वित्तीय नियोजन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, महत्व एवं विशेषतायें

वित्तीय नियोजन का अर्थ

आयोजन अथवा नियोजन भावी कार्यों की रूपरेखा को पहले से निर्धारित करने का दूसरा नाम है। कोई भी व्यवसाय व उद्योग चाहे छोटा हो या बड़ा बिना नियोजन के सफल नहीं हो सकता। संस्थाओं के संगठन व संचालन में बहुत अधिक मात्रा में वित्तीय साधनों की आवश्यकता होती है। अतः वित्तीय नियोजन का आशय किसी व्यावसायिक संस्था हेतु पूँजी की कुल राशि का पूर्वानुमान लगाना तथा उसके स्वरूप के सम्बन्ध में निर्णय लेने की प्रक्रिया से है। दूसरे शब्दों में, वित्तीय नियोजन में कम से कम मूल्य पर पूँजी साधनों की व्यवस्था, पूँजी संरचना एवं पूँजी प्रशासन को शामिल करते हैं।

    वित्तीय नियोजन की परिभाषाएँ

    वित्तीय नियोजन के सम्बन्ध में निम्न परिभाषायें महत्वपूर्ण है-

    वॉकर एवं बॉन के अनुसार- "वित्तीय नियोजन का सम्बन्ध केवल वित्त कार्य से होता है, जिसके अन्तर्गत फर्म के लिए वित्तीय उद्देश्यों, वित्तीय नीतियों, वित्तीय प्रक्रियाओं का निर्धारण किया जाता है।"

    आर. एम. श्रीवास्तव के अनुसार- "वित्तीय योजना, पूँजीगत आवश्यकताओं एवं उसके स्वरूपों को अग्रिम में निश्चित करने का कार्य है।"

    जे. एच. बीनाविले के अनुसार- "निगम की वित्तीय योजना के दो पहलू होते हैं- यह न केवल निगम के पूँजी-ढाँचे की ओर संकेत करती है बल्कि यह निगम द्वारा अपनायी गयी अथवा अपनायी जाने वाली वित्तीय नीतियों को भी स्पष्ट करती है।"

    वित्तीय नियोजन के प्रकार

    समय अथवा काल के आधार पर वित्तीय नियोजन निम्न तीन प्रकार का होता है-

    (1) अल्पकालीन वित्तीय नियोजन- अल्पकालीन वित्तीय नियोजन की अवधि 1 (एक) वर्ष अथवा इससे भी कम (छः माह, तीन माह या एक माह) होती है। इसका सम्बन्ध मुख्यतः कार्यशील पूंजी के प्रबन्ध से होता है। इसके अन्तर्गत बजट, लाभ-हानि खाता या चिट्ठा, कोष-प्रवाह विवरण, कार्यशील पूँजी का अनुमान आदि को वित्तीय नियोजन के उपकरण के रूप में सम्मिलित करते हैं।

    (2) मध्यकालीन वित्तीय नियोजन- मध्यकालीन वित्तीय नियोजन की अवधि सामान्यतः 1 वर्ष से अधिक तथा 5 वर्ष से कम होती है। कार्यशील पूँजी की विशिष्ट आवश्यकताओं, सम्पत्तियों के रख-रखाव व उनका प्रतिस्थापन, शोध्य एवं विकास कार्यों के लिये बनायी गयी योजनाओं को शामिल करते हैं।

    (3) दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन- दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन 5 वर्ष या उससे अधिक अवधि के लिए होता है। दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्धकों द्वारा उद्देश्यों का निर्धारण, नीतियों का निर्धारण, कार्यविधियों का निर्माण आदि बातों पर विचार करके, पूँजीकरण की मात्रा, भावी विस्तार योजना व पुनर्गठन हेतु अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था करना आदि बातों को दीर्घकालीन नियोजन में शामिल करते है।

    अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन में अन्तर

    अल्पकालीन वित्तीय आयोजन (Short-term Financial Planning)

    दीर्घकालीन वित्तीय आयोजन (Long-term Financial Planning)

    1. इसकी अवधि एक वर्ष अथवा इससे भी कम (छः माह, तीन माह या एक माह) होती है

    2. इसका सम्बन्ध मुख्यतः कार्यशील पूँजी (Working  Capital) के प्रबन्ध से होता है जिसके अन्तर्गत चल-सम्पत्तियों (Current-Assets) के लिए आवश्यक कोषों का आयोजन किया जाता है।

    3. निकट भविष्य के लिए संगणित किये गये पूर्वानुमान (Estimates) अधिक 'सही' एवं 'सटीक' हो सकते हैं; यद्यपि आवश्यक फेर-बदल के लिए ऐसी योजना का न्यूनाधिक रूप में लोचपूर्ण होना आवश्यक होता है।

    4. यथासम्भव सही पूर्वानुमानों के कारण ऐसी योजनाओं में अनिश्चितता (Uncertainty) एवं जोखिम (Risk) की मात्रा कम होती है। अतः अल्पकालीन वित्तीय आयोजन अपेक्षाकृत सरल कार्य है।

     

    1.ऐसा आयोजन एक वर्ष से अधिक के लिए किया जाता है तथा सामान्यतः इसकी अवधि तीन से लगाकर पाँच वर्ष (या इससे भी अधिक) होती है।

    2. इसका सम्बन्ध दीर्घकालीन कोषों की समुचित व्यवस्था से होता है। उत्पादन अथवा व्यवसाय संचालन के लिए आवश्यक स्थिर सम्पत्तियों (Fixed Assets) की व्यवस्था के लिए ऐसे कोषों की आवश्यकता होती है।

    3. इसके अन्तर्गत पूर्वानुमानों (Estimates) का आकलन मोटे तौर पर किया जाता है और वे उतने नपे-तुले एवं विस्तृत नहीं होते हैं। अतः दीर्घकालीन वित्तीय योजनाओं को अत्यन्त लोचपूर्ण (Flexible) बनाया जाता है।

    4. सुदूर भविष्य के लिए परिस्थितियों का सही आकलन करना एक अत्यन्त कठिन कार्य है। अतः दीर्घकालीन वित्तीय योजनाओं को अन्तर्निहित अनिश्चितता (Uncertainty) एवं जोखिम (Risk) की मात्रा को ध्यान में रखकर ही बनाया जाता है।

     

    वित्तीय नियोजन का महत्व

    "वित्तीय नियोजन सफल व्यावसायिक कार्यों की कुँजी है।" प्रस्तुत कथन वर्तमान व्यवसाय जटिलताओं के सम्बन्ध में वित्त के सदुपयोग पर वित्तीय प्रबन्धक का ध्यान आकर्षित करता है। वास्तव में, पूँजी की व्यवस्था करना वित्तीय प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य होता है। इसके लिये एक सुदृढ़ वित्तीय नियोजन आवश्यक है। दोषपूर्ण वित्तीय नियोजन प्रबन्धकों की सारी आशाओं पर पानी फेर सकता है। उत्तम वित्तीय नियोजन के महत्व को निम्न शीर्षकों में व्यक्त किया सकता है-

    (1) व्यवसाय का सफल प्रवर्तन- व्यवसाय प्रवर्तन के पूर्व एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना बनाकर एक व्यवसाय में सफलता प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में, एक पूर्व नियोजित वित्तीय योजना से प्रवर्तन की विभिन्न क्रियाओं के अर्थ-प्रबन्धन में किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है।

    (2) व्यवसाय का कुशल संचालन- उद्योग और व्यवसाय की प्रत्येक क्रिया के लिए वित्त महत्वपूर्ण है। व्यवसाय की स्थापना, सम्पत्तियों और सामग्रियों का क्रय आदि सभी कार्यों में वित्त की आवश्यकता होती है। इन सभी कार्यों के लिए उपयुक्त समय पर पर्याप्त वित्त की उपलब्धि कुशल वित्तीय नियोजन पर ही निर्भर करती है।

    (3) व्यवसाय का विकास एवं विस्तार- व्यवसाय की स्थापना के बाद, उसके विकास और विस्तार हेतु श्रेष्ठ वित्तीय नियोजन का महत्व देखा जा सकता है। कुशल वित्तीय नियोजन करने पर व्यवसाय के विकास और विस्तार में वित्तीय कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता।

    (4) व्यवसाय में पर्याप्त तरलता- श्रेष्ठ वित्तीय नियोजन के द्वारा व्यवसाय में तरलता की स्थिति बनायी जा सकती है। व्यवसाय, देनदारियों का समय पर भुगतान करने तथा अपनी शोधन क्षमता बनाये रखने में सफल हो जाता है।

    (5) विनियोजित पूँजी पर उचित प्रत्याय- कुशल वित्तीय नियोजन द्वारा अनुकूलतम पूँजी मात्रा व्यवसाय को प्राप्त होती है जिससे व्यवसाय में विनियोजित पूँजी पर उचित प्रत्याय प्राप्त होता है।

    (6) भावी विकास- कुशल एवं सुदृढ़ संरचना, किसी भी व्यवसाय के भावी विकास के लिए आवश्यक होती है। भविष्य में वित्त की समस्या उत्पन्न न हो, इसके लिए श्रेष्ठ वित्तीय संरचना महत्वपूर्ण है।

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    एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना के लक्षण या विशेषताएँ

    एक व्यवसाय की वित्तीय योजना अति सावधानीपूर्वक तैयार की जानी चाहिए क्योंकि व्यावसायिक संस्था की सफलता या असफलता पूर्ण रूप से सुदृढ़ वित्तीय योजना पर निर्भर करती है। इसको तैयार करने में पर्याप्त अनुभव, ठोस ज्ञान तथा दूरदर्शिता का सहारा लिया जाना चाहिए। अनुभवहीनता और बिना अर्थशास्त्रीय सिद्धान्तों के जल्दबाजी में बनायी गयी वित्तीय योजना व्यवसाय के लिए अभिशाप बन जाती है। वित्तीय योजना व्यवसाय के लिए वरदान सिद्ध हो, उसमें निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है-

    एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना के लक्षण या विशेषताएँ

    (1) सरलता (Simplicity)- प्रबन्ध की सुविधा को ध्यान में रखते हुए वित्तीय ढाँचे को सरल रूप दिया जाना चाहिए। प्रारम्भ में ही योजना जटिल होगी तो भविष्य में अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था सरलता से नहीं की जा सकेगी। यदि आरम्भ में ही कई प्रकार की प्रतिभूतियों को निर्गमित करके पूँजी की व्यवस्था की जाती है तो इससे विनियोक्ताओं में प्रस्तावित योजना के प्रति सन्देह हो सकता है। अतः आरम्भ में केवल सामान्य अंशों (Equity Shares) और यदि आवश्यक हो तो उनके साथ-साथ अधिमान्य अंशों (Preference Shares) का निर्गमन उचित होगा। ऋणपत्रों या बन्धपत्रों के निर्गमन को आगे आवश्यकतानुसार सुरक्षित रखा जाना उचित हो सकता है।

    (2) लोचपूर्णता (Flexibility)- वित्तीय योजनाकरण एक तात्कालिक व्यवस्था न होकर एक दीर्घकालीन व्यवस्था है। अतः कम्पनी के सीमानियमों के उद्देश्य खण्ड (Objects Clause) में उल्लिखित विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही इसे अन्तिम रूप दिया जाना चाहिए। तात्कालिक आवश्यकताओं की लोचपूर्णता का अभिप्राय, यहाँ दीर्घकाल में व्यवसाय की बढ़ती अथवा घटती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप पूँजी-ढाँचे में समायोजन से है अर्थात् यदि कुछ वर्षों बाद व्यवसाय के विस्तार के लिए पूँजी की आवश्यकता हो तो उसे सुविधापूर्वक उपलब्ध करने की सम्भावनाओं का वित्तीय योजना में समावेश हो अथवा यदि कम पूँजी की आवश्यकता प्रतीत हो तो वित्तीय योजना ऐसी हो कि उसे घटाया जा सके।

    (3) पूर्ण उपयोगिता (Full Utilisation)- पूँजी की मात्रा एवं वित्तीय आवश्यकताओं में पूर्ण सामंजस्य होने पर ही पूँजी का अधिकतम उपयोग सम्भव हो सकता है। अपर्याप्त पूँजीकरण अथवा आवश्यकता से अधिक पूँजीकरण दोनों ही अवांछनीय है। पूँजीकरण के जलयुक्त (Watered) हो जाने पर उसकी उपयोगिता कम हो जाती है। अतः पूर्ण उपयोगिता के लिए उचित पूँजीकरण (Fair Capitalisation) अनिवार्य है।

    (4) तरलता (Liquidity)- स्थिर सम्पत्ति एवं तरल सम्पत्तियों में क्या अनुपात रखा जाये, यह प्रत्येक व्यवसाय की प्रकृति एवं प्रत्येक कम्पनी के आकार आदि कई परिवर्तनशील तत्वों पर निर्भर होता है। तरल सम्पत्तियों से यहाँ आशय चल-सम्पत्तियों से है किन्तु सही अर्थों में तरल सम्पत्तियों में रोकड़, बैंक में जमा राशियों, चालू विनियोग तया प्राप्तियों (Receivables) को सम्मिलित किया जाता है। आवश्यकता से अधिक तरलता (Liquidity), शोधनक्षमता (Solvency) में वृद्धि करके जोखिम (Risk) को कम करती है किन्तु साथ ही इससे लाभदायकता (Profitability) में कमी हो जायेगी। इसके विपरीत, आवश्यकता से कम तरलता शोधनक्षमता कम करके जोखिम को बढ़ा देती है किन्तु साथ ही यह लाभदायकता में वृद्धि भी कर सकती है। अतः तरल साधनों में कोषों के विनियोग को उचित सीमा में बनाये रखना आवश्यक होता है।

    (5) न्यूनतम लागत (Minimisation of Costs)- पूँजी उपलब्धि के विभिन्न साधनों की लागत समान नहीं होती है। कुछ साधनों से पूँजी प्राप्त करने में लागत अधिक एवं अन्य साधनों से पूँजी प्राप्त करने में कम लागत होती है. अतः पूँजी मिश्रण (Capital Mix) ऐसा होना चाहिए जिसे प्राप्त करने और व्यवसाय में प्रयोग में लाने की लागत न्यूनतम हो। पूँजी की भारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost of Capital) के आधार पर इसे निर्धारित किया जा सकता है। यह लागत वस्तुतः पूँजी के महंगे एवं सस्ते साधनों की एक औसत लागत का परिचायक होती है।

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    (6) अधिकतम लाभ (Maximisation of Return)- किसी कम्पनी के लिए सर्वोत्तम या आदर्श पूँजी-ढाँचा वह होगा जिसके आधार पर कम्पनी की लाभदायकता (Profitability) में अधिकतम वृद्धि होती हो। वैसे लाभदायकता का सम्बन्ध पूँजी-ढाँचे का सम्बन्ध है। न्यूनतम लागत पर प्राप्त की गयी पूँजी लाभ में वृद्धि कर देगी, साथ ही समय पर पर्याप्त पूँजी साधनों की सुविधा अनेक प्रकार के अपव्ययों को रोककर बचत में वृद्धि कर सकेगी।

    (7) न्यूनतम जोखिम (Minimisation of Risks)- व्यवसाय में अनेक प्रकार के जोखिम सदैव विद्यमान रहते हैं, जैसे करों में वृद्धि, लागतों में वृद्धि, मूल्यों में कमी, ब्याज की दरों में वृद्धि आदि। इन जोखिमों का कम्पनी की आय पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः कम्पनी का पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि जिससे इन जोखिमों के बोझ को सहजता से सहन किया जा सके। विशेष रूप से व्यावसायिक जोखिम (Business Risk) एवं वित्तीय जोखिम (Financial Risk) से बचाव के लिए पूँजी-ढाँचे में समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

    (8) अधिकतम नियन्त्रण (Maximisation of Control)- कम्पनी का नियन्त्रण साधारण अंशधारियो (Equity Shareholders) के हाथों में रहता है क्योंकि मतदान का अधिकार इनको ही प्राप्त होता है। अधिमान्य अंशधारियों एवं ऋणपत्रधारियों को ऐसा कोई अधिकार सामान्यतः प्राप्त नहीं होता है। यही कारण है कि नये इक्विटी अंशों का निर्गमन राइट्स अंशों (Right Shares) के आधार पर अंशधारियों को उनके द्वारा धारित अंशों के अनुपात मे किया जाता है जिससे कि उनकी मतदान शक्ति (Voting Power) यथावत् बनी रहे।

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    वित्तीय योजना को निर्धारित करने वाले घटक

    वित्तीय योजना का निर्धारण करते समय विभिन्न घटकों का ध्यान रखना आवश्यक है, ये घटक निम्न है-

    (1) व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business)- किसी नवीन उपक्रम में पूँजी के स्वरूप को निर्धारित करने पर व्यवसाय की प्रकृति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन एवं विक्रय निरन्तर वर्षपर्यन्त होता रहता है। इसके विपरीत, कतिपय अन्य व्यवसाय मौसमी प्रकृति (Seasonal Nature) के होते है। अतः पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि मौसम के अनुसार पूँजी में आवश्यक नियोजन किया जा सके। स्पष्ट है कि पूँजी के दीर्घकालीन साधनों की बजाय पूँजी के अल्पकालीन साधनों को अधिक महत्व ऐसी दशा मे दिया जायेगा।

    (2) व्यवसाय की स्थिति एवं आकार (Status and Size of Business)- व्यवसाय के आकार पर पूँजी की मात्रा निर्भर करती है। छोटे आकार वाले व्यवसाय में कम पूँजी की आवश्यकता होती है, जबकि बड़े आकार वाले व्यवसाय में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। अच्छी साख एवं अच्छे संगठन वाले व्यवसाय को आसानी से वित्तीय साधन उपलब्ध हो जाते हैं, जबकि नये व्यवसाय के लिए वित्तीय साधन एकत्रित करना कठिन होता है।

    (3) जोखिम की मात्रा (Quantity of Risks)- व्यवसाय की अनिश्चितता व जोखिम भी वित्तीय योजना के प्रारूप को प्रभावित करती है। अधिक जोखिम वाले व्यवसाय, स्वामी पूँजी (Owner's Capital) पर अधिक आश्रित रहते हैं। इसके विपरीत कम पूँजी वाले व्यवसाय, ऋण पूँजी (Loan Capital) पर निर्भर करते हैं।

    (4) पूँजी की लागत (Cost of Capital)- पूँजी-ढाँचे के निर्माण में पूँजी की लागत पर विचार करना बहुत आवश्यक होता है। पूँजी के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती है। कुछ साधन अपेक्षाकृत सस्ते होते है तो कुछ साधन महंगे होते हैं। अतः पूँजी-ढाँचे का निर्माण करते समय पूँजी के सस्ते एवं महँगे साधनों का ऐसा मिश्रण (Mix) बनाया जाता है जिससे कि कुल पूँजी की औसत लागत (Average Cost of Capital) एक निश्चित काट-बिन्दु (Cut-off Point) से अधिक न बढ़े। इसके लिए पूँजी के समस्त साधनों की भारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost) की गणना की जाती है।

    (5) व्यवसाय की आय (Income of Business)- सभी व्यवसायों में आय की सम्भावना एक जैसी नहीं होती कुछ व्यवसाय में आय की सम्भावना निश्चित, नियमित एवं स्पष्ट होती है, जबकि कुछ अन्य व्यवसायों में आय की सम्भावनाएँ अनिश्चित एवं अनियमित होती हैं। आय की प्रकृति की सम्भावनाओं के अनुरूप ही वित्तीय योजना का निर्माण किया जाना चाहिए।

    (6) लोच (Flexibility)- वित्तीय योजनाओं में पर्याप्त लोच रखी जानी चाहिए। वित्तीय योजना का निर्माण केवल वर्तमान आवश्यकताओं को ही ध्यान में रखकर नहीं किया जाता बल्कि इसमे भविष्य की विस्तार योजनाओं का भी ध्यान रखा जाता है।

    (7) प्रबन्धकों का दृष्टिकोण (Attitude of Managers)- यदि प्रबन्धक संस्था का नियन्त्रण अपने हाथों में केन्द्रित करना चाहता है तो समता अंश जनता को कम से कम निर्गमित करेगा अथवा अंशों को निर्गमित करने के बाद उन्हें स्वयं क्रय कर लेगा और बाद में विस्तार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋण लेगा या लाभों का पुनर्विनियोजन करेगा।

    (8) सरकारी नियन्त्रण (Government Control)- वित्तीय योजना को तैयार करते समय सरकारी नीतियों, वित्त नियन्त्रणों तथा अन्य अधिनियमों का ध्यान रखना चाहिए।

    (9) पूँजी बाजार की दशाएँ (Capital Market Conditions)- मन्दी की दशाओं में जब लाभांश की दरे कम होती है तो लाभ की सम्भावनाएँ अनिश्चित होती हैं, तब साधारण अंशों की अपेक्षा ऋणपत्र अधिक लोकप्रिय होते है। यह समय ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए अनुकूल होता है। इसके विपरीत, तेजी के काल में जब लाभ की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं तो ऋणपत्रों के बजाय साधारण अंशों की माँग अधिक बढ़ जाती है। अतः पूँजी का स्वरूप निश्चित करते समय पूँजी बाजार की विद्यमान दशाओं को ध्यान में रखकर ही पूँजी-ढाँचे का निर्धारण किया जाना चाहिए।

    (10) विनियोजकों का मनोविज्ञान (Psychology of Investors)- सब विनियोक्ता समान नहीं होते। कुछ लोगों के पास विनियोग के लिए अधिक पूँजी होती है, जबकि कुछ के पास कम। फिर सबकी प्रकृति एवं धारणाएँ भी समान नहीं होतीं। कुछ विनियोक्ता साहसी होते हैं वह जोखिम उठाने को तत्पर हो जाते है, जबकि अन्य सतर्क होते है तथा धन की सुरक्षा एवं निश्चित गारण्टी चाहते हैं। अतः विभिन्न विनियोक्ताओं की माँग के स्वरूप में भी भिन्नता होती है। इसलिए अनेक कम्पनियां विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करती है ताकि विभिन्न प्रकृति के व्यक्ति एक या अधिक प्रकार की प्रतिभूतियों में पूँजी का विनियोग कर सकें। पूँजी निर्गमन की सफलता विभिन्न विनियोक्ताओं की मनोवैज्ञानिक दशा पर निर्भर होती है।

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