सामाजिक आन्दोलन की अवधारणा क्या है ?

सामाजिक आन्दोलन 

सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन का एक विशेष रूप है। सामान्य शब्दों में, जब एक समुदाय अथवा समूह कुछ विशेष सामाजिक नियमों और व्यवहार के तरीकों से असन्तुष्ट रहने के कारण संगठित होकर कोई ऐसा परिवर्तन लाने की कोशिश करता है जो लोगों की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल हो, तब इसी तरह के प्रयत्न को हम सामाजिक आन्दोलन कहते हैं। प्रत्येक आन्दोलन एक विशेष विचारधारा पर आधारित होता है। साथ ही यह निरन्तर किया जाने वाला प्रयत्न है तथा इसका उद्देश्य कुछ विशेष समस्याओं का समाधान करना अथवा एक विशेष समुदाय द्वारा अपनी स्थिति में सुधार करना होता है। साधारणतया सामाजिक आन्दोलन में दबाव का तत्व मौजूद रहता है। इन्हीं आधारों को ध्यान में रखते हुए समाजशास्त्रियों ने सामाजिक आन्दोलन को परिभाषित किया है।

    एम. एस. ए. राव (M.S.A. Rao) ने अपनी पुस्तक 'भारत में सामाजिक आन्दोलन' (Social Movement in India) में लिखा है, "एक सामाजिक आन्दोलन समाज के किसी हिस्से द्वारा समाज में आंशिक या पूर्ण परिवर्तन लाने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न है। इसमें एक विचारधारा पर आधारित सामूहिक प्रयत्न शामिल होते हैं।" इस कथन के द्वारा राव ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक आन्दोलन में तीन मुख्य विशेषताएँ होती हैं- 

    • प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन एक विचारधारा पर आधारित होता है, 
    • यह एक सामूहिक प्रयत्न है, 
    • इसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित किसी एक पक्ष अथवा सभी पक्षों में परिवर्तन लाना होता है।

    पी.बी. हार्टन (P.B. Horton) के शब्दों- "सामाजिक आन्दोलन वह सामूहिक प्रयत्न है जिसका उद्देश्य समाज में लोगों को किसी परिवर्तन को प्रोत्साहन देना अथवा उसका विरोध करना होता है।" इसका तात्पर्य है कि आन्दोलन का उद्देश्य हमेशा परिवर्तन लाना ही नहीं होता बल्कि कभी-कभी एक विशेष परिवर्तन को रोकना भी होता है।

    हरबर्ट ब्लूमर (Herbert Blumer) के अनुसार- "किसी नयी व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से किए जाने वाले सामूहिक प्रयत्न को ही सामाजिक आन्दोलन कहा जाता है।"

    भारतीय समाज में समय-समय पर होने वाले सामाजिक आन्दोलनों के इतिहास से यह स्पष्ट है कि जब कभी भी यहाँ व्यवहार के स्थापित तरीकों या सामाजिक नियमों के कारण समाज का सन्तुलन बिगड़ने लगा, तब-तब विभिन्न आन्दोलनों के द्वारा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया गया। आन्दोलन का एक मुख्य आधार कुशल नेतृत्व का होना है। यह नेतृत्व कभी धार्मिक रूप से सामने आया तो कभी सामाजिक या राजनैतिक रूप से स्पष्ट हुआ। 16वीं शताब्दी में समाज सुधारक सन्तों द्वारा किये जाने वाले आन्दोलन का आधार धार्मिक था जबकि 19वीं शताब्दी में सामाजिक आधार पर यहाँ की बहुत-सी कुरीतियों को दूर करके सामाजिक व्यवस्था को स्वस्थ बनाने के प्रयत्न किए गए। भारत का 'राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन' एक नयी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था की विचारधारा पर आधारित था। इसका तात्पर्य है कि सामाजिक आन्दोलन की प्रकृति को इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं की सहायता से समझा जा सकता है।

    (1) संकट या समस्या- सामाजिक आन्दोलन का पहला आधार किसी क्षेत्र या समुदाय में एक विशेष संकट या समस्या का पैदा होना है। यह समस्या हमारे सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनैतिक जीवन से सम्बन्धित हो सकती है। ऐसे संकट या समस्या को पैदा करने वाली दशाओं को दूर करने या उनमें सुधार लाने के लिए जब बहुत-से व्यक्ति एकजुट होने लगते हैं, तभी किसी आन्दोलन का आरम्भ होता है।

    (2) सामूहिक प्रयत्न- सामाजिक आन्दोलन का सम्बन्ध उन सामूहिक प्रयत्नों से है जिनके द्वारा बहुत से लोग जागरूक होकर समाज में एक विशेष परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं। इन लोगों का कोई निश्चित संगठन नहीं होता बल्कि सहभाग करने वाले व्यक्ति अपनी इच्छा से इसमें हिस्सा लेते हैं।

    (3) एक विचारधारा- आन्दोलन एक ऐसा सामूहिक प्रयत्न है जो एक विशेष विचारधारा पर आधारित होता है। यह विचारधारा ही उससे प्रभावित लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के नियमों के कारण जब निम्न जातियों को एक लम्बे समय तक विभिन्न अधिकारों से वंचित किया जाता रहा, तब इस विचारधारा को प्रोत्साहन मिला कि समाज में सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए। समानता की इसी विचारधारा के आधार पर दलित जातियों और पिछड़ी जातियों ने अनेक आन्दोलन किए जिन्हें हम दलित आन्दोलन और पिछड़े वर्गों के आन्दोलन के नाम से जानते हैं।

    (4) निर्धारित उद्देश्य- प्रत्येक आन्दोलन के कुछ निर्धारित और स्पष्ट उद्देश्य होते हैं। यही लक्ष्य तय करते हैं कि आन्दोलन की दिशा क्या होगी और किन तरीकों से आन्दोलन को आगे बढ़ाया जाएगा। आन्दोलन के उद्देश्य ही यह स्पष्ट करते हैं कि आन्दोलन करने वाले समुदाय की अपेक्षाएँ या माँगें क्या हैं। इन उद्देश्यों के आधार पर ही किसी आन्दोलन को जनसाधारण का समर्थन मिलता है।

    (5) नेतृत्व तथा संगठन- नेतृत्व सामाजिक आन्दोलन का एक प्रमुख आधार है। एक कुशल नेता द्वारा ही आन्दोलन की रूपरेखा बनाकर उसका जनसाधारण में प्रचार किया जाता है और लोगों को आन्दोलन में हिस्सा लेने की प्रेरणा दी जाती है। आन्दोलन का नेतृत्व यदि किसी चमत्कारिक नेता द्वारा किया जाता है तो उसकी शक्ति बहुत अधिक हो जाती है। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन को महात्मा गाँधी द्वारा दिया जाने वाला नेतृत्व इसका उदाहरण है। नेतृत्व का आन्दोलन के संगठन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। नेता में ऐसी क्षमता होती है जिससे वह समझ लेता है कि किन लोगों में आन्दोलन को संगठित करने की विशेष योग्यता है। नेता द्वारा उन्हें इस तरह के काम सौंपे जाते हैं जिससे आन्दोलन अधिक प्रभावपूर्ण बन जाता है।

    (6) परिवर्तन की इच्छा- कोई आन्दोलन तभी प्रभावपूर्ण बनता है जब समाज के एक बड़े वर्ग में वर्तमान व्यवस्था के अन्दर परिवर्तन लाने की इच्छा पैदा हो जाती है। इसी रूप में सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परितर्वन को एक माध्यम है। इसके बाद भी आन्दोलनों की प्रकृति समान नहीं होती। कुछ आन्दोलन ऐसे होते हैं जिनके द्वारा वर्तमान व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन लाने के प्रयत्न किए जाते हैं जबकि कुछ आन्दोलनों का उद्देश्य पूरे सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन लाना होता है।

    (7) दबाव का समावेश- प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन में दबाव का कुछ न कुछ तत्व जरूर होता है। किसी आन्दोलन के उद्देश्य चाहे कितने भी अच्छे हों, समाज में कुछ समूह या वर्ग ऐसे भी होते हैं जो आन्दोलन के विरोधी होते हैं। इस दशा में आन्दोलन तब तक प्रभावपूर्ण नहीं बनता जब तक सरकार या शासन पर परिवर्तन के लिए दबाव का कुछ न कुछ तत्व जरूर होता है। किसी आन्दोलन के उद्देश्य चाहे कितने भी अच्छे हों, समाज में कुछ समूह या वर्ग ऐसे भी होते हैं जो आन्दोलन के विरोधी होते हैं। इस दशा में आन्दोलन तब तक प्रभावपूर्ण नहीं बनता जब तक सरकार या शासन पर परिवर्तन के लिए दबाव न डाला जाए।

    स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलन एक ऐसा संगठित प्रयत्न है जिसका उद्देश्य एक विशेष दशा का विरोध करना सामाजिक परिवर्तन लाना होता है। यही कारण है कि सामाजिक आन्दोलन को सामाजिक परिवर्तन के एक प्रमुख स्त्रोत के रूप में देखा जाता है।

    सामाजिक आन्दोलनों की उत्पत्ति

    समाजशास्त्रियों ने इस बात पर विचार किया है कि वे कौन सी दशाएँ हैं जो किसी समाज में सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देती हैं। कुछ समाजशास्त्री एक नयी विचारधारा को आन्दोलन के सबसे प्रमुख कारण के रूप में स्पष्ट करते हैं, जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार प्रत्येक आन्दोलन एक असमानताकारी व्यवस्था का परिणाम होता है। इस सम्बन्ध में डॉ. एम.एस.ए. राव ने सामाजिक आन्दोलनों को पैदा करने वाले तीन प्रमुख सैद्धान्तिक आधारों की विवेचना की है जिन्हें अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। अतः इन्हें हम- 

    • तुलनात्मक अभाव-बोध, 
    • संरचनात्मक तनाव, तथा 
    • पुनर्जीवन का सिद्धान्त कहते हैं।

    (1) तुलनात्मक अभाव-बोध (Relative Deprivation)- जब किसी समूह को दूसरे समूहों की तुलना में कुछ विशेष अधिकारों या सुविधाओं से वंचित किया जाने लगता है तो इस दशा को हम तुलनात्मक वंचन कहते हैं। यह दशा मनोवैज्ञानिक आधार पर उस समूह में अभाव-बोध पैदा करने लगती है जिसे न्यायपूर्ण अधिकार नहीं मिल पाते। किसी समूह में अभाव की भावना तब पैदा होती है जब वह महसूस करने लगता है कि समाज में दूसरे समूहों या वर्गों को जो सुविधाएँ मिल रही हैं वह उनसे वंचित है। यह सुविधाएँ और अधिकार सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अथवा राजनैतिक किसी भी क्षेत्र से सम्बन्धित हो सकती है। राबर्ट मार्टन ने यह स्पष्ट किया है कि इस दशा में वंचित समूह दूसरे समूहों की तरह सुविधाएँ पाकर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने की कोशिश करने लगता है। इसी से सामाजिक आन्दोलन को जन्म मिलता है। तुलनात्मक अभाव-बोध से एक विशेष समूह या वर्ग में वर्तमान दशाओं के विरुद्ध असन्तोष पैदा होने लगता है। इसी दशा को दूसरी तरह स्पष्ट करते हुए अबेरले ने लिखा है- कि जब भौतिक सुविधाओं, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और व्यवहार के तरीकों के बारे में किसी समूह की आशाएँ बहुत न्यायपूर्ण होती हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से वह उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता, तब इससे उस समूह में तुलनात्मक अभाव-बोध की दशा पैदा होने लगती है। यही भावना उस समूह के लोगों को विरोध और संघर्ष की प्रेरणा देकर सामाजिक आन्दोलन को जन्म देती है।

    (2) संरचनात्मक तनाव (Structure strains)- एम.एस.ए. राव ने सामाजिक आन्दोलन की उत्पत्ति के इस कारण को नील स्मेलसर के विचारों के आधार पर स्पष्ट किया। स्मेलसर ने यह बताया था कि जब समाज के ढाँचे को बनाने वाले विभिन्न अंगों के बीच असन्तुलन पैदा हो जाता है तब लोग अपने जीवन में तरह-तरह के तनाव महसूस करने लगते हैं। यह तनाव समाज के आदर्श नियमों, सामाजिक मूल्यों और व्यवहार के तरीकों आदि किसी से भी सम्बन्धित हो सकते हैं। समाज में जब संरचनात्मक तनाव से सम्बन्धित दशाएँ पैदा हो जाती हैं तब एक बड़ी संख्या में लोग व्यवहार के उन नए तरीकों के बारे में विचार करने लगते हैं जिनकी सहायता से इन तनावों से छुटकारा पाया जा सके। यही दशा एक विशेष सामाजिक आन्दोलन को जन्म देती है। उदाहरण के लिए, भारतीय समाज में ग्रामीण समुदाय की संरचना में परिवर्तन लाने के लिए जो प्रयत्न किए गए उनसे ग्रामीण समुदाय के ढाँचे में असन्तुलन की दशा पैदा हो गई। कुछ किसान धनी बन गए जबकि अधिकांश किसानों की समस्याओं में पहले से भी अधिक वृद्धि हो गई। इसी असन्तुलन से पैदा होने वाले तनावों के फलस्वरूप हमारे समाज में अनेक कृषक आन्दोलन होने लगे।

    (3) पुनर्जीवन का सिद्धान्त (Theory of Revitalization)- यह सिद्धान्त अमरीकन समाजशास्त्री ए.एफ.सी. वैलेस (A.F.C. Wallace) के विचारों पर आधारित है। वैलेस के अनुसार, किसी सामाजिक आन्दोलन का जन्म तब होता है जब एक समाज के सदस्य अपनी संस्कृति को अधिक उपयोगी बनाने के लिए नियोजित रूप से संगठित प्रयत्न करते हैं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए वैलेस ने उन चार अवस्थाओं का उल्लेख किया जिनके अन्तर्गत किसी आन्दोलन की उत्पत्ति होती है। पहली अवस्था में समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं का रूप परम्परागत बना रहता है। दूसरी अवस्था वह है जब व्यवहार के परम्परागत तरीकों के कारण लोग तरह-तरह के तनाव महसूस करने लगते हैं। तीसरी अवस्था में कुछ समूह अपने हितों को बनाए रखने के लिए परम्परागत व्यवहारों के पक्ष में इस तरह का प्रचार करने लगते हैं जिससे समाज में भ्रम की दशा पैदा होने लगती है। चौथी अवस्था को हम पुनर्जीवन की अवस्था कहते हैं। इसमें कुछ व्यक्तियों के नेतृत्व में सामाजिक व्यवस्था को इस तरह बदलने का प्रयत्न किया जाने लगता है जिससे लोग बदलती हुई दशाओं से अनुकूलन कर सकें। इसका तात्पर्य है कि सामाजिक आन्दोलन का सम्बन्ध उन प्रयत्नों और व्यवहारों से होता है जिनके द्वारा समाज में रचनात्मक परिवर्तन लाने की कोशिश की जाती है। भारत में 19वीं शताब्दी में होने वाला समाज सुधार आन्दोलन पुनर्जीवन के सिद्धान्त को स्पष्ट करता है।

    एम. एस. ए. राव ने यह स्पष्ट किया है कि समाज के सन्दर्भ में संरचनात्मक तनाव और पुनर्जीवन का सिद्धान्त सामाजिक आन्दोलनों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए अधिक सही नहीं है। संरचनात्मक तनाव मनोवैज्ञानिक प्रेरणा पर जरूरत से अधिक बल देता है जबकि पुनर्जीवन का सिद्धान्त ऐसे स्तरों या अवस्थाओं से सम्बन्धित है जिनका किसी आन्दोलन से सम्बन्धित होना हमेशा जरूरी नहीं होता। दूसरी ओर, तुलनात्मक अभाव बोध के द्वारा हम किसी समूह द्वारा किए जाने वाले उस विरोध और संघर्ष को आसानी से समझ सकते हैं जो सामाजिक आन्दोलने की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय समाज में होने वाले अधिकांश आन्दोलनों की उत्पत्ति को तुलनात्मक अभाव बोध के आधार पर ही समझा जा सकता है। डॉ. राव ने यह भी स्पष्ट किया कि उपर्युक्त तीन दशाओं के अतिरिक्त किसी समाज में सामाजिक असमानताएँ, शोषित वर्गों में पैदा होने वाली जागरूकता, संस्कृति में उपयोगी परिवर्तन लाने की इच्छा तथा राजनैतिक दलों के प्रयत्न आज भी ऐसी दशाएँ हैं जो सामाजिक आन्दोलन को जन्म देती हैं।

    सामाजिक आन्दोलन के प्रकार

    सभी सामाजिक आन्दोलनों की प्रकृति समान नहीं होती। आन्दोलन के संगठन, उद्देश्यों और व्यापकता के आधार पर इनके अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। कुछ लेखकों ने आन्दोलनों के केन्द्र बिन्दु को ध्यान में रखते हुए इन्हें कृषक, श्रमिक, जनजातीय, प्रजातीय तथा महिला आन्दोलन जैसे भागों में बाँटा है। आन्दोलनों के वर्गीकरण में भारतीय समाजशास्त्रियों का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इनमें एम.एस.ए. राव ने सामाजिक आन्दोलनों के जिन प्रकारों का उल्लेख किया है, उन्हें अधिक व्यावहारिक माना जाता है। राव ने सामाजिक आन्दोलन के चार मुख्य प्रकार बताए जो निम्नांकित हैं-

    (1) विरोधपूर्ण आन्दोलन- यह वे आन्दोलन हैं जिनका उद्देश्य शोषण के विरुद्ध अपने विरोध को स्पष्ट करके किसी समुदाय द्वारा अपनी स्थिति में सुधार करना होता है। ऐसे आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए नहीं किए जाते।

    (2) सुधारवादी आन्दोलन- ऐसे आन्दोलनों का उद्देश्य लोगों के परम्परागत विश्वासों, मनोवृत्तियों और जीवन शैली में परिवर्तन लाना होता है। मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन और 19वीं शताब्दी में ब्रह्म समाज तथा आर्य समाज द्वारा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए चलाए गए आन्दोलन इसका उदाहरण हैं।

    (3) रूपान्तकारी आन्दोलन- यह आन्दोलन वे हैं जिनका उद्देश्य एक विशेष व्यवस्था को बदलना होता है। भारत में एक लम्बे समय तक निम्न जातियाँ सभी तरह की सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रहीं। इसके फलस्वरूप दलित जातियों और पिछड़ी जातियों ने उच्च जातियों के एकाधिकार को चुनौती देकर सामाजिक व्यवस्था को एक नया रूप देने के लिए आन्दोलन किए। दक्षिण भारत में 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़घम' निम्न जातियों द्वारा ब्राह्मण व्यवस्था के विरुद्ध किया जाने वाला एक आन्दोलन था जिसने बाद में राजनैतिक रूप ले लिया।

    (4) क्रान्तिकारी आन्दोलन- डॉ. राव के अनुसार ऐसे आन्दोलन में वर्ग-संघर्ष की भावना बहुत गहरी होती है। इसके द्वारा समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की कोशिश की जाती है। इसमें हिंसा और संघर्ष के द्वारा परिवर्तन को भी बुरा नहीं समझा जाता है। इस तरह के आन्दोलन अक्सर मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित होते हैं। भारत में नक्सलवादी आन्दोलन तथा तेभागा आन्दोलन इसके उदाहरण हैं।

    भारतीय समाजशास्त्रियों में टी. के. उम्मन ने भी सामाजिक आन्दोलन के अनेक प्रकारों को स्पष्ट किया। उनके अनुसार विभिन्न आन्दोलनों को चमत्कारिक, वैचारिक और संगठन सम्बन्धी तीन मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है। चमत्कारिक आन्दोलन वे हैं जिनका नेतृत्व किसी चमत्कारिक शक्ति वाले व्यक्ति के द्वारा किया जाता है। जब आन्दोलन का आधार एक नयी सामाजिक या सांस्कृति विचारधारा होती है तब इसे हम वैचारिक आन्दोलन कहते हैं।

    कभी-कभी आन्दोलन का संगठन एक विशेष क्षेत्र, भाषा या वर्ग के मुद्दे पर आधारित होता है। इससे सम्बन्धित आन्दोलन को संगठन सम्बन्धी आन्दोलन कहा जाता है। एण्डरसन तथा पारकर (Aderson and Parker) द्वारा दिया गया सामाजिक आन्दोलन का वर्गीकरण भी बहुत महत्वपूर्ण है। इन्होंने सामाजिक आन्दोलनों के चार मुख्य प्रकारों का उल्लेख किया-सुधारवादी आन्दोलन, क्रान्तिकारी आन्दोलन, खण्डनात्मक आन्दोलन, सम्पूर्णवादी आन्दोलन। सुधारवादी आन्दोलन का उद्देश्य समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करके व्यवस्था में सुधार लाना होता है। ऐसे आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का विरोध नहीं करते। क्रान्तिकारी आन्दोलन का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। इसके द्वारा सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था में इस तरह परिवर्तन लाना होता है जिससे लोगों को बेहतर सुविधाएँ मिल सकें। खण्डनात्मक आन्दोलन वे होते हैं जिनके द्वारा समाज के किसी एक वर्ग अथवा समुदाय के जीवन में परिवर्तन लाकर उसे अधिक जागरूक बनाया जाता है। सम्पूर्णतावादी आन्दोलन की प्रकृति साधारणतया सांस्कृतिक और राजनैतिक होती है। परम्परागत समाज की जगह लोगों के जीवन को आधुनिक बनाना अथवा राजशाही को समाप्त करके लोकतंत्र की स्थापना के लिए किया जाने वाला आन्दोलन इसका उदाहरण है।

    सामाजिक आन्दोलन के उपर्युक्त प्रकार केवल कुछ प्रमुख आन्दोलनों से सम्बन्धित हैं। भारत में समय-समय पर जो सामाजिक आन्दोलन होते रहे हैं, उनमें से अनेक आन्दोलन ऊपर दी गई किसी भी श्रेणी में नहीं आते। वास्तव में, विभिन्न प्रकार के आन्दोलनों की प्रकृति और उद्देश्य एक-दूसरे से इतने भिन्न होते हैं कि किसी एक वर्गीकरण में ही उन सभी का समावेश नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, जनजातियों द्वारा किए जाने वाले आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने से सम्बन्धित रहा है जबकि अनेक आन्दोलन आर्थिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए किए गए। चैतन्य महाप्रभु द्वारा चलाया गया हरे कृष्ण आन्दोलन और केरल में नारायण गुरुस्वामी द्वारा आरम्भ किया गया श्री नारायण धर्म परिपालन आन्दोलन (S.N.D.P.) एक तरह से मसीही आन्दोलन के उदाहरण हैं। महात्मा गाँधी द्वारा चलाया जाने वाला सविनय अवज्ञा आन्दोलन और बहिष्कार आन्दोलन सकारात्मक आन्दोलन के अन्तर्गत आता है जिसका उद्देश्य लोगों की मनोवृत्तियों में रचनात्मक परिवर्तन लाना था।

    वास्तव में, सामाजिक आन्दोलन का क्षेत्र बहुत व्यापक है। कुछ आन्दोलन ऐसे होते हैं जिनकी प्रकृति बाहरी तौर पर राजनैतिक या आर्थिक दिखायी देती है लेकिन यह भी किसी न किसी रूप में सामाजिक आन्दोलन से ही सम्बन्धित होते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्येक आन्दोलन हमारे समाज के ढाँचे और सामाजिक सम्बन्धों में कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर लाता है। यही कारण है कि सामाजिक आन्दोलनों को सामाजिक परिवर्तन के एक प्रमुख स्रोत के रूप में देखा जाता है।

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