'लोक संस्कृति' की जानकारी करना अति आवश्यक है। इस संदर्भ में श्री देसाई ने अपनी पुस्तक 'Rural Sociology in India' में लिखा है कि "यदि हम ग्रामीणजनों के सांस्कृतिक जीवन के परिवर्तित प्रतिमानों का भली-भाँति अध्ययन आवश्यक है।"
लोक संस्कृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम लोक संस्कृति की अवधारणा को समझ लेना अति आवश्यक है किन्तु इससे पूर्व यदि हम लोक एवं संस्कृति का पृथक् पृथक् अर्थ समझ लें तो अधिक उचित होगा।
लोक एवं संस्कृति का अर्थ
लोक का अर्थ
लोक (Folk) जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है कि लोक संस्कृति शब्द दो शब्दों लोक (Folk) तथा संस्कृति से मिलकर बना है। लोक शब्द ग्राम शब्द का पर्यायवाची शब्द मात्र नहीं है। डॉ. हजारी प्रसाद के अनुसार, "लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है बल्कि नगरों या ग्रामों में फैली हुई है वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पुस्तकें नहीं हैं।"
डॉ. रवीन्द्रनाथ भ्रमर ने लोक संस्कृति की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए लिखा है, "एक आधुनिक विशेषण के रूप में इस शब्द का अर्थ ग्राम्य या जनपदीय दृष्टि से केवल गाँव ही नहीं वरन् नगरों, जंगलों, पहाड़ों और टापुओं में बसा हुआ है वह मानव समाज है जो जो अपने परम्परागत रीति-रिवाजों आदिम विश्वासों. के प्रति आस्थाशील होने के कारण अशिक्षित व अल्प सभ्य कहा जाता है, लोक का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार लोक शब्द का तात्पर्य उन परम्परागत समाजों तथा गाँव जनजातीय समुदाय से हैं, जिसमें आधुनिक सभ्यता का प्रायः अभाव रहता है।
संस्कृति का अर्थ
संस्कृति का तात्पर्य किसी समाज की उस सम्पूर्ण विरासत से है जिसके अन्तर्गत रीति-रिवाज, परम्पराओं, धर्म, कला, विज्ञान, कानून, मनोरंजन के साधन आदि का समावेश होता है और जिसकी अभिव्यक्ति समाज के सदस्यों के रहन-सहन और विचार के तरीकों में होती है। मैकाईवर ने संस्कृति की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है, "संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द पाये जाने वाले रहन-सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।" श्री हरिदत्त वेदालंकार ने संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है, "मन और आत्मा को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नसि करता है उसे संस्कृति कहते हैं, इसमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक व राजनैतिक संस्थाओं का समावेश होता है।"
लोक संस्कृति की परिभाषाएँ
(1) डॉ. सम्पूर्णानन्द के अनुसार- "लोक संस्कृति वह जीती-जागती चीज है जिसके द्वारा लोक की आत्मा बोलती है।"
(2) डॉ. श्रीराम शर्मा के अनुसार- "लोक संस्कृति ऐसी सहज सीधी-सादी एवं प्राकृतिक धारा के सदृश्य बनावटी एवं साज-सज्जा से दूर रहने वाली संस्कृति की परिचायक है।"
लोक संस्कृति की विशेषताएँ
लोक संस्कृति की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं-
(1) लोक संस्कृति में सामूहिकता रहती है- इसके गुण व प्रतिमान पैतृक होते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं और इसलिए उनमें सरलता एवं सादगी रहती है और इसमें सभी लोग भाग लेते हैं।
(2) यह परिवारात्मक से सम्बन्धित होती हैं- इसके अन्तर्गत आने वाली प्रत्येक क्रिया, कला, साहित्य, संगीत आदि पर परिवारात्मकता की अमिट छाप रहती है। यह मुख्य रूप से जन्म, विवाह, मृत्यु, बीमारी आदि से सम्बन्धित होती है।
(3) लोक संस्कृति लोगों के जीवन से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होती है- ग्रामीणों एवं जनजातियों के जीवन का ऐसा कोई पक्ष न होगा जो लोक संस्कृति से सम्बन्धित न हो। धर्म, जादू, आध्यात्मिकता इत्यादि से यह विशेष रूप से सम्बन्धित होती है।
(4) लोक संस्कृकि कृषि जीवन से ओत-प्रोत होती है- कृषक सामूहिक रूप से कृषि सम्बन्धी प्रत्येक क्रिया के लिए अलग-अलग लोक-संगीत, कथाएँ, नृत्य आदि का आयोजन करते हैं।
(5) लोक संस्कृति अव्यापारिक होती है- वास्तव में लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति व प्रदर्शन का उद्देश्य कोई मुनाफा कमाना नहीं होता है बल्कि इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करना है।
(6) लोक संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है- लोक संस्कृति को प्रत्येक पीढ़ी से 'सामाजिक विरासत' के रूप में प्राप्त करती है, परिवार इसका 'माध्यम' होता है।
(7) लोक संस्कृति को स्थानीय तथा संकुचित संस्कृति या परम्परा नहीं माना जा सकता- वास्तव में इसके फैलाव का क्षेत्र काफी विस्तृत है। लोक संस्कृति में सम्बन्धित विचारों, मूल्यों, समस्याओं और सांस्कृतिक स्वरूपों का यदि गहराई से अवलोकन एवं अध्ययन किया जाए, तो इनमें मौलिक एकता दिखायी पड़ेगी। इनका बाह्य स्वरूप देश की विभिन्न क्षेत्रों में विविधता लिए हुए हो सकता है परन्तु इसमें आंतरिक एकता अवश्य पायी जाती है। प्रो. उन्नीथान और उनके सहयोगियों ने से बताया कि प्रत्येक ग्राम में कुछ ऐसे देवता पाये जाते हैं जो उसे ग्राम विशेष के स्वयं में ही हैं लेकिन यदि उनका तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किय जाए तो मालूम पड़ेगा कि 'जनसाधारण के विश्वास और अनुष्ठान की प्रणालियों मौलिक रूप से करीब-करीब सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक सी हैं, हालांकि अभिजात धार्मिक प्रणालियों से कुछ मामलों में भिन्न भी हैं।
(8) लोक संस्कृति को जीवन के एक सामान्य ढंग के रूप में देखा जा सकता है- लोक संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी देवी-देवता, धार्मिक विधि-विधान अथवा अनुष्ठान, विश्वास, ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत, कहावरे, मुहावरें, लोक-गाथाएँ, नाटक आदि आते हैं जिनका स्रोत प्रत्यक्ष रूप से कोई धर्म-ग्रन्थ या कोई अन्य पुस्तक नहीं है ये मौखिक रूप से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक ऐसे देवी-देवतओं की पूजा की जाती है और कई ऐसे त्योहार मनाये जाते हैं जिनके फैलाव का क्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है तथा जिनका उद्गम कोई न कोई अखिल भारतवर्षीय धर्म ग्रन्थ है। ऐसी देवी-देवता का त्योहार संस्कृति की अभिजात परम्परा या वृहत् परम्परा से संम्बन्धित है लेकिन साधारणतः प्रत्येक ग्राम में कुछ ऐसे देवी-देवता, मेले, अनुष्ठान आदि भी पाये जाते हैं जो उस स्थान या क्षेत्र विशेष से ही संस्कृति की अपनी स्वयं की विशिष्ट विशेषताएँ हैं। लोक संस्कृति में स्वयं की सृजनात्मक क्षमता भी पायी जाती है और इसके विस्तार का क्षेत्र काफी व्यापक है।
(9) लोक संस्कृति एक सरल संस्कृति है- इसकी कला परम्परा साहित्य धर्म एवं दर्शन आदि में जटिलता नहीं पायी जाती है। इसमें विशेषीकरण का अभाव पाया जाता है। कलाकारी की वस्तुएँ निर्माण करने के यंत्र एवं उपकरण सरल होते हैं जिनका निर्माण गाँवों में ही सामान्य ज्ञान के आधार पर कर लिया जाता है। मौखिक आधार पर ही सम्पूर्ण संस्कृति का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरण हो जाता है।
(10) लोक संस्कृति लघु सम्प्रदायों एवं कृषक समाजों की संस्कृति है- लोक संस्कृति के दर्शन हमें लघु समुदायों एवं कृषक समाज में होते हैं। ये ही उनके गढ़ एवं कार्य क्षेत्र हैं न कि नगरीय समाज।