सामाजिक विषमताओं तथा विच्छेदों (विघटन) का निराकरण

हमारा देश भारत वर्ष 15 अगस्त, 1947 ई० को स्वतन्त्र हुआ और इसे धर्म निरपेक्ष देश घोषित किया गया। हमारे संविधान के अनुसार भारत एक सर्वसत्ता सम्पन्न गणतन्त्र है। यह धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा राजनीतिक समता, वैयक्तिक और सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है।

भारतीय संविधान को लागू हुए 65 वर्ष से अधिक व्यतीत हो चुके हैं, परन्तु देश की स्थिति में आशाजनक सुधार नहीं हुए। देश में अनेक प्रकार की विषमताओं और विच्छेदों की संख्या बढ़ रही है। धनी वर्ग अधिक धनी हो रहा है और निर्धन वर्ग अधिक निर्धन हो रहा है। समाज में महिलाओं की स्थिति दिन-प्रतिदिन हीन होती जा रही है। उनके अधिकारों की जान-बूझकर अवहेलना की जा रही है। दहेज, बाल विवाह, विवाह-विच्छेद, शैक्षणिक सुविधाओं का अभाव तथा बेरोजगारी जैसी समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं जिनसे आम आदमी को जूझना पड़ रहा है। देश के अनेक भागों में आतंक छाया हुआ है। अलगाववाद अपना जाल फैला रहा है। लोगों के जान- माल की सुरक्षा खतरे में है। भाषा सम्बन्धी अलगाव, धार्मिक अलगाव, प्रादेशिक वैमनस्य और राजनीतिक पार्टियों की सिद्धान्तहीनता चिन्ता के विषय हैं। इनके कारण देश की प्रगति अवरुद्ध हो रही है। विकास के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं। इनका समाधान करने में सरकार अभी तक सफल नहीं हो सकी है और ये विषमताएँ देश के लिए खतरा बनी हुई हैं। 

सामाजिक विषमता का अर्थ

विषमता का अर्थ उस स्थिति से जिसमें दो समान वर्गों में सामाजिक तथा आर्थिक कारणों से जीवन-यापन की प्रक्रिया में अन्तर आ जाता है। यह स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब उनकी कार्यक्षमता में अन्तर आ जाता है।

भारत में विषमता का उदय

प्राचीन काल में भारतीय समाज व्यवस्था अत्यन्त सुदृढ़ थी। यह सही है कि उस समय सामाजिक व्यवहारों के लिए कोई आचार संहिता नहीं थी। परन्तु सामाजिक परम्पराएँ इतनी मजबूत थीं कि उनका पालन न करना धार्मिक अपराध माना जाता था। उस समय सामाजिक परिवर्तनों की गति अत्यन्त मन्द थी इसलिए सामाजिक विषमताएँ पनप नहीं सकीं। परन्तु समय परिवर्तन और विकास के साथ स्वार्थवादी तथा विस्तारवादी प्रवृत्तियों के कारण समाज की मौलिक मान्यताएँ छिन्न-भित्र होती गयीं। समाज को संगठित करनेवाले तत्त्वों का ह्रास होता गया। रही-सही कसर भ्रष्टाचार तथा क्षुद्र राजनीति ने पूरी कर दी। इन सबने न केवल विषमता को जन्म दिया, बल्कि उसे फलने-फूलने में भी भरपूर सहायता की। आज समस्त देश विषमताओं के जाल में जकड़ा हुआ है।

विषमता उत्पन्न होने के कारण

विषमता उत्पन्न होने के कई कारण हैं। ये सभी कारण मूल रूप से मानव द्वारा ही निर्मित किये गये हैं। अपने स्वार्थों में घिरा मनुष्य जानता भी नहीं था कि वह जिन बातों को सही समझ रहा है, वे व्यक्ति या समाज के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त देश के लिए घातक होंगी। परिणाम आज हमारे सामने है। वे कारण निम्न हैं-

1. आर्थिक कारक (Economic Factor)

औद्योगिक क्रान्ति ने पुरानी सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के ढाँचे को चरमरा दिया है। पुरानी सामाजिक मान्यताएँ एक-एक करके लोप होती चली जा रही हैं। कारण यह है कि वर्तमान अर्थप्रधान व्यवस्था में नैतिक मूल्य केवल आदर्श एवं भाषण की विषय-सामग्री बनकर रह गयी है। फलतः समाज आज विभिन्न वर्गों में बंट गया है-

  1. धनी वर्ग, 
  2. निर्धन वर्ग, 
  3. गरीबी की रेखा के नीचे का वर्ग आदि। 

वर्तमान आर्थिक विषमता ने एक ओर पूँजीपतियों को जन्म दिया है जो सब प्रकार के साधन सम्पन्न हैं, तो दूसरी ओर श्रमिकों का एक वर्ग उत्पन्न कर दिया है जो जीवनभर अपनी दो समय की रोटियों के लिए प्रदर्शन, घेराव, भूख हड़ताल, बन्द और न जाने क्या-क्या क्रियाएँ विरोध स्वरूप करते हैं। यही कारण है कि आज का समाज विघटन के कगार पर पहुंच गया है।

आर्थिक कारक का एक और मुख्य पक्ष है-आर्थिक अवसरों का केन्द्रीकरण। देश की अधिकांश भौतिक सम्पदा पर कुछ धनी यों ने कब्जा कर रखा है। निर्धन लोगों का सुख-चैन छीनकर धनी लोग समस्त सुविधाओं को भोग रहे हैं। उनके कर्मचारी और मजदूर अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। बंधुआ मजदूरी और सामंतवादी प्रवृत्तियों को आज भी कुछ प्रान्तों में देखा जा सकता है जिन्हें सरकार आज तक नहीं खत्म कर सकी है। लोगों को रोजगार के अवसर नहीं मिल रहे हैं। वस्तुओं और आवास की समस्या बनी हुई है। संपन्न समाज ने सम्पत्ति का अम्बार लगा दिया है।

आज का भारतीय समाज इन्हीं विषमताओं के कारण अनेक वर्गों में बंट गया है-

  1. अति साधन सम्पन्न वर्ग-उद्योगपति तथा व्यापारी, 
  2. साधन सम्पन्न वर्ग-आई०ए०एस०, आई०पी०एस० तथा अन्य उच्च आय वाले व्यक्ति, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि। 
  3. मध्यम आय वाला वर्ग-छोटे दुकानदार, कार्यालयों में कार्य करने वाले बाबू आदि। 
  4. सामान्य आय वाला वर्ग-कारखानों में काम करनेवाले कुशल श्रमिक, मैकेनिक तथा अन्य तकनीशियन आदि तथा 
  5. साधन विहीन वर्ग-सड़क पर खड़े काम ढूँढ़नेवाले मजदूर, रिक्शा चलाने वाले श्रमिक, घर के नौकर आदि।

2. सामाजिक कारक (Social Factor) 

विषमताओं को उत्पन्न करने का श्रेय यदि आर्थिक कारक को है तो उन्हें स्थायी रूप प्रदान करने का श्रेय सामाजिक कारक को है। आर्थिक विषमता उत्पन्न होने से मानव की विचारधारा में आमूल परिवर्तन आया है। अपने को समाज से भिन्त्र प्रदर्शित करने के लिए धनी वर्ग विशेष प्रकार के कपड़ों का प्रयोग करता है, अपने बच्चों को विशेष प्रकार के स्कूलों में पढ़ाता है, अपने तथा अपने बच्चों को मनोरंजन के साधनों के रूप में क्लबों को संगठित करता है। परिणाम यह होता है कि धीरे- धीरे इस वर्ग के स्त्री-पुरुष तथा उनकी सन्तानें समाज की मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं और अपने लिए एक नये समाज का निर्माण करने लगते हैं। उनकी अपनी आचार संहिता बन जाती है जो साधारण जनमानस को असंगत और अश्लील लगती है जिससे सामान्य व्यक्ति नैतिक मूल्यों को संजोये ऐसे लोगों से दूर रहने लगता है।

3. राजनीतिक कारक (Political Factor) 

जिन देशों में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अनुसरण किया है वहाँ सत्ता प्राप्ति का मुख्य अस्त्र वोट (Vote) है। वोट के सहारे ही कोई राजनीतिक दल सत्ता में आता है। परिणाम यह होता है कि ऐसे देशों में वोट की राजनीति घरकर रह जाती है और वोट के लिए राजनेता नैतिक मूल्यों को अपनाने का उपदेश तो देते हैं, परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए वे नैतिक मूल्यों की अवहेलना भी करते रहते हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार ने सामाजिक विषमताओं को राजनीतिक रूप दे दिया है। सत्ताधारी लोग कोटा, परमिट, लाइसेन्स आदि देने में पक्षपात तो करते ही हैं, साथ-साथ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सिफारिश पर इनका आबंटन करके समाज के उस वर्ग को भी भ्रष्ट कर देते हैं जिसे हम युवावर्ग कहते हैं। युवा वर्ग दिशाहीन हो जाता है और वह राजनेताओं के आगे-पीछे चलकर अपने को समाज से भिन्न प्रदर्शित करने लगता है। इस प्रकार राजनीतिक कारक सामाजिक विषमताओं की संख्या बढ़ाने में पूर्ण योगदान करते हैं।

राजनेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अपने समर्थकों को प्रदर्शन, हड़ताल, बन्द, घेराव, जेल भरो, तोड़-फोड़, आगजनी, विद्रोह तक के लिए प्रोत्साहित करते हैं। राजनीतिक बन्दी होने के कारण जब ऐसे लोगों को जेल में भी सुखमय जीवन मिलता है तो वह स्वयं समाज के नेता के रूप में उभरने का प्रयास करते हैं और अपने को समाज से भिन्न प्रदर्शित करने लगते हैं। इस प्रकार सामाजिक विषमताएँ युवकों को ग्रसित करती जाती हैं और वही उनकी विचारधारा का आधार बन जाती हैं।

4. धार्मिक कारक (Religious Factor) 

सामाजिक विषमताओं को उत्पन्न करने में धार्मिक कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रत्येक धर्म से सम्बन्धित लोग अपने ही धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं। इस भावना ने अनेक प्रकार के धार्मिक मतभेदों को जन्म दिया है। जब धर्म संकुचित रूप ग्रहण कर लेता है तो विद्वेष, तनाव एवं संघर्ष को बढ़ावा मिलता है। भारत में व्याप्त अस्पृश्यता (Untouchability) धार्मिक कट्टरता का ही परिणाम है। अस्पृश्यता के कारण हिन्दू समाज का एक वर्ग सदैव मुख्य धारा से अलग रहा। जैसे-जैसे समाज की मुख्य धारा आगे बढ़ती गयी वैसे-वैसे अस्पृश्यता की श्रेणी में आने वाले लोग पिछड़ते गये। परिणाम यह हुआ कि सामाजिक विषमता ने प्राचीन काल में स्थायी रूप ले लिया और वर्तमान समय में वही सामाजिक विषमता वर्ग संघर्ष का कारण बन गयी है। अनेक लोगों ने पीड़ित होकर इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार एक नयी सामाजिक विषमता उत्पन्न हो गयी क्योंकि इन नवीन अनुयायियों को पुराने समाज ने स्वीकार नहीं किया। फलस्वरूप ऐसे लोग एक नया वर्ग बनकर रह गये।

5. प्राकृतिक कारक (Natural Factor)

प्राकृतिक कारक की श्रेणी में दो तथ्य हैं- 

(A) भौगोलिक- पहाड़ तथा रेगिस्तान के निवासियों का जीवन स्तर नीचा होने के कारण वहाँ की भौगोलिक संरचना है जो उनके जीवन को अत्यन्त कठिन बना देती है। इन स्थानों पर रहने वाले लोग अनेक सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। इस कारण उनके ज्ञान का विकास नहीं हो पाता। शिक्षा और तकनीकी ज्ञान के अभाव में उनकी आय के स्रोत सीमित हो जाते हैं। खेती के योग्य भूमि भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने के कारण ऐसे लोगों का जीवन दुष्कर हो जाता है। अपने ही देश के अन्य स्थानों के निवासियों की तुलना में वे निरन्तर पिछड़ते ही रहते हैं। इस प्रकार एक ही देश के दो स्थानों के निवासियों में सामाजिक विषमता उत्पन्न हो जाती है। पहाड़ पर रहने वाले लोगों में ही वे लोग जिनके पास खेती योग्य भूमि होती है अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक लाभान्वित होते हैं। इस प्रकार पहाड़ के निवासियों के बीच भी सामाजिक विषमता उत्पन्न हो जाती है। एक भूस्वामी हो जाता है और दूसरा उनका कर्मचारी जो उसकी भूमि पर मजदूरी के बदले कार्य करता है। यही स्थिति रेगिस्तान में रहनेवाले लोगों तथा जंगलों में रहने वाले लोगों की है।

(B) प्राकृतिक आपदाएँ- कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ भी सामाजिक विषमताएँ उत्पन्न कर देती हैं। उत्तरकाशी जिले में आया भूकम्प इसका ज्वलन्त प्रमाण है। भूकम्प ने अमीर, गरीब सभी की सम्पत्तियों को धराशायी करके एक स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया। भूकम्प से पूर्व की रात को जो व्यक्ति धनवान एवं सम्पत्ति वाला था भूकम्प की रात के बाद साधनहीन हो गया, रोटी, कपड़ा और मकान का उसी तरह मोहताज हो गया जैसे एक निर्धन व्यक्ति जो पहले भी दो समय की रोटी कठिनाई से पाता था और आज भी रोटी पाने के लिए लाइन में खड़ा है।

6. साम्प्रदायिक कारक (Communal Factor)

सामाजिक विषमताओं को उत्पन्न करने एवं उन्हें स्थायी रूप देने में साम्प्रदायिक कारक का भी संसार में और विशेषकर भारत में विशेष भूमिका रही है और आज भी है। प्रमाण के रूप में शिक्षा संस्थाओं के नाम इस्लामिया, शिया, सुन्नी, क्रिश्चियन, खालसा, जैन आदि सम्प्रदायों के नाम से सम्बन्धित हैं। इन्हीं धर्मों को मानने वाले लोगों के बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते पढ़ते हैं हैं। परिणाम यह है कि बच्चों की विचारधारा भी अत्यन्त संकुचित क्षेत्र में ही रह जाती है और वे समाज की मुख्य धारा में आ ही नहीं पाते। इस कारण भी सामाजिक विषमता उत्पन हो जाती है। साम्प्रदायिक उन्माद की स्थिति में यह मनोवृत्ति और भी गम्भीर रूप धारण कर लेती है। आदमी, आदमी की जान का दुश्मन बन जाता है। कल साथ-साथ खेलने वाले बच्चे एक-दूसरे की जान के ग्राहक बन जाते हैं। जब धार्मिक उन्माद शान्त हो जाता है तो भय और सन्देह का वातावरण उसका स्थान ले लेता है। परिणाम यह होता है कि धार्मिक उन्माद से उत्पन्न हुई सामाजिक विषमता स्थायी रूप धारण कर लेती है।

7. प्रशासनिक कारक (Administrative Factor) 

सामाजिक विषमताओं को उत्पन्न करने तथा उनको स्थायी रूप देने में प्रशासनिक कारक का भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार के अनेक सुधारवादी कार्यक्रम प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण उन लोगों को लाभान्वित नहीं कर पाते जिनके लिए उनका संचालन किया जाता है। इसके विपरीत इनका मुख्य लाभ उन लोगों की जेबें भरना है जो सत्ता के दलाल होते हैं। इससे समाज में कटुता, घृणा और विषमता बढ़ती है। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को दी जाने वाली अनेक सुविधाएँ उन तक पहुँचने के पहले ही लुप्त हो जाती हैं। सत्ता के दलाल अपने को समाज से भित्र एवं उत्तम प्रदर्शित करने के लिए विचित्र आचरण करते हैं जिससे क्षेत्र की सामान्य जनता उनसे अलग हटने लगती है। इस प्रकार क्षेत्रीय एवं स्थानीय आधार पर सामाजिक विषमता उत्पन्न हो जाती है। गाँव में होने वाले वर्ग संघर्ष सामाजिक विषमता का ही परिणाम है। उत्तर प्रदेश का फतेहपुर काण्ड तथा बिहार का बारा काण्ड इस स्थिति के सजीव उदाहरण हैं।

8. असन्तुलित विकास

असन्तुलित विकास देश में सामाजिक विषमता उत्पन्न करता है जो क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत आता है वहाँ के लोगों को रोजगार के अधिक से अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। इससे उस क्षेत्र के लोगों की आय बढ़ जाती है. परन्तु इस क्षेत्र के जो लोग इन विकास कार्यक्रमों का लाभ नहीं उठा पाते उनकी आर्थिक आय पहले वाले स्तर पर ही बनी रहती है। परिणामस्वरूप एक ही क्षेत्र में दो प्रकार के वर्ग उत्पन्न हो जाते हैं। अधिक आय वाले सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करने लगते हैं और कम आयवाले अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिए विकास कार्यक्रम की रचना इस प्रकार करनी चाहिए कि सभी लोगों को समान रूप से उनका लाभ मिल सके।

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सामाजिक विच्छेदन (विघटन)

विच्छेदन (विघटन) का सामान्य अर्थ है विघटन। यह वह स्थिति है जिसमें एक समूह के सदस्यों के बीच के सम्बन्ध टूट जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं।

पी०एच० लेविस ने अपनी पुस्तक 'ऐन इण्ट्रोडक्शन टू सोशियोलॉजी' में लिखा है-"सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था का भंग होना और विश्रृंखलता उत्पन्न होना ही सामाजिक विघटन है।"

सामाजिक (विघटन) विच्छेदन, वैयक्तिक (विघटन) विच्छेदन या सामाजिक परिवर्तन इन सभी की उत्पत्ति का स्रोत व्यक्तियों का भिन्न-भिन्न या असंगत व्यवहार है। व्यवहार भिन्नता के कारण सामाजिक व्यवस्था में विच्छेदन अर्थात् विघटन उत्पन्न होता है। सामाजिक विघटन की स्थिति में समाज में इतनी अधिक स्पर्द्धा बढ़ जाती है कि सदस्यों के बीच कटुता तथा दरार पड़ जाती है। कभी-कभी यह स्थिति हिंसक रूप भी धारण कर लेती है।

सामाजिक विच्छेदन (विघटन) के कारण

सामाजिक विघटन के निम्न कारण हैं-

1. जातिवाद

जाति प्रथा ने हिन्दू समाज को अनेक भागों में विभाजित कर दिया है। इस विभाजन ने लोगों की भावनाओं को सीमित कर दिया। परिणामस्वरूप लोग समाज या देशहित की बात न सोचकर मात्र अपनी जाति के स्वार्थ के विषय में ही सोचने लगे हैं।

2. छुआछूत

हिन्दू समाज में धर्म के नाम पर एक समूह के लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है, उन्हें दास के समान जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। ऐसे लोगों को विकास का कोई अवसर नहीं मिलता। अत्यन्त दरिद्रतापूर्ण जीवन व्यतीत करना उनकी नियति बन जाती है। यह स्थिति उन्हें आक्रामक बना देती है और समाज में कटुता, फूट तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है जो विघटन की ओर ले जाती है।

3. सामाजिक कुरीतियाँ

भारतीय समाज को विघटित करने में सामाजिक कुरीतियों का भी पर्याप्त योगदान रहा है। दहेज प्रथा, बाल-विवाह, विवाह-विच्छेद एवं विधवा पुनर्विवाह पर रोक तथा धार्मिक कर्मकाण्ड आदि ऐसी सामाजिक कुरीतियाँ हैं जिन्होंने वैयक्तिक, सामाजिक एवं पारिवारिक विच्छेदन को बढ़ावा दिया है। इन कुरीतियों ने पारिवारिक तनाव बढ़ाने, पति-पत्नी के व्यक्तित्व को असन्तुलित करने, व्यभिचार और अपराध को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

4. पुराने तथा नये सामाजिक मूल्यों में संघर्ष

समाज में विघटन तथा विच्छेदन सांस्कृतिक कारणों से भी उत्पन्न होता है। पुराने और नये सामाजिक मूल्यों के बीच प्रायः संघर्ष की स्थिति रहती है। ऐसी स्थिति में तनाव उत्पन्न होता है जो पारिवारिक रिश्तों में दरार पैदा कर देता है। मूल्यों की भिन्नता के कारण नयी एवं पुरानी पीढ़ी के लोगों में तनाव एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आज के युवकों में पुरानी मान्यताओं, विश्वासों एवं परम्पराओं के प्रति कोई रुचि नहीं है। नैतिकता की धारणाओं में भी बहुत परिवर्तन आ या है। आज की व्यक्तिवादी व भौतिकवादी सामाजिक व्यवस्था में परिवार के सदस्यों के कार्यों का मूल्यांकन स्वार्थ पर आधारित हो गया है।

5. सामाजिक संकट

सामाजिक संकट से तात्पर्य उन अप्रत्याशित घटनाओं से है जो समाज पर गाज की तरह गिरती हैं। उदाहरण के लिए, भारत-पाकिस्तान का युद्ध, देश का विभाजन और शरणार्थियों का भारत में प्रवेश जैसी घटनाएँ सामाजिक संकट की स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। ऐसे सामाजिक संकट समाज की मान्यताओं, परम्पराओं एवं नैतिक मूल्यों को झकझोर कर रख देते हैं। इसका कारण यह है कि ऐसे संकट सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं और वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक विच्छेदन की स्थिति उत्पत्र कर देते हैं। सामाजिक संकट देश की अर्थव्यवस्था को भी संकट में डाल देते हैं जिससे वस्तुओं का अभाव उत्पन्न हो जाता है और मूल्यों में वृद्धि लगातार होती चली जाती है। देश में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता भी समाज में विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न कर देती है।

6. साम्प्रदायिक संघर्ष

धर्म, भाषा, जाति और क्षेत्र के आधार पर समाज समूहों में बंट जाता है। प्रत्येक समूह स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरे समूहों के हितों का हनन करते हैं। इनमें एक-दूसरे के प्रति भय, अविश्वास, विरोधी भावनाओं की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण आपस में तनाव व्याप्त हो जाता है। तनाव समय-समय पर संघर्ष का रूप ग्रहण कर लेता है। कभी-कभी यह स्वार्थी तत्व हिंसा पर उतर आते हैं जिसका जनजीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और समाज विघटन की ओर बढ़ता है क्योंकि एक बार सामाजिक सम्बन्धों में दरार आ जाने पर उसका पटना कठिन हो जाता है।

7. सांस्कृतिक असन्तुलन

संस्कृति के दो पक्ष होते हैं- (i) आध्यात्मिक अर्थात् अभौतिक पक्ष तथा (ii) भौतिक पक्ष। जब विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तीव्र गति से विकास के कारण संस्कृति का भौतिक पक्ष काफी आगे बढ़ जाता है तो अभौतिक पक्ष स्वतः ही पीछे रह जाता है। इस अवस्था में सांस्कृतिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। आज भारतीय सामाज इसी अवस्था में है। यहाँ के नागरिकों ने अपनी सुख-सुविधाओं के विकास के लिए आधुनिकतम प्रौद्योगिकी को तो अपना लिया परन्तु अभौतिक क्षेत्र में वे आज भी पुरानी प्रथाओं, परम्पराओं, रूढ़ियों, विश्वासों एवं सामाजिक मूल्यों को सजाये बैठे हैं। परिणाम यह हुआ कि आज का भारतीय नागरिक नयी परिस्थितियों में अपने को टाल नहीं पाया है। आज के नवयुवकों तथा प्रौढ़ों के बीच तनाव व्याप्त होने का यह मुख्य कारण है। आज का पारिवारिक विच्छेदन पीढ़ी अन्तराल (Generation gap) के कारण ही उत्पन्न हुआ है।

8. जनसंख्या विस्फोट

अप्रत्याशित दर से निरन्तर बढ़ती जनसंख्या भी सामाजिक विच्छेदन का आधारभूत कारण है। बढ़ती जनसंख्या का दबाव, रोजगार के अवसरों, वस्तुओं की मात्रा, नागरिक सुविधाओं आदि पर पड़ता है। जनसंख्या विस्फोट के कारण रोजगार के अवसरों का अभाव होता जा रहा है। समाज में बेकारी बढ़ रही है। इसी प्रकार जनसंख्या के विस्फोट से वस्तुओ का अभाव भी होता जा रहा है। वस्तुओं के अभाव के कारण उनके मूल्यों में लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। इस कारण अनेक व्यक्ति जो पहले दूध और फल का उपयोग करते थे अब उनके उपयोग से वंचित हो गये हैं। जनसंख्या में वृद्धि के कारण आवास की समस्या भी दिनो-दिन जटिल होती जा रही है। इन सबका सामूहिक प्रभाव यह होता है कि मनुष्य मानसिक तनाव से ग्रसित होता जाता है और वह अपने स्वार्थ के अतिरिक्त और कुछ सोच ही नहीं पाता। इस कारण भी सामाजिक विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

9. राजनीतिक भ्रष्टाचार

भारत में वर्तमान समय में सिद्धान्तों की अथवा मूल्यों की राजनीति का स्थान स्वार्थसिद्धि की राजनीति ने ले लिया है। राजनेता सत्ता हथियाने के चक्कर में समाज को विभिन्न वर्गों में बाँट देते हैं और किसी एक वर्ग या फिर कुछ चुने हुए वर्गों को विशेष सुविधाएँ पहुंचाकर वोट हथियाने की राजनीति का खेल खेलते हैं। परिणाम यह होता है कि राष्ट्रवादी विचारधारा के स्थान पर वर्गवादी विचारधारा घर कर जाती है और सामाजिक विच्छेदन प्रारम्भ हो जाता है।

10. शिक्षा व्यवस्था

धर्म निरपेक्षता की आड़ में वर्ग विशेष को प्रसन्न करने के लिए पाठ्यक्रम से अनैतिक मूल्यों को समाप्त कर दिया गया है जिन पर भारतीय संस्कृति टिकी हुई थी। आज की शिक्षण प्रणाली से शिक्षित होने वाले युवकों को मर्यादा, मूल्यों और आदर्शों का ज्ञान नहीं है। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के मूल्यों व आदर्शों को खोखला बनाती है, परिणामस्वरूप नयी तथा पुरानी पीढ़ी में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है जो सामाजिक विघटन की ओर ले जाती है।

सामाजिक विच्छेदन (विघटन)के निराकरण के सुझाव

भारत ही नहीं समस्त संसार सामाजिक विच्छेदन तथा वर्ग संघर्ष की भयावह स्थिति से गुजर रहा है। समाजशास्त्री इस विषय पर लगातार चिन्तन कर रहे हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए कुछ सुझाव दिये जा रहे हैं-

1. नैतिक मूल्यों की स्थापना

सामाजिक विषमताओं को नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करके दूर किया जा सकता है। नैतिक मूल्यों की स्थापना से समाज में भाईचारा बढ़ता है, संयम की प्रवृत्ति जागृत होती है, अहिंसा की भावना का उदय होता है। परिणामस्वरूप लोगों में यह भावना जन्म लेती है कि उनके किसी भी कार्य से किसी का अहित न होने पाये। इससे संघर्ष की प्रवृत्ति समाप्त होती है और सामाजिक विघटन पर अंकुश लगता है।

2. निर्धनता का निवारण

समाज में व्याप्त निर्धनता भी सामाजिक विच्छेदन का एक मूल कारण है। निर्धनता मनुष्य को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत आवश्यकताओं से भी वंचित कर देता है। अपने बच्चों को इन आवश्यकताओं के अभाव में चिल्लाते हुए देखकर उसमें संघर्ष की प्रवृत्ति जागृत हो जाती है। जब यही प्रवृत्ति समूचे निर्धनजनों में जागृत हो जाती है तो उनका एक समूह बन जाता है और समूह की मिली-जुली ज्वाला संघर्ष का रूप ले लेती है। साधन सम्पन्न व्यक्तियों और साधनहीन व्यक्तियों के बीच चल रहा संघर्ष इसी का परिणाम है। इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए विकास की गति तेज करनी होगी। विकास कार्यक्रमों के चलने से ऐसे समूहों में मौद्रिक आय बढ़ेगी, उनकी कार्य शक्ति बढ़ेगी, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होगी तथा वे लोग मानसिक तनाव से धीरे-धीरे मुक्त हो जायेंगे। इस प्रकार संघर्ष का स्थान स‌द्भावना ले लेगी और सामाजिक विषमता घटेगी एवं सामाजिक विच्छेदन की प्रवृत्ति का ह्रास होगा।

3. बेरोजगारी का निवारण

समाज में, खासकर नवयुवकों में व्याप्त बेरोजगारी सामाजिक विषमता एवं विच्छेदन का कारण है। अतः ऐसे कार्यक्रम का संचालन करना होगा जो युवकों को रोजगार दिला सके जिससे उनका मानसिक तनाव समाप्त हो, संघर्ष के स्थान पर स‌द्भावना की प्रवृत्ति का उदय हो तथा स्वार्थसिद्धि के स्थान पर परस्पर सहयोग की प्रवृत्ति जागृत हो। युवकों में बेरोजगारी समाप्त होने पर पीढ़ी अन्तराल की समस्या भी कुछ हद तक कम हो जायगी और समाज विघटित होने से बच जायगा।

4. विघटनकारी प्रवृत्तियों पर रोक 

स्वार्थसिद्धि के लिए अनेक व्यक्ति तथा उनके समूह विघटनकारी प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाते हैं। चोरी, डकैती, राहजनी जैसी घटनाएँ इसी कारण घटती हैं। यदि इन विघटनकारी शक्तियों को राजनीतिक आश्रय मिल जाता है तो यह उग्र रूप धारण कर लेती है और समाज आतंकित अवस्था में जीवन व्यतीत करने लगता है। अतः आवश्यक है कि विघटनकारी शक्तियों पर कड़ाई से नियन्त्रण किया जाय जिससे समाज से असुरक्षा की भावना का लोप हो जाय। लोग शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगें और उनका दूसरे वर्ग के प्रति द्वेष समाप्त हो जाय। इस प्रकार के नियन्त्रण के अभाव में जब दूसरा वर्ग भी हथियार उठा लेता है तो गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और पूरा समाज विघटित हो जाता है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के कारण रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं। आवश्यक वस्तुओं की कमी तथा आवास की समस्या उत्पन्न होती है। जनसंख्या पर नियन्त्रण करके इन समस्याओं से बचा जा सकता है।

5. सन्तुलित औद्योगिकीकरण

असन्तुलित औद्योगिकीकरण भी सामाजिक विषमता उत्पन्न करने वाला घटक है। किसी एक क्षेत्र का विकास होने पर वहाँ के लोगों की आय बढ़ जाती है, जबकि पड़ोसी क्षेत्र की आय का स्तर पूर्ववत् रहता है। इससे उनमें असन्तोष उत्पन्न होता है। इसलिए नियोजन व्यवस्था करते समय अविकसित क्षेत्रों को अधिक महत्व देना चाहिए तथा अन्य सभी क्षेत्रों को समान अवसर देना चाहिए। सन्तुलित विकास से क्षेत्रीय संघर्ष नहीं उत्पन्न होता और समाज में खुशहाली तथा शान्ति रहेगी।

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