राष्ट्रवाद क्या है- उदारवादी एवं उग्रवादी राष्ट्रवाद

राष्ट्र‌वाद

राष्ट्रवाद एक विचारधारा, देश के प्रति अटूट प्यार, राष्ट्रीभावना और एक प्रकार की सोच है। जिसमें जो व्यक्ति अहम से ज्यादा राष्ट्र प्रेम की भावना में विश्वास रखता है ऐसे व्यक्तियों की सोच को सामान्यतः राष्ट्रवादी व्यक्ति कहा जाता है अर्थात् वह स्वहित से पहले राष्ट्रहित के बारे में सोचते हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा या सोच राष्ट्र के प्रति अटूट प्रेम व विश्वास को दर्शाती है।

उदारवादी राष्ट्रवाद

अपने प्रारम्भिक वर्षों में काँग्रेस सम्पूर्ण रूप से उदारवादी नेताओं के प्रभाव में थी, जिनका विश्वास विशुद्ध वैधानिक साधनों में था और जिनके आन्दोलन का लक्ष्य यही था कि भारतीय शासन व्यवस्था में थोड़े बहुत सुधार कर दिये जायें। काँग्रेस के प्रारम्भिक दो दशकों (1885-1905) का नेतृत्व करने वाले उदारवादी नेताओं में उमेशचन्द्र बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, आर. सी. दत्त, इत्यादि प्रमुख हैं। ये सब पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा में पले थे, अतः ब्रिटिश शासन की उदारता, न्यायप्रियता में इनका अटूट विश्वास था। वे भारत पर ब्रिटेन के शासन को सौभाग्यपूर्ण समझते और ब्रिटेन के प्रति स्वामिभक्ति रखते थे।

उदारवादियों के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं- 

प्रथम, ब्रिटिश न्यायप्रियता में विश्वास- काँग्रेस के उदारवादी नेताओं का यह दृष्टिकोण था कि अंग्रेज न्यायप्रिय, सभ्य और उदार जाति है। अतः हमें अधिक कुशलता से भारत की आवश्यकताएँ शासकों के सम्मुख रखनी चाहिए। उनका विश्वास था कि भारत में ब्रिटिश शासन एक वरदान सिद्ध हुआ है तथा भारतीय पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क से लाभान्वित हुए हैं। 

द्वितीय, राजभक्ति- प्रारम्भिक काँग्रेस के नेता राजभक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करते थे। ब्रिटिश 'ताज' की राजभक्ति उनका प्रधान सिद्धान्त था। वे ब्रिटिश शासन का विरोध तथा विद्रोह कदापि पसन्द नहीं करते थे।

तृतीय, ब्रिटिश संस्थाओं की श्रेष्ठता में विश्वास- उदारवादी नेता ब्रिटिश संस्थाओं की उत्कृष्टता में विश्वास रखते थे और भारत के लिए उसी ढांचे का संस्थागत विकास चाहते थे। 

चतुर्थ, भारत और इंग्लैण्ड के हितों की सम्बद्धता- उदारवादी नेता भारत और इंग्लैण्ड के हितों में घनिष्ठ सम्बन्ध मानते थे। उनके अनुसार भारत का उत्थान और उन्नति शासन के साथ सहयोग करने पर ही निर्भर करती है।

उग्रवादी राष्ट्रवाद

सन 1905 से भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास में युगान्तरकारी परिवर्तन आया और राष्ट्रीय आन्दोलन तीन विचारधाराओं में बँट गया- उदारवादी, उग्रवादी और क्रान्तिकारी इस समय भारत तथा विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं जिनके कारण भारतीय जीवन में नूतन भावनाओं का प्रादुर्भाव हुआ और भारतीय राष्ट्रीयता अपनी बाल्यावस्था छोड़कर तरुणाई लेने लगी। यद्यपि काँग्रेस पर उदारवादियों का प्रभाव बना रहा तथापि लाल, पाल और बाल के नेतृत्व में उग्र दल पनपने लगे।

उग्रवादी राष्ट्रवाद के उदय के प्रमुख निम्नलिखित कारण थे- 

प्रथम, ब्रिटिश शासन की प्रतिक्रियावादी नीति- ब्रिटेन में अनुदार दल का शासन था और भारत के प्रति उनकी नीतियाँ प्रगतिशील न होकर प्रतिक्रियावादी थीं। 1892 के अधिनियम द्वारा जो भी सुधार किये गये थे, वे अपर्याप्त और निराशाजनक थे। शासन ने इस अवधि में जो नीति अपनायी तथा जो सुधार किये, उससे जनता बहुत क्षुब्ध हो उठी। 

द्वितीय, उदारवादियों की पद्धति से असन्तोष- उदारवादियों ने वैधानिक तथा शान्तिपूर्ण प्रार्थना-पत्र, स्मृति-पत्र भेजने की नीति अपनायी थी जिसके तथ्यपूर्ण परिणाम न निकले। उदारवादियों की राजनीतिक भिक्षावृत्ति की नीति से युवक-वर्ग निराश हो गया था और जन-आन्दोलन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। 

तृतीय, काँग्रेस की मांगों की उपेक्षा- 1885 के बाद से काँग्रेस ने प्रतिवर्ष अपने अधिवेशनों में परिषद के विस्तार, निर्वाचन, शासन नियन्त्रण सम्बन्धी अधिकार, परिषद के कार्य क्षेत्र में वृद्धि इत्यादि की मांगें प्रस्तुत कीं। परन्तु सरकार ने काँग्रेस की मांगों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। लाला लाजपतराय के शब्दों में, "शिकायतें दूर करने और रियायतें प्राप्त करने के बीस वर्षों के कम अधिक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उन्हें रोटी के स्थान पर पत्थर ही प्राप्त हुए थे।" 

चतुर्थ, सरकार की अर्थनीति- इस समय सरकार द्वारा भारत विरोधी अर्थनीति अपनायी जा रही थी। शासन की भारत विरोधी नीति के कारण भारतीय उद्योग-धन्धे प्रायः नष्ट हो गये। भारतीय मिलों पर साढे तीन प्रतिशत उत्पादन कर लगा दिया गया जिससे देशी माल मंहगा हो गया और विदेशी सामान सस्ते दामों पर बिकने लगा।

पंचम, अकाल और प्लेग- अकाल और प्लेग जैसे प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करने में सरकार असफल रही, उससे जनता के रोष की सीमा न रही। 1897 में बम्बई में अकाल पड़ा जिसमें लाखों व्यक्ति प्रभावित हुए। शासन ने भुखमरी से पीड़ित व्यक्तियों की सहायता करने में शिथिल नीति अपनाई। 1898 में बम्बई में प्लेग फैला और सरकार ने डॉक्टरों के बजाय सैनिकों को सेवा कार्य सौपा। सैनिकों के दुर्व्यवहार से जनता क्षुब्ध हो गयी। 

षष्ठम, धार्मिक तथा सामाजिक कारण- इस समय भारत में धार्मिक पुनर्जागरण हो रहा था और इनके उन्नायक भारतीय सभ्यता और संस्कृति को उत्कृष्टतम मानते थे। वे विदेशी शासन को भारत के हितों के प्रतिकूल मानते थे। विवेकानन्द स्वतन्त्रता के अभाव में भारत का आध्यात्मिक उत्थान असम्भव मानते थे। श्रीमती एनी बीसेण्ट के अनुसार, "समस्त हिन्दू व्यवस्था पाश्चात्य सभ्यता से बढ़कर है।" 

सप्तम, लॉर्ड कर्जन का प्रतिगामी शासन- लॉर्ड कर्जन सन 1889 से 1905 तक भारत के वायसराय थे। वे एक दर्पपूर्ण साम्राज्यवादी व्यक्ति थे। 

गोखले के अनुसार, "कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही कार्य किया जो मुगल साम्राज्य के लिए औरंगजेब ने किया था।" कर्जन ने केन्द्रीकरण की नीति अपनाई और 1899 में कलकत्ता कॉरपोरेशन अधिनियम पारित करके उसकी स्वायत्तता पर प्रहार किया। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पास कर विश्वविद्यालयों का सरकारीकरण किया गया। कर्जन की सीमा-नीति, तिब्बत, फारस की खाड़ी तथा चीन में सेनाएँ भेजना आदि घटनाओं से भारतीयों के आक्रोश में वृद्धि हुई। 

अष्टम, बंग-भंग योजना- कर्जन के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय घटना बंगाल का विभाजन था। इससे विदेशी शासन-सत्ता के विरुद्ध रोष और क्षोभ की ज्वाला भड़क उठी। सारे देश में एक सुसंगठित एवं अनुशासित आन्दोलन फूट पड़ा। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए आन्दोलन शुरू हुआ। 16 अक्टूबर, 1905 के दिन सारे बंगाल में भूख हड़ताल तथा शोक-दिवस मनाया गया।

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