विक्रय कला का महत्व एवं मुख्य तत्व या सिद्धान्त

विक्रय कला का महत्व

वर्तमान व्यावसायिक जगत में विक्रय कला को व्यवसाय एवं उद्योग की आधरशिला कहा जा सकता है। यह आधुनिक व्यवसाय की आत्मा है। आज प्रत्येक व्यक्ति इसका उपयोग करता है एवं कुछ न कुछ बेचता है। चाहे वह व्यापारी हो, उद्योगपति हो, पेशेवर व्यक्ति हो, राजनीतिज्ञ हो, वैज्ञानिक अथवा विचारक हो, ये सभी लोग किसी न किसी रूप में अपनी क्रियाओं का विस्तार करने हेतु विक्रय कला का उपयोग करते हैं। इस सम्बन्ध में एच. डब्ल्यू, हाफटन ने ठीक ही कहा है कि "विक्रय कला समस्त वाणिज्य का आधार है और इसका अन्तिम उद्देश्य क्रेता व विक्रेता दोनों का पारस्परिक लाभ व सन्तोष के लिये वस्तुओं व सेवाओं का विक्रय करना है।"

विक्रय कला का महत्व हम स्पष्ट रूप से निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत जान सकते हैं-

(I) उत्पादक की दृष्टि से महत्व

(1) माँग की वृद्धि- उत्पादक की दृष्टि से विक्रय कला का प्रथम लाभ यह है कि यह वस्तु की माँग में वृद्धि करती है। यह मनुष्य की इच्छाओं को जागृत करने में सहायक होती है। थाम्पसन के अनुसार, "विक्रय कला का आधारभूत महत्व यह है कि यह माँग उत्पन्न करती है और उसे प्रभावशाली बनाती है तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के विक्रय में वृद्धि करती है।"

(2) उत्पादन में वृद्धि- माँग में वृद्धि हो जाने से उत्पादन में वृद्धि होती है। विक्रय कला जब माँग में वृद्धि कर देती है तो उत्पादन में वृद्धि होनी भी स्वाभाविक ही है।

(3) नई वस्तुओं का निर्माण- विक्रय कला के माध्यम से नई-नई वस्तुओं का बेचना सरल हो जाता है। अतः उत्पादक नई-नई वस्तुओं का निर्माण करता है। यह श्रृंखला क्रमबद्ध रूप से चलती रहती है।

(4) प्रति इकाई लागत में कमी- विक्रय कला के प्रयोग से माँग में वृद्धि हो जाती है। जब उत्पादन में वृद्धि हो जाती है तो बड़े पैमाने के सभी लाभ मिलने लगते हैं। फलतः प्रति इकाई लागत कम हो जाती है।

(5) रोजगार के साधनों में वृद्धि- उत्पादन वृद्धि हेतु माल के उत्पादन एवं वितरण में श्रम की आवश्यकता पड़ती है। फलस्वरूप, लोगों को रोजगार उपलब्ध होता है।

(6) जीवनस्तर में वृद्धि- जब वस्तुओं की प्रति इकाई लागत कम हो जाती है और रोजगार अधिक मिलने लगता है तो लोगों के पास क्रय-शक्ति बढ़ जाती है। वे उतना ही अधिक माल क्रय कर सकते हैं।

(7) अधिक लाभ- विक्रय कला विक्रय वृद्धि कर अधिक लाभ कमाने में सहायक होती है। व्यापारी कम से कम मूल्य पर माल का विक्रय कर अधिकाधिक लाभ उठाते हैं। कुशल विक्रय कला से ग्राहक को सन्तुष्ट किया जा सकता है। एक विद्वान ने ठीक ही कहा है- "विक्रयु कला एक व्यवसाय को लाभदायी करने एवं रखने में सहायक है।"

(8) व्यापार चक्रों से सुरक्षा- विक्रय कला से लोगों में इच्दायें जागृत कर वस्तु क्रय करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे उनकी बचत इन वस्तुओं के क्रय करने में निकल जाती है और मन्दी (depression) का काल नहीं आ पाता है। इस प्रकार व्यवसायियों की व्यापार चक्रों से सुरक्षा हो जाती है।

(9) ख्याति के निर्णय में सहायक- विक्रय कला वस्तु की बिक्री में वृद्धि के साथ-साथ व्यवसाय की ख्याति में भी वृद्धि करती है। एक बार ख्याति अर्जित कर लेने के पश्चात् उस वस्तु की माँग स्थायी हो जाती है और ग्राहक स्वयं उस वस्तु की माँग करने लगते हैं।

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(II) मध्यस्थ व्यापारी की दृष्टि से महत्व

मध्यस्थ व्यापारियों की दृष्टि से भी विक्रय कला का काफी महतव है। विक्रय कला के अध्ययन से ही कोई व्यापारी अधिकतम विक्रय करने में सफल हो सकेगा, अन्यथा नहीं। जहाँ तक फुटकर विक्रेता का प्रश्न है फुटकर विक्रेता तो बिना विक्रय कला के गुण के एक क्षण भी बाजार में टिक नहीं पायेगा। इसके विपरीत यदि वह निपुण है तो अधिकाधिक विक्रय कर लाभ की मात्रा बढ़ा सकता है।

(III) ग्राहक दृष्टि से महत्व

(1) ग्राहकों के ज्ञान में वृद्धि- विक्रय कला ग्राहकों के ज्ञान में अभिवृद्धि करती है। विक्रय-कर्ता द्वारा अपने ग्राहकों को वस्तु के सम्बन्ध में बहुत-सी बातों की जानकारी दी जाती है, जैसे वस्तु के उपयोग की विधि।

(2) ग्राहकों की सन्तुष्टि- विक्रय कला ग्राहकों की सन्तुष्टि करने में सहायक होती है। सही वस्तु को सही ग्राहकों तक पहुँचाने में मदद करती है। ग्राहकों की शंकाओं का समाधान करती है।

(3) जीवन स्तर में सुधार- विक्रय कला से प्रभावित होकर मनुष्य बहुत-सी वस्तुओं को क्रय कर लेता है। इससे उसके जीवन स्तर में सुधार हाता है। श्री थॉम्पसन का कहना है कि "उच्च जीवन स्तर जो आज हम बिता रहे हैं, एक सीमा तक विक्रय कला की ही देन है।"

(IV) समाज की दृष्टि से महत्व

विक्रय कला का समाज के लिए भी बड़ा महत्व है। विक्रय कला देश को औद्योगिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोणों से समृद्ध करती है। नये-नये उद्योग स्थापित होते हैं जिससे कुल उत्पादन राष्ट्रीय आय में वृद्धि होत है तथा देश का आर्थिक विकास होता है। वस्तुएँ उचित दामों पर मिलने लगती हैं। सस्ती वस्तुओं के कारण उनकी माँग बढ़ जाती है जिससे उत्पादन बढ़ते हैं व रोजगार में वृद्धि होती है।

(V) सरकार की दृष्टि से महत्व

विक्रय कला के विकास में सर्वाधिक लाभ सरकार को होता है। इसका कारण यह है कि जब उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है तो सरकार को आबकारी कर मिलता है। जब उस माल का अधिक विक्रय होता है तो सरकार को विक्रय कर के रूप में अतिरिक्त आय भी प्राप्त होती है, साथ ही कारखानों का लाभ बढ़ने से सरकार को आयकर की प्राप्ति होती है।

(VI) अन्य दृष्टि से महत्व

(1) विनियोगों की वृद्धि- विक्रय कला के माध्यम से वस्तु की बढ़ी हुई माँग पूत्नि करने के उद्देश्य से अधिक व्यक्ति उन वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए आकर्षित होते हैं, अतः विनियोग अधिक मात्रा में किये जाने लगते हैं। विनियोक्ता निश्श्चत बाजार मिलने की दृष्टि से विनियोग करता है जिससे उसको जोखिम में कमी हो जाती है।

(2) राष्ट्रीय आय में वृद्धि- विक्रय कला वस्तु की माँग में वृद्धि कर उसकी बिक्री में वृद्धि करती है जिससे उत्पादन विशाल स्तर पर करना सम्भव होता है, रोजगार के अधिक साधनों का अवसर प्रदान करता है, इससे प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो जाती है।

(3) अज्ञानता का निवारण-मि. आस्टन एल. मिलर के शब्दों में "विक्रेता व्यावसायिक अथवा सामाजिक साहस का प्रतिनिधि होता है जो कि अपने उत्पादन के सम्बन्ध में ज्ञान का विस्तार से करता है।"

(4) आर्थिक विकास की गति में वृद्धि- विनियोगों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि देश के आर्थिक विकास की गति में तेजी लाती है क्योंकि आर्थिक विकास पूँजीगत विनियोगों में वृद्धि का अवसर प्रदान करता है जिससे रोजगार के साधनों में वृद्धि होती है। रोजगार साधन प्रति व्यक्ति आय वृद्धि में सहायक होते हैं। आय में वृद्धि से क्रय शक्ति में वृद्धि हो जाती है जिससे नई एवं श्रेष्ठ वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है। जीवन स्तर में सुधार होता है राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है जिससे आर्थिक विकास की गति में वृद्धि होती है।

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विक्रय कला के मुख्य तत्व या सिद्धान्त

विक्रय कला का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं की माँग उत्पन्न कर विक्रय में वृद्धि करना है। विज्ञापन और विक्रय कला दोनों माँग बढ़ाने में सहायक होते हैं, परन्तु इनमें भी विक्रय कला का स्थान अधिक महत्व का है। इसका कारण यह है कि विज्ञापन तो ग्राहक को विक्रेता की दुकान तक ला देता है, परन्तु वह विक्रय को प्रभावित नहीं कर सकता। वास्तविक विक्रय तो विक्रय कला पर ही निर्भर होता है, अतः ग्राहकों की मनोदशा के अनुकूल आचरण करके उसको सन्तोष देने एवं स्थायी बनाने की दिशा में विक्रेता को कार्य करना चाहिये। विक्रय कला की सफलता निम्नलिखित पाँच तत्वों या सिद्धान्तों पर निर्भर करती है-

(1) विक्रयकर्ता के व्यक्तिगत गुण- विक्रय कला की सफलता का प्रथम आवश्यक तत्व विक्रयकर्ता के व्यक्तिगत गुण हैं। विक्रयकर्ता के व्यक्तिगत गुण ग्राहक को एक बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित करते हैं। एक सफल विक्रयकर्ता में व्यक्तिगत गुण पाये जाते हैं जैसे- प्रभावशाली व्यक्तित्व, उत्तम स्वास्थ्य, परिश्रमी, मानसिक सतर्कता, स्फूर्तिवान, दूरदर्शिता, कुशल व चातुर्य, आत्मविश्वास, तीव्र स्मरण शक्ति आदि। यद्यपि ये सभी गुण एक साथ एक ही व्यक्ति में पाये जाने असम्भव हैं, फिर भी अधिकांश गुणों के होने से एक विक्रयकर्ता अपने विक्रय कार्य में सफल हो सकता है।

(2) वस्तुओं का ज्ञान- विक्रय कला में सफलता प्राप्त करने के लिये व्यक्तिग त गुणों के साथ-साथ वस्तुओं का ज्ञान भी आवश्यक है। जैसे विभिन्न निर्माता या प्रतियोगी संस्थाओं की वस्तुओं की. किस्म, रंग, रूप, डिजाइन, मूल्य, वस्तु की विशेषतायें आदि का ज्ञान होना। प्रो. चौधरी ने अपनी पुस्तक 'Personal Salesmanship' में लिखा है कि "विक्रय कला के कुछ आवश्यक लक्षण होते हैं, लेकिन यदि विक्रय कला में से वस्तुओं का सही पूर्ण ज्ञान घटा दिया जाय तो विक्रय कला रेत पर किला बनाने के समान होगी।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विक्रय कला में वस्तु का ज्ञान विक्रेता को होना चाहिये ताकि वह ग्राहक को बता सके।

(3) संस्था के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान- विक्रेता वस्तु के साथ ही अपनी व्यावसायिक साख भी बेचता है। अतः अपने ग्राहकों में संस्था की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि स्वयं विक्रयकर्ता ओ अपनी संस्था के बारे में पूर्ण जानकारी हो। उसे संस्था के प्रबंध नीति, मूल्य, इमारत, उत्पादन विधि, सामाजिक कार्य तथा संस्था द्वारा प्रदान की जाने वाली विशेष सुविधाओं के सम्बन्ध में ज्ञान आदि होना चाहिये जिससे ग्राहक को सही उत्तर देने में सक्षम हो सके।

(4) ग्राहकों का ज्ञान- विक्रय कार्य में सफलता प्राप्त करने हेतु विक्रेता को ग्राहकों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। यहाँ ग्राहकों के ज्ञान से आशय ग्राहकों के क्रय करने का उद्देश्य व ग्राहकों के स्वभाव से है। प्रभावपूर्ण विक्रय से पूर्व यह ज्ञात करना आवश्यक है कि ग्राहक वस्तु क्यों और किस उद्देश्य से क्रय कर रहा है। उसके स्वभाव के सम्बन्ध में आवश्यक है कि विक्रेता यह जान ले कि ग्राहक आर्थिक दृष्टि से अच्छा, मध्यम या निम्न श्रेणी का है। ग्राहक शान्त, क्रोधी, चिड़चिड़े या बातूनी स्वभाव का है। जैसा ग्राहक हो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए।

(5) विक्रय विधि का ज्ञान- विक्रय कला की सफलता के लिये यह भी आवश्यक है कि विक्रयकर्ता में विक्रय विधि का ज्ञान हो। हरबर्ट एन केसन (Herbert N. Casson) ने इस सम्बन्ध में छः बातों को उल्लेख किया है- 

  • स्वागत, 
  • पूछताछ, 
  • प्रदर्शन, 
  • चुनाव, 
  • सर्वर्द्धन 
  • प्रशंसा एवं विदाई।

प्रो. ग्रीफ (Prof. Grief) ने विक्रय विधि के पाँच बातों का वर्णन किया है- 

  • ध्यानाकर्षण, 
  • रुचि, 
  • इच्छा, 
  • विश्वास, 
  • अन्त।

अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम इसे सात भागों में बाँट सकते हैं-

(1) ध्यान आकर्षि करना- विक्रयकर्ता को सर्वप्रिय होना चाहिये कि ग्राहक का ध्यान आकर्षित करे। दुकान का आन्तरिक एवं बाह्य दृश्य ऐसा होना चाहिये कि ग्राहक स्वतः ही आकर्षित होता चला जाए। साइन बोर्ड, प्रकाश व्यवसायी, दुकान की सजावट, वस्तुओं का प्रदर्शन आदि ग्राहकों को आकर्षित करने के तरीके हैं।

(2) ग्राहक का स्वागत- जब ग्राहक दुकान की साज-सज्जा से प्रभावित होकर दुकान में प्रवेश करता है तो विक्रेता को चाहिए कि वह आदर सूचक शब्दों जैसे 'आइये साहब' या 'आइये बहिन जी' का प्रयोग करते हुए अगवानी करना चाहिये। इस प्रकार ग्राहकों में आत्मीयता उत्पन्न होती है।

(3) रुचि उत्पन्न करना- ध्यान आकर्षित करने व स्वागत के पश्चात् ग्राहक में रुचि उत्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिये। रुचियाँ तीन प्रकार की होती हैं-

  • मानवीय रुचि (Human Interest)- जब किसी नई वस्तु का उपयोग करते हुए एक व्यक्ति को देखकर दूसरे व्यक्ति के मन में उस वस्तु के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है। इसे मानवीय रुचि करते हैं।
  • समाचार सम्बन्धी रुचि (News Interest)- जब किसी विशेष समाचार को बढ़कर या सुनकर किसी वस्तु को खरीदने की रुचि उत्पन्न हो जाती है तो इसे समाचार सम्बन्धी रुचि कहते हैं।
  • नवीन रुचि (Novelty Interest)- जब किसी वस्तु का उत्पादन प्रथम बार हो और उसमें कुछ नई विशेषतायें हों तो ऐसी विशेषताओं के कारण जो रुचि उत्पन्न होती है, वह नवीन रुचि कहलाती है।

(4) वस्तु क्रय के लिये लालायित करना- जब ग्राहक के मन में वस्तु क्रय करने हेतु रुचि उत्पन्न हो जाती है तव विक्रयकर्ता का अगला कार्य ग्राहक को वस्तु क्रय करने के लिये लालायित (प्रेरित) करने का होता है। उचित राय देकर विक्रेता ग्राहक को वस्तु खरीदने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य कर सकता है। ग्राहक को लालायित करने के लिये अनेक प्रकार के प्रलोभन भी दिए जा सकते हैं, जैसे, इनामी योजना, नकद कमीशन, अधिक खरीदने पर अतिरिक्त छूट, बोनस कूपन आदि।

(5) विश्वास जमाना- विक्रय कला का तत्व का सिद्धान्त यह भी है कि ग्राहक में वस्तु एवं दुकान के प्रति विश्वास जमाना चाहिये और ग्राहक यह निर्णय लेकर जाय कि भविष्य में दुकान पर फिर आयेंगे। इसके लिए वस्तु की जाँच, सन्तुष्ट ग्राहकों के प्रमाण-एक, गारण्टी, तथा एवं प्रभाव बनाकर तथा तर्क देकर विश्वास जमाना चाहिये। इस कार्य के लिए ग्राहक को वस्तु लौटाने की सुविधा का आश्वासन प्रदान कर विश्वास जमाना चाहिये।

(6) बिक्री समाप्त करना- यदि ग्राहक माल खरीद लेता है या उसे विक्रय करने में सफलता प्राप्त हो जाती है तो यह विक्रय कला की सफलता की कसौटी मानी जाती है। यथा सम्भव कम समय में उचित मूल्य पर विक्रय करना विक्रय कला का महत्वपूर्ण सिद्धान्त माना जाता है।

(7) अपना स्थायी ग्राहक बनाना- विक्रय कला का अन्तिम महत्वपूर्ण तत्व यह है कि जिस व्यक्ति को एक बार माल बेचा गया है वह दुकान का स्थायी और नियमित ग्राहक बन जाए। यहाँ यह याद रखना कि एक सन्तुष्ट ग्राहक दुकान का सबसे बड़ा विज्ञापन होता है। यदि कोई ग्राहक दुकान से सन्तुष्ट होकर जाता है तो वह उस दुकान का स्थायी ग्राहक बन ही जाता है, साथ ही अपने मित्रों व रिश्तेदारों से दुकान की सुविधा, ईमानदारी व व्यवहार कुशलता की चर्चा करता है और उन्हें उसी दुकान से माल खरीदने के लिए प्रेरित करता है। स्थायी ग्राहक के लिए उससे सदैव संबंध बनाये रखना चाहिये तथा नई वस्तु के बारे में जानकारी उसे देते रहना चाहिये।

विज्ञापन तथा विक्रय कला में संबंध

विक्रय व विक्रय कला का घनिष्ठ संबंध है। यही वजह है कि विज्ञापन-कला को ही विक्रय कला मान लिया जाता है। बिना विक्रयकला के विज्ञापन का कार्य अधूरा ही रह जाता है। जिस प्रकार चलने के लिए दो पैरों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार विक्रय संवर्द्धन के लिए विज्ञापन एवं विक्रय कला रूपी दो पैरों की आवश्यकता होती है। विज्ञापन एवं विक्रय कला एक दूसरे में पूरक होते हैं।

यदि किसी व्यापारिक संस्था या व्यवसायों द्वारा अपने माल का विक्रय करने के लिए काफी धन खर्च करके विज्ञापन किया गया और उसे प्रभावित होकर ग्राहक दुकान पर वसतु क्रय करने के लिये आता है। परन्तु दुकान पर यदि ग्राहकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है तो ग्राहक निराश होकर वापस चला जायेगा। उसकी बिक्री नहीं बढ़ेगी और विज्ञान पर किया गया खर्च व्यर्थ जावेगा। इस प्रकार विक्रयकर्ता का विक्रयकर्ता का विक्रय कला में दक्ष होना उतना ही आवश्यक है जितना कि वस्तु के प्रचार-प्रसार में विज्ञापन।

इस प्रकार विक्रय कला को 'वैयक्तिक विज्ञापन' अथवा 'सजीव विज्ञापन' भी कहते हैं। विक्रय कला भी विज्ञापन के बिना असर कारक नहीं हो सकती है। यदि विज्ञापन न किया जाय तो ग्राहक दुकान पर नहीं आवेंगे। अतः विक्रय कला का कार्य वहाँ से प्रारम्भ होता है जहाँ विज्ञापन का कार्य समाप्त होता है।

विक्रय कला एवं विज्ञापन में अन्तर

विक्रय कला व विज्ञापन में अन्तर निम्न प्रकार प्रकट किया जा सकता है-

(1) कार्य- विज्ञापन विक्रय कला के कार्य को सम्भव बनाने की भूमिका अदा करता है। अर्थात् ग्राहक को विक्रेता की दुकान पर लाना है जबकि विक्रय कला का कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब विज्ञापन का कार्य समाप्त हो चुका होता है अर्थात् दुकान पर आये हुए ग्राहक को वस्तु बेचना है।

(2) उद्देश्य- विज्ञापन का उद्देश्य समाज के बहुत बड़े समुदाय को अपनी वस्तु की' ओर आकर्षित करना है जबकि विक्रय कला का उद्देश्य समुदाय के अलग-अलग रुचि रखने वाले व्यक्तियों को वस्तु विक्रय द्वारा सन्तुष्टि प्रदान करना है।

(3) संपर्क का क्षेत्र- विज्ञापन में संभावित ग्राहकों से सामूहिक रूप से सम्पर्क स्थापित किया जाता है जबकि विक्रय कला में ग्राहकों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित किया जाता है।

(4) विषय सामग्री- विज्ञापन किसी वस्तु के सामान्य गुणों व उपयोगिता का ज्ञान कराता है जबकि विक्रय कला किसी व्यक्ति विशेष को उसकी आवश्यकता की वस्तु की उपयोगिता व श्रेष्ठता का ज्ञान कराती है।

(5) माध्यम- विज्ञापन लिखित, मुद्रित या चित्रित माध्यम से ग्राहक तक पहुँचता है, जबकि विक्रय कला का माध्यम मौखिक होता है।

(6) सक्षमता-विज्ञापन में प्रत्येक ग्राहक को प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। जबकि विक्रय कला में प्रत्येक ग्राहक के प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया जाता है।

(7) संतुष्टि- विज्ञापन में प्रत्येक ग्राहक को संतुष्ट करने की सामर्थ्य नहीं होती, जबकि विक्रय कला में प्रत्येक ग्राहक को सन्तुष्ट करने की सामर्थ्य होती है।

(8) प्रकृति- विज्ञापन अव्यक्तिगत सेवा है जबकि विक्रय कला व्यक्तिगत सेवा है।

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