जैन धर्म के उदय के कारण
छठी शताब्दी ई. पू. एक बौद्धिक और आध्यात्मिक क्रान्ति का युग था जिसमें विश्व के विभिन्न भागों में मनुष्य की जिज्ञासा युग-युग की संचित धारणाओं, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास एवं अंध श्रद्धा के आवरण को हटाकर प्रत्येक मान्यता के अन्तर्निहित सत्य को खोजने के लिए लालायित थी। इस तर्कशीलता एवं जिज्ञासा का ही यह परिणाम था कि ई. पू. छठी शताब्दी में विश्व के अनेक स्थानों पर युग-प्रवर्तकों का जन्म हुआ, नवीन धर्मों की स्थापना हुई एवं पुरानी मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास हुआ।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में जैन के उदय के निम्नांकित कारण थे-
(1) सामाजिक कुव्यवस्था- छठी शताब्दी ई. पू. का भारतीय समाज रूढ़िवादी प्रवृत्ति एवं अनेक प्रकार की कुव्यवस्था से ग्रस्त था। इस समय वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गई थो तथा जाति प्रथा का महत्व बढ़ता जा रहा था। समाज अन्धविश्वासों से जकड़ता जा रहा था तथा मनुष्यों का विश्वास भूत-प्रेत, जादू-टोनों आदि में बढ़ रहा था। इन कुप्रथाओं एवं अन्धविश्वासों से यह निश्चित था कि क्रान्ति अवश्य होगी।
(2) ब्राह्मणों का नैतिक पतन- इस धार्मिक पतन का एक मुख्य कारण ब्राह्मणों का नैतिक पतन भी था। इस समय ब्राह्मण वर्ग सत्य मार्ग का त्याग करके असत्य मार्ग की ओर अग्रसर था। ब्राह्मणों में भोग-विलास की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। यद्यपि ब्राह्मणों का नैतिक पतन हो चुका था तथापि समाज में उनका अभी तक मान-सम्मान बना हुआ था, जिसके कारण भी लोगों में उनके प्रति क्षोभ की भावना बलवती हो गई। इन परिस्थितियों में क्रान्ति का होना आवश्यक ही था।
(3) कर्मकाण्डों तथा यज्ञों का प्राबल्य- इस समय तक कर्मकण्डों एवं व्ययशील यज्ञों का बहुत अधिक प्रचलन हो गया था। अब धर्म में आचार-विचारों के स्थान पर कर्मकाण्डों को महत्व दिया जाने लगा था। पुरोहित वर्ग का मान अधिक बढ़ गया था। यज्ञों में पशुबलि दी जाने लगी थी तथा यज्ञों के लिए मूल्यवान सामग्रियों की आवश्यकता थी। इन सामग्रियों को साधारण वर्ग के लिए जुटाना कठिन कार्य था। अतः यज्ञ केवल धनी वर्ग ही करा सकता था। शूद्रों के लिए वेदों का पठन-पाठन एवं यज्ञ क्रिया आदि करना निषिद्ध था, जिसके कारण इन कर्मकाण्डों के विरुद्ध जनता में असन्तोष व्याप्त हो गया था। आर्यों का सरल एवं सीधा-सादा धर्म इस समय तक अत्यधिक जटिल और दोषपूर्ण होने लगा था जिसमें सुधारों की अत्यधिक आवश्यकता थी।
(4) शूद्रों की दयनीय स्थिति- इस समय शूद्रों की स्थिति दयनीय हो गई थी। उनका कार्य केवल सबकी सेवा करना मात्र ही रह गया था। उनके लिए धर्मशास्त्रों का अध्ययन एवं श्रवण करना तथा, यज्ञ, तप, हवन आदि करना वर्जित था। उन्नति के द्वार उनके लिए बन्द थे। अतः शूद्र वर्ण में ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध भावना बलवती हो गई थी।.
(5) धार्मिक चिन्तन की स्वतन्त्रता- छठी शताब्दी ई. पू. में प्राचीन वैदिक धर्म अब सरल नहीं रह गया था, उसमें अनेक आडम्बरों व अन्धविश्वासों ने अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। अतः उपनिषदों के काल से ही उसमें सुधार की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। यही कारण था कि छठी शताब्दी ई. पू. में दार्शनिकों तथा विचारकों की एक बाढ़ सी आ गई थी, जिन्होंने अन्ध श्रद्धा पर आधारित धार्मिक मान्यताओं का खण्डन करना शुरू किया तथा अपने विचारों से मुक्ति के सरल मार्गों की खोज की।
(6) बहुदेववाद- इस समय तक ब्राह्मण धर्म में अनेक देवी-देवताओं को माना जाने लगा था। यद्यपि ऋग्वैदिककालीन देवताओं को मनुष्य का हितैषी माना गया था किन्तु उसके बाद के युग में वे स्वेच्छाचारी, निरंकुश तथा मनुष्य के भाग्य विधाता मान लिए गए थे। इन देवताओं की कृपा पाना आवश्यक समझा जाने लगा था, जिसके लिए अनेक प्रकार के जप-तप एवं साधनों का प्रयोग किया जाने लगा। परिणामस्वरूप व्यक्ति अपना आत्मविश्वास, व्यक्तित्व एवं पुरुषार्थ खो बैठा, जिसके कारण ही प्रगतिशील विचारकों ने मनुष्य को इस दयनीय स्थिति से उबारने के लिए अपने विचारों के जगत में एक क्रान्ति का श्रीगणेश किया, जिसके माध्यम से जनता में यह विश्वास पैदा किया गया कि मनुष्य के भाग्य विधाता देवता नहीं हैं अपितु उसके अपने कर्म ही हैं।
(7) धार्मिक जटिलता- प्रारम्भ में वैदिक धर्म अत्यन्त सरल था किन्तु कालान्तर में उसमें जटिलता आनी शुरू हो गई। अब बहुदेवी-देवताओं की पूजा व आडम्बरों को अधिक माना जाने लगा। भविष्य में इन समस्त बातों का यह परिणाम हुआ कि इस धार्मिक जटिलता का विरोध होना शुरू हो गया। गूढ़ दार्शनिक सिद्धान्तों के बीच किस मार्ग का अनुसरण करे। छठी शताब्दी ई. पू. के नए धर्म प्रचारकों के सम्पूर्ण वादों से अलग एक अत्यधिक सरल मार्ग दिखाया जिसे जनमानस ने बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार किया।
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक
जैन धर्म का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है। कुछ विद्वानों ने तो जैन धर्म का सम्बन्ध वैदिक साहित्य में वर्णित श्रमण विचारधारा से जोड़ा है, यद्यपि इस सम्बन्ध में ठोस प्रमाण नहीं मिलते, परन्तु फिर भी यहाँ पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि न तो जैन धर्म छठी शताब्दी ई. पू. की देन है और न ही महावीर स्वामी इस धर्म के प्रवर्तक थे। महावीर स्वामी इस धर्म के 24वें और अन्तिम तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी से पूर्व के तीर्थंकरों के नाम निम्नलिखित थे-
- ऋषभदेव,
- अजीतनाथ,
- सम्भवनाथ,
- अभिनन्दन,
- सुमतिनाथ,
- पद्मप्रभु,
- सुपार्श्वनाथ,
- चन्द्रप्रभु,
- सुविधि,
- शीतल,
- श्रेयांस,
- वासुपूज्य,
- विमल,
- अनन्त,
- धर्म,
- शान्ति,
- कुन्थ,
- अर,
- मल्लि,
- मुनिसुव्रत,
- नेमिनाथ,
- अरिष्टनेमि,
- पार्श्वनाथ।
उपुर्यक्त 24 तीर्थंकरों के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती किन्तु 23 वें तीर्थंकर के विषय में हमें विशेष जानकारी प्राप्त होती है। इतिहासकार जैकोबी पार्श्वनाथ को ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक मानते हैं। ब्राह्मणों की परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ की गणना भगवान के 24 अवतारों में ही की जाती है। कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म महावीर स्वामी के जन्म से लगभग 250 वर्ष पूर्व माना गया है। पार्श्वनाथ के पिता अवश्सेन वाराणसी के राजा थे तथा उनकी माता का नाम वामा था। पार्श्वनाथ का विवाह कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती के साथ हुआ। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग दिया तथा संन्यासी हो गए। 83 दिनों की कठिन तपस्या के उपरान्त 84 वें दिन उनके हृदय में ज्ञान का उदय हुआ। इन्हें सम्मेय पर्वत पर इस ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान-प्राप्ति के बाद 70 वर्ष तक इन्होंने अपने विचारों का प्रचार किया तथा 100 वर्ष की आयु में इन्होंने शरीर का परित्याग किया। पार्श्वनाथ ने मुख्यतया चार व्रतों का पालन किया। ये व्रत निम्नलिखित थे-
- जीवित प्राणियों के प्रति हिंसा करना पाप है (अहिंसा),
- सदैव सत्य बोलना चाहिए (सत्य),
- चोरी नहीं करनी चाहिए (अस्तेय),
- सम्पत्ति के प्रति मोह नहीं करना चाहिए (अपरिग्रह)।
महावीर स्वामी का जीवन वृत्त
महावीर का जन्म वैशाली में कुण्ड ग्राम नामक स्थान पर 599 ई. पू. हुआ था। इसके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। त्रिशला वैशाली नरेश चेटक की बहन थी। महावीर अपने पिता की तीसरी एवं सबसे छोटी सन्तान थे। इनका बाल्यकाल राजकुमारों की भाँति बीता। छोटी-सी आयु में ही इन्हें समस्त विद्याओं का ज्ञान हो गया था। महावीर का विवाह यशोदा नामक राजकन्या से हुआ। उनके एक पुत्री ने भी जन्म लिया, जिसका विवाह जामिल नामक क्षत्रिय से हुआ था। 30 वर्ष तक महावीर ने गृहस्थ जीवन का सुख भोगा तथा पिता की मृत्यु के उपरान्त उन्होंने भिक्षु बनने का दृढ़ निश्चय कर लिया तथा अत्यन्त कठोर तप करना शुरू कर दिया। बारह वर्ष की घोर तपस्या के उपरान्त 'जाम्मिक' नामक ग्राम के पास ऋजुपालिका नदी के तट पर वर्द्धमान को कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई, तभी से उन्हें 'केवलिन' की उपाधि प्राप्त हुई। इन्द्रियाँ को जीतने के कारण ये 'जिन' कहलाए। ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त महावीर ने धर्म-प्रचार का कार्य करना शुरू कर दिया। भाग्यवश उन्हें अनेक राजघरानों का सहयोग प्राप्त हुआ। महावीर अपने धर्म के प्रचार के लिए जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे। ई. पू. 527 में पटना के पावापुरी नामक स्थान पर महावीर का देहान्त हुआ।
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जैन धर्म के सिद्धान्त अथवा महावीर स्वामी की शिक्षाएँ
जैन धर्म के सिद्धान्तों को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है-
- दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्त,
- व्यावहारिक सिद्धान्त, तथा
- अन्य विभिन्न दृष्टिकोण।
इस वर्गीकरण के अनुसार जैन धर्म के सिद्धान्तों तथा मान्यताओं का वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है-
(क) जैन धर्म के दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्त
जैन धर्म के दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
(1) त्रिरत्न- जैन धर्म में मोक्ष-प्राप्ति के लिए मनुष्य के लिए कर्म-विमुख होना आवश्यक माना गया है। अतः पूर्वजन्म के कार्यों से मुक्ति पाने के लिए त्रिरत्नों का पालन करना आवश्यक एवं अनिवार्य समझा गया है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चरित्र को ही त्रिरत्न कहा गया है। जैन धर्म के अनुसार 'पूर्व जन्म के कर्म- फल को नष्ट करने तथा इस जन्म के कर्म-फल से छुटकारा पाने के लिए 'त्रिरत्नों का पालन आवश्यक है।
(2) निर्वाण- जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति करना है। जैन धर्म का विश्वास है कि कर्म-फल से मुक्ति मिलने पर निर्वाण-फल की प्राप्ति सम्भव है। निर्वाण से तात्पर्य है वह अवस्था जब न तो सुख का ही अनुभव हो, न दुःख का और न कर्म का। निर्वाण के उपरान्त पूर्ण निर्बन्धता अनन्त शक्ति तथा असीमित ज्ञान प्राप्त करके आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
(3) निवृत्ति मार्ग- जैन धर्म का विश्वास है कि समस्त सुख प्राप्तियाँ, भोग, काम आदि दुःख में वृद्धि करते हैं तथा मनुष्य का समस्त जीवन मृत्यु के भय से सन्त्रस्त रहता है। भौतिक सुखों की प्राप्ति निरर्थक, निराधार तथा अर्थहीन है क्योंकि शरीर नाशवान है। इस विषय पर महावीर स्वामी का कथन है कि "सम्पत्ति, परिवार, समाज आदि का त्याग कर, भिक्षु बनो एवं परिभ्रमण करते रहो।
(4) स्यादवाद तथा अनेकान्तवाद- ज्ञान के वास्तविक अर्थ के विषय में जैन धर्म का दृष्टिकोण है कि व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही ज्ञान भेद का वास्तविक कारण है। अतः मनः स्थिति, वैचारिक शक्ति एवं योग्यता की क्षमता सभी में समान नहीं पाई जाती।
(5) कर्म तथा पुनर्जन्म- जैन धर्म का विश्वास है कि कर्म ही जीवन का मुख्य कारण है तथा कर्म मृत्युदायी भी होता है। कर्म के अनुसार ही मनुष्य को फल की भी प्राप्ति होती है और कर्म के ही द्वारा पुनर्जन्म भी होता है। जैन धर्म का विश्वास है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म-फल का नाश करे और इस जन्म के कर्म-फल संग्रहित न करे।
(6) अनेकात्मकवाद- आत्मा की एकता को जैन धर्म नहीं मानता, जैसा कि 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है कि "यदि सारे जीवित प्राणियों में एकात्मता होती तो उनका रूप, रंग और गतिविधि एकसमान होती। पृथक् पृथक् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कीड़े, मकोड़े तथा पक्षी नहीं होते। सभी या तो देवता ही होते या अदेवता।" इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को तो स्वीकार करता है किन्तु परम् आत्मकता को स्वीकार करता है। जैन धर्म इसके साथ-साथ आत्मा व धर्म के मध्य कोई सम्बन्ध नहीं मानता है।
(7) अहिंसा- जैन धर्म अहिंसा पर अधिक बल देता है। जैन धर्म निम्नलिखित 6 प्रकार के जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहारों को अहिंसा मानता है-
- पृथ्वीकाय,
- वायुकाय,
- जलकाय,
- अग्निकाय,
- वनस्पतिकाय,
- जसजीवा अर्थात् चलने-फिरने वाले जीव।
जैन धर्म का विश्वास है कि मन, वचन तथा शरीर की हिंसा करना भी अनुचित एवं धर्म-विरुद्ध कार्य है। जैन धर्म के लिए अहिंसा सम्मोहन के समान है और यह धर्म, मन, वचन अथवा कर्म से किए गए किसी भी असंयत आचरण को हिंसा मानता है।
(8) अनीश्वरवाद- जैन धर्म अनीश्वरवाद में विश्वास करता है तथा ईश्वर को सृष्टि का निर्माता मानने में संकोच करता है। इस धर्म का विश्वास है कि ईश्वर आत्मा के श्रेष्ठतम गुणों एवं ज्ञान का व्यक्तिकरण मात्र ही है। इस प्रकार जैन मतावलम्बी ईश्वर के स्थान पर उन जैन तीर्थंकरों की पूजा करते हैं जिनकी आत्माएँ बन्धन मुक्त होती हैं।
(ख) जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त
जैन तीर्थंकरों ने जिन व्यावहारिक सिद्धान्तों की व्यवस्था की है उनका वर्णन निम्नलिखित है-
(1) पंच महाव्रत- जैन धर्म में निम्नलिखित व्यावहारिक सिद्धान्तों को मान्यता प्रदान की है-
(i) अस्तेय महाव्रत- किसी भी दशा में दूसरों की वस्तु को ग्रहण न करके, उसे उसके वास्तविक स्वामी को लौटा देना अस्तेय कहलाता है। इस व्रत के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच उपव्रत होते हैं-
- बिना आज्ञा के किसी के गृह में निवास नहीं करना चाहिए।
- किसी भी गृह में बिना स्वामी की आज्ञा के कोई कार्य नहीं करना चाहिए।
- बिना आज्ञा के किसी के गृह में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
- बिना स्वामी की आज्ञा के किसी भी वस्तु का उपभोग नहीं करना चाहिए।
- गुरु की आज्ञा से ही भिक्षार्जित भोजन ग्रहण करना चाहिए।
(ii) अपरिग्रहवत- अपरिग्रह का वास्तविक अर्थ है- बिना आवश्यकता के किसी भी प्रकार के धन का संग्रह न करना। जैन धर्म का विश्वास है कि गृहस्थी तो धन संग्रह कर सकते हैं परन्तु भिक्षुओं के लिए ऐसा करना निषिद्ध है।
(iii) अहिंसा व्रत- जैन धर्म के अनुसार अहिंसा ही परम धर्म है। प्रत्येक धर्मानुयायी के लिए निम्नलिखित उपनियमों का निर्धारण किया गया है-
- एषणा समिति- भिक्षा तथा भोजन करते समय किसी प्राणी के प्रति हिंसा न की जाए।
- व्यंत्सग समिति- शौचादि क्रिया ऐसे स्थान पर की जाए जहाँ पर किसी जीव के प्रति हिंसा की सम्भावना न हो।
- इर्षा समिति- मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसे जाने या अनजाने में हिंसा नहीं करनी चाहिए।
- भाषा समिति- कठोर, अप्रिय, असत्य तथा दुर्वचन आदि नहीं बोलना चाहिए।
- आदानक्षेपक्षा समिति- मुनि के दैनिक व्यवहार में आने वाली सामग्री में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिए।
(iv) सत्य- कर्मक्षेत्र तथा भाषण में सत्य का पालन करने के लिए निम्नलिखित पाँच व्रतों का पालन करना आवश्यक है-
- क्रोध आने पर मौन धारण करना चाहिए।
- सोच-विचारकर सत्य भाषण करना चाहिए।
- लोभ होने पर मोन धारण करना चाहिए।
- हास-परिहास में भी सत्य बोलना चाहिए।
- भय होने पर भी सत्य बोलना चाहिए।
(v) ब्रह्मचर्य व्रत- जैन धर्म के चार सिद्धान्तों में जो पाँचवाँ सिद्धान्त महावीर स्वामी ने जोड़ा था वह था ब्रह्मचर्य। जैन धर्म के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने पर विशेष बल दिया गया है तथा इसके लिए पाँच उपव्रतों का पलान करना आवश्यक है-
- दूसरों की स्त्री की ओर दृष्टिकोण नहीं करना चाहिए।
- जिस घर में स्त्री रहती हो, उसमें निवास नहीं करना चाहिए।
- दूसरों की स्त्री से वार्तालाप नहीं करना चाहिए।
- पर स्त्री से संसर्ग अथवा समागम का ध्यान करना वर्जित है।
- ब्रह्मचर्य में व्यवधान उत्पन्न करने वाले पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए।
(2) गृहस्थियों के लिए अनिवार्य व्रत्त- उपर्युक्त पंच महाव्रतों का पालन करना गृहस्थियों के लिए सम्भव नहीं है। अतः गृहस्थ अनुयायियों के लिए निम्नलिखित नियम प्रतिपादित किए गए-
(i) पंच अणुव्रत्त- गृहस्थियों के लिए निम्नलिखित पाँच अणुव्रत अनिवार्य माने गये हैं-
- अस्तेयाणु व्रत- कोई भी कार्य ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे दूसरे गृहस्थ के कार्यों में कोई हस्तक्षेप हो।
- अहिंसाणु व्रत- जहाँ तक सम्भव को सके, हिंसा नहीं करनी चाहिए।
- ब्रह्मचर्याण व्रत- पर-नारी के विषय में सोचना नहीं चाहिए तथा गृहस्थ सीमाओं के अन्तर्गत ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
- अपरिग्रहाणु व्रत- धन का संग्रह केवल आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए।
- सत्याणु व्रत- मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य का ही अनुसरण करे।
(ii) चार शिक्षा व्रत- प्रत्येक गृहस्थ के लिए निम्नलिखित चार शिक्षा व्रतों का पालन करना आवश्यक है-
- तीन संध्याओं को सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर चिन्तन करना चाहिए।
- विद्वानों, भिक्षुओं तथा मुनियों का सदैव अभिनन्दन तथा स्वागत करना चाहिए।
- एक ऐसे क्षेत्र का निर्धारण करना चाहिए जिससे कभी भी पदार्पण न करें और न ही उसके विषय में सोचें।
- अष्टमी व चतुर्दशी को मुनियों के समान जीवन व्यतीत करना चाहिए और धार्मिक कथाओं का श्रवण करना चाहिए।
(ग) जैन धर्म के अन्य विभिन्न दृष्टिकोण
(1) आचार तत्व- जैन धर्म में आचार तत्वों को महत्ता प्रदान की गई है। जैन धर्म में व्रतबद्ध, संयमित तथा सदाचारों जीवन को निर्वाण प्राप्ति का साधन मानते हुए बाह्य शुद्धि की अपेक्षा अन्तःकरण की शुद्धि पर अधिक बल दिया गया है; जैसा कि जैन ग्रन्थ 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है, "धर्म मेंरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति वीर्य है तथा जो चरित्राचार के गुणों से सम्पन्न है, जो सर्वोत्तम संयम का पालन करता है जिससे समस्त आश्रमों पर नियन्त्रण पा लिया वही विपुल, उत्तम व परम मोक्ष को प्राप्त करता है।" अतः जैन धर्म ने जन्मगत आधार पर मान्य वर्ण-व्यवस्था का घोर विरोध किया है तथा इसके स्थान पर आचार तत्व को प्रधानता दी है।
(2) नारी स्वतन्त्रता- जैन धर्म नारी को भी पुरुषों के समान आध्यात्मिक क्षमता के विकास द्वारा निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार देता है। स्वामी महावीर नारी स्वतन्त्रता के समर्थक थे। यही कारण था कि अनेक विलक्षण एवं सम्भ्रान्त नारियों ने जैन धर्म में शिक्षा ग्रहण की जिसके कारण जैन धर्म में श्रमणी तथा श्राविका के रूप में दो नारी वर्गों की स्थापना कर दी गई थी।
(3) पाप- जैन धर्म में निर्वाण प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करने वाले पापों का भी उल्लेख किया गया है। जैन मतानुसार पापों के भार से जीव नर्क में स्थान प्राप्त करता है। व्यावहारिक तथा दार्शनिक दृष्टि से पाप अमानवीय माने जाते हैं। प्राणतिपात, अस्त्यमैथुन, चोरी, अपरिग्रह, मान, क्रोध, माया, मोह, लोभ, राग, द्वेष, निन्दा, कलह, चुगली, असंयम, छल-कपट तथा मिथ्यादर्शन पाप के विभिन्न रूप हैं।
(4) नग्नता- जैन धर्म का विश्वास है कि आसक्ति एवं लज्जा का परित्याग करके आत्मबल एवं कठोर तपस्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए नग्नता आवश्यक है। यद्यपि पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी, परन्तु महावीर स्वामी निर्वाण-प्राप्ति के लिए वस्त्र-त्याग को आवश्यक मानते थे। उनका विचार था कि नग्न रहकर मनुष्य अपने शरीर को अधिक कष्ट दे सकता है और वस्त्र पहनने और उतारने में आसक्ति की भावना परिलक्षित होती है, जिस प्रकार अन्य वस्तुओं का ग्रहण करना एवं त्याग आसक्ति है। इसलिए महावीर स्वामी ने पूर्ण नग्नता का समर्थन किया था।
(5) तपस्या एवं काया क्लेश- जैन धर्म में कठिन तपस्या एवं काया-क्लेश पर भी अत्यधिक बल दिया गया है। जैन धर्म तपस्या को इन्द्रियों को वश में करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माध्यम मानता है। चूँकि महावीर स्वामी को स्वयं घोर तपस्या और भीषण काया-कष्ट के बाद ही कैवल्य अथवा ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, इसलिए उनके द्वारा इसकी उपयोगिता एवं सार्थकता पर बल देना स्वाभाविक ही था।
निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म के तीर्थंकरों तथा प्रतिपादकों ने वैज्ञानिक आधार पर अपने सिद्धान्तों का निर्धारण किया था। जैन धर्म के प्रवर्तकों का विश्वास था कि दार्शनिक सिद्धान्तों की आवश्यकता से भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि धार्मिक सिद्धान्त सामान्य जीवन में व्यावहारिक पहलुओं के प्रति उदासीन न हों।