रोग मनुष्य के स्वास्थ्य का शत्रु है। रोग जब मनुष्य पर हमला करता है तो वह उसके स्वास्थ्य को कहीं का नहीं छोड़ता। संक्रामक रोग तो और भी भयंकर होता है। संक्रामक रोग को छूत का रोग भी कहा जाता है।
संक्रामक रोग एक व्यक्ति से दूसरे और दूसरे व्यक्ति से तीसरे को लगता हैं। किसी रोगी व्यक्ति के पास जाने से उसे छूने पर रोग के कीटाणु स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट होकर होकर रोग फैला देते हैं। संक्रामक रोगों का कारण एक अत्यन्त सूक्ष्म जीव होता है जिसे रोगाणु कहते हैं। इन रोगाणुओं को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र के बिना नहीं देखा जा सकता। कभी-कभी कीड़े-मकोड़ों तथा चौपायों से भी संक्रामक रोग फैलते हैं। यदि छूत का रोग एक व्यक्ति को लग जाय तो बहुत शीघ्रता से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सभी को रोगग्रस्त कर देते हैं। वैज्ञानिकों ने जीवाणुओं के विषय में बहुत-सी जानकारी प्राप्त कर ली है। अतः आजकल के युग में अनेक रोगों का नियन्त्रण एवं उन्मूलन होना सम्भव है। राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम सन् 1958 ई० से आरम्भ हुआ था और सन् 1975 तक पूर्ण हो गया। आज मलेरिया व चेचक पर पूर्ण नियन्त्रण है।
रोगाणु और उनके प्रकार
रोग उत्पन्न करने वाले रोगाणु दो प्रकार के होते हैं- 1. वनस्पतिजन्य जीवाणु, 2. जन्तुजन्य जीवाणु।
वनस्पतिजन्य जीवाणु भिन्न-भिन्न वनस्पतियों में और जन्तुजन्य जीवाणुओं का निवास पशुओं की आंतों व त्वचा में होता है। ये सभी जीवाणु सामान्यतः एककोशिकीय होते हैं। ये विभिन्न नामों से जाने जाते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं-
बैक्टीरिया (Bacteria)- यह अत्यन्त सूक्ष्म वनस्पतिजन्य जीवाणु हैं। ये कई आकार के होते हैं। कुछ बड़े और कुछ छोटे होते हैं। प्रत्येक रोग का बैक्टीरिया भी अलग प्रकार का होता है अर्थात् विशेष प्रकार का रोग विशेष प्रकार के बैक्टीरिया से होता है। बैक्टीरिया कई प्रकार के होते हैं। जैसे- 1. बैसीलस (Bacillus), 2. कोकस (Cocus), 3. स्पाइरिलम (Spirillum), 4. विब्रिओ (Vibrio)।
1. वैसीलस- ये बेलनाकार आकृति के जीवाणु होते हैं। ये कुछ सीधे तथा कुछ मुड़े हुए होते हैं जिनके सिरे कुछ गोलाई लिये हुए होते हैं। कुछ बैसीलस के सिरे नुकीले भी होते हैं। यह बैक्टीरिया टीबी रोग उत्पन्न करता है।
2. कोकस- ये बैक्टीरिया कुछ-कुछ गोल व अण्डाकार आकृति के होते हैं। ये समूहों में पाये जाते हैं।
3. स्पाइरिलम- यह लहरियादार कुछ छोटे व कुछ बड़े आकार के होते हैं।
4. विब्रिओ- यह एक अत्यन्त सूक्ष्म जीवाणु है जिसकी आकृति अंग्रेजी में कॉमा (,) की भाँति होती है। हैजा की बीमारी विब्रिओ रोगाणु द्वारा होती है।
प्रोटोजोआ (Protozoa)- यह सर्वाधिक सूक्ष्म एककोशिकीय जन्तुजन्य जीवाणु है। गर्म देशों में पेचिश तथा मलेरिया इसी जीवाणु से फैलता है। ये जमीन तथा जल में पाये जाते हैं तथा पेड़-पौधों के लिए लाभदायक हैं।
वायरस (Virus)- बैक्टीरिया से अधिक सूक्ष्म है और साधारण अणुवीक्षण यन्त्र से दिखायी नहीं देता। हीर्ज, कर्णफर तथा एनफ्लुएन्जा वायरस रोगाणु के शरीर में प्रवेश करने से होते हैं।
फफूंदी (Fungi)- फफूंदी भी एक प्रकार का वनस्पतिजन्य जीवाणु है। अधिकांशतः त्वचा के रोगों का कारण यही होता है।
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रोगाणुओं की विशेषताएँ
(i) रोगाणु भी मनुष्य की भाँति ही जीवित रहते हैं। ये भोजन खाते तथा पचाते हैं, ऑक्सीजन द्वारा शक्ति उत्पन्न करते हैं, विकसित होते हैं तथा सन्तानोत्पत्ति करते हैं।
(ii) ये सीलन भरे गन्दे तथा अँधेरे स्थानों में पनपते हैं। मनुष्यों व पशुओं की आँतों तथा त्वचा में पाये जाते हैं।
(iii) यह समस्त वायुमण्डल जल, मिट्टी, मनुष्यों तथा पशुओं के शरीर में पाये जाते हैं। भोजन, वायु, जल तथा त्वचा द्वारा शरीर में प्रवेश करते हैं।
(iv) इनकी वृद्धि अत्यन्त तीन्न तथा गुणात्मक रूप से होती है अर्थात् एक से दो, दो से चार, चार से आठ, आठ से सोलह। पाँच घण्टे में एक बैक्टीरिया से 10 लाख से अधिक बैक्टीरिया उत्पन्न होते हैं।
(v) ये कुछ ही घण्टों में लाखों की संख्या में उत्पन्न हो जाते हैं और अपना जीवविष (Toxin) उत्पन्न करते हैं तथा शरीर पर प्रभाव डालते हैं।
(vi) कुछ जीवाणु तो शीघ्र ही धूप और गर्मी तथा ठण्डक से नष्ट हो जाते हैं, परन्तु कुछ को नष्ट कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य है।
(v) सभी जीवाणु हानिकारक एवं रोग उत्पादक नहीं होते। कुछ जीवाणु मनुष्य के लिए लाभदायक भी हैं, जैसे- दही जो वैक्टर्स बैक्टीरिया का समूह है यह पाचन क्रिया को सरल बनाता है।
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संक्रामक रोगों के फैलने का माध्यम
संक्रामक रोग फैलने के लिए रोगाणुओं का शरीर में पहुँचना आवश्यक है। ये रोगाणु शरीर में निम्न माध्यमों से पहुँचते हैं-
1. वायु द्वारा- रोगी व्यक्ति के खाँसने, छींकने व बोलने से श्वास के साथ रोगाणु निकलकर, रोगी के मल-मूत्र या थूक सूख जाने पर भी रोगाणु उसमें से निकलकर वायु में मिल जाते हैं। ऐसे वातावरण में श्वास लेने से ये रोगाणु स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके चेचक, खसरा, फ्लू, निमोनिया, डिप्थीरिया, कर्णफर एवं काली खाँसी आदि रोग फैलाते हैं।
2. भोजन तथा पेय पदार्थों द्वारा- इस विधि से रोग फैलाने में मक्खियों की सर्वाधिक भूमिका होती है। जैसा कि आपको विदित ही है कि मक्खियाँ गन्दे-से-गन्दे तथा अच्छे-से-अच्छे सभी पदार्थों पर बैठती हैं। अतः जब यह रोगाणुयुक्त गन्दगी या स्थान पर बैठती हैं तब अपने पैरों में रोगाणु चिपका लेती हैं। पुनः ये भोजन पर बैठकर वही रोगाणु छोड़ देती हैं। ऐसा भोजन ग्रहण करके स्वस्थ मनुष्य रोगग्रस्त हो जाता है। इसी प्रकार दूषित जल अन्य पेय पदार्थों में यदि रोगाणु प्रवेश कर लेते हैं तो इन्हें ग्रहण करके व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है। पेचिश अतिसार, हैजा तथा मोतीझरा आदि का संक्रमण इसी प्रकार होता है।
3. संसर्ग द्वारा- रोगी द्वारा प्रयोग की गयी वस्तुएँ जैसे- बिस्तर, तौलिया, बर्तन, किताबें, पंखा आदि स्वस्थ व्यक्ति के प्रयोग करने पर यह निः सन्देह रोगग्रस्त हो जाता है। दाद, खाज, कोड़ आदि के रोगाणुओं का संवहन इसी प्रकार होता है। इन्हें संसर्ग रोग कहते हैं।
4. चोट या घाथ द्वारा- शरीर के किसी अग पर यदि चाट या धाव खुला हो अथवा उसमें मिट्टी आदि लग जाय तो भी रोगाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे रोगों में टिटनेस मुख्य है।
5. कीटों के काटने से- कुछ कीट (कीड़े) भी ऐसे हैं जिनके काटने से रोग फैलता है। जैसे- मच्छर से मलेरिया तथा पिस्सू से प्लेग नामक रोग फैलता है। इसी प्रकार कुत्ते के काटने से हाइड्रोफोबिया नामक रोग हो जाता है।
6. जननेन्द्रिय द्वारा- कुछ गुप्त रोग ऐसे हैं जिनके रोगाणु व्यक्तियों की जननेन्द्रियों में पाये जाते हैं, जैसे- सुजाक का रोग बहुत भयंकर संक्रामक रोग है जो ऐसे रोगियों के सम्पर्क में आने से बहुत शीघ्र व्यक्तियों को लग जाता है।
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संक्रमण से बचाव की स्वाभाविक व्यवस्था
शरीर पर जब रोगाणु आक्रमण करता है तो वह अपने बचाव का उपाय करता है। शरीर सरलता से रोगाणुओं को ग्रहण नहीं करता। फिर भी यदि रोगाणु शरीर में पहुँच जाते हैं तो वह अपने बचाव के विभिन्न उपाय करता है। अपने प्रयत्न में असफल होने पर ही शरीर रोगग्रस्त होता है और सफल होने पर रोगाणु नष्ट हो जाता है। यह प्रकृति द्वारा की गयी व्यवस्था है। शरीर निम्न प्रकार से अपना बचाव करता है-
1. प्रवेश में अवरोध
हमारे सम्पूर्ण शरीर पर त्वचा का आवरण चढ़ा हुआ है। यदि कोई जीवाणु शरीर में प्रविष्ट होता है तो बाहरी त्वचा एवं नाक, मुँह की अस्तरीय श्लेष्मा झिल्ली उसके मार्ग में बाधा उपस्थित करके शरीर में जाने से रोकती है। बाहर से होने वाले आक्रमणों से शरीर की रक्षा बाहा त्वचा द्वारा ही होती है। नाक से निकलनेवाला चिकना पदार्थ जीवाणुनाशक है। बाह्य जीवाणु जैसे ही इसके द्वार पर पहुँचते हैं, नष्ट हो जाते हैं। नाक तथा श्वसन मार्ग में नन्हें- नन्हें बाल होते हैं। ये बाह्य दूषित कणों को बाहर ही रोक देते हैं। यह प्रवर्ध इतने सजग होते हैं कि जैसे ही दुषित कण आते हैं तुरन्त छींक अथवा खाँसी द्वारा उन्हें बाहर फेंक देते हैं। नेत्रों द्वारा बहने वाले तरल पदार्थ में भी जीवाणुनाशक लक्षण होते हैं। इन आन्तरिक बचावों के अतिरिक्त बाह्य रीति से भी संक्रमण का बचाव सम्भव हो सकता है। जैसे- सूर्य की किरणें ग्रहण करके, खुली स्वच्छ वायु में रहकर, पोषक आहार ग्रहण करके, व्यायाम व आवश्यक विश्राम व निन्द्रा लेकर।
2. संघर्ष-
शरीर में रोगाणुओं से संघर्ष करने की क्षमता श्वेत रक्त कणों में ही है। ये अत्यन्त पिलपिले होते हैं। इसी कारण छोटे-से-छोटे मार्ग से भी निकल जाते हैं तथा शरीर के अंग-प्रत्यंग में प्रविष्ट हो जाते हैं। बाहर से रुधिर में आये विकारों तथा रोगाणुओं को चारों ओर से घेरकर अपने में सोख लेते हैं। इस प्रकार शरीर को रोगग्रस्त होने से बचाता है। सम्भवतः इसी कारण इन्हें शरीर-रक्षक कहा जाता है। जिस प्रकार देश की सीमा के रक्षक पहरेदार, सजग प्रहरी अथवा सैनिक होते हैं ठीक उसी प्रकार यह एक रस प्रतिवर्ष बनाते हैं जो रोग के प्रभाव को नष्ट करता है। ये रोग के बैक्टीरिया को शरीर में पहुँचते ही मार डालते हैं। रक्त में जब श्वेत रक्त कणों की कमी आ जाती है तो शरीर रोगी हो जाता है। लसीका भी रोगाणुओं को नष्ट करने में सहायक सिद्ध होता है। यदि रोगाणु शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं तो वे लसीका मोड़ों में पहुँच जाते हैं। यहाँ से लसीका तो आगे निकल जाता है, परन्तु रोगाणु मोड़ों में ही रोक लिये जाते हैं और श्वेत रक्त कणों द्वारा मार दिये जाते हैं।
आमाशय के लाव में उपस्थिद हाइड्रोक्लोरिक एसिड भी जीवाणुओं को नष्ट करता है। रक्त में विद्यमान प्रति-पिण्डों का तो काम ही बाहर से आक्रमण करने वाले जीवाणुओं को नष्ट करना है। जब किसी रोग के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर लेते हैं तो ऊतकों में प्रति-पिण्डों का जन्म होता है। ये रोगाणुओं तथा उनके द्वारा निर्मित अनिष्टकारी पदार्थों को नष्ट कर डालते हैं।
शरीर के विभिन्न भागों व अंगों के स्राव भी रोगाणुओं को पनपने नहीं देते, जैसे- आँखों में आँसू, श्वास नली, गले व नाक के अन्दर की श्लेष्मा झिल्ली के स्राव। उनका प्रथम प्रयास तो घुसपैठी जीवाणुओं को बाहर धकेल देना है, यदि इसमें सफलता न मिले तो उनको प्रभावहीन कर देते हैं।
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रोग-क्षमता
शरीर की रोगाणुओं से संघर्ष करने की शक्ति को रोग-निरोधक शक्ति अथवा रोग-क्षमता (Immunity) कहते हैं। जिसके शरीर में जितनी अधिक रोग-क्षमता होगी उसका शरीर उतना ही अधिक रोगों से बचा रहेगा। यही कारण है कि एक ही वातावरण में रहते हुए भी एक व्यक्ति संक्रामक रोग से पीड़ित हो जाता है तथा दूसरे व्यक्ति के शरीर पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता है। अतः व्यक्ति का रोगी होना उसके शरीर की रोग-क्षमता पर ही निर्भर करता है। रोग-क्षमता तीन प्रकार की होती है-
1. प्राकृतिक रोग क्षमता (Natural Immunity)-
शरीर में रोगाणु अथवा उनके प्रभाव को नष्ट करने की स्वाभाविक शक्ति को प्राकृतिक रोग-क्षमता कहते हैं। ऐसी स्थिति में उसके शरीर में रोगाणु विरोधी तत्व (Anti Toxin) भरपूर मात्रा में होते हैं जो संक्रामक रोग होने से शरीर की रक्षा करते रहते हैं। यह रोग-क्षमता जन्मजात होती है। किसी-किसी पूरी जाति विशेष में भी विशेष प्राकृतिक रोग- क्षमता देखी गयी है, जैसे- अफ्रीका के मूल निवासी नीम्रो जाति पीले ज्वर (Yellow Fever) से सर्वथा मुक्त होते हैं। इसका कारण उनमें इस रोग के प्रति जन्मजात प्राकृतिक रोग-क्षमता का होना ही है। यह रोग-क्षमता व्यक्ति के स्वस्थ रहने पर बढ़ती है तथा अस्वस्थता, आयु वृद्धि या दूषित वातावरण आदि से कम भी हो जाती है।
2. अर्जित रोग-क्षमता (Acquired Immunity)-
इस प्रकार की रोग-क्षमता को लब्ध रोग क्षमता भी कहते हैं। कभी-कभी किसी व्यक्ति के एक बार किसी संक्रामक रोग से पीड़ित हो जाने पर जब वह ठीक हो जाता है तब उसके शरीर में स्वतः ही उस रोग के लिए रोग-क्षमता उत्पन्न हो जाती है और पुनः उसे इस रोग के होने की सम्भावना नहीं रहती। यदि कभी वह रोग भी हो जाता है तो उसका प्रभाव अत्यन्त साधारण होता है। इसी को अर्जित रोग कहा जाता है। अर्जित रोग-क्षमता की अवधि विभिन्न संक्रामक रोगों से भित्र होती है। जैसे- चेचक एक बार हो जाने पर आयुपर्यन्त के लिए चेचक के प्रति रोग-क्षमता उत्पन्न हो जाती है, अतः हम इसे स्थायी रोग-क्षमता कह सकते हैं। डिफ्थीरिया आदि होने से क्षमता कुछ कम दुर्बल होती है। फिर भी बहुत समय तक बनी रहती है। एन्फ्लुएन्जा आदि होने पर इसकी रोग-क्षमता थोड़े पैमाने के लिए प्रभावी रहती है। इसे अल्पकालिक रोग-क्षमता (Short Period Immunity) कहते हैं।
3. कृत्रिम रोग-क्षमता (Artificial Immunity)-
जब शरीर में कृत्रिम साधनों द्वारा रोग-क्षमता उत्पन्न कर दी जाती है तब उसे कृत्रिम रोग-क्षमता कहते हैं। इसके अन्तर्गत विभित्र संक्रामक रोगों के टीके लगवाने होते हैं। संक्रामक रोगों से बचाव हेतु अस्पतालों में नवजात शिशुओं को बचपन में प्रभावित करनेवाले कुछ रोगों के टीके लगा दिये जाते हैं। जैसे- टिटनेस, पोलियो तथा डिप्थीरिया आदि मुख्य हैं।
विभिन्न रोगों के टीका लगाने की आयु, प्रभाव तथा अवधि
रोग |
आयु |
प्रभाव अवधि |
चेचक कुकुरखांसी टिटनेस डिप्थीरिया पोलियो टी.बी. हैजा टाइफायड |
2-3 माह 3 माह 3 माह पश्चात् 3-5 माह 6 माह के बाद जन्म के समय 1 वर्ष 1 वर्ष
|
3-5 वर्ष तक पुनः आवश्यकता नहीं चोट लगने पर पुनः लगवाइये 5 तथा 10 वर्ष
बाद फिर 6 माह बाद पुनः निश्चित नहीं 6 माह तक एक वर्ष तक
|
रोग के संक्रमण विकास की अवस्थाएँ
संक्रमण से तात्पर्य है रोगाणु का शरीर में प्रवेश करना। किसी रोगाणु के शरीर में प्रवेश करते ही उसके सभी लक्षण उत्पन्न नहीं होते। रोगाणु शरीर में प्रवेश करने के पश्चात् अपने अनुकूल वातावरण तैयार करता है। इसके पश्चात् ही उसके लक्षण उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक संक्रामक रोग की निश्चित प्रक्रियाएँ होती हैं जिन्हें संक्रमण विकास की अवस्थाएँ कहा जाता है, जो निम्न हैं-
(i) सम्प्राप्ति काल (Incubation Period)- इस अवधि में रोगाणु शरीर में प्रविष्ट होने के उपरान्त विषैले पदार्थ उत्पन्न करके अपनी वृद्धि में लग जाते हैं परन्तु रोगी में रोग के लक्षण नहीं दिखते।
(ii) संक्रमण काल (Ornest of Infection Period)- इस अवस्था में रोग के लक्षण धीरे-धीरे ज्ञात होते हुए समस्त शरीर में पीड़ा एवं बेचैनी की अनुभूति कराते हैं।
(iii) प्रकोप की अवस्था (Period of Climax of Invasion)- इस अवस्था में रोग के सभी लक्षण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं। कभी-कभी इसी अवस्था में रोगी की मृत्यु भी हो जाती है।
(iv) रोग के कम होने की अवस्था- इस अवस्था में रोग कम होने लगता है तथा विष की उत्पत्ति भी समाप्त हो जाती है।
(v) समाप्त होने की अवस्था (Period of Convalesscence)- इस काल में रोगी को केवल भूख तथा दुर्बलता का अनुभव होता है। वह प्रत्येक वस्तु खाना तथा घूमना टहलना चाहता है।
(vi) आवृत्ति (Relapse)- थोड़ी-सी असावधानी होने पर रोग के पुनः वापस लौटने की आशंका रहती है। अतः प्रारम्भ से ही इस अवस्था को नहीं आने देना चाहिए। मोतीझरे में अधिकतर यह अवस्था आ जाती है।
संक्रामक रोगों के लक्षण
1. प्रत्येक रोग का एक विशेष गुण होता है तथा उनके प्रति विष में भी भिन्न-भिन्न विशेषताएँ होती हैं इसलिए खसरे या डिफ्थीरिया का रोगाणु खसरा या डिफ्थीरिया ही उत्पन्न कर सकता है, अन्य रोग नहीं।
2. प्रत्येक संक्रामक रोग को एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जैसे कि आपको पहले बताया जा चुका है। इस क्रिया की अवधि भी भिन्न-भिन्न रोगों में, भिन्न होती है।
3. इस निश्चित प्रक्रिया के पश्चात् अर्थात् प्रक्रिया की अवधि के समाप्त होने पर रोग समाप्त हो जाता है।
4. प्रत्येक संक्रामक रोग के संवहन का कोई-न-कोई माध्यम अवश्य होता. है। जैसे- वायु, भोजन या जल, कीट-पतंगें अथवा संसर्ग।
5. कोई संक्रामक रोग एक बार हो जाने पर शरीर में उस रोग के प्रति रोग-क्षमता उत्पन्न हो जाती है। अतः पुनः उस रोग के होने की सम्भावना नहीं होती। यदि किसी कारणवश दुबारा हो भी जाता है तो उसमें उतनी तीव्रता या कोई खतरा नहीं होता।
6. अस्वच्छता, अँधेरा व सीलन तथा संसर्ग आदि से दूर रहने पर संक्रामक रोगों की सम्भावना कम हो जाती है।
संक्रामक रोग से बचाव के उपाय
यह बात निश्चित है कि रोगाणु जो रोग प्रसारित करते हैं वे गन्दे, अंधेरे तथा सीलन युक्त स्थानों पर पनपते हैं। अतः सदैव शुद्ध एवं स्वच्छ वायु का सेवन करना चाहिए तथा सादा, ताजा एवं पोषक भोजन ग्रहण करना चाहिए जिससे रोग होने की कम-से-कम सम्भावना रहे। दुर्बल शरीर में रोग शीघ्रता से आ धमकते हैं। यदि किसी व्यक्ति के शरीर में रोग-निरोधक शक्ति पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है तो उसे रोग होगा ही नहीं। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों के शरीर में रोग रोकने की क्षमता नहीं है उन पर रोग हावी हो जाता है। हमें स्वस्थ जीवन व्यतीत करने हेतु स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना चाहिए। फिर भी यदि संक्रामक रोग फैलने लगे तो तुरन्त निम्नलिखित उपाय करने चाहिए-
1. सूचना (Notification)- इस बात की सम्भावना हो कि संक्रामक रोग फैलने वाला है। तुरन्त रोग की रोकथाम हेतु सक्रिय कार्य करने के लिए निकटवर्ती चिकित्सालय को सूचना देनी चाहिए।
2. पृथक्करण (Isolation)- रोगी व्यक्तियों को स्वस्थ व्यक्तियों से तुरन्त अलग कर देना ही पृथक्करण है। रोगी को संक्रामक रोगों के चिकित्सालयों में भेज देना चाहिए। रोगी के पास प्रत्येक व्यक्ति को नहीं जाना चाहिए। परिचर्या बाले व्यक्ति को भी स्वस्थ व्यक्तियों से पृथक् रहना चाहिए। यदि उसे स्वस्थ व्यक्तियों के सम्पर्क में आना ही हो तो वस्त्र बदल लेने चाहिए।
3. रोग रोधक अवधि (Quarantine Period)- जिन व्यक्तियों पर संक्रामक रोग से पीड़ित होने का सन्देह हो उन्हें संक्रमण की आरम्भिक अवस्था से अन्य व्यक्तियों से दूर रखना चाहिए।
4. रोग प्रतिरक्षा (Immunisation)- टीके व सुई देने से भी प्रतिरक्षा हो जाती है।
5. विसंक्रमण (Disinfection)- संक्रामक रोग को रोकने के लिए आवश्यक है कि रोगाणुओं की वृद्धि दर पर रोक लगायी जाय और उनके विनाश की व्यवस्था की जाय। रोगाणुओं की वृद्धि को रोकना और उन्हें नष्ट करने की क्रिया निःसंक्रमण या रोगाणुनाशक कहलाती है।
रोगाणुनाशक पदार्थ- रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए जिन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है उन्हें रोगाणुनाशक पदार्थ कहते हैं। जैसे फिनाइल, डी०डी०टी० इत्यादि विसंक्रमण के मुख्य साधन हैं।
संक्रमण तथा संक्रामक पदार्थ
यह सभी जानते हैं कि समस्त संक्रामक रोग विभिन्न रोगाणुओं के माध्यम से ही तीव्र गति से फैलते हैं। रोगाणुओं द्वारा रोग के विस्तार को संक्रामकता कहा जाता है। संक्रामकता की इस प्रक्रिया की रोकथाम या समाप्त करना ही संक्रमण या विसंक्रमण (disinfection) कहलाता है। विसंक्रमण की प्रक्रिया के अन्तर्गत रोग के रोगाणुओं को समाप्त करने तथा इन्हें बढ़ने से रोकने के उपाय किये जाते हैं। विसंक्रमण की प्रक्रिया विभिन्न प्रकार से की जाती है। अब प्रश्न उठता है कि विसंक्रमण की प्रक्रिया किन माध्यमों द्वारा सम्पन्न की जा सकती है। वास्तव में निःसंक्रमण अर्थात् रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए कुछ पदार्थों एवं उपायों को अपनाया जाता है। संक्रमण के लिए इस्तेमाल होने वाले पदार्थों को विसंक्रामक तत्व (disinfectants) कहा जाता है। विसंक्रामक तत्वों की भिन्नता के आधार पर विसंक्रमण की प्रक्रिया के तीन विभित्र रूप हो सकते हैं। निःसंक्रमण के ये तीन रूप निम्नलिखित हैं-
1. प्राकृतिक विसंक्रामक-
प्रकृति ने मनुष्य को कुछ विसंक्रामक पदार्थ उपहार के रूप में दिया है। जैसे- सूर्य की किरणें और शुद्ध वायु। सूर्य के प्रकाश में पायी जानेवाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। शरीर को धूप में सेंकना और बिस्तर इत्यादि को धूप में संक्रमण करना अत्यन्त लाभदायक होता है। इससे वस्तुओं की दुर्गन्ध भी नष्ट हो जाती है।
ये किरणें त्वचा में प्रविष्ट होकर शरीर के अन्दर के जीवाणुओं को भी नष्ट करने की शक्ति रखती है। यदि राजयक्ष्मा (टी०बी०) का रोगी अपना धड़ का भाग खोलकर धूप में इस प्रकार बैठे कि सीधे सूर्य की किरणें उसकी छाती व फेफड़े के भाग पर पड़े तो 20- 30 मिनट में फेफड़ों के राजयक्ष्मा के रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त इसकी सहायता से शरीर के अनेक विजातीय तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। जोड़ों में पीड़ा व सूजन में धूप की सेंक बहुत आराम दिलाती है।
वायु में मिली हुई ऑक्सीजन भी रोगाणुओं को निष्क्रिय करने का प्रभावी साधन है। ओजोन गैस ऑक्सीजन से भी अधिक प्रभावशाली होती है। अतः शुद्ध वायु के सेवन बाग-बगीचों में घूमने-फिरने तथा व्यायाम द्वारा अधिक ऑक्सीजन ग्रहण करते रहने से जीवाणु नष्ट होते हैं। शरीर फुर्तीला व स्वस्थ रहता है। अतः यह बात सत्य सिद्ध होती है कि ऑक्सीजन सौ दवाओं की एक दवा है।
जल कोई प्रभावशाली विसंक्रामक नहीं है, किन्तु इसके बिना केवल सूखी वस्तुओं से विसंक्रमण नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त जल के द्वारा ही शरीर, मकान, शौचालय व वस्त्र आदि स्वच्छ करके उन्हें जीवाणुओं से दूर रखा जा सकता है। अतः जल का भरपूर प्रयोग करके अपना तथा अपने चारों ओर का वातावरण शुद्ध बनाये रखने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।
2. भौतिक विसंक्रामक (Physical Disinfection)-
भौतिक विसंक्रमण करने के लिए जिन साधनों का प्रयोग किया जात है उन्हें निम्न भागों में बाँट सकते हैं-
(i) जलाना- यह सर्वाधिक शक्तिशाली विसंक्रमण का साधन है। यथासम्भव रोगी द्वारा प्रयोग की गयी समस्त वस्तुएँ मल-मूत्र व चूक आदि को जला देने से रोगाणुओं से पूर्णतया मुक्ति मिल जाती है। बर्तनों आदि को आग पर खूब गर्म कर लेना चाहिए। एक बार इंग्लैण्ड में बार-बार प्लेग का प्रकोप हो जाता था। वहाँ के लोगों ने तंग आकर अपने-अपने घर के समस्त सामान जला डाले। फलस्वरूप तब से आज तक वहाँ प्लेग की महामारी नहीं फैली। इस क्रिया से जब रोगाणु पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं तब रोग फैलने का प्रश्न ही नहीं उठता।
(ii) उबालना- यह बहुत-साधारण व व्यावहारिक विधि है। जल को 100° C (100) सेण्टीग्रेड) तक उबालिये तथा उसमें वस्त्र, तौलिया व बिस्तर आदि 25-30 मिनट तक रखिए, रोगाणु मर जायेंगे। उबलते जल में 2% सोडियम कार्बोनेट मिलाने से उबलते जल की कीटाणुनाशक शक्ति में और अधिक वृद्धि हो जाती है।
(iii) भाप द्वारा- विसंक्रमण की भौतिक विधि में भाप सर्वोत्तम विश्वसनीय विसंक्रामक है। यह वस्तुओं के अन्दर तक घुसकर अत्यन्त शीघ्रता से रोगाणुओं को नष्ट कर देती है। भाप द्वारा जीवाणु नष्ट होने में 10 मिनट से भी कम समय लगता है। यन्त्रों द्वारा भाष का दबाव चढ़ा देने से भारी-भरकम वस्त्र व कम्बल आदि भी रोगाणु मुक्त किये जा सकते हैं। प्रायः यह विधि चिकित्सालयों में ही प्रयोग की जाती है।
(iv) सूखी गर्म वायु- कुछ वस्तुओं को उपर्युक्त विधि से विसंक्रमित नहीं किया जा सकता है बल्कि सूखी गर्म वायु द्वारा विसंक्रमित किया जा सकता है। जैसे- पुस्तकें, लकड़ी व रबड़ की वस्तुएँ आदि उनके लिए यह विधि उपयोगी है, किन्तु इस विधि द्वारा रोगाणु भली प्रकार नष्ट तथा सक्रिय नहीं होते। अतः अब इस विधि का कम ही प्रयोग किया जाता है।
(v) रासायनिक विसंक्रामक- कुछ रासायनिक पदार्थ ऐसे हैं जिनसे रोगाणु नष्ट हो जाते हैं अथवा उनकी रोगोत्पादक शक्ति नष्ट हो जाती है। यह पदार्थ ठोस, तरल व गैस रूप में उपलब्ध होते हैं। इनमें से तरल रासायनिक पदार्थ अधिक प्रभावशाली होते हैं। यह पूर्णतया वस्तुओं के सम्पर्क में आकर रोगाणुओं को नष्ट कर देते हैं। उत्तम विसंक्रामक वही है जो शरीर पर हानिकारक प्रभाव न डाले तथा गन्दगी के सम्पर्क में आकर स्वयं प्रभावहीन न हों। इसके साथ उसमें रासायनिक विसंक्रामक निम्न हैं-
(a) ठोस विसंक्रामक- ठोस विसंक्रामक में चूना, पोटैशियम, परमँगनेट, ब्लीचिंग पाउडर, रस कपूर व नीला थोथा आदि।
चूना (Line)- चूना एक उत्तम जीवाणुनाशक पदार्थ है। यह सस्ता व सुलभ साधन है। विसंक्रमण के लिए सदैव ताजे चूने का प्रयोग करना चाहिए। प्लेग के दिनों में घर के बाहर काफी दूर चूना बिछा देने से प्लेग के चूहों के शरीर में रहनेवाले पिस्सू घर में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु के पश्चात् घर को चूने से पुतवा देने से कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं तथा छिपकलियों भी भाग जाती हैं। बुझा हुआ चूना अधिक शक्तिशाली होता है।
पोटैशियम परमैंगनेट (Potassium Permangnate)- यह एक दानेदार बैंगनी रंग का पदार्थ होता है जिसे कुएँ की लाल दवा के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह प्रायः कुओं में डालकर उसके जल को शुद्ध किया जाता है। इसमें जीवाणुनाशक शक्ति कम होती है किन्तु जीवाणु निष्क्रिय हो जाते हैं। बहुधा इसे मोतीझरा, हैजा, पेचिश आदि के रोगी के मल-मूत्र, धूक, गन्दे वस्व व बिस्तर आदि को विसंक्रमित करने के काम में लाया जाता है। इसके 5 प्रतिशत घोल से घाव भी धोया जा सकता है। इसका अधिक गाढ़ा घोल त्वचा को जला देता है।
मरक्यूरोक्रोम (Mercurochrome)- मरक्यूरोक्रोम जल में घोलने से लाल रंग का घोल तैयार होता है। इसे फोड़े-फुन्सी, त्वचा पर चोट या कटने पर रूई की फुरेरी बनाकर लगाने से वह स्थान पकने नहीं पाता एवं शीघ्र अच्छा हो जाता है। 100 भाग जल में एक भाग मरक्यूरोक्रोम डालकर घोल बनाना चाहिए।
डिटॉल (Dettol)- डिटॉल एक अच्छा व हल्का विसंक्रामक है। यह न तो विषाक्त है और न ही कपड़ों पर धब्बे छोड़ता है। हाथ धोने व पानी में 5-7 बूंद डालकर स्नान करने आदि के काम में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से रोगाणु निष्क्रिय हो जाते हैं।
फार्मलीन (Formalin)- यह फार्मल्डीहाइड गैस का घोल है तथा शक्तिशाली कीटाणुनाशक भी। इसके 10% घोल से कमरे का विसंक्रमण, घाव थोने तथा कुल्ला करने में प्रयोग किया जा सकता है। फार्मलीन के घोल में मृत शरीर भी सुरक्षित रखे जाते हैं।
ईथर (Ether)- ईथर से चिकनाई युक्त घोल तैयार होता है तथा त्वचा के विसंक्रमण के लिए उपयुक्त है।
बोरिक एसिड (Boric Acid)- यह एक प्रकार का पाउडर होता है जिसे पानी में (गर्म) घोलकर घाव तथा आँख धोने के काम में आता है। यह रोगाणुनाशक नहीं होता, बल्कि रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न विष को नष्ट करता है। घाव पर सूखा पाउडर भी लगाया जाता है।
मिट्टी का तेल (Kerosene Oil)- मिट्टी का तेल अच्छा, सस्ता व सुलभ विसंक्रामक है। इसके प्रयोग से मक्खी, मच्छर, खटमल तथा जू मर जाते हैं।
(b) गैसीय विसंक्रामक- गैस रूप में मुख्य विसंक्रामक क्लोरीन तथा सल्फर डाई-ऑक्साइड गैस है।
क्लोरीन (Chlorine)- यह एक हरे रंग की गैस है। यह जल तथा वायु को विसंक्रमित करके शुद्ध करती है। नगरों के जलकल विभाग (Water Works) क्लोरीन द्वारा बड़े पैमाने पर जल शुद्ध करके पीने योग्य बनाते हैं। घरेलू उपयोग के लिए यह रसायन उपयुक्त नहीं है।
सल्फर डाई-ऑक्साइड (Sulphur Dioxide)- यह रंगरहित गैस है जो गंधक से तैयार की जाती है जिसकी गन्ध बहुत तीव्र होती है तथा इससे दम भी घुटने लगता है। यह कमरे के विसंक्रमण के लिए उपयुक्त होती है। गन्धक पीले रंग का होता है। दाद-खाज जैसे रोगों में पीसकर लगाने से बहुत लाभ होता है। इसे थोड़ी मात्रा में जल में मिलाकर पीने से रक्त शुद्ध हो जाता है।
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रोग वाहक
कुछ व्यक्तियों के शरीर में किसी रोग विशेष के जीवाणु तो पाये जाते हैं, परन्तु ये रोग से पीड़ित नहीं होते। कदाचित् उनके शरीर का उत्तम स्वास्थ्य और स्वानाविक व अर्जित रोग-क्षमता रोगाणुओं के प्रभाव को क्षीण बना देती है जिससे वे व्यक्ति रोग से मुक्त रहते हैं। परन्तु बहुधा ऐसा होता है कि उनके शरीर की रोग निरोधक क्षमता शरीर में उपस्थित रोगाणुओं को पूर्णतः नष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। इसलिए वे लोग स्वयं तो रोग के लक्षणों से मुक्त रहते हैं, परन्तु अन्य व्यक्तियों में रोग का संवहन कर सकते हैं, ऐसे व्यक्तियों को 'रोगवाहक' कहते हैं। स्वष्ट है कि रोगवाहक व्यक्ति रोगियों से अधिक भयानक हैं क्योंकि वे पहचाने नहीं जाते इसलिए उनसे बचाव करना कठिन होता है। जब किसी व्यक्ति के विषय में आशंका हो कि कदाचित् वह रोगवाहक है तो उसका डॉक्टरी परीक्षण कराना उचित है। इससे यदि उसके शरीर में रोगाणु पाये जायें तो उपचार द्वारा उसके शरीर में उपस्थित रोगाणुओं को नष्ट किया जा सकता है और अन्य व्यक्ति रोग से बच सकते हैं।
मोतीझरा और मलेरिया के रोगवाहक प्रायः सभी समुदायों में रहते हैं। उनमें रोग के लक्षण उत्पत्र नहीं होते, इसलिए वे बराबर रोग फैलाते रहते हैं।
रोगी के सम्पर्क में रहनेवालों को बचाव के उपाय
रोगी की सेवा के लिए जिस व्यक्ति को रोगी के सम्पर्क में आना पड़ता है उसे अपने बचाव के लिए निम्न उपाय अपनाने चाहिए-
1. रोगी के श्वास, छींक, खाँसी या जोर से बोलने के समय उससे दूर रहिए।
2. रोगी द्वारा प्रयोग की हुई वस्तुओं को छूने के बाद कार्बोलिक साबुन से हाथ धोइए।
3. रोगी की सेवा करते समय अपने कपड़ों पर एप्रिन (aprin) जो एक लम्बा-सा कोट होता है, पहन लीजिए। जब रोगी के कमरे से बाहर आना हो तो एप्रिन को उतारकर कहीं टांग दीजिए।
4. रोगी द्वारा प्रयोग की हुई कोई भी वस्तु जैसे- कंघा, चाकू, तौलिया अपने प्रयोग में न लाइाए।
5. रोगी की देखभाल के बाद यदि सम्भव हो तो स्नान करके वस्त्र बदलिए।
6. रोग का टीका अवश्य लगवाइए।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
प्रश्न- 1. संक्रामक रोग किसे कहते हैं?
उत्तर- जो रोग रोगाणुओं के माध्यम से एक व्यक्ति अथवा प्राणी से दूसरे व्यक्ति अथवा प्राणी को लग जाते हैं, उन्हें संक्रामक रोग कहा जाता है।
प्रश्न- 2. संक्रामक रोग किन-किन माध्यमों से फैलते हैं?
उत्तर- संक्रामक रोग वायु, भोजन एवं जल, प्रत्यक्ष सम्पर्क तथा रक्त के माध्यम से संक्रमित होते हैं।
प्रश्न- 3. निःसंक्रमण से आप क्या समझती हैं?
उत्तर- रोगाणुओं या जीवाणुओं को नष्ट करने की प्रक्रिया को निःसंक्रमण कहते हैं।
प्रश्न- 4. किन्हीं दो रासायनिक निःसंक्रामक तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- फिनायल, कार्बोलिक एसिड, चूना, डी०डी०टी०, ब्लीचिंग पाउडर, फार्मेलीन, क्लोरीन आदि प्रमुख रासायनिक निःसंक्रामक पदार्थ हैं।
प्रश्न- 5. सूर्य के प्रकाश का रोगाणुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर- सूर्य के प्रकाश से रोगाणु नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न- 6. रोग प्रतिरोधक क्षमता कितने प्रकार की होती है?
उत्तर- रोग प्रतिरक्षा मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है-
(i) प्राकृतिक रोग प्रतिरक्षा, (ii) कृत्रिम एवं अर्जित रोग प्रतिरक्षा।
प्रश्न- 7. उन बीमारियों के नाम लिखिए जो बैक्टीरिया द्वारा फैलती हैं।
उत्तर- हैजा, मलेरिया, कर्णफर, त्वचा रोग आदि।
प्रश्न- 8. प्रतिवर्ती क्रिया क्या है?
उत्तर- शरीर की रोगाणुओं से संघर्ष करने की शक्ति को रोग निरोधक शक्ति या प्रतिवर्ती क्रिया कहते हैं।
प्रश्न- 9. मानव स्वास्थ्य एवं कल्याण हेतु कार्य करने वाले दो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नाम बताइए।
उत्तर-(i) विश्व स्वास्थ्य संगठन, (ii) यूनिसेफ।
प्रश्न- 10. निःसंक्रमण तथा निःसंक्रामक पदार्थ किसे कहते हैं?
उत्तर-संक्रामकता की प्रक्रिया की रोकथाम या समाप्त करना ही निःसंक्रमण या विसंक्रमण कहलाता है। चूना, पोटैशियम, परमैगनेट, ब्लीचिंग पाउडर, रस कपूर व नीला थोथा ठोस निःसंक्रामक पदार्थ हैं।