मानव शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग हृदय है जो अपने अन्दर रक्त को एकत्र करने तथा सम्पूर्ण शरीर में रक्त संचार करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।
रक्त परिसंचरण तन्त्र को हृदय-तन्त्रिकातन्त्र कहा जाय तो अधिक उचित होगा। हृदय की शक्ति के बिना रक्त का परिभ्रमण कदापि सम्भव नहीं। हृदय इस तन्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग ही नहीं वरन् रक्त संचालन संस्थान का केन्द्र है। हृदय रुचिर को रक्त की नलियों में प्रभावित करके शरीर के सभी अंगों को पोषित करता है। सम्पूर्ण शरीर की रक्त नलियों में समान गति से निरन्तर रक्त-प्रवाह होता रहे इसके लिए आवश्यक है कि इसे कोई एक शक्ति प्रवाहित करे। यह शक्ति हृदय प्रदान करता है। इनमें बलपूर्वक रक्त को पम्प (Pump) करने की क्षमता है। सामान्य दशा में इससे रक्त निरन्तर एक समान गति से प्रवाहित होता रहता है।
हृदय रक्त को रक्त धमनियों में पम्प करता है जो बार-बार विभाजित होकर बारीक शाखाओं के रूप में समस्त शरीर में अपना जाल फैला देता है। वे शरीर के सूक्ष्मतम भागों में रुधिर ले जाकर उनको भोजन एवं ऑक्सीजन गैस पहुँचाती है। वहाँ से लौटते समय उनमें उत्पन्न हुए निरर्थक पदार्थ और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस आदि हानिकारक पदार्थों को रक्त के साथ ले आती है। रक्त परिसंचरण तन्त्र इन महत्वपूर्ण कार्यों को अत्यन्त सफलतापूर्वक करता है।
रक्त संचालन क्रिया को समझने के लिए हृदय तथा रक्त-वाहिनियों की बनावट तथा कार्य की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है।
रक्त परिसंचरण तंत्र
रक्त शरीर में न तो एक निश्चित स्थान पर रहता है और न ही एक अंग में एकत्रित रहता है, न ही रक्त नलिकाओं में केवल भरा रहता है, बल्कि यह निरन्तर सम्पूर्ण शरीर में चक्कर लगाता रहता है। बदय से रक्त के एक बार पम्प करने के पश्चात् पुनः पम्प करने के मध्य के समय में रक्त के सम्पूर्ण शरीर में एक चक्कर पूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार एक मिनट में 72 बार हृदय रक्त को पम्प करने, झटके के साथ बाहर निकालता है। अतः रक्त का चक्कर भी एक मिनट में 72 बार होता है जो जीवन पर्यन्त चलता रहता है। (रोग की विशेष अवस्थाओं को छोड़कर)। अनः सम्पूर्ण शरीर में रक्त के बार-बार चक्कर लगाने को रक्त परिसंचरण या परिभ्रमण (Circulation of Blood) कहते हैं।
रक्त परिसंचरण में भाग लेनेवाले अंग हैं, जो निरन्तर कार्यरत रहकर मानव को जीवित रखता है। यदि तीन मिनट के अन्दर हृदय से मस्तिष्क को रक्त न मिले तो मस्तिष्क अपना कार्य बन्द कर देता है, जिसका परिणाम होता है व्यक्ति की मृत्यु।
हृदय बक्षगुहा में उरोस्थि के कुछ नीचे दोनों फेफड़ों के मध्य में कुछ दायीं ओर हटकर स्थित होता है तथा पसलियों के पिंजरे में पूर्ण सुरक्षित रहता है। इसका आकार एक बन्द मुष्डी या नाशपाती के समान होता है, जिसका नुकीला भाग नीचे की ओर होता है।
एक स्वस्थ व्यक्ति के हृदय का भार लगभग 300 ग्राम होता है। लम्बाई लगभग 13 सेमी० तथा चौड़ाई 9 सेमी० होता है। इसका सामने का भाग कुछ उभरा हुआ गोल-सा तथा पीछे का भाग चिपटा होता है। इसका रंग गहरा लाल या बैंगनी होता है।
हृदय पुष्ट अनैच्छिक पेशियों से बना रहता है, जिससे यह स्वतः कार्यरत रहता है। हृदय के ऊपर एक महीन रेशेदार तन्तुओं का पारदर्शक आवरण चढ़ा होता है जिसे हृदय आवरण (Pericardium) कहते हैं तथा इसके नीचे एक श्लेष्मिक झिल्ली की तरह होती है जिसमें से एक प्रकार का तरल पदार्थ स्स्रावित होता रहता है जिससे हृदय आस-पास के अंगों की रगड़ से भी बचा रहता है। इस श्लेष्मिक तह को अधिहृदय स्तर अथवा एपीकार्डियम (Epicardium) कहते हैं।
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हृदय की आन्तरिक रचना-
हृदय की आन्तरिक रचना को समझने के लिए यदि आप इसे लम्बवत् काटें तो आपको विदित होगा कि हृदय अन्दर से खोखला-सा है जो एक खड़ी मांस सूत्रों की मजबूत पेशी से दायें व बायें दो भागों में विभाजित है। इस पेशी के कारण दोनों भागों का रक्त एक-दूसरे में मिलने नहीं पाता। इनमें से दायाँ भाग बायें भाग की अपेक्षा कुछ मुलायम होता है।
ये दोनों भाग पुनः दो-दो भागों में विभक्त हो जाते हैं, जिन्हें 'कोष्ठ' कहते हैं। यह कोष्ठ ऊपर-नीचे होते हैं, जिनके मध्य में एक प्रकार के कपाट लगे होते हैं, जिन्हें वॉल्व (Volves) कहते हैं तथा ऊपरी कोष्ठ को अलिन्द या कोष्ठ (Auricle) तथा निचले कोष्ठ को निलय ग्राहक र्या क्षेपक कोष्ठ (Ventricle) कहा जाता है।
हृदय में दो अलिन्द व दो निलय होते हैं। दोनों अलिन्द व निलय के मध्य लगे हुए कपाट कमीज की जेबों की भाँति होते हैं, जिससे अलिन्द का रक्त निलय में तो आ जाता है, किन्तु वापस अलिन्द में नहीं जाने पाता। दायीं ओर कपाट त्रिपर्वी (Tricuspid) होते हैं तथा बायीं ओर के द्विपदीं (Bicuspid) होते हैं, जिनके मुख नीचे की ओर होते हैं।
ऊपर के अलिन्द रक्त से भर जाने पर कपाटों पर दबाव डालते हैं, जिससे वे खुल जाते हैं तथा रक्त को निलय में भेजने के पश्चात् बन्द हो जाते हैं। दोनों अलिन्द व दोनों निलय एक-दूसरे के विपरीत साथ-साथ कार्य करते हैं अर्थात् एक साथ दोनों अलिन्द रक्त से भरते हैं फिर कपाटों के खुलने से दोनों निलय में एक साथ रक्त आता है। हृदय के दायें भाग में अशुद्ध रक्त या बायें में शुद्ध रक्त होता है।
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रक्त नलिकाएँ-
हृदय के कोष्ठों में कुछ छिद्र होते हैं जिनमें से होकर कुछ रक्त नलिकाएँ अन्दर प्रवेश करती हैं तथा कुछ हृदय से बाहर की ओर निकलती हैं। ये नलिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं
(अ) धमनियाँ (Arteries), (ब) केशिकाएँ (Capillaries), (स) शिराएँ (Venins)।
(अ) धमनियाँ (Arteries)- धमनियों मांसपेशियों की बनी हुई लचीली नलिकाएँ होती हैं जिनकी दीवारें कुछ मोटी होती हैं। हृदय से शुद्ध रक्त लेकर निकलने तथा अंगों को रक्त पहुँचाने वाली नलियाँ 'धमनी' कहलाती है। इनमें ऑक्सीजन युक्त रक्त होने के कारण रक्त का रंग चमकीला लाल होता है। इनमें रक्त झटके के साथ तीव्र गति से लहरों की भाँति प्रवाहित होता है क्योंकि यह रक्त सीधा हृदय से ही आता है। जैसे-जैसे ये धमनियाँ आगे बढ़ती हैं ये अनेक शाखाओं एवं प्रशाखाओं में बंट जाती हैं, जिन्हें धमनिकाएँ (Arterioles) कहते हैं। इनका सम्पूर्ण शरीर में जाल-सा बिछा है जिससे ये समस्त शरीर का पोषण करती हैं।
(ब) केशिकाएँ (Capillaries)- धमनिकाएँ आगे विभक्त होते-होते इतनी सूक्ष्म नलिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं कि इनकी दीवारों में मांसपेशियाँ न होकर कोशिकाओं से निर्मित होकर जाली की समान आयत झिरझिरी हो जाती हैं। कुछ केशिकाएँ तो बाल की मोटाई के बराबर होती हैं। यही कारण है कि इनकी दीवारों से होकर ऑक्सीजन तथा तरल पोषक द्रव सरलता से केशिकाओं के अन्दर प्रविष्ट हो जाता है तथा अन्दर से अशुद्धियाँ लेकर बाहर वापस आ जाता है। सम्पूर्ण शरीर में केशिकाओं का जाल बिछा है। इन्हीं केशिकाओं के कारण मांसपेशी का रंग लाल होता है। हल्की चोट लगने व सुई चुभने से जो रक्त निकलता है वही इन्हीं केशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने पर निकलता है।
धमनी की शाखाओं द्वारा विभाजित इन केशिकाओं में शुद्ध रक्त बहता है, अतः इन्हें धमनी केशिकाएँ भी कहते हैं। वास्तव में शरीर को पोषक तत्त्व तथा ऑक्सीजन इन्हीं केशिकाओं द्वारा प्राप्त होती है। तत्पश्चात् इनके पोषक तत्त्व समाप्त हो जाते हैं उनके स्थान पर इनमें केशिकाओं द्वारा उत्पन्न (ऑक्सीकरण की क्रिया के फलस्वरूप) विजातीय तत्त्व तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस मिल जाती है जिससे इनका रक्त अशुद्ध, बैंगनी तथा गाढ़ा-सा हो जाता है। यहाँ से ये केशिकाएँ पुनः आपस में मिलती हुई मोटी नलिकाओं में परिवर्तित होकर शिराएँ कहलाने लगती हैं जो अशुद्ध रक्त लेकर हृदय के दाहिने अलिन्द में प्रवेश करती हैं।
(स) शिराएँ (Venis)- कोशिकाओं द्वारा विभिन्न ऊतकों को पोषक तत्व प्रदान करने के पश्चात् इनका कार्य समाप्त हो जाता है। ये परस्पर मिलकर शिराओं का रूप धारण कर लेती हैं।
शिराओं की दीवारें धमनी की भाँति लचीली व उतनी दृढ़ मांसपेशियों वाली नहीं होती। इनमें रक्त बहुत धीमी व समान गति से प्रवाहित होता है। कुछ बड़ी शिराओं में कहीं-कहीं छोटे-छोटे कपाट लगे होते हैं जो रक्त को उल्टी दिशा में प्रवाहित होने से रोके रहते हैं।
यदि आप अप्रबाहु पर कसकर बन्द बाँध दें तो करपृष्ठ पर नीली-नीली सी नलिकाएँ जो कि शिराओं का उदाहरण है, स्थान-स्थान पर फूली-सी दिखायी देंगी। यह कपाटों के कारण ही होता है।
शिराएँ अशुद्ध रक्त को लेकर आगे बढ़ती हैं तथा अशुद्ध रक्त को शुद्ध करने के लिए हृदय के दाहिने अलिन्द में प्रवेश करती हैं।
मूल धमनी, हृदय धमनी तथा निम्न व उच्च महाशिराएँ
मूल धमनी (Aorta)-
हृदय के बायें निलय से शुद्ध रक्त लेकर शरीर की एक सबसे मोटी नलिका हृदय से बाहर निकलती है जिसे मूल धमनी कहते हैं। यह हृदय से कुछ ऊपर पहुँचकर एक मेहराब सा बनाती हुई मुड़कर नीचे की ओर मुड़ती है। मेहराब वाले भाग से मूल धमनी की तीन शाखाएँ निकलती हैं-
- पहली शाखा कुछ आगे बढ़कर पुनः दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। एक शाखा दाहिनी भुजा में तथा दूसरी ग्रीवा के दाहिनी ओर से सिर में रक्त पहुंचाती है।
- मूल धमनी की दूसरी शाखा प्रीवा के बायीं ओर से सिर तथा चेहरे में रक्त पहुँचाती है।
- तीसरी शाखा बायीं भुजा में रक्त ले जाती है।
गोलाई से मुड़ने के पश्चात् मूल धमनी हृदय के पीछे की ओर से आकर लगभग श्रोणि तक कई शाखाओं में विभक्त होती जाती है। ये शाखाएँ धड व उदर के विभिन्न अंगो- आमाशय, यकृत, प्लीहा, वृक्क, आँतों आदि में रक्त पहुँचाती हैं। श्रोणि के पास पहुँचकर मूल धमनी पुनः दो शाखाओं में बंट जाती है। एक शाखा दाहिनी टाँग में और दूसरी शाखा बायीं टाँग में रक्त पहुँचाती है। मूल धमनी से निकलनेवाली सभी शाखाएँ अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में बैटती हुई अन्त में असंख्य सूक्ष्म कोशिकाओं में विभक्त होकर एक जाल की भाँति सम्पूर्ण शरीर में इस प्रकार फैल जाती है कि इनमें शरीर का कोई भाग अछूता नहीं बचता।
हृदय धमनी (Cononary Arteries)-
शरीर में हृदय एक प्रकार का स्टोर रूम (Store Room) का-सा कार्य करता है अर्थात् सम्पूर्ण शरीर में रक्त पहुंचाने की उसी प्रकार व्यवस्था करता है जिस प्रकार एक जल-कल विभाग पाइपों के द्वारा पूरे शहर में जल आपूर्ति की व्यवस्था करता है, किन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि हृदय की पेशियों को भी पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, बल्कि यह कहना भी अनुचित न होगा कि हृदय एक ऐसा अंग है जो सम्पूर्ण शरीर के हित में निरन्तर कठिन परिश्रम करता है, अतः इसे तो कहीं अधिक पोषक तत्व मिलना चाहिए। किन्तु हृदय के पास रक्त का इतना बड़ा खजाना होते हुए भी वह उसमें से अपना भी पोषण करने का अधिकारी नहीं है, बल्कि उसे अपने पोषण के लिए अन्य नलिकाओं पर निर्भर रहना पड़ता है।
अतः मूल धमनी जैसे ही निलय से निकलती है उसमें से छोटी-छोटी दो शाखाएं निकलती हैं। एक शाखा हृदय के दाहिने भाग को तथा दूसरी बायें भाग को रक्त पहुंचाकर उनका पोषण करती है।
हृदय धमनी अन्य धमनियों की अपेक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें थोड़ी भी गड़बड़ी होने पर हृदय की क्रिया प्रभावित होती है जिससे सम्पूर्ण रक्त संचार तथा शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। हृदय की गति बन्द होना अथवा हृदय में तीव्र पीड़ा होना आदि इसी हृदय धमनी में गड़बड़ी या बाधा के कारण उत्पन्न होता है जिसका घातक परिणाम मृत्यु के रूप में सामने आता है।
कभी-कभी किसी कारणवश हृदय धमनी हृदय के किसी भाग में रक्त पहुँचाने में असमर्थ हो जाती है तो हृदय के उस भांग की कार्यशीलता में अन्तर आ जाता है अथवा पीड़ा आदि होने लगती है। ऐसी स्थिति में इलेक्ट्रोकॉर्डियोग्राम (Electrocardiogram) करवाना चाहिए। यह एक ऐसी आधुनिक चिकित्सा है जिससे हृदय की आन्तरिक स्थिति का बहुत शीघ्र पता चल जाता है।
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निम्न व उच्च महाशिराएँ (Superior and Inferior Venacave)-
जैसा कि आपको विदित है कि हृदय के दाहिनी अलिन्द एवं निलय का सम्बन्ध अशुद्ध रक्त से होता है। रक्त परिसंचरण का एक चक्कर पूर्ण होने पर सम्पूर्ण शरीर का अशुद्ध रक्त लाने वाली मुख्य दो शिराएँ होती हैं।
1. उच्च महाशिरा (Superior Venacave)- यह महाशिरा ऊर्ध्व महाशिरा भी कहलाती है क्योंकि इसके द्वारा शरीर के ऊपरी भागों जैसे-सिर, गर्दन, हँसली व बाँहों आदि का अशुद्ध रक्त एकत्र होकर अलिन्द में आता है।
2. निम्न महाशिरा (Inferior Venacave)- इसे निम्न महाशिरा भी कहते हैं। यह शरीर के निचले भागों की शिराओं से मिलती हुई एक बड़ी शिरा के रूप में बन जाती है। इसे अधो महाशिरा भी कहते हैं। ये शरीर के निचले मुख्य अंगों जैसे-यकृत, गुदाँ, पैरों व जाँघों आदि से अशुद्ध रक्त लाती है।
दोनों महाशिराएँ सम्पूर्ण शरीर का अशुद्ध रक्त हृदय के दाहिने अलिन्द में पहुँचाता है। वहीं से दायें निलय से होता हुआ अशुद्ध रक्त फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए भेज दिया जाता है।
धमनी व शिरा में अन्तर (Difference Between Artery and Vein)
धमनी |
शिरा |
1. धमनी में चमकीले लाल रंग का शुद्ध रक्त होता है
जिससे वे लाल दिखायी पड़ती हैं। 2. धमनियाँ अधिकांश रूप से मांसपेशियों की गहराई
में होती हैं। 3. धमनी के रक्त का प्रवाह हृदय से अंगों की ओर
होता है। 4. धमनी की दीवारें अत्यन्त लचीली होती हैं, अतः ये चिपकती नहीं। 5. धमनी में रक्त हृदय की गति से प्रभावित होने के
कारण झोंके से आता है, अतः रक्त की गति
लहर की भाँति होती है। 6. धमनी में रक्त का दबाव अधिक होता है। 7. केवल फुफ्फुसीय धमनी में अशुद्ध रक्त होता है।
फुफ्फुसों में रक्त ले जाने के कारण इसे धमनी कहा जाता है। 8. धमनी में दबाव बिन्दु या नाड़ी स्पन्दन के
स्थान होते हैं। 9. धमनियाँ विभाजित होते-होते असंख्य कोशिकाओं के रूप में उसी प्रकार परिवर्तित हो जाती हैं जिस प्रकार वृक्ष मोटे तने से आरम्भ होकर बारीक शाखाओं में विभाजित हो जाता है। |
1. शिराओं में अशुद्ध रक्त होने के कारण इनका रंग
नीला-सा होता है। 2. शिराएँ त्वचा के समीप होती हैं, उन्हें त्वचा के ऊपर देखा जा सकता है। 3. शिराओं में रक्त का प्रवाह अंगों से हृदय की ओर
होता है। 4. शिराओं की दीवारें कुछ कड़ी होने के कारण रक्त
प्रवाह की शिथिलता के कारण चिपक-सी जाती हैं। 5.शिराओं में रक्त का प्रवाह समान गति से धीरे-
धीरे होता है। 6. शिराओं में रक्त का दबाव कम होता है। 7. केवल फुफ्फुसीय शिराओं में शुद्ध रक्त होता है।
ये शिराएँ फुफ्फुसों से शुद्ध रक्त लेकर बाहर निकालती हैं। अतः इसे शिरा कहा
जाता है। 8. शिराओं में ऐसी व्यवस्था नहीं होती है। 9. शिराएँ बारीक कोशिकाओं के परस्पर मिलने से अन्त
में दो बड़ी शिराओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं।
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हृदय के कार्य
हृदय रक्त परिसंचरण का मुख्य अंग है। यद्यपि इस कार्य में अन्य अंग भी सहयोग प्रदान करते हैं किन्तु हृदय के कुछ कार्य इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनके बिना रक्त परिसंचरण का कार्य सम्पत्र होना असम्भव है। वे कार्य निम्न प्रकार हैं-
- रक्त परिसंचरण के लिए निरन्तर रक्त के तीन प्रवाह की आवश्यकता होती है। अतः हृदय पम्प की भाँति निरन्तर झोंकों से रक्त प्रवाहित करता रहता है, जिससे शरीर के सभी भागों में रक्त पहुंचने में सुविधा होती है।
- हृदय से निकला हुआ शुद्ध रक्त परिसंचरण करता हुआ कोशिकाओं द्वारा शरीर के प्रत्येक सूक्ष्म कोशिकाओं को पोषक तत्त्व व ऑक्सीजन प्रदान कर देता है तब यही रक्त कोशिकाओं में हुई रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न अनेक विजातीय तत्त्वों से युक्त होकर पुनः हृदय में वापस आता है। हृदय का दूसरा कार्य इस रक्त को फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए वापस भेजना होता है।
- फेफड़ों में शुद्ध हुआ रक्त पुनः हृदय के बायें निलय में वापस आ जाता है, जिससे हृदय पुनः उस शुद्ध रक्त परिसंचरण के लिए पम्प करके मूल धमनी में भेजता रहता है।
- इस प्रकार शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर में पहुंचाने तथा अशुद्ध रक्त को पुनः परिसंचरण के लिए फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए भेजने का कार्य अनवरत गति से होता है।
- पूरे शरीर में एक रक्त परिसंचरण पूरा होने में लगभग 25-30 सेकेण्ड लगते हैं।
रक्त परिसंचरण (Blood Circulation)
हृदय से शुद्ध झोंके के साथ निकलकर सम्पूर्ण शरीर में चक्कर लगाने के बाद पुनः अशुद्ध रक्त के रूप में हृदय में वापस लौटता है तथा यह क्रिया लगातार होती रहती है। इस क्रिया को रक्त परिसंचरण (Circulation of Blood) कहते हैं। विस्तार से रक्त परिसंचरण क्रिया का विवरण निम्न प्रकार है-
हृदय से शुद्ध रक्त सर्वप्रथम मूल धमनी में झोंके के साथ आता है जो आगे-आगे बढ़ता हुआ शरीर भर में चक्कर लगाकर कोशिकाओं को पोषक तत्व प्रदान करके उनके विजातीय तत्वों को अपने अन्दर ग्रहण करने के कारण अशुद्ध होकर पुनः वापस लौटता है। इस समय विभिन्न अंगों से एकत्र करके दो बड़ी शिराओं द्वारा हृदय के दाहिने अलिन्द में पहुँचा दिया जाता है। उच्च महाशिरा ऊपरी अंगों तथा निम्न महाशिरा निचले अंगों का अशुद्ध रक्त एकत्र करती है। इन शिराओं के अलिन्द में प्रवेश करने के पश्चात् अशुद्ध रक्त बापस शिराओं में नहीं आने पाता। इसका कारण यह है कि शिराओं व अलिन्द के संगम स्थान पर ऐसे कपाट लगे हैं जो अलिन्द में रक्त आने से पूर्व रक्त के दबाव से खुल जाते हैं तथा रक्त के अलिन्द में आते ही तुरन्त बन्द हो जाते हैं।
रक्त से पूरा भर जाने पर दाहिना अलिन्द संकुचित होता है तथा रक्त के दाहिने निलय के मध्य के मार्ग से निलय में भेज देता है। यहाँ पर अलिन्द व निलय के मध्य भी कपाट लगे हैं जिनका मुँह निलय की ओर होता है। इससे रक्त अलिन्द से तो निलय में आ सकता है किन्तु निलय से अलिन्द में वापस नहीं जा सकता।
निलय के अशुद्ध रक्त से भर जाने पर इसमें भी संकुचन होता है, तब यहाँ से रक्त एक बड़ी नलिका द्वारा जो फुफ्फुसीय धमनी कहलाता है, हृदय से बाहर निकलता है। बाहर निकलकर इस धमनी की दो शाखाएँ हो जाती हैं। एक-एक शाखा दोनों फेफड़ों में रक्त को शुद्ध होने के लिए ले जाती हैं।
जिस समय निलय संकुचित होकर रक्त को फुप्फुसीय धमनी में भेजती है, उस समय अलिन्द फैलकर शिराओं द्वारा रक्त से भरने लगता है। इस प्रकार जब अलिन्य में संकुचन होता है तब निलय में प्रसरण तथा जब अलिन्द में प्रसरण होता है तब निलय में संकुचन होता है। इस प्रकार रक्त की गति सदैव एक निश्चित क्रम से होती रहती है।
फुफ्फुसीय धमनी दोनों फेफड़ों में पहुंचकर क्रम से विभक्त होती हुई अन्त में सूक्ष्म कोशिकाओं के रूप में पूरे फेफड़ों में फैल जाती है। फेफड़ों में श्वास द्वारा शुद्ध शुद्ध वायु पहुंचती ती रहती है। फेफड़ों में सूक्ष्म वायु नलिकाओं का भी जाल-सा बिछा होता है। जब शुद्ध वायु कोशिकाओं के अशुद्ध रक्त के सम्पर्क में आती है तो वायु की ऑक्सीजन कोशिकाओं के रक्त द्वारा शोषित कर ली जाती है।
ऑक्सीजन गैस के कारण अशुद्ध रक्त के विजातीय कार्बनिक पदार्थों में ज्वलन क्रिया होती है जिससे कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस उत्पन्न होती है। इस क्रिया को ऑक्सीकरण (Oxidation) कहते हैं। ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कार्बन-डाइ-ऑक्साइड आदि गैस रक्त से बाहर निकलकर फेफड़ों के बीच भरी हुई वायु में मिल जाती है तथा प्रश्वास द्वारा फेफड़ों से बाहर निकल जाती है। इस प्रकार समस्त अशुद्ध रक्त फेफड़ों में शुद्ध हो जाता है।
दोनों फेफड़ों से शुद्ध रक्त दो-दो फुफ्फुसीय शिराओं द्वारा हृदय के बायें अलिन्द में पहुँचता है। बायें अलिन्द के भर जाने पर इसमें संकुचन होता है तथा यहाँ भी अलिन्द व निलय के मध्य लगा हुआ त्रिपर्वी कपाट खुल जाता है तथा निलय में रक्त भरने लगता है। निलय के रक्त से भर जाने पर रक्त हृदय से बाहर जाने का प्रयत्न करता है। इस समय हृदय के दायें व बायें अलिन्द व निलय के मध्य के कपाट तो बन्द रहते हैं, अतः निलय के संकुचन से रक्त वापस न जाकर महाधमनी जो बायें निलय से आरम्भ होती है, के पास लगा हुआ अर्द्ध-चन्द्राकार कपाट खुल जाता है तथा रक्त झोंके के साथ मूल धमनी में चला जाता है।
मूल धमनी से विभिन्न शाखाएँ निकलती हैं जो पुनः असंख्य सूक्ष्म शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त होकर सम्पूर्ण शरीर में रक्त पहुंचाती हैं।
शरीर के समस्त भागों को धमनियों द्वारा रक्त पहुँचाया जाता है। वह रक्त जब धमनी की सूक्ष्म शाखाओं अर्थात् केशिकाओं में प्रवेश करता है तो केशिकाओं की अत्यन्त महीन व जालीदार दीवारों में से प्लाज्मा अर्थात् रक्तवारि छन-छानकर बाहर आ जाता है तथा प्रत्येक ऊतक रक्तवारि में से अपने योग्य पोषक तत्व व ऑक्सीजन ग्रहण कर लेते हैं तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड व अन्य विजातीय पदार्थ जैसे- यूरिया, यूरिक एसिड व लवण आदि रक्त को दे देते हैं जिससे रक्त चमकीले लाल रंग से बैंगनी रंग में परिवर्तित हो जाता है।
यही अशुद्ध रक्त है। इन्हीं कोशिकाओं के अगले भाग से कोशिकाएँ जो कि शिरा कोशिकाएँ कहलाती हैं, परस्पर मिलती हुई दो बड़ी शिराओं के रूप में पुनः सम्पूर्ण शरीर का अशुद्ध रक्त लेकर हृदय के दाहिनी अलिन्द में जाकर खुलती हैं तथा अशुद्ध रक्त को शुद्ध होने के लिए पहुंचा देती हैं।
इस प्रकार रक्त का एक परिसंचरण क्रम पूर्ण हो जाता है। यह क्रम सदैव अविराम गति से चलता है। ऐसा नहीं होता कि एक क्रिया के पूर्ण होने तक दूसरी क्रिया बन्द रहे, बल्कि अशुद्ध रक्त का हृदय में पहुँचना, फेफड़ों में रक्त की शुद्धि तथा फेफड़ों से हृदय में शुद्ध रक्त वापस आकर मूल धमनी द्वारा सम्पूर्ण अंगों में पहुंचना आदि क्रियाएँ साथ-साथ होती रहती हैं। कुछ क्रियाएँ एक ओर शुद्ध रक्त को अंगों में पहुँचाने का कार्य करती है तो उसी समय दूसरी ओर अशुद्ध रक्त को शरीर से एकत्र करके शुद्ध होने के लिए हृदय में लाने की क्रियाएँ भी सम्पन्न होती रहती हैं।
रक्त परिसंचरण को संक्षेप में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
- अशुद्ध रक्त निम्न व उच्च महाशिराओं द्वारा हृदय के दाहिने अलिन्द में एकत्र होता है।
- दाहिने अलिन्द से दाहिने निलय में पहुँचता है।
- दाहिने निलय से फुफ्फुसीय धमनी में जाता है।
- फेफड़ों से शुद्ध होकर फुफ्फुसीय शिराओं द्वारा बायें अलिन्द में आता है।
- बायें अलिन्द से बायें निलय में रक्त उतराता है।
- बायें निलय से मूल धमनी तथा उसकी शाखाओं-प्रशाखाओं में जाता है।
- मूल धमनी की सूक्ष्म केशिकाएँ शरीर के समस्त भागों में रक्त पहुँचाती हैं।
- केशिकाएँ पुनः बारीक शिराओं में परिवर्तित हो जाती हैं जिनमें अशुद्ध रक्त होता है।
- समस्त शरीर की छोटी-छोटी शिराएँ क्रम से मिलती हुई अन्त में दो बड़ी शिराओं में परिवर्तित होकर दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रक्त पहुंचाती हैं।
- इसी प्रकार रक्त का चक्कर नियमित गति व क्रम से चलता रहता है।
रक्त परिसंचरण के प्रमाण (Result of Blood Circulation)
कुछ वर्ष पूर्व तक लोगों को रक्त के शरीर में चक्कर लगाने का रहस्य विदित नहीं था किन्तु 17वीं शताब्दी में यूरोप के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर विलियम हार्वे ने कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये जिनसे शरीर में रक्त परिसंचरण क्रिया होने की बात स्वतः सिद्ध हो जाती है। वे प्रमाण निम्न प्रकार हैं-
- रक्त परिसंचरण का प्रथम प्रमाण यह है कि शरीर किसी धमनी के कट जाने पर रक्त रुक-रुक कर झोकें से निकलता है। रक्त का प्रत्येक झोंका हृदय की गति अर्थात् हृदय की धड़कन का प्रमाण है।
- हृदय एवं शिरा में जहाँ कपाट लगे हैं, वह रक्त प्रवाह की दिशा को एक ही ओर बनाये रखते हैं जो एक निश्चित दिशा से दूसरी ओर होने वाले रक्त परिसंचरण के प्रमाण को सिद्ध करते हैं।
- किसी धमनी के कट आने पर हृदय की ओर तथा शिरा के कट जाने पर कटे हुए स्थान से नीचे की ओर दबाव बिन्दु पर कसकर बन्द बाँधने से रक्त प्रवाह रुक जाता है।
- शरीर में किसी स्थान पर सांप के काटने से विष अथवा इन्जेक्शन द्वारा कोई औषधि प्रवेश कराने से वह इसीलिए समस्त शरीर में फैल जाती है क्योंकि रक्त परिसंचरण उसे इस कार्य में सहायता पहुंचाता है।
- किसी अंग की वह धमनी, जो त्वचा के समीप हो अथवा शिरा जो त्वचा के करीब ही होती है, को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने पर आपको रक्त एक ही दिशा में प्रवाहित होता हुआ दिखायी देगा।
हृदय स्पन्दन व नाड़ी (Heart Beat and Pulse)
जिस प्रकार एक पम्प पानी को झटके के साथ निकालता है, उसी प्रकार हृदय भी झटके के साथ रक्त को मूल धमनी में ढकेलता है। रक्त के झटके के साथ निकलने का मुख्य कारण यह है कि हृदय के अलिन्द व निलय दोनों में हर समय संकुचन एवं प्रसरण की क्रिया होती है। अतः बार-बार संकुचन में एक प्रकार की लहर-सी बन जाती है जो अलिन्दों से होती हुई रक्त नलियों में पहुँचती है।
अलिन्द के संकुचन के साथ-साथ निलय में प्रसरण की क्रिया होती है और निलय फैलकर अलिन्द का रक्त ग्रहण कर लेते हैं। निलय के रक्त से भर जाने पर निलय में संकुचन की क्रिया होती है तथा निलय का रक्त झटके से निकलकर मूल धमनी तथा इसकी अन्य शाखाओं में लहर की भाँति प्रवाहित होता जाता है। धमनियों में रक्त उस प्रकार झोंके से आता है जिस प्रकार आप एक पानी से भरे गुब्बारे को बीच से जितनी बार दबायेंगी उतनी बार पानी झोंके से गुब्बारे से बाहर निकलेगा। यद्यपि दोनों अलिन्दों व निलयों में संकुचन व प्रसरण होता रहता है किन्तु बाये निलय में अत्यन्त वेग के साथ संकुचन की क्रिया होती है, जिससे हृदय का यह भाग सामने वक्ष से टकराता है। बायें निलय का वक्ष से टकराना ही हृदय स्पन्दन या हृदय की धड़कन (Heart Beating) कहलाता है। यदि आप अपने हृदय के बायी ओर अर्थात् बायीं छाती के नीचे हाथ रखें तो धक् धक् सी गति होती है, यही हृदय स्पन्दन है।
नाड़ी (Pulse)-
हृदय के बाये निलयों में संकुचन से रक्त पर तीव्र दबाव पड़ता है, अतः रक्त मूल धमनी में बड़े वेग से प्रवेश करता है किन्तु संकुचन के पश्चात् जब निलय में प्रसरण की क्रिया होती है तो यह दबाव कम हो जाता है तथा यह दबाव एक लहर की भाँति धमनी में आगे-आगे दूर तक बढ़ता जाता है। दबाव की इसी लहर को नाड़ी या नब्ज (Pulse) कहते हैं। यह दबाव सभी धमनियों में पाया जाता है किन्तु हृदय के दबाव की तीव्रता की अपेक्षा धमनियों में कुछ हल्की पड़ जाती है।
शरीर में जो धमनी त्वचा के अति निकट होती है, जैसे-कलाई पर अंगूठे की ओर, वहाँ हल्के से अँगुली रखकर इस दबाव का अनुभव किया जा सकता है। डॉक्टर या वैद्य कलाई पर ही नाड़ी की जाँच करके हृदय की गति व दबाव का अनुमान करते हैं, जिससे विभिन्न रोगों का पता चलता है।
एक वयस्क स्वस्थ व्यक्ति की नाड़ी सामान्यतः एक मिनट में 72 बार चलती है। शिशु अवस्था में यह गति अति तीव्र होती है किन्तु अवस्था वृद्धि के साथ धीरे-धीरे कम होती जाती है। कठिन परिश्रम करने से अथवा कभी-कभी तीव्र ज्वर की स्थिति में नाड़ी की गति में तीव्रता आ जाती है। शरीर के जिन-जिन स्थानों पर नाड़ी स्पन्दन का अनुभव होता है उस स्थान को 'दबाव-बिन्दु' (Pressure Point) कहते हैं। सम्पूर्ण शरीर में कुल 28 दबाव बिन्दु हैं- 14 शरीर के बायीं ओर तथा 14 दायीं ओर।
अवस्था के अनुसार नाडी गति (Pulse Speed According to Age)
आयु |
नाडी की गति प्रति मिनट |
आयु |
नाडी की गति प्रति मिनट |
1 वर्ष 2 वर्ष 3-6 वर्ष |
120 बार 110 बार 95 बार |
7-13 वर्ष वयस्क वृद्धावस्था |
80-85 बार 70-80 बार 60-70 बार |
हृदय में निरन्तर संकुचन विमोचन क्रिया से स्पन्दन होता रहता है। यह गति जीवन पर्यन्त होती रहती है। साथ ही इसकी एक विशेषता यह भी है कि इस गति में एक प्रकार की तालबद्धता होती है अर्थात् एक गति से दूसरी गति, दूसरी गति से तीसरे के मध्य बराबर समय का अन्तर होता है। ऐसा नहीं कि कभी नाड़ी जल्दी-जल्दी चलने लगे या कभी 2 मिनट से 4 मिनट के लिए रुक जाय। नाड़ी के मध्य का अन्तर समान रहता है।
वास्तव में नाड़ी का स्पन्दन हृदय स्पन्दन ही है, जिसे आप किसी के हृदय के बायीं ओर कान लगाकर सुन सकते हैं। हृदय के विश्राम की अवस्था में अन्तर की गड़बड़ी किसी रोग का संकेत है। अतः चिकित्सक विशेष विधि द्वारा स्पन्दन की गति पर नियन्त्रण करके कम या अधिक गति को सामान्य गति पर ले जाते हैं।
विश्राम अवस्था में जब मन शान्त होता है तो प्रायः हृदय की गति समान रहती है किन्तु कठिन परिश्रम, भय, शोख व सदमे आदि के समय हृदय गति बढ़ जाती है, किसी खतरे की आशंका से हृदय बहुत ही तीव्रता से धड़कने लगता है। इसका अर्थ यह है कि विषम परिस्थितियों में हृदय रक्त को जल्दी-जल्दी पम्प करके शरीर को अधिक शक्ति प्रदान करने का प्रयत्न करता है।
असाधारण परिस्थितियों में हृदय गति का नियन्त्रण स्नायु संस्थान द्वारा होता है। तन्त्रिकाएँ हृदय को सूचना भेजकर हृदय को आवश्यकतानुसार गति में परिवर्तन करने के लिए उत्तेजित कर देती हैं।
पेस मेकर (Pace Maker)
हृदय के दाहिने अलिन्य में एक-एक स्थान की पेशी में विशिष्ट केन्द्र होता है इसे 'साइनो-ऐन्द्रियल-नोड' (Sinoantrial-node) कहते हैं। हृदय को संकुचन की गति उत्पन्न करने में इस नोड का विशेष हाथ होता है। हृदय के संकुचन को निर्दिष्ट करनेवाला विशेष संवेग इसी स्थान से उत्पन्न होकर अलिन्द के दायें-बायें फैलता है।
नोड की क्रिया शिबिल हो जाने पर संकुचन की क्रिया भी शिथिल हो जाती है। इस प्रकार नोड द्वारा बार-बार संवेग उत्पन्न होने से हृदय भी बार-बार संकुचित एवं विमोचित होता रहता है। इस प्रकार नोड पर ही हृदय के संकुचित एवं विमोचित होने की क्रिया निर्भर करती है। इसलिए नोड को हृदय स्पन्दन गति का नियन्त्रक अर्थात् 'पैस मेकर' (Pace Maker) कहते हैं।