पूँजीकरण (Capitalisation) एवं पूँजी संरचना (Capital Structure) ये दोनों ही वित्तीय योजना (Financial Plan) के दो अंग है। कुछ विद्वानों ने इन दोनों को एक ही अर्थ में प्रस्तुत किया है। "वस्तुतः पूँजीकरण का तात्पर्य पूँजी की मात्रा को निश्चित करने से एवं पूँजी संरचना (Capital Structure) का आशय, पूँजी के स्वरूप या प्रकार को निश्चित करने से है।"
यदि हम विभिन्न कम्पनियों के पूँजी के गठन का अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि कुछ कम्पनियों में केवल साधारण अंश-पूँजी ही है तथा अन्यों में इसके साथ-साथ अधिमान्य अंशों एवं ऋणपत्रों या बन्धपत्रों के आधार पर भी दीर्घकालीन पूँजी की व्यवस्था की गयी है। इन विभिन्न स्थायी दीर्घकालीन देनदारियों को पूँजी की रचना करते समय किस अनुपात में स्थान दिया जाए, यही इस प्रमुख अध्याय का विषय है।
पूँजी संरचना का अर्थ
पूँजी-ढाँचे (Capital-Structure) (संरचना) का अभिप्राय, पूँजी के दीर्घकालीन साधनों के पारस्परिक अनुपात से है और इसमें स्वामि-पूँजी (Owned-Capital), अधिमान्य या पूर्वाधिकार अंश-पूँजी (Preference Share-Capital) तथा दीर्घकालीन ऋण-पूँजी (Long-term Borrowed Capital) सम्मिलित की जाती है। इसका आशय यह ज्ञात करना होता है कि व्यवसाय की दीर्घकालीन पूँजी किन-किन साधनों के द्वारा एवं किस-किस अनुपात में प्राप्त की गयी है। पूँजी संरचना को पूँजी ढाँचा, पूँजी का स्वरूप और पूँजी का संगठन आदि नामों से पुकारा जाता है।
पूँजी संरचना की परिभाषाएँ
आर. एच. वैसिल के अनुसार- "पूँजी संरचना शब्द का बहुधा प्रयोग एक व्यावसायिक उपक्रम में विनियोजित कोषों के दीर्घकालीन स्रोतों को इंगित करने के लिए किया जाता है।"
वैस्टन एवं ब्राइम के अनुसार- "पूँजी संरचना फर्म की स्थायी वित्तीय व्यवस्था है जो सामान्यतया दीर्घकालीन ऋण, पूर्वाधिकार अंश एवं समता द्वारा व्यक्त होती है जिसमें अल्पकालीन साख सम्मिलित नहीं होती है। समता में समता अंश, पूँजी आधिक्य तथा संचित धारिता आय सम्मिलित होती है।"
आई. एम. पाण्डे के अनुसार- "पूँजी संरचना का आशय दीर्घकालीन वित्तीय साधनों, जैसे- ऋणपत्रों, दीर्घकालीन ऋण, पूर्वाधिकारी अंश पूँजी, अरक्षित राशि, अधिशेषों आदि के सम्मिश्रण से है।"
अनुकूलतम पूँजी ढाँचा (संरचना) के गुण
अनुकूलतम पूँजी संरचना को सन्तुलित या आदर्श पूँजी संरचना भी कह सकते हैं। वित्तीय प्रबन्ध में अनुकूलतम पूँजी संरचना अपना विशेष महत्व रखती है। एक अनुकूतम पूँजी सरंचना वह होती है जिसके अन्तर्गत न्यूनतम लागत पर अधिकतम पूँजी एकत्रित हो जाती है। संक्षेप में, अनुकूलतम पूँजी संरचना वह होती है जिसमें प्रतिभूतियों का उचित सम्मिश्रण हो। एक सन्तुलित पूँजी सरंचना में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है-
(1) सरलता (Simplicity)- प्रबन्ध की सुविधा को ध्यान में रखते हुए वित्तीय ढाँचे को सरल रूप दिया जाना चाहिए। प्रारम्भ से ही यदि योजना जटिल होगी तो भविष्य में अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था सरलता से नहीं की जा सकेगी। यदि आरम्भ में ही कई प्रकार की प्रतिभूतियों को निर्गमित करके पूँजी की व्यवस्था की जाती है, तो इससे विनियोक्ताओं में प्रस्तावित योजना के प्रति सन्देह उत्पन्न हो सकता है। अतः आरम्भ में केवल सामान्य अंशों (Equity Shares) और यदि आवश्यक हो तो उनके साथ-साथ अधिमान्य अंशों (Preference Shares) का निर्गमन उचित होगा। ऋणपत्रों या बन्धपत्रों के निर्गमन को आगे आवश्यकतानुसार सुरक्षित रखा जाना उचित हो सकता है।
(2) लोचपूर्णता (Flexibility)- वित्तीय योजनाकरण एक तात्कालिक व्यवस्था न होकर एक दीर्घकालीन व्यवस्था है। अतः कम्पनी के सीमानियमों के उद्देश्य खण्ड (Objects Clause) में उल्लिखित विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही इसे अन्तिम रूप दिया जाना चाहिए। तात्कालिक आवश्यकताओं की लोचपूर्णता का अभिप्राय यहाँ दीर्घकाल में व्यवसाय की बढ़ती अथवा घटती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप पूँजी-ढाँचे में समायोजन से है अर्थात् यदि कुछ वर्षों बाद व्यवसाय के विस्तार के लिए पूँजी की आवश्यकता हो तो उसे सुविधापूर्वक उपलब्ध करने की सम्भावनाओं का वित्तीय योजना में समावेश हो अथवा यदि कम पूँजी की आवश्यकता प्रतीत हो तो वित्तीय-योजना ऐसी हो कि उसे घटाया जा सके।
(3) पूर्ण उपयोगिता (Full Utilisation)- पूँजी की मात्रा एवं वित्तीय आवश्यकताओं में पूर्ण सामंजस्य होने पर ही पूँजी का अधिकतम उपयोग सम्भव हो सकता है। अपर्याप्त पूँजीकरण अथवा आवश्यकता से अधिक पूँजीकरण दोनों ही अवांछनीय हैं। पूँजी के जलयुक्त (Watered) हो जाने पर भी उसकी उपयोगिता कम हो जाती है। अतः पूर्ण उपयोगिता के लिए उचित पूँजीकरण (Fair Capitalisation) अनिवार्य है।
(4) तरलता (Liquidity)- स्थिर सम्पत्ति एवं तरल सम्पत्तियों में क्या अनुपात रखा जाये। यह प्रत्येक व्यवसाय की प्रकृति एवं प्रत्येक कम्पनी के आकार आदि कई परिवर्तनशील तत्वों पर निर्भर होता है। तरल सम्पत्तियों से यहाँ आशय चल-सम्पत्तियों से है किन्तु सही अर्थों में तरल सम्पत्तियों में रोकड़, बैंक में जमा राशियाँ, चालू विनियोग तथा प्राप्तियो (Receivables) को सम्मिलित किया जाता है। आवश्यकता से अधिक तरलता (Liquidity), शोधनक्षमता (Solvency) में वृद्धि करके जोखिम (Risk) को कम करती है किन्तु साथ ही इससे लाभदायकता (Profitability) में कमी हो जायेगी। इसके विपरीत, आवश्यकता से कम तरलता शोधनक्षमता कम करके जोखिम को बढ़ा देती है किन्तु साथ ही यह लाभदायकता में वृद्धि कर सकती है। अतः तरल साधनों में कोषों के विनियोग को उचित सीमा में बनाये रखना आवश्यक होता है।
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(5) न्यूनतम लागत (Minimisation of Costs)- पूँजी उपलब्धि के विभिन्न साधनों की लागत समान नहीं होती है। कुछ साधनों से पूँजी प्राप्त करने में लागत अधिक एवं अन्य साधनों से पूँजी प्राप्त करने में कम लागत होती है, अतः पूँजी मिश्रण (Capital Mix) ऐसा होना चाहिए जिसे प्राप्त करने और व्यवसाय में प्रयोग में लाने की लागत न्यूनतम हो। पूँजी की भारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost of Capital) के आधार पर इसे निर्धारित किया जा सकता है। यह लागत वस्तुतः पूँजी के महेंगे एवं सस्ते साधनों की एक औसत लागत का परिचायक होती है।
(6) अधिकतम लाभ (Maximisation of Return)- किसी कम्पनी के लिए सर्वोत्तम या आदर्श पूँजी-ढाँचा वह होगा जिसके आधार पर कम्पनी की लाभदायकता (Profitability) में अधिकतम वृद्धि होती हो। वैसे लाभदायकता का सम्बन्ध पूँजी-ढाँचे का सम्बन्ध है न्यूनतम लागत पर प्राप्त की गयी पूँजी लाभ में वृद्धि कर देगी, साथ ही समय पर पर्याप्त पूँजी साधनों की सुविधा अनेक प्रकार के अपव्ययों को रोककर बचत में वृद्धि कर सकेगी।
(7) न्यूनतम जोखिम (Minimisation of Risks)- व्यवसाय में अनेक प्रकार के जोखिम सदैव विद्यमान रहते है, जैसे- करों में वृद्धि, लागतों में वृद्धि, मूल्यों में कमी, ब्याज की दरों में वृद्धि आदि। इन जोखिमों का कम्पनी की आय पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः कम्पनी का पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए जिससे इन जोखिमों के बोझ को सहजता से सहन किया जा सके। विशेष रूप से व्यावसायिक जोखिम (Business Risk) एवं वित्तीय जोखिम (Financial Risk) से बचाव के लिए पूँजी-ढाँचे में समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
(8) अधिकतम नियन्त्रण (Maximisation of Control)- कम्पनी का नियन्त्रण साधारण अशंघारियो (Equity Shareholders) के हाथों में रहता है क्योंकि मतदान का अधिकार इनको ही प्राप्त होता है। अधिमान्य अंशधारियों एवं ऋणपत्रधारियों को ऐसा कोई अधिकार सामान्यतः प्राप्त नहीं होता है। यही कारण है कि नये इक्विटी-अंशों का निर्गमन राइट्स अंशों (Right Shares) के आधार पर पुराने अंशधारियों को उनके द्वारा धारित अंशों के अनुपात में किया जाता है जिससे कि उनकी मतदान शक्ति (Voting Power) यथावत बनी रहे।
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पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले तत्व
कम्पनी की भावी प्रगति व सफलता काफी सीमा तक पूँजी संरचना पर निर्भर करती है। अतः पूँजी संरचना को निर्धारित करते समय अनेक तत्वों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। एक कम्पनी की पूँजी सरंचना को प्रभावित करने वाले तत्व निम्नलिखित हो सकते है-
(1) व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business)- किसी नवीन प्रवर्तित उपक्रम में पूँजी के स्वरूप को निर्धारित करने पर व्यवसाय की प्रकृति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन एवं विक्रय निरन्तर वर्षपर्यन्त होता रहता है। इसके विपरीत, कतिपय अन्य व्यवसाय मौसमी प्रकृति (Seasonal Nature) के होते हैं। अतः पूँजी-ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि मौसम के अनुसार पूँजी में आवश्यक नियोजन किया जा सके। स्पष्ट है कि पूँजी के दीर्घकालीन साधनों की बजाय पूँजी के अल्पकालीन साधनों को अधिक महत्व ऐसी दशा में दिया जायेगा।
(2) व्यवसाय की स्थिति एवं आकार (Status and Size of Business)- व्यवसाय के आकार पर पूँजी की मात्रा निर्भर करती है। छोटे आकार वाले व्यवसाय में कम पूँजी की आवश्यकता होती है, जबकि बड़े आकार वाले व्यवसाय में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। अच्छी साख एवं अच्छे संगठन वाले व्यवसाय को आसानी से वित्तीय साधन उपलब्ध हो जाते हैं, जबकि नये व्यवसाय के लिये वित्तीय साधन एकत्रित करना कठिन होता है।
(3) जोखिम की मात्रा (Amount of Risks)- व्यवसाय की अनिश्चितता व जोखिम भी वित्तीय योजना के प्रारूप को प्रभावित करती है। अधिक जोखिम वाले व्यवसाय स्वामी पूँजी (Owner's Capital) पर अधिक आश्रित रहते हैं। इसके विपरीत, कम पूँजी वाले व्यवसाय ऋण पूँजी (Loan Capital) पर निर्भर करते हैं।
(4) पूँजी की लागत (Cost of Capital)- पूँजी-ढाँचे के निर्माण में पूँजी की लागत पर विचार करना बहुत आवश्यक होता है। पूँजी के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती है। कुछ साधन अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं तो कुछ साधन मँहगे होते हैं। अतः पूँजी-ढाँचे का निर्माण करते समय पूँजी के सस्ते एवं महँगे साधनों का ऐसा मिश्रण (Mix) अपनाया जाता है जिससे कि कुल पूँजी की औसत लागत (Average Cost of Capital) एक निश्चित काट-बिन्दु (Cut-off Point) से अधिक न बढ़े। इसके लिए पूँजी के समस्त साधनों की भारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost) की गणना की जाती है।
(5) व्यवसाय की आय (Income of Business)- सभी व्यवसायों में आय की सम्भावना एक जैसी नहीं होती। कुछ व्यवसायों में आय की सम्भावना निश्चित, नियमित एवं स्पष्ट होती है, जबकि कुछ अन्य व्यवसायों में आय की सम्भावनायें अनिश्चित एवं अनियमित होती हैं। आय की प्रकृति की सम्भावनाओं के अनुरूप ही वित्तीय योजना का निर्माण किया जाना चाहिये।
(6) लोच (Flexibility)- वित्तीय योजनाओं में पर्याप्त लोच रखी जानी चाहिये। वित्तीय योजना का निर्माण केवल वर्तमान आवश्यकताओं को ही ध्यान में रखकर नहीं किया जाता। इसमें भविष्य की विस्तार योजनाओं का भी ध्यान रखा जाता है।
(7) प्रबन्धकों का दृष्टिकोण (Attitude of Managers)- यदि प्रबन्धक संस्था का नियन्त्रण अपने हाथों में केन्द्रित करना चाहता है तो समता अंश जनता को कम-से-कम निर्गमित करेगा अथवा अंशों को निर्गमित करने के बाद उन्हें स्वयं क्रय कर लेगा और बाद में विस्तार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋण लेगा या लाभों का पुनर्विनियोजन करेगा।
(8) सरकारी नियन्त्रण (Government Control)- वित्तीय योजना को तैयार करते समय सरकारी नीतियों, वित्त नियन्त्रणों तथा अन्य अधिनियमों का ध्यान रखना चाहिये।
(9) पूँजी बाजार की दशाएँ (Capital Market Conditions)- मन्दी की दशाओं में जब लाभांश की दरें कम होती है तो लाभ की सम्भावनाएँ अनिश्चित होती है, तब साधारण अंशों की अपेक्षा ऋणपत्र अधिक लोकप्रिय होते है। यह समय ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए अनुकूल होता है। इसके विपरीत, तेजी के काल में जब लाभ की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है तो ऋणपत्रों के बजाय साधारण अंशों की माँग अधिक बढ़ जाती है। अतः पूँजी का स्वरूप निश्चित करते समय पूँजी बाजार की विद्यमान दशाओं को ध्यान में रखकर ही पूँजी-ढाँचे का निर्धारण किया जाना चाहिए।
(10) विनियोजकों का मनोविज्ञान (Psychology of Investors)- सब विनियोक्ता समान नहीं होते। कुछ लोगों के पास विनियोग के लिए अधिक पूँजी होती है, जबकि कुछ के पास कम। फिर सब की प्रकृति एवं धारणाएँ भी समान नहीं होतीं। कुछ विनियोक्ता साहसी होते हैं एवं जोखिम उठाने को तत्पर को जाते हैं, जबकि अन्य सतर्क होते हैं तथा धन की सुरक्षा एवं निश्चित गारण्टी चाहते हैं। अतः विभिन्न विनियोक्ताओं की माँग के स्वरूप में भी भिन्नता होती है। इसलिए अनेक कम्पनियाँ विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करती है ताकि विभिन्न प्रकृति के व्यक्ति एक या अधिक प्रकार की प्रतिभूतियों में पूँजी का विनियोग कर सकें। पूँजी निर्गमन की सफलता विभिन्न विनियोक्ताओं की मनोवैज्ञानिक दशा पर निर्भर होती है।
पूँजी-ढाँचा (संरचना)एवं प्रबन्धकीय नीतियाँ
पूँजी-ढाँचे के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण निर्णय स्वामी पूँजी (Owned Capital) तथा ऋण पूँजी (Debt Capital) के पारस्परिक अनुपात को निर्धारित करने के बारे में होता है। पूँजी-ढाँचे में ऋण अथवा समता पूँजी का कम या अधिक मात्रा में समावेश कम्पनी की आय तथा जोखिम की सीमा में कमी या वृद्धि करता है। इस सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिये मुख्य रूप से प्रबन्धकों को निम्न बातों पर ध्यान रखना चाहिये-
- समता पर व्यापार (Trade on Equity),
- पूँजी मिलान अथवा पूँजी दन्तिकरण (Capital Gearing),
- ऋण पूँजी अनुपात (Debt Equity Ratio),
- पूँजी की लागत (Cost of Capital)
पूँजी ढाँचा (संरचना)के सिद्धान्त
पूँजी ढाँचा, पूँजी की लागत, जोखिम की मात्रा तथा कम्पनी के मूल्यांकन के आपसी सम्बन्ध की परिभाषा अलग-अलग तरह से की गयी है। एक मत के अनुसार पूँजी ढाँचा तथा अंश आय (EPS) व कम्पनी के मूल्यांकन के बीच सम्बन्ध होता है, जबकि दूसरे मत के अनुसार कम्पनी का मूल्यांकन पूँजी ढाँचे पर निर्भर नहीं करता। पूँजी मिश्रण, पूँजी की लागत तथा कम्पनी के मूल्यांकन के बीच के सम्बन्ध का विश्लेषण पूँजी ढाँचे के चार सिद्धान्त अथवा विचारधारा में किया गया है-
- 1. शुद्ध आय का सिद्धान्त (Net Income Approach)
- 2. शुद्ध संचालन आय का सिद्धान्त (Net Operating Income Approach)
- 3. परम्परागत सिद्धान्त (Traditional Approach)
- 4. मोदिग्लियानी व मिलर सिद्धान्त (Modigliani & Miller Approach)