संस्कृतिकरण का अर्थ
श्रीनिवास के शब्दों में, "संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नए रिवाजों और आदतों को ग्रहण करना नहीं है, बल्कि नए विचारों और मूल्यों को भी अभिव्यक्त करना है, जो कि धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति साहित्य के विशाल शरीर में बहुधा अभिव्यक्त हुआ है। कर्म, धर्म, पाप, पुण्य, माया, संसार और मोक्ष कुछ सामान्य संस्कृतीय धार्मिक विचारों के उदाहरण है और जब कोई समाज सुसंस्कृत बन जाता है, तो ये शब्द उनकी बातचीत में बहुधा दिखाई पड़ते हैं।" सांस्कृतिक पौराणिक कथाओं और कहानियों द्वारा ये विचार सामान्य लोगों तक पहुँचते हैं। जैसा कि इस उदाहरण से स्पष्ट है, कि संस्कृतिकरण का अर्थ सुसंस्कृत समाज के विचारों और मूल्यों को ग्रहण करना है।
संस्कृतिकरण की परिभाषा
डॉ. एम. एन. श्रीनिवास ने लिखा है, "संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू-जाति या जन-जाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन-पद्धति को बदलता है।" संस्कृतिकरण की इस परिभाषा में इस प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं पर बल दिया गया है-
(1) संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में जाति अथवा समूह के रीति-रिवाज, कर्म-काण्ड, विचारधारा और जीवन पद्धति किसी द्विज जाति के अनुरूप परिवर्तित हो जाती है।
(2) संस्कृतिकरण में केवल ब्राह्मणों का ही अनुकरण नहीं किया जाता, बल्कि क्षत्रियों या वैश्यों का भी अनुकरण किया जाता है, किन्तु प्रत्येक स्थिति में निम्न जाति ऊँची जाति का अनुकरण करती हैं।
(3) संस्कृतिकरण की प्रक्रिया निम्न जाति के उच्च जाति के अनुकरण करने से चलती हैं।
(4) संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल जाति ही नहीं बल्कि जनजाति अथवा अन्य समूहों में देखी जा सकती हैं।
(5) संस्कृतिकरण के द्वारा कोई भी जाति, जनजाति या समूह उतार-चढ़ाव के सामाजिक क्रम में परिवर्तन से ऊँचा स्थान प्राप्त करने का प्रयास करता है।
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संस्कृतिकरण के आदर्श
इस तरह संस्कृतिकरण के द्वारा सामाजिक संरचना में ऊँचे पद पर दावा किया जता है और बहुधा इसका परिणाम ऊध्र्वोन्मुख गतिशीलता के रूप में देखा जाता है, किन्तु संस्कृतिकरण से सम्बद्ध गतिशीलता के परिणामस्वरूप व्यवस्था में केवल पद मूलक परिवर्तन ही होते हैं, कोई संरचना-मूलक परिवर्तन नहीं होते। भारतवर्ष में निम्न जातियों के अतिरिक्त जनजातियों जैसे- राजस्थान के भीलों में मध्य भारत के गौण्डों और औराओं में तथा हिमालय की पहाड़ी जनजातियों में भी संस्कृतिकरण दिखलाई पड़ता है। संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप जनजाति हिन्दू जाति होने का दावा करती है।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया
यातायात और सन्देशवाहन के विकास के फलस्वरूप संस्कृतिकरण ऐसे क्षेत्रों में भी फैल गया जहाँ कि वह पहले कभी नहीं था। शिक्षा के प्रसार के कारण और साक्षरता बढ़ने से वह जातिगत संस्तरण में निम्नतम समूहों तक पहुँच गया है। श्रीनिवास के अनुसार, संस्कृतिकरण के प्रसार में पाश्चात्य प्रौद्योगिकी, रेलवे, इण्टरनल कम्बस्चन एन्जिन, प्रेस, रेडियो, टीवी और हवाई जहाज आदि ने भी सहायता की है। ब्रिटिश लोगों ने भारत में संसदीय जनतन्त्र जैसी पाश्चात्य राजनीतिक संस्था को प्रारम्भ किया। इससे भी देश के संस्कृतिकरण में सहायता मिली।
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संस्कृतिकरण की प्रमुख विशेषताएँ
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया अर्थात् अवधारणा में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएँ सन्निहित होती हैं-
(1) संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग श्रीनिवास महोदय ने वस्तुतः ब्राम्हणीकरण के स्थान पर ही किया है, तथापि संस्कृतिकरण केवल मात्र ब्राह्मणीकरण ही नहीं होता है, अपितु इसके 3-4 अन्य स्वरूप भी होते हैं। वास्तविकता तो यह है कि बाह्मणों के अतिरिक्त भी क्षत्रिय तथा द्विज जातियों के सांस्कृतिक आदर्शों का भी अनुकरण किया जाता है। कुछ स्थानीय प्रभु और प्रबल जातियाँ भी संस्कृतिकरण का आधार सिद्ध हो सकती हैं।
(2) संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है, जिसमें निम्न जाति के व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्तियों के विभिन्न क्रिया-कलापों का अनुकरण करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया नीची जातियों की सामूहिक गतिशीलता में सहायक होती है तथा उसके द्वारा केवल मात्र स्थिति अथवा पदमूलक परिवर्तन ही होते हैं अर्थात् सामाजिक संरचना में कोई भी परिवर्तन नहीं होता है।
(3) भारतीय सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यक्ति की स्थिति वस्तुतः सामाजिक संस्तरण पर ही आधारित है। नीची जातियाँ अनेक प्रकार की धार्मिक व सामाजिक निर्योग्यताओं से ग्रस्त होती हैं तथा वे उच्च जातियों के जीवन सम्बन्धी विचारों तथा प्रतिमानों को नहीं अपना सकती हैं। चूँकि सदियों से ही यह अपनी जातियों की जीवन पद्धति का अनुकरण करती रही हैं। इसी अनुकरण को संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा जाता है।
(4) ब्राह्मणों, द्विजों अथवा प्रबल जातियों के सांस्कृतिक प्रतिमानों और व्यवहारों को ग्रहण करने के अतिरिक्त नीची जाति के व्यक्ति अपने परम्परात्मक और अशुद्ध पेशों, रहन-सहन की पद्धति तथा अपवित्र खान-पान सम्बन्धी विचार तथा आदर्श भी त्यागने लगते हैं, क्योंकि उच्च जाति के मूल्यों, आदर्शों आदि का अनुकरण करने से वे स्वयं को उच्च प्रतीत करने लगते हैं।
(5) संस्कृतिकरण का सर्वप्रमुख लक्ष्य वस्तुतः निचले समूहों के द्वारा जातिगत सोपान, क्रम में ऊँची स्थिति को ही प्राप्त करना होता है। संस्कृतिकरण की दिशा में प्रवृत्त नौची जातियों को चूँकि भविष्य में कुछ उच्च स्थिति प्राप्त होने की आशा रहती है, इसलिए ओ जातियाँ राजनैतिक व आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यधिक सक्षम हो जाती हैं, उनकी स्थिति शीघ्रातिशीघ्र उच्च हो जाती है तथा उनको ऊँची जाति के समान समझा जाने लगता है। जो निम्न जातियाँ निरन्तर रूप में एक-दो पीढ़ी तक उच्च जातियों की जीवन पद्धति का अनुकरण, करती हैं, उनके लिए जातिगत श्रेणीक्रम में उच्च स्थान प्राप्त करना अत्यधिक सुगम हो जाता है।
(6) संस्कृक्तिकरण केवल मात्र सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह सांस्कृतिक परिवर्तनों की जन्मदात्री भी होती है। साहित्य, कला, संगीत, भाषा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और विधि-विधान तथा विचारों की उत्पत्ति में भी इसी संस्कृतिकरण के द्वारा परिवर्तन होता है।
(7) संस्कृतिकरण की अवधारणा का प्रयोग सीमित होता है क्योंकि कुछ नीची जातियाँ परम्परात्मक प्रतिबन्धों एवं निषेधों के कारण पवित्रता की ओर उन्मुख नहीं हो सकती थीं जो कि उच्च जातियों के साथ संयुक्त थे, वर्तमान युग में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की स्थापना के फलस्वरूप अब उन व्यवहारों तथा विचारों को ग्रहण करने लगी हैं, जिन पर पहले केवल मात्र उच्च जातियों का ही एकमात्र अधिकार होता था। आधुनिक युग में, अनेकानेक निम्न जातियाँ उच्च जातियों की जीवन पद्धति का अनुकरण करते हुए स्वयं को उन्हीं के समान अनुभव करती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि संस्कृतिकरण केवल मात्र नीची जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की व्याख्या करने वाली एक प्रक्रिया है।
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(8) संस्कृतिकरण की अवधारणा और प्रक्रिया सर्वथा विरोधहीन नहीं होती है, क्योंकि अब कभी कोई कोई भी निम्न जाति किसी उच्च जाति की जीवन पद्धति अपनाने का प्रयास करती है, तब ऊँची जाति को यह अनुभव होने लगता है कि वह नीची जाति इस प्रकार से उनकी बराबरी करना चाहती है। इसलिए ऊँची जातियाँ निरन्तर इस बात का प्रयत्न करती है कि नीची जातियाँ पुरातन मूल्यों तथा प्रतिबन्धों को न तोड़ें और उनके रहन-सहन, खान-पान आदि का अनुकरण न करें जिससे सामाजिक पद-सोपान क्रम में उनकी स्थिति उच्च न हो पाए। भारतवर्ष में आज भी हरिजनोत्पीड़न सम्बन्धी विभिन्न मामलों के मूल में यही भावना स्पष्ट होती है।
(9) संस्कृतिकरण की अवधारणा ने असंस्कृतिकरण की अवधारणा को जन्म दिया है। जब कोई उच्च जाति के आचरण प्रतिमानों को ग्रहण करता है तो वह एक स्वाभाविक प्रक्रियानुसार अपने परम्परागत सांस्कृतिक प्रतिमानों का भी परित्याग करता है। यह असंस्कृतिकरण है। वर्तमान भारतीय समाज में केवल मात्र निम्न जातियाँ ही नहीं, अपितु अनेक उच्च जातियाँ भी निचली जातियों के आचरण प्रतिमानों को ग्रहण करने लगी हैं आधुनिक भारत में अनेक ब्राह्मण जातियाँ भी माँस भक्षण व मंदिरापान करती हैं और धार्मिक कर्मकाण्डों, विधि विधानों का परित्याग कर चुकी हैं। ब्राह्मणों के एक वर्ग में यज्ञोपवीत धारण करना भी पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा है। नगरों में अनेक उच्च जातियों के लोग नीची जातियों के परम्परागत पेशे भी अपनाने लगे हैं। बड़े-बड़े महानगरों में हम कहीं भी अग्रवाल घृत भण्डार, तिवारी तेल उद्योग, भदौरिया शू कम्पनी अथवा शर्मा लॉण्ड्री के बोर्ड देख सकते हैं। यह सभी वस्तुतः असंस्कृतिकरण के ही प्रमुख उदाहरण हो सकते हैं।
(10) संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में एक जाति अथवा समूह के रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड तथा जीवन-शैली किसी उच्च द्विज जाति के अनुरूप ढल जाती है।
संस्कृतिकरण के क्षेत्र
संस्कृतिकरण के विभिन्न क्षेत्र इस प्रकार हैं-
(1) सामाजिक क्षेत्र (Social Scopes)- प्रमुख विद्वानों का मत है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से सम्बन्धित सामाजिक क्षेत्र वस्तुतः परिवर्तन सम्बन्धी दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होता है क्योंकि संस्कृतिकरण अपने आन्तरिक स्वरूप में धार्मिक व्यवस्था से सम्बन्धित प्रत्यय है। यह मत अधिक उचित नहीं प्रतीत होता है क्योंकि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का सर्वपमुख उद्देश्य चूँकि सामाजिक ही है तथा छोटी निम्न जातियाँ अथवा समूह इस दिशा में इसलिए उन्मुख होते हैं कि वे अपने सामाजिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में अपनी वर्तमान स्थिति को ऊँचा उठाना चाहते हैं अथवा श्रेणी क्रम में एक प्रतिष्ठित और उच्च स्थान प्राप्त करना चाहते हैं।
संस्कृतिकरण के मूल में द्विज जातियों की उच्चता निहित होती है। इसके फलस्वरूप ग्रामीण समाज में अनेक नीची जातियों की उच्चता निहित होती है। इसके फलस्वरूप ग्रामीण समाज में अनेक नीची जातियाँ द्विज जाति होने का दावा भी करती हैं। स्वयं डॉ. एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार अनेकानेक स्थानीय प्रबल जातियों ने अपनी-अपनी जीवन पद्धतियों का संस्कृतिकरण कर डाला है तथा इस प्रक्रिया के आधार पर कतिपय निम्न जातियों ने द्विजत्व की दिशा में अग्रसर होने सम्बन्धी सफलता भी अर्जित की है। कतिपय आदिम जातियों ने तो संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप हिन्दू जाति के श्रेणीक्रम में एक प्रतिष्ठित जाति का रूप भी धारण कर लिया है।
वर्तमान युग के भारतीय समाज में दक्षिण प्रदेश के मराठे तथा रेड्डी जाति के लोग स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर चुके हैं और इनमें से कुछ निम्न जातियों ने तो पगड़ी तथा तलवार तक धारण करना प्रारम्भ कर दिया है। उत्तर प्रदेश में कई निचली जातियाँ स्वयं को ब्राह्मण कहती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाने वाली धीमर नामक बढ़ई जाति स्वयं को वर्मा कहलाने लगी है तथा इसी प्रकार त्यागी नामक जाति ने काफी कुछ अंशों तक ब्राह्मणत्व भी प्राप्त कर लिया है। बिहार राज्य की नाई जाति के लोग तो स्वयं को खुलेआम ठाकुर और क्षत्रिय घोषित करते हैं। मुसलमानों के शासन में जिन-जिन जातियों ने मुसलमान धर्म से बचने के लिए निम्न व्यवसाय अपनाए थे। वे सब भी अब स्वयं को फिर से ठाकुर और क्षत्रिय कहलाने लगे हैं।
(2) धार्मिक क्षेत्र (Religious Scopes)- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न निम्न जातियों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जैसी द्विज जातियों की भाँति अपने-अपने पृथक् मन्दिरों और पूजा-स्थलों की स्थापना कर डाली है। इन मन्दिरों में परम्परागत हिन्दू देवी-देवताओं के अतिरिक्त नीची जातियाँ अपने पुरखों तथा महापुरुषों को भी प्रतिष्ठित करती हैं। कतिपय नीची जातियों के व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण करते हुए चन्दन का टीका आदि भी लगाना प्रारम्भ कर दिया है। इसके अतिरिक्त वे नियमपूर्वक अपने मन्दिरों में आरती और प्रार्थना करते हुए प्रसाद भी वितरित करने लगे हैं। इन जातियों ने मन्दिरों में अपनी ही जाति के पुजारियों की नियुक्ति की है। कतिपय मध्यम श्रेणी की जातियों के मन्दिरों में ब्राह्मण पुजारियों को वेतन पर रखा जाने लगा है तथा अनेक निम्न जातियों ने उच्च जातियों की ही भाँति धार्मिक अनुष्ठान, पूजा, हवन, यज्ञ तथा अन्य संस्कार करना भी प्रारम्भ कर दिया है।
इस प्रकार वे पवित्रता की ओर तीव्रता से अग्रसर हैं तथा अपने नित्य-प्रति के जीवन में शुद्धता और और पवित्रता भी पर जोर देने लगे हैं। अनेक निम्न जातियों ने स्वच्छ शरीर और वस्त्राभूषण धारण करना प्रारम्भ कर दिया है तथा कुछ ने माँस-मदिरा त्याग दी है। मध्यम जातियों ने तो अनेकानेक धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का पदाधिकारी तक बनना आरम्भ कर दिया है। इनमें से कुछ जातियाँ तो परम्परागत ब्राह्मणों के समान धार्मिक रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों तथा सांसारिक कृत्यों में निपुणता प्राप्त भी है। इससे स्पष्ट है कि आज संस्कृतिकरण के धार्मिक क्षेत्र में वस्तुतः विभिन्न प्रकार के परिवर्तन घटित होने लगे हैं।
(3) आर्थिक क्षेत्र (Economic Scopes)- आर्थिक क्षेत्र में सम्पन्न हुए व्यावसायिक परिवर्तनों में भी निम्न जातियों का संस्कृतिकरण दृष्टव्य है। भारतीय समाज में विशुद्ध और पवित्र पेशे अति प्रारम्भ से ही उच्चता व श्रेष्ठता के प्रतीक माने जाते रहे जबकि अशुद्ध पेशों को निम्न दृष्टि से देखा जाता रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो भंगी जाति के लोग भी सब्जियाँ बेचते हैं और चाय आदि की छोटी-छोटी दुकानें लगाते हैं। बड़े-बड़े औद्योगिक महानगरों तथा केन्द्रों में अनेक नीची जातियों ने खान-पान तथा अन्य छोटे-छोटे पेशों को अपनाया है। मेहतर, चमार, कसाई तथा अन्य अपवित्र पेशों में संलग्न जातियों ने इस प्रकार से इन अशुद्ध व्यवसायों का शनैः शनैः परित्याग किया है और इनमें से अधिकांश व्यक्तियों ने अच्छी-अच्छी नौकरियाँ भी प्राप्त कर ली हैं।
भारत सरकार की अछूत और अस्पृश्य तथा पिछड़ी जनजातियों के व्यक्तियों हेतु सरकारी नौकरी में रिजर्व कोटा अथवा आरक्षण नीति ने भी संस्कृतिकरण की दिशा में प्रेरित किया है। बड़े-बड़े सरकारी कार्यालयों में तो इन निम्न जातियों के लोग ऊँची जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति के लोग क्लर्क और चपरासी के रूप में कार्य करते दिखाई पड़ते हैं।
अतः इससे स्पष्ट है कि व्यावसायिक जीवन का संस्कृतिकरण वस्तुतः शिक्षा एवं आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करता है। इसलिए निम्न तथा पिछड़ी जातियाँ इस दिशा में अपनी सन्तानों को सुशिक्षित बनाने के लिए सक्रिय रूप से प्रयत्नशील दिखाई पड़ती हैं। सरकार द्वारा प्राप्त विभिन्न अधिकारों तथा सुविधाओं के परिणामस्वरूप वे उत्तरोत्तर आर्थिक रूप से सर्वथा आत्मनिर्भर भी होती जा रही हैं। इसके अन्तिम परिणामस्वरूप अब निम्न जातियाँ पूर्वापेक्षा इधर तीव्रता से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में संलिप्त हैं तथा ऊँची और प्रबल जातियों के आर्थिक सामाजिक दबाव और प्रतिरोध से भी सुरक्षित हैं।
(4) रहन-सहन की दशाएँ (Conditions of Living)- वर्तमान युग में उपलब्ध आर्थिक-सामाजिक स्वतन्त्रता के आधार पर निम्न जातियों के रहन-सहन की पद्धति और दशाओं का भी संस्कृतिकरण होने लगा है। वर्तमान समय में भी वे उच्च जातियों के ही समान पक्के सीमेण्टेड मकान बनाती हैं। इन पक्के मकानों में ऊँची जातियों के ही समान ड्राइंग रूम, स्लीपिंग रूम, किचेन, लेट्रीन, बाथरूम, आदि कमरे होते हैं। विशेष रूप से बैठक अथवा ड्राइंग रूम में सोफासेट, मेज, कुर्सी, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन आदि भी लगे होते हैं। ग्रामीण समाजों में भी अब बड़ी-बड़ी उच्च जातियों के साथ वे चारपाई पर ही बैठते हैं। उनके घरों में भी सर्वत्र स्वच्छता दिखाई पड़ती है तथा अनेक निम्न जातियों ने राम-राम और प्रणाम के स्थान पर जयहिन्द और नमस्ते कहना प्रारम्भ किया है। उनके घरों में हिन्दू देवी-देवताओं के साथ-साथ राजनीतिक व्यक्तियों के चित्र भी लगे होते हैं। नीची जातियों ने अब नियमपूर्वक स्नानादि भी प्रारम्भ करके साफ-सुथरे वस्त्रों को पहनना आरम्भ कर दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि अब वे भी उच्च जातियों के समान ही रहन-सहन का स्तर अपनाने लगी हैं।