सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
परिवर्तन जीवन की प्रकृति है, वह अटल एवं शाश्वत नियम है। परिवर्तन की इस प्रवृत्ति का अध्ययन करते समय यह प्रश्न सर्वोपरि सामने आता है कि मानव व्यवहारों, सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक संरचनाओं में सदैव परिवर्तन क्यों आते हैं? प्रो. ए. डब्ल्यू ग्रीन ने इस विषय में कहा है- "सामाजिक परिवर्तन समाज में सदैव से ही विद्यमान हैं क्योंकि प्रत्येक समाज में कुछ न कुछ मात्रा में असन्तुलन बना रहता है।" हर व्यक्ति या समूह इस असन्तुलन को दूर करने में प्रयासरत रहता है जिसमें नई व्यवस्था का उदय होता है किन्तु इसके लिए प्रयास करने वालों का सदैव ही विरोध भी होता है। परिणामस्वरूप ही नई दिशा को जन्म मिलता है। इसके कुछ तथ्य तत्काल परिवर्तन प्राप्त कर अंगीकार कर लिये जाते हैं और कुछ को अनुभव में लाकर ही अंगीकार किया जाता है, परन्तु इनमें किसी भी स्थिति में कोई अपवाद उत्पन्न नहीं होता क्योंकि यह परिवर्तन की प्रकृति सर्वव्यापी एवं अत्याज्य है। यह परिवर्तन न केवल चेतन पदार्थों में अपितु जड़ पदार्थों तक में भी पाया जाता है।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ
दार्शनिक आधार- समाज में होने वाले परिवर्तनों का जब कोई आधार कारण और प्रभाव ज्ञात हो जाए तो इसे ही सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।
ऐतिहासिक आधार- इतिहासवेत्ता सामाजिक परिवर्तन (Concrete) को मूर्त/तथ्य मानते हैं और समाजशास्त्री अमूर्त (Abstract)। अत समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषा ही अधिक उपयुक्त, समयानुकूल और वास्तविकता का ज्ञान कराती है।
समाजशास्त्री आधार- विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
किंग्सले डेविस- सामाजिक परिवर्तन से हमारा अभिप्राय उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन, समाज की संरचना और कार्यों से उत्पन्न होते हैं।
जिन्सबर्ग- सामाजिक परिवर्तन से हमारा अभिप्राय सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन होता है, समाज का आकार, इसके विभिन्न अंगों के बीच के संतुलन अथवा समाज के संगठन में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन हैं।
मैकाइवर और पेज- समाजशास्त्री होने के नाते हमारी विशेष रुचि प्रत्यक्ष रूप में सामाजिक सम्बन्धों में है केवल इन सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
एम. डी. जेन्सन- सामाजिक परिवर्तन को व्यक्तियों के कार्य करने और विचार करने के तरीकों में उत्पन्न होने वाले परिवर्तन कहकर परिभाषित किया है।
एम.एच. जोन्सन- अपने मौलिक अर्थ में, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य होता है- सामाजिक संरचना में परिवर्तन।
इस विवेचना से स्पष्ट है कि सामाजिक संस्थाओं, नियमों, कार्यविधियों, सामाजिक मूल्यों और विचारों में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं, क्योकि इन सबका सम्बन्ध समाज को प्रभावित करता है जिसके अन्तर्गत निम्न तथ्य होते हैं-
- समाज में प्रकार्य में होने वाले परिवर्तन।
- सम्बन्ध एक या अनेक व्यक्तियों के व्यवहारों से, विश्वासों और मूल्यों के परिवर्तन से न होकर समाज के सम्पूर्ण अंग हैं।
- मानव के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन से है।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ
(1) सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी सम्भव नहीं- समाज में विभिन्न प्रकार की भविष्यवाणी की जाती रही है और की भी जाती है; जैसे-मानव के विषय में, उसके व्यवहारों पर और इसी प्रकार आँकड़ों के आधार पर आर्थिक भविष्यवाणियाँ होती रही हैं किन्तु सामाजिक परिवर्तन के विषय में कहना सम्भव नहीं है कि किस समय कौन-सा परिवर्तन होगा? किन्हीं निश्चित परिस्थितियों की या तो कल्पना की जा सकती है या पूर्वानुमान ही लगाया जा सकता है। किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता। चाहे वे मूर्त या अमूर्त तथ्य ही क्यों न हों? अतः वे अस्पष्ट और अनिश्चित हैं।
(2) सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है- इस विषय में मैकाइवर एवं पेज द्वारा अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं- "सामाजिक परिवर्तन का अधिक सम्बन्ध गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes) से है और इन तथ्यों की गणना या मापन न हो सकने के कारण और भी जटिलता बढ़ गयी है।" जबकि भौतिक पदार्थों में होने वाले परिवर्तन कहीं सरल और सुगम होता है वहीं सांस्कृतिक मूल्यों (Cultural Values) में होने वाले परिवर्तन अधिक जटिल होते हैं उनको समझ पाना सरल नहीं। अतः सामाजिक परिवर्तनों में जैसे-जैसे वृद्धि होती जाती है, समस्या उतनी ही दुरूह होती जाती है।
(3) सामाजिक परिवर्तन स्वभावतः सामाजिक होते हैं- समाज में होने वाले सभी परिवर्तन प्राणिमात्र या समाज से सम्बन्धित होते हैं उनमें किसी व्यक्ति या समूह, जाति या संस्था विशेष से सम्बन्ध कदापि नहीं होता। इसलिए हम सब यह कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक है न कि वैयक्तिक । यहाँ यह कहना भी अनुचित न होगा कि किसी एक इकाई में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है।
(4) परिवर्तन समाज का एक मौलिक तत्व है- प्राकृतिक परिवर्तन एक अनिवार्य एवं अपरिहार्य अंग है। चाहे वह व्यक्ति हो, व्यवहार हो, समाज में या कोई जड़ अथवा चेतन पदार्थ ही क्यों न हो सब ही प्रकृति के इस नियम से बँधे हैं और इच्छित या अनिच्छित होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब मानव की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं परिस्थितियों में परिवर्तन होते हैं तो उनका प्रभाव समाज पर भी दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति बदली हुई व्यवस्था का इंतजार करता है और स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का प्रयास जिसके कारण परिवर्तन स्वतः ही लक्षित होने लगता है।
प्रो. ग्रीन ने इसी बात की और स्पष्ट और उपयुक्त रूप में दिया है- "परिवर्तन का उत्साहपूर्ण स्वागत और जीवन की प्रायः एक ढंग-सा बन चुका है।" यदि परिवर्तन की ये प्रक्रिया न होती तो हम आज जिस युग में हैं उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि कहाँ आखेट युग और कहाँ आज नवीन नक्षत्रों पर मानव की खोज का युग।
(5) सामाजिक परिवर्तन की गति असमान एवं अभिन्न होती है- यह कहना बड़ा ही कठिन है कि कब और कहाँ परिवर्तन की गति कैसे होती है? अमरीकी, रूसी और पश्चिमी देशों की तुलना में भारत व पूर्वी समाज में यह गति धीमी है, यही नहीं एक ही समाज में भी विभिन्नता देखने को मिलती है; जैसे- भारत के विकसितु शहरों और ग्रामीण अंचलों से यह चात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जायेगी। इस असमान गति का कारण उसमें परिवर्तन लाने वाले कारक तत्वों में भिन्नता होती है क्योंकि कभी समान कारणों से परिवर्तन नहीं हुआ करते।
यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना असंगत न होगा कि परिवर्तन का देश, काल और परिस्थितियों से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिए उनकी गति में असमानता व भिन्नता मिलती है और एक देश की तुलना में दूसरे देश, एक समय की तुलना में दूसरे समय और एक परिस्थिति की तुलना में दूसरी परिस्थिति में परिवर्तन की गति भिन्न होती है। यही कारण है कि भारत में भी विभिन्न युगों में परिवर्तन भिन्न-भिन्न रूप में आये।
(6) सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है- यह सर्वमान्य सत्य है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सार्वभौमिक होती है। इसलिए संसार का कोई भी देश इससे अछूत नहीं है। मानव के आदिकाल के समाज से लेकर आज तक इसमें अनेक परिवर्तन हुए हैं या होते आये हैं और आगे भी होंगे। इसी कारण विश्व का कोई भी समाज ऐसा नहीं जो इसके व्यूह से अछूता रहा हो। इसी सार्वभौमिकता का वर्णन करते बीरस्टीड ने कहा है कि - "कोई भी दो समाज एक समाज नहीं हो सकते और उनके इतिहास और सांस्कृतिक में इतनी भिन्नता पायी जाती है। अतः किसी को भी दूसरे का प्रतिरूप कहना असम्भव है।"
(7) सामाजिक परिवर्तन को मापना असमभव है- किसी भी सामाजिक परिवर्तन का मापन एवं मूल्यांकन करना असम्भव नहीं जैसा कि भौतिक पदार्थों के साथ है। अभौतिक तत्वों की प्रकृति, गुणात्मक और असंगत होती है। ये परिवर्तन मूर्त होते हैं और उनका मापन योग्य कोई मानदण्ड है ही नहीं।
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सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया
सामाजिक परिवर्तन निरन्तर, पूर्व-कथन करने में बहुत अधिक कठिन है व अनेकमुखी है, यदि हम उसे ठीक प्रकार से समझना चाहते हैं तो हमें उसकी व्यवस्था का पता लगाना होगा। विभिन्न क्षेत्रों में एक विशेष ढंग का परिवर्तन दिखायी देता है। मैकाइवर तथा पेज ने इस दृष्टिकोण से सामाजिक परिवर्तन के तीन मुख्य प्रतिमानों का उल्लेख किया है-
1. प्रथम प्रतिमान (First Pattern)- परिवर्तन का प्रथम प्रतिमान यह है कि कभी-कभी परिवर्तन अचानक हमारे समक्ष प्रकट होते हैं इसके अन्तर्गत हम आविष्कारों से उत्पन्न परिवर्तनों को रख सकते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन एक बार उत्पन्न होते हैं और आगे भी परिवर्तन करते रहते हैं क्योंकि विभिन्न आविष्कारों में नित नये सुधार होते रहते हैं। रेडियो, टेलीफोन, वायुयान, मोटरगाड़ियों आदि के आविष्कारों के कारण उत्पन्न परिवर्तन केवल अचानक ही नहीं वरंन् गुणात्मक रूप से अनेक परिवर्तनों को जन्म देने वाले भी हैं। यदि परिवर्तन तब तक होते रहते हैं जब तक समाज में उनसे भी अच्छा कोई आविष्कार नहीं हो जाता है। यह परिवर्तन रेखीय परिवर्तन कहलाते हैं। प्रौद्योगिकी में परिवर्तन इसी प्रकार के परिवर्तन के उदाहरण हैं।
2. द्वितीय प्रतिमान (Second Pattern)- प्रथम आकार के परिवर्तन को यदि हम रेखाचित्र के द्वारा प्रकट करते हैं तो इसकी प्रकृति हमेशा ऊपर की दिशा में जाती हुई दिखायी देती है और परिवर्तन के दूसरे प्रतिमान में कुछ समय के लिए तो परिवर्तन ऊपर की ओर अर्थात् प्रगति की दिशा में होता है लेकिन थोड़े की समय के पश्चात् ही उसका ह्यास होने लगता है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि परिवर्तन के दूसरे प्रतिमान में पहले परिवर्तन के ऊपर की दिशा में होता है फिर नीचे की ओर होने लगता है। हम इस प्रकार के परिवर्तन को उतार-चढ़ाव वाला परिवर्तन कह सकते हैं। उदाहरणार्थ- आर्थिक प्रक्रियाओं में होने वाले परिवर्तन, जनसंख्या से सम्बन्धित परिवर्तन आदि।
3. तृतीय प्रतिमान (Third Pattern)- इस परिवर्तन को हम चक्रीय परिवर्तन अथवा तरंगीय परिवर्तन (Wave-like Change) कह सकते हैं कि अधिकांश वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इसमें परिवर्तन का एक चक्र चलता है। इसे अधिक स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिक प्रकृति (मौसम) का उदाहरण देते हैं। जिस प्रकार सर्दी, गर्मी व वर्षा का एक चक्र पाया जाता है। उसी प्रकार इस परिवर्तन की प्रकृति होती है। कभी-कभी यह परिवर्तन एक तरंग के रूप में उतार-चढ़ाव में निरन्तर घटित होता रहता है जिस प्रकार समुद्र में उठने वाली लहरों का न तो कहीं आरम्भ होता है और न ही अंत फिर भी लहरें आती-जाती रहती हैं। व्यक्ति की क्रियाओं, व्यवहारों, राजनीतिक आन्दोलन में यही प्रतिमान दृष्टिगत होता है। फैशन सांस्कृतिक आन्दोलनों, आभूषणों, लोकाचारों, नियन्त्रण व स्वतन्त्रता आदि में भी यह प्रतिमान पाया जाता है।
सामाजिक परिवर्तन के तत्व
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों में परिवर्तन है और मनुष्य और उसके पर्यावरण के बीच सम्बन्धों में परिवर्तन है। इन सम्बन्धों में जिन आधारभूत तत्वों के कारण परिवर्तन होते रहते हैं वे भी परस्पर अन्तर्सम्बन्धित हैं। प्राकृतिक पर्यावरण में, सामाजिक जीवन में तथा औद्योगिकीय अवस्थाओं और सांस्कृतिक प्रतिमानों में कुछ ऐसे स्वाभाविक तत्व क्रियाशील रहते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को अनिवार्य बना देता है। मैकाइवर और पेज ने इन तत्वों को सामाजिक परिवर्तन की स्थायी दशाएँ कहा है, उनके अनुसार यह स्थायी दशाएँ निम्नलिखित है-
(1) प्राकृतिक पर्यावरण (Physical Environment)- पृथ्वी पर सदैव प्राकृतिक आपदा या उथल-पुथल होती रहती है। भौगोलिक जीवन में भी धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहता है और कभी-कभी भयंकर तूफान, आँधी, भूचाल और बाढ़ इत्यादि के रूप में आकस्मिक परिवर्तन होते हैं, मौसम बदलते रहते हैं और जलवायु भी प्राकृतिक संसार में होने वाले स्वाभाविक परिवर्तन पर मनुष्यों का अधिकार नहीं है। अतः इस प्रकार के परिवर्तनों को रोका तो नहीं जा सकता उनके साथ स्वयं अनुकूलन करना पड़ता है। अनुकूलन की इस प्रक्रिया में सामाजिक जीवन में अनेक परिवर्तन हो जाते हैं। अतः प्राकृतिक पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन का महत्वपूर्ण तत्व है। स्वयं सामाजिक जीवन को सुविधापूर्ण बनाने के लिए मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण में संशोधन करता रहा है। उस पर नियन्त्रण करने का यत्न करता रहता है, उसकी इस क्रिया के फलस्वरूप परिवर्तन की श्रृंखला बन गयी है।
(2) जीवशास्त्रीय दशाएँ (Biological Conditions)- मानव संसार की निरन्तरता में, मनुष्य की वृद्धि और ह्रास में तथा पीढ़ियों के क्रम में भी सामाजिक परिवर्तन के तत्व छिपे रहते हैं। प्रत्येक पीढ़ी यौन सम्बन्धों और रक्त-मिश्रण का परिणाम है। अतः हर नई संतति अपने पूर्वजों से किसी-न-किसी गुण और विशेषताओं में भिन्न होती है। मनुष्य में स्त्री-पुरुष का समागम केवल मौलिक प्रवृत्ति (Instinct) पर ही आधारित नहीं होता उसमें भावना, आकर्षण, रुचि अर्थात् व्यक्तिगत चुनाव का महत्व होता है। यही कारण है कि मनुष्यों की पीढ़ियों में शारीरिक और मानसिक भिन्नताएँ होती हैं। स्वयं माता-पिता भी भिन्न लक्षणों से युक्त होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय जीवन की उत्पत्ति और विकास में पैतृकता (Heredity) का विशेष प्रभाव होता है, नई पीढ़ी सामाजिक विरासत से संतुष्ट नहीं होती और अपने जीवन को अपनी रुचि के अनुसार ढालने के लिए नये-नये परिवर्तन का प्रयत्न करती है। मनुष्यों की संख्या में वृद्धि अथवा कमी उनकी सामाजिक आवश्यकताओं और साधनों को प्रवाहित करती है, ऐसी स्थिति में उन पर भी नियन्त्रण करने की कोशिश की जाती है जो अन्तः सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करती है। संक्षेप में जीवनशास्त्रीय दशाएँ भी सामाजिक परिवर्तन बना देती हैं।
(3) प्रौद्योगिक व्यवस्था (Technological Order)- मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयत्न में जिन-जिन उपकरणों और प्रविधियों (Techniques) का आविष्कार और उपयोग करता है वे सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त नई प्रविधियों और यन्त्रों का उपयोग करने के लिए प्रायः यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन किया जाय, विभिन्न कार्यों में लगे हुए व्यक्तियों को उस कार्य की प्रविधि में परिवर्तन में होने से ही अपने सामाजिक सम्बन्धों में और सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ता है। प्रौद्योगिकी आविष्कारों का अनिवार्य परिणाम सामाजिक व्यवस्था से परिवर्तन होता है।
(4) सांस्कृतिक व्यवस्था (Cultural Order)- मनुष्य की मान्यताएँ उसकी आवश्यकताओं और अनुभव के साथ-साथ बदलती रहती हैं। विचार, विश्वास और आदर्श समय के साथ गतिशील हैं। रुचियों और मूल्यों पर भी युग की छाप होती है। एक ही प्रकार का ढंग हर युग में संतोष प्रदान नहीं करता। साहित्य में, कला में सभी में भाव और शैली सम्बन्धी परिमार्जन, संशोधन और परिवर्तन होते रहते हैं। विभिन्न समूहों की सांस्कृतियों में संघर्ष होता है और प्रत्येक सांस्कृतिक समूह अपना प्रभाव दूसरों पर डालना चाहता है। इस प्रयत्न में वह सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तनों को प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार मैकाइवर और पेज ने इन चार स्थायी दशाओं को सामाजिक परिवर्तन के आधारभूत तत्वों के रूप में स्वीकार किया है। गर्थ और मिल्स (Girth and Mills) ने सामाजिक परिवर्तन के तीन प्रमुख तत्वों की ओर संकेत किया है-
- व्यक्तियों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए स्वाभाविक प्रयत्न।
- भौतिक कारणों का तथा विचारों का सामाजिक जीवन पर निरन्तर प्रभाव।
जिंसबर्ग (Ginsberg) ने सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने वाले निम्नलिखित तत्वों की व्याख्या की है-
- व्यक्तियों की चेतन इच्छाएँ और निर्णय।
- बदलती हुई दशाओं के प्रभाव से होने वाली व्यक्तियों की क्रियाएँ।
- संरचनात्मक परिवर्तनों से उत्पन्न सामाजिक दबाव।
- बाहरी तत्वों; जैसे- संस्कृति या राज से सम्पर्क।
- विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों का प्रभाव।
- विभिन्न स्त्रोतों से उत्पन्न तत्वों का किसी एक बिन्दु पर समागन (Confluence) या व्यवस्थापन (Coallucation) ।
- उग्र घटनाएँ; जैसे-विदेशी आक्रमण, अकाल, महामारी आदि।
- सामाजिक उद्देश्य जो सामान्य हों।