भारतीय राजनीति और भाषाएँ
भारतीय समाज में विभाजन का एक प्रमुख कारण भाषा है। भारत बहुभाषी देश है अर्थात् यहाँ सैकड़ों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं। समान भाषा बोलने वाले समूह के रूप में संगठित होकर अपनी भाषा तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जब व्यक्तियों का समूह अपने आपको भाषायी आधार पर एक समझते हैं और गैर-भाषा-भाषी लोगों से भाषायी आधार पर अलगाव रखते हैं तो इसे ही भाषावाद कहते हैं।
संविधान निर्माण के समय भी भाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श किया गया। हिन्दी भाषी लोगों की संख्या सर्वाधिक थी। इस आधार पर काफी विचार-विमर्श के बाद संविधान के अनुच्छेद 343, 344 के अधीन हिन्दी (लिपि-देवनागरी) को 'राजभाषा' का दर्जा दिया गया। संविधान में पहले 14 प्रादेशिक भाषाओं को आठवीं अनुसूची के अन्तर्गत स्वीकार किया गया, वर्तमान में यह संख्या बढ़कर 22 हो गयी है। प्रादेशिक भाषाएँ हैं- असमी, बंगाली, गुजराती, कोंकणी, मणिपुरी, सिन्धी, हिन्दी, नेपाली, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, उड़िया, मलयालम, पंजाबी, तेलुगू, तमिल, संस्कृत एवं उर्दू, मैथिली, डोगरी, बोडो तथा संथाली ।
संविधान के अनुच्छेद 345 के अन्तर्गत प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल को राज्य के समस्त कार्यों के लिए एक या उससे अधिक भाषा को अपनाने का अधिकार प्राप्त है। कुछ राज्यों में अल्पसंख्यकों की भाषा की रक्षा हेतु विशेष प्रावधान किये गये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों के उच्च न्यायालयों की तमाम कार्यवाहियाँ अंग्रेजी में ही संचालित की जायेंगी। संसद एवं राज्य विधानमण्डलों के आदेशों, कानूनों एवं विधेयकों को अंग्रेजी भाषा में हो जारी किया जायेगा, बशर्ते इसके बारे में कोई विपरीत आदेश प्राप्त न हो। राज्य के राज्यपाल को इसका अधिकार है कि वह राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त कर राज्यों के उच्च न्यायालयों की कार्यवाही का संचालन राज्य की भाषा में संचालित करने का आदेश दे सकता है परन्तु न्यायालय का फैसला या आदेश निर्गत करने की भाषा अंग्रेजी ही होगी। अगर किसी राज्य के विधानमण्डल द्वारा विधेयकों, कानूनों एवं आदेशों के लिए अंग्रेजी के स्थान पर कोई अन्य भाषा निर्धारित की जाती है तो वैसी स्थिति में उसका राज्यपाल द्वारा अंग्रेजी भाषा में अधिकृत अनुवाद को अधिकृत माना जायेगा।
राज्यों में अल्पसंख्यक भाषाओं को संरक्षण दिया जाता है। भाषायी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा हेत राष्ट्रपति एक विशेष पदाधिकारी भी नियुक्त कर सकता है। उसका यह कर्तव्य होता है कि वह अल्पसंख्यक भाषाओं के विशेष रक्षण एवं सुविधाओं पर ध्यान रखे एवं इसके बारे में राष्ट्रपति को अवगत कराये। लगभग सभी राज्यों में अल्पसंख्यक बालकों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में देने की व्यवस्था राज्य द्वारा को जाती है। भाषा का प्रश्न पूर्व में राजनीतिक विषय बन गया तथा कुछ हद तक वर्तमान में भी बना हुआ है। हमारे देश में राजनीति एवं भाषा एक-दूसरे से सम्बन्धित रही हैं। भाषावाद हमारी एकता एवं अखण्डता को भी प्रभावित करता है। इससे सम्बन्धित राजनीतिक समस्याओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
1. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन
भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की समस्या जितनी गम्भीर रही है, उतनी शायद ही कोई अन्य समस्या। यह भारत में जितना गम्भीर रहा है, उतना सम्भवतः भारत के साथ स्वतन्त्र हुए नवोदित राष्ट्रों में शायद ही किसी अन्य राष्ट्र में रहा हो। 1952 ई. में विशेष रूप से तेलुगू भाषियों ने इसको बहुत तीव्र रूप दिया। वरिष्ठ तेलुगू नेता पोट्टी श्री रामलू ने तेलुगुभाषियों के बहुमत वाले क्षेत्रों में अलग राज्य की माँग कर दी। इसके लिए उन्होंने आमरण अनशन का सहारा लिया जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद इस आन्दोलन ने गम्भीर रूप धारण कर लिया। इसके कारण तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरू को उस माँग को स्वीकार करना पड़ा। इस मम्मले में सरकार के झुकने के बाद अन्य राज्यों में यह माँग उग्र रूप धारण करने लगी। राज्य पुनर्गठन आयोग के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया। इसके बाद भी यह विवाद बना रहा। 1960 में महाराष्ट्र एवं गुजरात तथा 1966 में हरियाणा एवं पंजाब का पुनर्गठन भाषा के आधार पर ही हुआ।
2. भाषायी राज्यों में विवाद
राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर किये जाने के कारण राज्यों के बीच भी राजनीतिक विवाद उत्पन्न हो गया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा कर्नाटक के बेलगांव शहर पर 1961 के जनगणना के आधार पर दावा ठोंक दिया गया क्योंकि महाराष्ट्र के अनुसार वहाँ मराठी भाषी लोगों की संख्या 51.2 प्रतिशत थी। बाद में यह विवाद शान्त हुआ। 1972 ई. में असम राज्य में असमी एवं बंगाली भाषा के आधार पर उग्र विवाद उत्पन्न हो गया था। वर्तमान में भी भाषा के आधार पर नये राज्यों के गठन हेतु सुनियोजित अभियान देश में चलाये जा रहे हैं जो निश्चितरूपेण देश की एकता एखण्डता एवं आर्थिक विकास के लिए घातक हैं।
3. हिन्दी विरोध, भाषायी राजनीतिक एवं आन्दोलन
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये गये सदस्यों डॉ. पी. सुब्बानासयण (तमिल भाषी) तथा डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी (बंगला भाषी) ने अपना अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि अहिन्दी भाषी जनता पर हिन्दी थोपी जा रही है। 1950 में तत्कालीन केन्द्रीय वित्तमन्त्री सी. डी. देशमुख तथा बाद में केन्द्रीय मन्त्री एम. सी. छागला ने सरकार के भाषा नीति के विरोध के कारण केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया।
1980 में कांग्रेस (आई) ने उर्दू भाषा के प्रश्न को अपने घोषणा-पत्र में स्थान दिया। उसका कहना था कि वह उर्दू भाषा को उचित स्थान दिलायेगी तथा उसे सरकारी काम-काज के लिए द्वितीय भाषा की मान्यता दी जायेगी। नवम्बर 1989 में लोकसभा चुनाव के कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश में उर्दू को द्वितीय राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी।
सरकार की भाषा नीति से हिन्दी समर्थकों एवं विरोधियों द्वारा विरोध किया गया। सबसे पहले उत्तरी भारत के राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान (सभी हिन्दी भाषी) एवं महाराष्ट्र में भी अंग्रेजी विरोधी प्रदर्शन हुआ। इनमें छात्रों की संख्या अधिक थी। 1967 में छात्रों द्वारा मद्रास में हिन्दी-विरोधी आन्दोलन किया गया जो आन्ध्र प्रदेश और मैसूर तक फैल गया।
अतः उपर्युक्त उदाहरण भाषायी राजनीति के उदाहरण हैं।
4. भाषा के आधार पर राजनीतिक गुटों का उदय
हमारे देश की राजनीति में भाषायी दबाव गुटों का भी गठन हुआ । महाराष्ट्रियनों तथा गुजरातियों द्वारा अपने संगठन, संयुक्त महाराष्ट्र समिति तथा महागुजरात जनता परिषद् का गठन इसका उदाहरण है। बाद में इन संगठनों ने पूरी तरह से राजनीतिक पार्टियों का रूप धारण कर लिया। इन संगठनों में प्रारम्भ में वामपंथी लोग थे परन्तु बाद में इसमें गैर-राजनीतिक लोग भी शामिल हुए।
5. अन्य भाषाओं की मान्यता
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में पहले 14 भाषाओं को शामिल किया गया जो बाद में बढ़कर 18 हो गयी। लेकिन यह संख्या बढ़कर 22 हो गयी। इनमें से कुछ क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर राज्यों के भी निर्माण की माँग चल रही है। हालांकि भारत सरकार द्वारा यह मांग अस्वीकार की जा चुकी है।
6. भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्याएँ तथा संकीर्णता
नये भाषायी राज्यों के गठन के बावजूद भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्याएँ यथावत् हैं जो सरकार से विभिन्न संरक्षण की माँग करते हैं। उत्तर प्रदेश में उर्दू का सवाल, पंजाब में हिन्दी भाषा-भाषियों की स्थिति, कर्नाटक में मराठी भाषा-भाषियों का प्रश्न आदि प्रमुख समस्याएँ हैं।
भाषागत राजनीति के कारण इस धारणा का प्रचलन हुआ है कि सरकारी एवं गैर-सरकारी पदों पर प्रादेशिक भाषियों की ही नियुक्ति की जानी चाहिए। सरकारी क्षेत्रों में इसका प्रभाव हाल में ज्यादा ही देखने को मिलता है।
7. सर्वमान्य शिक्षा-नीति के निर्माण में बाधाएँ
भाषा सम्बन्धी समस्याओं का ही यह गम्भीर परिणाम है कि आजादी के 55 वर्षों के बाद भी हमारे देश में किसी सर्वमान्य शिक्षा नीति का निर्माण सम्भव नहीं हो सका है। आज भी इस क्षेत्र में प्रयोग हो रहे हैं। माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के बारे में शिक्षाविदों व राजनीतिज्ज्ञों के बीच विवाद चला रहा है। काफी सोच-विचार के बाद सरकार तीन भाषा फार्मूले पर पहुँची। इसके अनुसार अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा के किसी स्तर पर एक अन्य भारतीय भाषा की पढ़ाई होगी तथा तीसरी भाषा अंग्रेजी या कोई अन्य विदेशी भाषा पढ़ायी जायेगी। इस प्रकार माध्यमिक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने तक छात्र तीन भाषाओं का अध्ययन कर लेंगे। प्रारम्भ में उत्तर भारत के कुछ राज्यों (विशेषतः हिन्दी भाषी) में इसका पालन नहीं हुआ। इन राज्यों में यहाँ कोई अन्य भारतीय भाषा के स्थान पर संस्कृत को अपनाया गया।
तमिलनाडु में 1967 में कट्टर हिन्दी विरोधी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के) पार्टी की सरकार बनने के बाद उसने द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी की पढ़ाई पर रोक लगा दी। वहाँ की विधानसभा ने फैसला किया कि तमिलनाडु में केवल अंग्रेजी एवं तमिल भाषाएँ पढ़ायी जायेंगी। पाठ्यक्रम से हिन्दी को पूरी तरह निकाल दिया गया।
उपर्युक्त विवेचन से भाषावाद से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ एवं उसके परिणाम सामने आये हैं। भाषावाद ने हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पर कुठाराघात किया है तथा इससे देश का विकास भी प्रभावित हुआ है।
इसके निदान के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। राजनीतिक पार्टियों को राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए भाषावाद की राजनीति का प्रयोग छोडना होगा। भाषा एक-दूसरे को जोड़ने का माध्यम होना चाहिए, तोड़ने का नहीं।
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भारतीय राजनीति और क्षेत्रवाद
भारत में राष्ट्र निर्माण के मार्ग में जो बाधाएँ मौजूद हैं, उनमें क्षेत्रीयतावाद महत्वपूर्ण है। देश में जो विभिन्नताएँ पायी जाती हैं, उनकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीयतावाद के माध्यम से भी होती है परन्तु यह उल्लेखनीय है कि प्रादेशिकता या क्षेत्रवाद पर आधारित विभिन्नता ने भारत में बहुत ही भयावह स्थिति प्राप्त कर ली है। इसने शान्ति एवं व्यवस्था को बनाये रखने में तो बाधा उपस्थित की है, साथ ही साथ इसने देश की अखण्डता को जबर्दस्त चुनौती प्रस्तुत की है।
भारतीय सन्दर्भ में क्षेत्रीयतावाद से तात्पर्य राष्ट्र की तुलना में किसी क्षेत्र विशेष अथवा राज्य की अपेक्षा एक छोटे क्षेत्र से लगाव, उसके प्रति भक्ति या विशेष आकर्षण रखने से है। स्पष्टतः क्षेत्रवाद राष्ट्रीयता की वृहत । भावना का विरोध है। इसका ध्येय संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थों की पूर्ति करना है। भारत में क्षेत्रवाद क्षेत्र के अतिरिक्त भाषा एवं धर्म से भी सम्बन्धित रहा है। इन तीनों तथ्यों के एक साथ मिलने से विघटनकारी प्रवृत्ति और प्रबल हो जाती है। क्षेत्रवाद के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात यह है कि यह एक देशव्यापी समस्या है। क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर भारत के विभिन्न भागों में बहुधा आन्दोलन एवं अभियान चलते रहते हैं।
यूँ तो भारत में प्रादेशिकता अथवा क्षेत्रवाद कोई नवीन घटना नहीं है, फिर भी स्वतन्त्रता के पूर्व स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए चल रहे प्रयास मुखर रूप धारण नहीं कर पाये। वास्तव में, भारतीय राजनीति में आज क्षेत्रीयतावाद जिस रूप में पाया जाता है, वह मूलतः स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद की ही घटना है।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद ने कई रूप धारण किये हैं। कई तरह से उसने राजनीति को प्रभावित किया है।
1. भारतीय संघ से अलग होने की माँग
कुछ राज्यों द्वारा भारत संघ से अलग होकर स्वतन्त्र राज्य के दर्जे की माँग क्षेत्रीयतावाद का सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण रूप रहा है। 1960 ई. में मद्रास राज्य के तमिल समुदाय के द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (D.M.K.) तथा हम तमिल (HAM Tamil) ने भारत से होकर एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होने के लिए एक संयुक्त अभियान चलाया। अभियान के शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद डी.एम. के. पार्टी ने आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल तथा कर्नाटक के एक साथ भारतीय संघ से अलग होने तथा एक स्वतन्त्र एवं सम्प्रभु द्रविनाड गणतन्त्र में स्थापित होने का प्रस्ताव रखा।
चेन्नई के अतिरिक्त पंजाब में सिखों, असम में मिजो जाति के लोगों तथा कश्मीर के लोगों द्वारा अपनी स्वतन्त्र मातृभूमि की माँग होती रही है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चलाये गये आन्दोलन का पंजाब तथा असम में जोर काफी कम हो गया है परन्तु पृथक् राष्ट्र के रूप में उदय के लिए कश्मीर में आन्दोलन अभी भी उग्र रूप धारण किये हुए है।
2. पृथक् राज्य की माँग
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद की अभिव्यक्ति कुछ लोगों में अलग राज्य के दर्जे की प्राप्ति में हुई है। क्षेत्रीय आवश्यकताओं एवं भाषा के आधार पर पृथक् राज्य की माँग 1956 ई. में संसद द्वारा पारित राज्य पुनर्गठन अधिनियम के चलते राज्यों की संख्या बढ़ती गयी। भाषा के आधार पर बम्बई को बाँटकर गुजरात और महाराष्ट्र नामक दो राज्यों का निर्माण तथा पंजाब को बाँटकर पंजाब और हरियाणा नामक राज्यों का निर्माण भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण के उदाहरण हैं।
राज्यों के पुनर्गठन के बावजूद राज्यों के निर्माण की समस्या का समाधान नहीं हो सका है। समय के गुजरने के साथ नये राज्यों की स्थापना की माँग ने और गम्भीर रूप धारण कर लिया। महाराष्ट्र में विदर्भ तथा असम में बोडोलैण्ड के अलग राज्य की स्थापना के लिए माँग ने काफी सशक्त रूप धारण कर लिया है।
3. पूर्ण राज्य के दर्जे की माँग
ऐसी माँग केन्द्रशासित प्रदेशों द्वारा रखी गयी है। यद्यपि दिल्ली सहित कई केन्द्रशासित प्रदेशों की यह माँग पूरी नहीं हो पायी है परन्तु कई ऐसे प्रदेशों को अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त हुई है। हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा तथा गोआ को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया जा चुका है।
4. अन्तर-राज्य विवाद
अन्तर-राज्य विवाद मुख्यतः दो मुद्दों से सम्बन्धित रहे हैं-
- सीमा का निर्धारण तथा
- नदी जल का बंटवारा।
सीमा के निर्धारण के सम्बन्ध में विवाद महाराष्ट्र तथा कर्नाटक और पंजाब तथा हरियाणा के बीच पाये जाते हैं परन्तु अधिकांश राज्यों के बीच विवाद नदी के जल के वितरण के प्रश्न को लेकर ही है। ऐसे विवाद नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के जल के वितरण के सम्बन्ध में पाये जाते हैं। दोनों प्रकार के विवादों के अपने-अपने मनोनुकूल समाधान से सम्बन्धित राज्यों में आन्दोलन एवं अभियान चलते रहे हैं।
5. उत्तर-दक्षिण अवधारणा
उत्तर तथा दक्षिण के बीच अन्तर पर बल देने के लिए सामान्यतः भाषा एवं संस्कृति का सहारा लिया जाता है। भारत के चार दक्षिणी राज्यों ने भाषा एवं संस्कृति के आधार पर अपने को भिन्न माना है। उत्तर तथा दक्षिण के बीच अन्तर विभाजक रेखा को तमिलनाडु में डी.एम.के. तथा ए.डी.एम. के. तथा आन्ध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम् के कार्यकरण ने और स्पष्ट करने में भूमिका निभाई है।
6. अधिकाधिक स्वतन्त्रता की माँग
विभिन्न राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों ने सामान्य रूप से तथा D.M.K., A.I.D.M.K., अकाली दल, तेलुगुदेशम, असम गण परिषद् जैसे क्षेत्रीय दलों ने विशेष रूप से राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की माँग की है।
क्षेत्रवाद के कारण
जिन तथ्यों ने भारत में क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है और उसके बने रहने में सहायता दी है, वे निम्नलिखित है-
1. आर्थिक एवं सामाजिक विकास सम्बन्धी समस्या
आर्थिक एवं सामाजिक विकास के सम्बन्ध में निराशा तथा आर्थिक कठिनाई एवं शोषण की बढ़ती हुई अनुभूति ने राज्य विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के लिए लोगों में संकीर्ण क्षेत्रीय विचारों को बढ़ावा दिया है।
2. भूमि पुत्र की अवधारणा
यह तथ्य प्रथम तथ्य का ही उदाहरण है। देश के विभिन्न भागों की जनता में सामान्य रूप से तथा पिछड़े हुए भागों की जनता में विशेष रूप से यह धारणा विकसित हुई कि स्थानीय जनता की रोजगार सम्बन्धी कठिनाइयों का कारण यह है कि बाहर के लोग आकर रोजगार सम्बन्धी अवसरों को हथिया लेते हैं। यदि ऐसा न हो तो स्थानीय जनता को रोजगार मिलना आसान हो जायेगा। ऐसे भूमि पुत्र अवधारणा का सहारा महाराष्ट्र में शिवसेना तथा असम गण परिषद् ने लिया है।
3. राजनीतिक दलों की स्वार्थपूर्ति नीति
D.M.K., A.I.D.M.K., P.D.P., नेशनल कांफ्रेंस, असम गण परिषद् जैसे क्षेत्रीय दल तो क्षेत्रीय भावनाओं को उभारते ही हैं, अवसर पाकर राष्ट्रीय दल भी क्षेत्रीय भावनाओं को उभारने से नहीं हिचकते। ऐसी क्षेत्रीय भावनाओं से सम्बद्ध क्षेत्र में दल के प्रभाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
4. क्षेत्रीय दलों की संख्या में वृद्धि
पिछले पाँच दशकों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की सख्या में काफी वृद्धि हुई है तथा उनकी लोकप्रियता का आधार क्षेत्रवाद ही है। तेलुगुदेशम् तथा असम गण परिषद् ऐसे दलों के नवीनतम उदाहरण हैं।
5. अत्यधिक केन्द्रीयकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया
संविधानतः तो केन्द्रीय सरकार को काफी शक्तिशाली बनाया ही गया है। दिनोंदिन वह और शक्तिशाली होती गयी है। सरकार के अनुदानों को प्रदान करने में भी राज्यों के विवाद की नीति अपनाई है। केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति एवं नीति के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वाभाविक है।
भाषा क्षेत्र विशेष की भाषा के आधार पर उस क्षेत्र विशेष दर्जा या अलग राज्य के निर्माण की माँग, राजनीति में बार-बार उपस्थित होने वाली घटना है। जातीय राजनीति में क्षेत्रीयतावाद की उपस्थिति से राष्ट्र-निर्माण के मार्ग में चाहे जो भी बाधा होती है परन्तु भारत जैसे बड़े आकार एवं जनसंख्या वाले देश में क्षेत्रवाद का अन्त सम्भव नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि औचित्यपूर्ण क्षेत्रीयतावाद एवं न्यायोचित राष्ट्रवाद के बीच सामंजस्य स्थापित हो ।