सामाजिक आन्दोलन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकार एवं प्रक्रिया

सामाजिक आन्दोलन का अर्थ एवं परिभाषा

समाजशास्त्रियों के अनुसार सामाजिक आन्दोलन सुसंगठित, जानबूझकर किया गया वह प्रयत्न है 'जो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करता है। इस प्रकार के आन्दोलन के सामाजिक संगठन का स्वरूप उतना उग्र या कठोर नहीं होता जितना कि एक सामाजिक समूह (परिवार, गोत्र आदि) में देखा जाता है लेकिन वह उतना शिथिल भी नहीं होता जो एक 'भीड़' में देखा जाता है।

सामाजिक आन्दोलन के बारे में दी इण्टरनेशनल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साईंसेज (1972) में लिखा है, "सामाजिक आन्दोलन, परिवर्तन लाने के सामूहिक प्रयासों का एक प्रकार है। ये प्रयत्न इस बात के हो सकते हैं कि कुछ सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन लाया जाये तथा एक सम्पूर्ण नई सामाजिक व्यवस्था को विकसित किया जाये।"

टर्नर और किलियन (1957) ने सामाजिक आन्दोलन को परिभाषित करते हुए कहा है कि, "सामाजिक आन्दोलन किसी समष्टि (Collectivity) की गतिविधि है, जिसके द्वारा समाज या समूह में आने वाले परिवर्तनों को प्रोत्साहन देना या रोकना होता है।" इस परिभाषा को रोकना भी सामाजिक आन्दोलन का एक लक्ष्य है। एम. एस. ए. राव ने अपनी पुस्तक सोशल मूवमेन्ट एण्ड सोशल ट्रान्सफार्मेशन (1979) में कहा है, "सामाजिक आन्दोलन एक सामूहिक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य विचारों, व्यवहारों और सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाना होता है। यह परिवर्तन किसी न किसी वैचारिकी पर आधारित होता है।"

सामाजिक आन्दोलन की उपरोक्त परिभाषाओं से दो तथ्य स्पष्ट होते हैं- प्रथम सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में किया गया एक सामूहिक प्रयास है, जो एक नवीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पद्धति विकसित करता है। दूसरा सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन रोकने के लिए भी किये जाते हैं।

सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ

सामाजिक आन्दोलन की निम्नलिखित विशेषताएं है-

(i) सामाजिक आन्दोलन वास्तव में एक सामाजिक परिवर्तन है- जो किसी निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। इसीलिए इसे सामाजिक परिवर्तन का जानबूझकर किया गया प्रयास कहा जाता है। यह प्रयास सामाजिक परिवर्तन को एक निश्चित दिशा देता है।

(ii) सामाजिक आन्दोलन जनता की सामूहिक क्रियाओं का परिणाम है- लेकिन हर प्रकार की सामूहिक क्रिया को सामाजिक आन्दोलन नहीं माना जा सकता है, चाहे वह मौजूदा सामाजिक मूल्यों को परिवर्तित करने की दिशा में ही क्यों न हो। उदाहरणार्थ भीड़ में भी जो सामूहिक क्रिया होती है उसे आन्दोलन नहीं कहा जा सकता।

(iii) सामाजिक आन्दोलन अकस्मात् नहीं होता- भीड़ से सामाजिक आन्दोलन इसी अर्थ में भिन्न है। सामाजिक आन्दोलन में अकस्मात् समूहबद्ध होने की प्रक्रिया न होकर एक दीर्घकालिक प्रक्रिया होती है।

(iv) सामाजिक आन्दोलन की एक विशेषता मूल्यों की भागीदारी (Shared Value) है। आन्दोलन में भाग लेने वाले लोग आन्दोलन के समान मूल्यों के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं। ये मूल्य आन्दोलन के लक्ष्यों में निहित होते हैं और इनमें एक निश्चित विचारधारा होती है।

(v) प्रत्येक आन्दोलन के कुछ निश्चित मानदण्ड होते हैं। जैसे- आन्दोलन अहिंसात्मक होगा या हिंसात्मक। इन मानदण्डों के अनुसार ही आन्दोलनकारी अपने विरोधियों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं।

(vi) सामाजिक आन्दोलन में भाग लेने वाले लोगों के मध्य 'हम की भावना' पायी जाती है। आन्दोलन में भाग लेने वाले इस भावना के कारण अपने-आपको एक-दूसरे के नजदीक समझते हैं। इस तरह यह भावना आन्दोलन में भाग लेने वालों को एक सूत्र में बाँधे रखती है।

(vii) सामाजिक आन्दोलन की एक मुख्य विशेषता परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता (Commitment to change) है। सामाजिक आन्दोलन की बहुत बड़ी प्रतिबद्धता सामाजिक परिवर्तन लाने की ओर होती है। इसी कारण आन्दोलनकारी जानबूझकर समाज के प्रचलित मानदण्डों का विरोध करते हैं और यह विरोध उन्हें आन्दोलन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है।

(viii) सामाजिक आन्दोलन की एक निश्चित विचारधारा होती है जिसके आधार पर सामाजिक आन्दोलन के कार्यक्रम निर्धारित होते हैं।

(ix) सामाजिक आन्दोलन के एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर रूपान्तरित होने की सम्भावना भी होती है।

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का एक प्रमुख कारक है। यह सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा का कार्य करता है। अधिकांश विचारकों ने सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में सामाजिक आन्दोलन की भूमिका को स्वीकार किया है। सामाजिक आन्दोलन चाहे कैसा भी हो। यह परिवर्तन अवश्य लाता है। सुधारवादी आन्दोलन से सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में सामान्य परिवर्तन होते हैं एवं वर्तमान संरचनाओं को सुधारने की इच्छा शक्ति होती है। इसी प्रकार पुनरुत्थानवादी आन्दोलन भी महत्वपूर्ण परिवर्तन लाते हैं, जैसे- बहावी आन्दोलन से मुस्लिम सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

यद्यपि सामाजिक आन्दोलन पूर्व निर्धारित सामाजिक परिवर्तन को तो लाते ही हैं, अधिकांशतः इसके कारण सामाजिक संरचना पर संस्कृति में जो बदलाव आता है वह भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होता है।

क्या विचारधारा किसी सामाजिक आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, अतः कोई भी सामाजिक आन्दोलन हो, विचारधारा उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है। विचारधारा लोगों के समूह द्वारा मानने वाले मूल्यों व विश्वासों की वह व्यवस्था है जो व्यक्ति या समूह के कार्यकलापों एवं व्यवहारों को दिशा प्रदान करती है। यह आन्दोलन की अभिव्यक्ति करती है, इसे बनाये रखती है तथा लोगों द्वारा अपनायी गयी क्रियाओं को वैधता प्रदान करती है। जिस प्रकार किसी आन्दोलन के मार्गदर्शन हेतु नेतृत्व आवश्यक होता है उसी प्रकार आन्दोलन के बनाये रखने के लिए विचारधारा भी आवश्यक होती है, क्योंकि यह लोगों को उनकी क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट नहीं करती है अपितु उनका औचित्य भी प्रमाणित करती है।

विचारधारा को आन्दोलन का आधार माना जाता है और बिना विचारधारा के सामाजिक आन्दोलन के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यदि कोई आन्दोलन बिना विचारधारा का हो तो उसका किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँचना कठिन हो जायेगा। विश्व में जितने भी बड़े आन्दोलन हुए हैं उनके पीछे कोई न कोई शक्तिशाली वैचारिकी अवश्य रही। उदाहरणार्थ फ्रांस की क्रान्ति के पीछे स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व की विचारधारा कार्य कर रही थी।

सामाजिक आन्दोलन में समस्या तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए साधनों को अपनाने में अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ मिलती हैं, जिन्हें विचारधारा ही निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, जब महिलाएँ समाज में यौन असमानता की समस्या का अनुभव करती हैं तो वे समाज में मौजूद इन समस्याओं से जूझने के लिए एक सामाजिक आन्दोलन संगठित करती हैं। इन आन्दोलन में सामूहिक क्रिया की प्रकृति क्या होगी, इस बात पर भी निर्भर करेगा कि समस्या को किस रूप में लिया गया एवं देखा गया। क्या इसे पुरुष-महिला समस्या के रूप में देखा जाए या इसे सामाजिक मूल्यों में निहित समस्या के रूप में देखा जाए, इसका निर्धारण विचारधारा से ही होता है।

एक आन्दोलन को दूसरे आन्दोलन से पृथक् करने के अतिरिक्त विचारधारा आन्दोलन को लम्बे समय तक चलाये रखने में सहायता प्रदान करती है। जब भी लोग स्वयं को वंचित अनुभव करते हैं तो विचारधारा ही उन्हें सक्रिय करने में मदद करती है। इस प्रकार विचारधारा सामाजिक आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो आन्दोलनकारियों को सूत्र में बाँधकर कार्य करने में मदद करती है। इतिहास में किये गये आन्दोलनों का यदि विश्लेषण किया जाये तो यह निष्कर्ष निकलता है कि वैचारिकी ही आन्दोलनकारियों में एकजुटता बनाये रखती है। साथ ही नेतृत्वकर्ता भी वैचारिकी ढाँचे के अन्तर्गत ही आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करता है। सामाजिक आन्दोलन के संगठन में कुछ नेता स्वीकार किये जाते हैं और शेष उनके अनुयायी होते हैं। एक सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य होता है किन्तु यह उद्देश्य स्पष्ट ढंग से सुपरिभाषित नहीं होता। इसी कारण आन्दोलनों का प्रारम्भिक स्वरूप लम्बे अन्तराल में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह सामाजिक आन्दोलन एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर स्थानान्तरित हो जाता है। सामाजिक परिवर्तन का प्रतिफल परिवर्तन है किन्तु कुछ परिवर्तन अनचाहे एवं अप्रत्याशित भी होते हैं।"

सामाजिक आन्दोलन के स्वरूप अथवा प्रकार

आन्दोलनों के स्वरूप पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक अध्ययन हुए हैं और हो रहे हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इसे अग्र दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • कुछ आन्दोलन 'संस्थाओं' से सम्बन्धित हैं। जैसे- आर्थिक जीवन में, 'मजदूर आन्दोलन' अथवा शिक्षण संस्थाओं में 'छात्र आन्दोलन'।
  • कुछ आन्दोलन अपनी विशेषताओं के कारण अन्य से पृथक् होते हैं यथा आधुनिक समय में युवा आन्दोलन, महिला मुक्ति आन्दोलन।

एक तथ्य यह भी है कि एक विशेष आन्दोलन को एक ही वर्ग में रखना कठिन होता है, क्योंकि अध्ययनकर्ता अपने सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में उन्हें जिस वर्ग में वर्गीकृत करता है, वह उसका स्वयं का दृष्टिकोण होता है। यही कारण है कि समाजशास्त्रियों ने आन्दोलनों को शक्ति, मूल्य तथा प्रतिफल के आधार पर वर्गीकृत किया है।

सामाजिक आन्दोलनों को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकारों में विभाजित किया है। जहाँ जोनार्थन टर्नर ने सामाजिक आन्दोलन को सुधार आन्दोलन, क्रान्तिकारी आन्दोलन, प्रक्रियावादी आन्दोलन और अभिव्यंजक सामाजिक आन्दोलन के रूप में वर्गीकृत किया है।

यद्यपि विभिन्न विचारकों द्वारा आन्दोलन के भिन्न-भिन्न प्रकारों का अथवा स्वरूपों का उल्लेख किया गया है, फिर भी आन्दोलन के उद्देश्य, संगठन एवं उद्देश्यों के आधार पर सामाजिक आन्दोलनों को निम्नांकित रूपों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) क्रान्तिकारी आन्दोलन- इस आन्दोलन में स्थापित सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया जाता है तथा इसका स्थान दूसरी व्यवस्था ले लेती है। इस आन्दोलन का उद्देश्य सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की पुनर्संरचना होता है। ये वर्तमान प्रतिमानों को चुनौती देते हैं तथा एक नई मूल्य व्यवस्था प्रस्तुत करते हैं। इनका तर्क यह होता है कि हमारी प्रचलित सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से सड़-गल गयी है, इसे उखाड़ फेंकना ही सामाजिक हित में है। फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति इसी तरह के आन्दोलन रहे हैं।

(ii) सुधार आन्दोलन- सुधार आन्दोलन ने सामूहिक प्रयास होते हैं जिनका उद्देश्य समाज में सीमित परिवर्तन लाना होता है। इस तरह के आन्दोलन समाज को पूर्ण रूप से बदलने के पक्ष में नहीं होते अपितु उसके एक विशिष्ट भाग को परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं। आर्य समाज आन्दोलन, सूफी आन्दोलन, भक्ति आन्दोलन आदि सुधार आन्दोलन की श्रेणी में आते हैं।

(iii) धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन- यह यदि आन्दोलन सम्पूर्ण समाज या इसके किसी एक भाग की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए किया जाता है तो इसे धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन कहा जाता है। इस तरह के आन्दोलनों में विभिन्न वर्गों एवं श्रेणियों के लोग भाग लेते हैं।

(vi) प्रतिक्रियावादी आन्दोलन- यह आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन को रोकने के उद्देश्य से चलाये जाते हैं। ऐसे आन्दोलनों की प्रकृति रूढ़िवादी होती है। यह आन्दोलन क्रान्तिकारी आन्दोलन से इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ क्रान्तिकारी आन्दोलन पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहता है, वहीं प्रतिक्रियावादी आन्दोलन अपनी प्रचलित व्यवस्था को बनाये रखने के पक्ष में होता है, लेकिन दोनों ही आन्दोलन हिंसात्मक गतिविधियों को अपनाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इस्लामिक फण्डामेन्टलिस्ट मूवमेंट तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इसके प्रतिक्रियावादी आन्दोलन ही थे।

(v) धार्मिक आन्दोलन- दक्षिण भारत में एस.एन.जी.जी. आन्दोलन और पंजाब में अकाली आन्दोलन धार्मिक आन्दोलन की श्रेणी में आते हैं।

सामाजिक आन्दोलन के चरण अथवा प्रक्रिया

साधारणतया आन्दोलन एक जीवन घटनाचक्र के रूप में होते हैं। जिस तरह मानव-जीवन का चक्र (बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था) में है, उसी तरह आन्दोलन जन्म लेते हैं, पनपते हैं, अन्त में समाप्त हो जाते हैं अर्थात् उनका प्रतिफल परिवर्तन के रूप में समाप्त हो जाता है।

अतः प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन निम्न अवस्थाओं से होकर गुजरता है-

(i) आरम्भिक अवस्था- कुछ लोग संगठित होकर किसी उद्देश्य अथवा मुद्दों से प्रेरित होकर समस्या निदान के बारे में सोचते हैं और विचार-विमर्श करते हैं। इसके बाद यह तय किया जाता है कि क्या जरूरी है।

(ii) दूसरी अवस्था- समाज के अन्य लोगों की प्रक्रियाएँ उक्त आन्दोलनों के पक्ष में भी जाती हैं और विपक्ष में भी। यदि आन्दोलन सहनीय होता है तो आगे बढ़ता है अर्थात् यह तीसरी अवस्था में पहुँचता है। यदि लोगों द्वारा असहनीय होता है तो आन्दोलन का दूसरा चरण लुप्त नहीं होता अपितु और घोर रूप से संगठित हो जाता है। इसके बाद की अवस्था 'चरम अवस्था' की आती है और आन्दोलन क्रान्तिकारी रूप ले लेता है जिसके प्रतिफल निम्नांकित हो सकते हैं-

कोई भी आन्दोलन समाज के द्वारा स्वीकृत भी हो सकता है और अस्वीकृत भी। फिर भी इसके तीन प्रतिफल सामने आते हैं-

  • आन्दोलन असफल हो जाता है।
  • आन्दोलन का प्रारम्भिक उद्देश्य परिवर्तित हो सकता है और वह नये उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ता है।
  • आन्दोलन अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल होता है।

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