संस्कार का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार एवं महत्व

संस्कार का अर्थ एवं परिभाषा 

प्राचीन भारतीयों का जीवन अनेक प्रकार के संस्कारों से बँधा हुआ था। संस्कार से मानव जीवन सुसंगठित तथा अनुशासित रहता था। ये संस्कार ही थे जिनके द्वारा वह अपने जीवन को सुखपूर्वक बिताता था। इससे सामाजिक जीवन में किसी प्रकार की उच्छृंखलता नहीं फैलती थी। ये संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक मनुष्य के साथ धार्मिक कृत्यों के रूप में चलते रहते थे। इनका उद्देश्य मानव मन को शुद्ध रखना था जिससे वह भाँति-भाँति की बुराइयों से बचा रहे।

'संस्कार' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है' आत्मा का परिमार्जन करना', परन्तु विद्वानों ने इस शब्द के अन्य अनेक अर्थ बताये हैं, जैसे- आत्मा का प्रजनन करना, अपने को समझना, पवित्र करने के लिए अनुष्ठान करना इत्यादि। हिन्दू समाज में मनुष्य संस्कार को इसलिए मानते है जिससे उनकी आत्मा में शान्ति के भाव आयें तथा उनका मन शुद्ध हो। संस्कार की शिक्षा या दीक्षा के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। इसलिए संस्कारों को मानना आवश्यक सा है। हिन्दू समाज में इनकी पूर्ति के लिए तरह-तरह के कर्मकाण्डों को किया जाता है। इनको अपनाकर मनुष्य की भौतिक या अभौतिक या फिर दोनों पक्षों की शुद्धि होती है। मनुष्य को समाज में नियमबद्ध रहने का अवसर मिलता है। उसमें श्रम, गुण तथा कर्म के प्रति निष्ठा पैदा होती है। संस्कार किसी न किसी रूप में संसार के प्रत्येक समाज में पाए जाते हैं। मुसलमानों में 'सुन्नत' तथा ईसाईयों में 'बपतिस्मा' के संस्कार होते हैं, परन्तु हिन्दू संस्कार अपनी विशिष्टता को लेकर कार्यरूप में परिणित होते हैं।

किसी समय मनुष्य बिना संस्कारों के अशुद्ध और अधूरा समझा जाता था। संस्कार धर्म का एक अंग था।

जैमिनी के अनुसार- "संस्कार वह क्रिया है जिसके करने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है।"

तन्त्रावार्तिक के अनुसार- "संस्कार वे क्रियाएँ या रीतियाँ हैं जिनसे योग्यता प्राप्त होती है।" 

एक अन्य विद्वान के अनुसार, "संस्कार वह योग्यता है जो शास्त्रसम्मत क्रियाओं को करने में उत्पन्न होती है।"

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संस्कार एक प्रकार की धार्मिक क्रियाएँ हैं जिनके माध्यम से व्यक्ति अपने को पूर्ण रूप से विकसित करता है। इसके अतिरिक्त इनके अन्दर धार्मिक विधि-विधान तथा अनुष्ठान भी आ जाते हैं। यह एक ऐसा कार्य है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पन्न होता था। इसके करने से व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक सन्तुष्टि होती थी।

हिन्दू संस्कारों का उद्देश्य

जिस प्रकार हिन्दू समाज अत्यन्त पुराना है उसी प्रकार हिन्दू संस्कार भी अत्यधिक प्राचीन है। अतः हिन्दू संस्कार बिना किसी उद्देश्य के नहीं बनाए गए हैं। मनुस्मृति में मनु महाराज ने लिखा है कि हवन, चूड़ाकर्म तथा यज्ञोपवीत करने से गर्भाशय से उत्पन्न दोषों का अन्त हो जाता है।

याज्ञवल्क्य ने कहा है कि संस्कार बीज गर्भ से उत्पन्न दोष को दूर करते हैं। वास्तव में इनमें कुछ व्यावाहारिक गुण हैं। इसी कारण हजारों वर्षों से समाज इनको अपनाए हुए है। धार्मिक उद्देश्य तथा सामाजिक दृष्टि से संस्कारों के निम्नलिखित उद्देश्य बताए गए हैं-

 (1) व्यक्तित्व का विकास

हिन्दू संस्कारों का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना है। हिन्दू समाज में व्यक्ति को समाज के अनुरूप चलना पड़ता है। इस हेतु वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपना विकास नहीं कर सकता, परन्तु संसार को निकट से देखने के लिए व्यक्तित्व का विकास आवश्यक है, विकास के लिए व्यक्ति अपने तन तथा मन को शिक्षा के द्वारा उन्नत बनाता है। उसमें शिष्टता, सभ्यता तथा सामाजिकता की भावना आती है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के अन्तर्गत अनेक संस्कारों को रखकर 'विकास की भावना' के व्यापक दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी गई है।

 (2) अभीष्ट प्राप्ति की भावना

हिन्दू संस्कारों का दूसरा पक्ष यह है कि इनके द्वारा मनुष्य की भौतिक उन्नति होती है। हिन्दुओं का यह विश्वास है कि इन संस्कारों को अपनाकर व्यक्ति को रहस्यमयी शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है। ईश्वर की अलौकिक शक्ति के प्रति उसका मन श्रद्धा से भर उठता है। 

(3) आध्यात्मिक प्रगति

हिन्दू धर्म का उद्देश्य भौतिक उन्नति के अतिरिक्त आध्यात्मिक उन्नति की ओर भी ध्यान देना है। संस्कार इस ओर से मनुष्य को सद्‌कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। संस्कारों के द्वारा मनुष्य ईश्वर की सत्ता में विश्वास करके अपनी आत्मा को शान्ति पहुँचाने के कार्य को सम्पन्न करता है। संस्कारों को मानने वाला व्यक्ति संसार की बातों को मानने के साथ-साथ ईश्वर की भक्ति में लीन रहने की अनजाने ही प्रेरणा पा जाता है। इस प्रकार वह अपने शरीर तथा मन दोनों से संसार के बीच एक मोल उपस्थित करता है।

 हिन्दू संस्कार के विभिन्न प्रकार

 गौतम ऋषि ने धर्म-सूत्र में निम्नलिखित संस्कारों की व्याख्या की है- 

(1) गर्भाधान संस्कार

यह समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का पहला संस्कार है। अथर्ववेद में इस संस्कार के विषय में सूक्ष्म विवेचन किया गया है। आश्वालायन गृह्यसूत्र में अथर्ववेद का सन्दर्भ देकर गर्भाधान संस्कार की विवेचना की गई है। इसी प्रकार अन्य सूत्रों में भी गर्भाधान संस्कार का वर्णन विस्तार से मिलता है। स्त्री को पृथ्वी के समान रत्नगर्भा माना गया है। जिस प्रकार पृथ्वी अपने गर्भ के बीज को बदलकर पौधा, वृक्ष, फिर फल-फूल प्रदान करती है उसी प्रकार स्त्री भी नर-बीज ग्रहण कर भ्रूणाशय से रत्नरूपी पुरुष उत्पन्न करती है। प्रारम्भ में प्रत्येक कार्य को धार्मिक अनुष्ठान के अन्तर्गत रखा जाता था। यही कारण है कि जब पुरुष स्त्री से सहवास करता था तो मन्त्रों का उच्चारण करता था।

मनु, याज्ञवल्क्य तथा वैखानस मुनि ने भी गर्भाधान संस्कार के बारे में अनेक रहस्यपूर्ण बातों की विवेचना की है। उनके अनुसार पुत्रोत्पत्ति के लिए मासिक धर्म के चौथे दिन के बाद सम दिनों में तथा लड़कों के लिए विषम दिनों में सम्भोग करना चाहिए। रजस्वला स्त्री को अंगराग लेप करना चाहिए। किसी अन्य स्त्री (शूद्र स्त्री) से सम्भोग नहीं करना चाहिए।

शौनक ऋषि के अनुसार जिस स्त्री के अन्दर शुक्र धारण करने की शक्ति होती है वह गर्भ धारण कर सकती है। उन्होंने लिखा है कि ऋतुकाल में अपनी स्त्री से सम्भोग करना प्रत्येक विवाहित पुरुष का कर्त्तव्य है। पाराशर ने लिखा है कि जो पुरुष स्वस्थ रहने के बाद भी अपनी स्त्री से सम्भोग नहीं करता उसे भ्रूण हत्या का दोष लगता है, जो स्त्री स्नान करने के बाद पति के संग सहवास के लिए तैयार नहीं होती वह शूक होती है।

इस प्रकार धर्मशास्त्र के सभी विद्वान एक मत से इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं। कुछ विद्वान् गर्भाधान को संस्कार मानते हैं और कुछ विद्वान् कहते हैं कि यह संस्कार नहीं। धर्म सिन्धु ने लिखा है कि पहले मासिक धर्म को छोड़कर दूसरे मासिक धर्म पर जब सम्भोग क्रिया की जाती है तो होम नहीं किया जाता। एक अन्य पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी स्त्री का पति नहीं है तो उसका कर्त्तव्य है कि सम्भोग को छोड़कर सभी संस्कार किसी अन्य सम्बन्धी द्वारा सम्पन्न करा ले।

 (2) पुंसवन संस्कार

गर्भाधान संस्कार के दूसरे या तीसरे महीने गर्भ की पुष्टि के लिए पुंसवन संस्कार किया जाता है। उस दशा में स्त्री को शुद्ध होकर आहार-विहार का ध्यान रखना चाहिए। इसका गर्भस्थ शिशु पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस संस्कार में स्त्री से कहा जाता है कि जो पुत्र तेरे गर्भ में है वह वीर तथा पराक्रमी हो।

वास्तव में इस संस्कार का उद्देश्य है कि गर्भ की रक्षा करने वाले देवताओं की पूजा-अर्चना हो जिससे वे नाराज न हों। प्रत्येक व्यक्ति अपने को अमर बनाने तथा वंश को आगे बढ़ाने की इच्छा के लिए पुत्र की कामना करता है।' पुंसवन शब्द का अर्थ होता है 'पुत्र को जन्म देना।' इस संस्कार को करने से जब देवता प्रसन्न होते हैं तो वे वीर पुत्र को प्रदान करते हैं। संस्कार प्रकाश में पुंसवन का अर्थ पुत्र-प्राप्ति लिखा है। आश्वलायन गृह्यसूत्र में भी वर्णन आया है कि 'गर्भ धारण' के तीसरे महीने इस संस्कार का 'सम्पादन' करना चाहिए। पुनर्वसु नक्षत्र में उपवास करने के बाद स्त्री अपने रंग के बछड़े वाली गाय के दही के साथ दो बीज सेम तथा एक दाना जौ का खाती है। यह क्रिया वह तीन बार करती है। स्त्री का पति उससे तीन बार प्रश्न करता है, "तुम क्या पी रही हो?" स्त्री उत्तर देती है, "पुंसवन।" अर्थात् पुत्र-प्राप्ति की कामना स्त्री करती है। महर्षि दयानन्द ने 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखा है कि स्त्री को स्नान ध्यान के बाद नवीन वस्त्र धारण करके व्रत रखना चाहिए। देवताओं का ध्यान करना चाहिए जिससे परमपिता उसे पराक्रमी पुत्र दें।

पुंसवन संस्कार के करने के बारे में भी लोगों में अनेक मत हैं। आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, हिरण्यकेशि गृह्यसूत्र तथा भारद्वाज गृह्यसूत्र में ऐसा लिखा है कि पुंसवन संस्कार सीमन्तोनयन के बाद करना चाहिए। याज्ञवल्क्य, विष्णुधर्म सूत्र आदि में लिखा है कि पुंसवन संस्कार उस समय करना चाहिए जब भ्रूण हिलने लगे। काठक गृह्यसूत्र के अनुसार गर्भाधान के पाँचवें महीने पुंसवन संस्कार को करने से स्त्री के शरीर की त्वचा शुद्ध रहती है।

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार

इस संस्कार का अर्थ होता है कि स्त्री को पुष्ट शक्तियों से बचाये रखना। आपस्तम्ब गृह्यसूत्र तथा भारद्वाज गृह्यसूत्र में इस संस्कार में लिखा है कि इसे पुंसवन से पहले कर लेना चाहिए। वास्तव में सीमन्तोन्नयन का अर्थ है 'स्त्री के बालों को ऊपर बाँध देना।' इस संस्कार के बारे में आश्वलायन, शांखायन, बोधायन, गोमिल, पारस्कार तथा वैखानस गृह्यसूत्र में विस्तार से उल्लेख किया गया है।

आश्वलायन के अनुसार गर्भाधान के चौथे महीने में सीमन्तोनयन का संस्कार करना चाहिए। इस संस्कार के शुरू में मातृपूजा की जाती है। इसके बाद स्त्री को अग्नि के सामने पश्चिमुखी रूप में कुशासन पर बिठाया जाता है। उसके सामने पति आता है और कच्चे फलों के गुच्छे, कुश के तीनों गुच्छे तथा तीन काँटों को लेकर 'भुर्भूवा स्वाः' तीन बार पाठ करता है। इसके पश्चात् बालों को ऊपर की ओर संवारता है। स्त्री के कण्ठ में उदम्बर की एक टहनी बाँध देता है। इसके पश्चात् पति-पत्नी दोनों घी, तिल आदि को लेकर दीर्घायु की कामना करते हैं।

 (4) जाति-कर्म संस्कार

यह संस्कार पुत्र जन्म के बाद किया जाता है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार पुत्र-जन्म के बाद 22 विभिन्न पात्रों में रोटी रखकर वैश्वानर को देने का विधान बताया गया है, जिस पुत्र के लिए यह कार्य किया जाता है वह धन-धान्यपूर्ण तथा दीर्घायु होता है। शवर ने लिखा है, "जाति-कर्म का विधान जन्म से दस दिनों के बाद पूर्णमासी से अमावस्या के दिन करना चाहिए।" वृहदारण्यकोपनिषद् में यह उल्लेख किया गया है कि पुत्र के जन्म लेने के पश्चात् अग्नि जलानी चाहिए। इसके बाद शिशु को गोद में लेकर एक काँसे के बर्तन में दही रखकर मन्त्रोच्चारण की ध्वनि के साथ बच्चे के कान में तीन बार आवाज करनी चाहिए। बाद में सोने के चम्मच में घी, दही तथा मधु को मिलाकर बच्चे को चटाना चाहिए। इसके अतिरिक्त इसी उपनिषद् में अन्य बातें भी लिखी गई हैं। उदाहरण के लिए, दही, घी आदि के साथ होम करना चाहिए। बालक के बाएँ कान में तीन बार शुद्ध शब्द का उच्चारण करना चाहिए। सोने या चाँदी के चम्मच में बालक को दही, घी तथा मधु चटाना चाहिए। बच्चे को एक गुप्त नाम भी देना चाहिए। माता को भी मन्त्रों द्वारा दीक्षित करना चाहिए।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, ब्राह्मणों को ऐसी क्रिया करनी चाहिए जिससे बालक को चारों दिशाओं में शुद्ध वायु मिले। इस प्रकार जाति कर्म संस्कार में होम, आयुष्म, पाँच ब्राह्मण स्थापन, स्तन प्रतिधान, नाम देना, भूत-प्रेत भगाना, देशाभिमेधा जनन कार्य आवश्यक माने गये हैं।

 (5) नामकरण संस्कार

इस संस्कार के कृत्य द्वारा बालक को एक नाम दिया जाता है। उसका नाम प्रायः किसी देवता के नाम पर रखा जाता है, जैसे- विष्णु कुमार, दिनेश, महेश आदि ।

इस संस्कार के बारे में अनेक धर्म ग्रन्थों में समझाया गया है। साधारणतया इस संस्कार को जन्म के दसवें या बारहवें दिन किया जाता है। आजकल नामकरण संस्कार प्रायः कुल-पुरोहित द्वारा वेदमन्त्रों के उच्चारण के बाद किया जाता है। कुछ घरों में स्त्री-पुरुष (सम्बन्धी) इकट्ठे हो जाते हैं और आपस में परामर्श करके कोई अच्छा-सा नाम रख लेते हैं। शोमेण के मतानुसार शिशु के चार नाम रखे जाते हैं, नक्षत्र, नाम, गुप्त नाम, सम्बोधित नाम तथा कोई यज्ञ आदि सम्पादित करने वाला नाम।

 मनु के अनुसार, प्रथम ऐसे नाम रखने चाहिए जिससे प्रसन्नता, रक्षा, पेशे की पुष्टि का संकेत मिले। धर्मशास्त्र में लिखा है कि नामकरण संस्कार विधिवत् करना चाहिए। इसके लिए माता बच्चे को गोद में लेकर पति के दाहिने बैठती है। इसके बाद काँसे के पात्र में चावल या धान क भूसी छिड़ककर स्वर्ण की लेखनी से' श्री गणेशाय नमः' लिखा जाता है। इसी समय चार नामों को लिखा जाता है, जैसे- कुल देवता का नाम, व्यावहारिक नाम, नक्षत्र का नाम आदि। पिता को बालक के कान में कहना चाहिए, "हे पुत्र तू कल देवता का भक्त है और तेरा नाम रखा गया है।" इस संस्कार के बाद अतिथियों तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।

 (6) निष्क्रमण संस्कार 

महामुनि पारस्कार ने गृह्यसूत्र में लिखा है कि जन्म के चौथे महीने निष्क्रमण संस्कार करना चाहिए। इस कृत्य से पूर्व बालक को शुद्ध जल से स्नान कराकर तथा सुन्दर वस्त्र पहनकर यज्ञवेदी के सामने ले जाते हैं। यज्ञ हो जाने के बाद बालक को शुद्ध वायु में घुमाते हैं। दिन में सूर्य भगवान तथा रात्रि में चन्द्र के दर्शन कराये जाते हैं। इस संस्कार का वर्णन अन्य धर्मसूत्रों में भी मिलता है, जैसे- गोमिल, खदिश, बोधायन, मानव तथा काठक सूत्र। कुछ ग्रन्थों में लिखा है कि यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में करना चाहिए। एक पुराण में लिखा है कि जन्म के बारह मास बाद इस संस्कार को करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने का भी विधान है।

 (7) अन्नप्राशन संस्कार 

स्मृतियों में लिखा है कि बच्चे को छठे मास अन्न चखाना चाहिए, परन्तु शांखायन, आपस्तम्ब, पारस्कर, आश्वलायन, काठक, भारद्वज तथा वैसानख गृह्मसूत्रों में इस संस्कार को छः से आठ माह तक किया जा सकता है। उस समय तब बच्चे का पहला दाँत निकल आता है। शांखायन गृह्यसूत्र के अनुसार, "पिता का कर्तव्य है कि बकरे, तीतर या मछली का मांस या भात बनाकर दही, घी तथा मधु में मिलाकर 'ओम' नाम के उच्चारण के साथ खिलाये। इससे बालक पुष्ट, प्रकाशवान तथा धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है। अन्त में पिता को अग्नि में आहुति डालने की बात बताई गई है। उस समय पिता चार मन्त्रों को पढ़ता है। ब्राह्मणों तथा अतिथियों को भोजन भी कराया जाता है।"

 (8) चूडाकर्म संस्कार

इस संस्कार को 'मुण्डन' संस्कार भी कहते हैं। किसी शुभ मुहूर्त में नाई बालक के बाल किसी देवी-देवता के मन्दिर में, नदी या तालाब के किनारे काटता है। ये बाल सकोरे या आटे की लोई में रख जाते हैं। लोई या सकोरा बालों सहित जंगल में गाड़ दिया जाता है। कहीं-कहीं नदी में बहा देने की प्रथा है। बाल कट जाने के बाद बालक के सिर पर मक्खन, मलाई आदि लगाते हैं। बालक को स्वच्छ जल से स्नान कराने के बाद यज्ञ की वेदी पर गुरुजन तथा ब्राह्मण बच्चे को आशीर्वाद देते हैं।

कुछ गृह्यसूत्रों में लिखा है कि संस्कार को किसी भी आयु में किया जा सकता है। कटे हुए बालों को कहीं-कहीं गोशाला में भी गाढ़ देते हैं। बोधायन ने लिखा है कि प्रवरों की संख्या के बराबर बाल छोड़ देना चाहिए। आजकल हिन्दुओं में शिखा रखने की प्रथा भी है जो प्रायः चूड़ाकर्म के बाद सिर पर छोड़ दी जाती है। देवल ऋषि के कथनानुसार, बिना शिक्षा तथा यज्ञोपवीत के कोई कार्य नहीं करना चाहिए।

 (9) कर्ण भेद 

यह संस्कार प्रायः तीसरे या पाँचवें वर्ष किया जाता है। इस संस्कार के अनुसार बालक को शुद्ध जल से स्नान कराके सुन्दर वस्त्र तथा अलङ्कार पहनाने चाहिए। इसके बाद बालक को स्वादिष्ट भोजन खिलाना चाहिए। जब बालक का ध्यान भोजन में बँट जाये तो वैद्य या स्वर्णकार को बालक के दोनों कान सुई से छेद देना चाहिए। इसके बाद बालक के कानों में बाली या कोई सलाई पहना दी जाती है।

 (10) उपनयन संस्कार 

उपनयन संस्कार एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार का तात्पर्य है कि बालक को आचार्य के पास ले जाना चाहिए। इस संस्कार के बारे में वेदों में भी दिया हुआ है। ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए इस संस्कार का विधान बताया गया है। आश्वालयन गृह्यसूत्र में समझाया गया है कि ब्राह्मण पुत्र का उपनयन आठवें वर्ष, क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष तथा वैश्यों का बारहवें वर्ष में होना चाहिए। महीनों में पाँच या छः महीने पवित्र माने गये हैं। नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृग-शिरा, पुनर्वसु, श्रमण तथा रेवती उपयुक्त बताये गये हैं। ब्रह्मचारी को केवल दो कपड़े पहनने चाहिए ऐसा बताया गया है।

इस संस्कार के बाद विद्यार्थी को कठोर रूप से जीवन बिताते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता था। डॉ. पाण्डेय का मत है कि भारत में आर्यों से पहले ही यह संस्कार प्रचलित था। उपनयन संस्कार नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक संस्कार है।

बिना समय इस संस्कार का बहुत महत्व था। इस संस्कार के बाद ही शिष्य गुरु की सेवा में अनुशासन, सदाचरण, नागरिकता, अधिकार तथा कर्तव्यों का पाठ पढ़ता था। उस समय के गुरु निःस्वार्थ भाव से बालक को योग्य नागरिक बनाते थे। केवल हिन्दुओं में ही नहीं, वरन् अन्य जातियों में भी इस संस्कार को किया जाता था। एक प्रकार से बालक को धार्मिक रूप से दीक्षित किया जाता था।

बिना उपनयन के व्यक्ति अशुद्ध समझा जाता था। इसके अनुसार उसे समाज में विशेषाधिकार तथा सुविधाएँ मिलती थीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, तथा वैश्य तीनों के लिए उपनयन संस्कार आवश्यक थे। बालक साहित्य के ज्ञान से पूर्ण रूप से इसी संस्कार के बाद परिचित होता था। भारत में इसी संस्कार के कारण शिक्षा तथा साहित्य में इतनी वृद्धि हो सकी। उपनयन संस्कार के समय गुरु अपने शिष्य को जो शिक्षाएँ देते थे, वे उनके जीवन में काम आती थीं। उस समय आचार्य शिष्यों से कहते थे बलवान बनो, दिन में शयन न करो, वाणी पर संयम रखो आदि। बालक में विनम्रता तथा अनुशासन की भावना इसी संस्कार के द्वारा आती थी। वह संयमित जीवन बिताने के लिए तैयार हो जाता था। उपनयन के बाद ऐसा माना जाता था कि बालक का दूसरा जन्म हो गया है।

 (11) वेदारम्भ संस्कार 

इस संस्कार का सीधा-सादा अर्थ है कि बालक को गुरु के पास पहुँचकर वेदों का अध्ययन करना चाहिए। वेदों के गठन से पूर्व बालक को कोपीन तथा उत्तरीय धारण करना पड़ता था। वह गुरु के निर्देशानुसार वेदों का अध्ययन करता था।

 (12) समावर्तन संस्कार

इस संस्कार के अनुसार बालक वेदों तथा विज्ञान को पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए विद्यालय या गुरुकुल को छोड़ देता था। इसे दीक्षान्त संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में बालक गुरुकुल के वस्त्र छोड़कर, दाढ़ी तथा मूँछ मुड़वाकर, स्नानादि करके शरीर पर सुगन्धित तेल लगाकर सुन्दर वस्त्र पहनता था। उसके कर्न्ध पर दुपट्टा तथा सिर पर टोपी का होना अनिवार्य था।

हिन्दू संस्कारों का महत्व 

इन संस्कारों का हिन्दुओं के लिए विशेष महत्व है, क्योंकि इनके द्वारा व्यक्ति के जीवन को अनुशासनबद्ध किया जाता है। इनसे व्यक्ति का जीवन शुद्ध तथा परिष्कृत होता है। व्यक्ति को भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का अवसर मिलता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि प्राचीन भारत में जनता अन्धविश्वासी थी इसलिए इन संस्कारों को प्रचलित किया गया। व्यर्थ की प्रथाओं को निकालने के लिए इन संस्कारों ने हिन्दुओं के जीवन को संयमित किया है। हिन्दुओं का विश्वास था कि दैवत्व शक्ति संसार के कण-कण में व्याप्त है इसलिए संस्कारों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है। अतः प्रत्येक समय सांस्कृतिक व्यक्ति को आशीर्वाद देने के लिए भी इन संस्कारों को किया जाता था। कुछ भी सही, इन संस्कारों का भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों तरह का महत्व था।

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