पूँजी की लागत
कम्पनी में विनियोजित पूँजी विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध की जाती है। यह पूँजी प्रबन्धकों के पास अन्य पक्षों की धरोहर होती है। अन्य पक्ष जब अपनी पूँजी कम्पनी के प्रबन्धकों को सौंपते हैं तो वे ऐसा करते समय अन्य बातों के साथ-साथ दो महत्वपूर्ण अपेक्षाओं या आशाओं की पूर्ति प्रबन्धकों से चाहते हैं। प्रथम अपेक्षा वे करते हैं कि प्रबन्धको के हाथों में उनकी यह धरोहर सुरक्षित रहेगी और दूसरी अपेक्षा यह कि कम्पनी में उनकी पूँजी का प्रयोग करने के अधिकार के बदले कम्पनी उन्हे उनकी 'पूँजी का मूल्य' (Price of Capital) नियमित रूप से चुकाती रहेगी। पूँजी एक दुर्लभ वस्तु है जो निःशुल्क अथवा बिना मूल्य के नहीं मिल सकती है।
प्रत्येक बचतकर्ता अपनी पूँजी का मूल्य चाहता है। अपनी पूँजी की सुरक्षा और उसके लिए चुकाये जाने वाले मूल्य को ध्यान में रखकर ही प्रत्येक बचतकर्ता (व्यक्ति अथवा संस्था) अपनी पूँजी दूसरे पक्ष को सौंपता है। कुछ निवेशकर्ता पूँजी के मूल्य की तुलना में पूँजी की सुरक्षा को अधिक महत्व देते हैं, जबकि अन्य निवेशकर्ता कुछ अधिक साहसी होते हैं और वे अधिक जोखिम उठाना पसन्द करते है अर्थात् वे ऐसी मदों में अपनी पूँजी लगाने के लिए तत्पर होते हैं, जहाँ अपेक्षाकृत कम सुरक्षा होते हुए भी उन्हें अपनी पूँजी का अधिक मूल्य मिलने की सम्भावनाएँ हों।
यही कारण है कि पूँजी के कुछ साधन 'महँगे' होते है और अन्य साधन 'सस्ते' होते है। पूँजी प्राप्ति के केवल सस्ते साधनों (Sources) को ही वित्तीय ढाँचे (Financial Structure) में स्थान देने की नीति उचित नहीं मानी जाती है, क्योंकि पूँजी की लागत के साथ-साथ आय, जोखिम, नियन्त्रण तथा कर सम्बन्धी निहितार्थों (Tax-implications) को भी ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है। अतः कम्पनी के प्रबन्धक पूँजी-प्राप्ति के महँगे एवं सस्ते साधनों के ऐसे सन्तुलित अनुपात को अपने वित्तीय ढाँचे में समाविष्ट करने का प्रयत्न करते हैं जिसकी औसत संयुक्त लागत (Average Composite Cost) उनकी पूँजी पर प्रत्याय की आन्तरिक दर (Internal Rate of Return) से अधिक न हो।
पूँजी की लागत का अर्थ एवं परिभाषा
पूँजी की लागत का आशय उस मूल्य से है जो पूँजी के उपयोग के लिए चुकाया जाता है। यह वह न्यूनतम दर है जिसे पूँजी पर अर्जित करना प्रबन्धकों के लिए आवश्यक होता है ताकि पूँजी के उपयोग के मूल्य तथा उससे सम्बद्ध अन्य व्ययों की पूर्ति होती रहे। यह लागत प्राप्त की गयी पूँजी की शुद्ध-राशि (Net Proceeds) के प्रतिशत के रूप में व्यक्त की जाती है।
इजरा सोलोमन के अनुसार, "पूँजी की लागत पूँजी व्ययों पर प्रत्याय की न्यूनतम वांछित दर अथवा काट-दर (Cut-off Rate) को कहते हैं।"
श्री जे. जे. हेम्पटन के विचार से, पूँजी की लागत प्रत्याय की उस दर को कहा जायगा जिसे किसी निवेश पर फर्म इसलिए प्राप्त करना चाहता है ताकि बाजार में उस फर्म के मूल्य में वृद्धि हो सके।"
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पूँजी की लागत का महत्व
किसी फर्म के लिए उसकी पूँजी की लागत की बिल्कुल सही गणना करना अत्यन्त कठिन होता है क्योंकि इसके विषय में विभिन्न विद्वानों के विचारों में भिन्नता है तथा इसकी गणना में अनेक गणितीय जटिलताओं का समावेश होता है। फिर भी वित्तीय निश्चयीकरण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को व्यापक मान्यता मिल चुकी है। उचित निर्णय लेने की दिशा में पूँजी की लागत की अवधारणा प्रबन्धकों का अनेक प्रकार से मार्गदर्शन करती है जैसा कि नीचे किये गये वर्णन से स्पष्ट हो जायगा-
1. पूँजी-बजटिंग के निर्णय- किसी फर्म की पूँजी की औसत लागत उस काट-बिन्दु (Cutt-off Point) अथवा प्रत्याय की उस न्यूनतम दर का परिचायक है जिससे कम पर पूँजी विनियोग के किसी भी प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए। डिस्काउण्टेड कैश-फ्लो विधि (D.C.F. Method) के अन्तर्गत किसी परियोजना से भविष्य में होने वाले नकद प्रवाहों (Cash Flows) के वर्तमान मूल्य को ज्ञात करने के लिए फर्म की पूँजी की औसत लागत को कटौती-दर (Discount Factor) के रूप में प्रयोग किया जाता है।
किसी परियोजना के पक्ष में प्रबन्धकों द्वारा निर्णय तब ही लिया जाता है जबकि उसका शुद्ध वर्तमान मूल्य (Net Present Value) धनात्मक (Positive) हो। यदि ऐसा शुद्ध वर्तमान मूल्य (NPV) ऋणात्मक (Negative) है तो पूँजी विनियोग के ऐसे प्रस्ताव को अस्वीकृत किया जाना चाहिए। यही नहीं, किसी परियोजना की प्रत्याय की आन्तरिक दर (Internal Rate of Return) तथा फर्म की पूँजी की औसत लागत की तुलना करके भी पूँजी विनियोग के प्रस्तावों की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति के विषय में उचित निर्णय लिए जा सकते हैं। यदि किसी परियोजना का IRR उस फर्म की पूँजी की भारयुक्त औसत लागत के बराबर है अथवा कम है तो उसे स्वीकृत करना व्यवसाय के मूल-उद्देश्य के विपरीत होगा; क्योकि ऐसा निर्णय स्वामियों के आर्थिक हितों में वृद्धि करने के बजाय उनमें कमी का कारण सिद्ध होगा।
2. पूँजी-ढाँचे के आयोजन के निर्णय- प्रत्येक व्यावसायिक फर्म के प्रबन्धक एक अनुकूलतम पूँजी-ढाँचे का निर्माण करना चाहते हैं। पूँजी की लागत का उपयोग विभिन्न वित्तीय संसाधनों (financial resources) के तुलनात्मक अध्ययन में किया जा सकता है जिससे कि फर्म की पूँजी की औसत लागत को न्यूनतम रखते हुए उसके अंशों के बाजार मूल्यों को अधिकतम स्तर पर रखा जा सके।
3. प्रवन्धन के वित्तीय निष्पादन का मूल्यांकन- प्रबन्धन के वित्तीय कार्य-निष्पति के मूल्यांकन में पूँजी की लागत का सिद्धान्त सहायक होता है। यदि पूँजी की लागत की तुलना में परियोजनाओं की लाभदायकता अधिक हो तो यह स्थिति प्रबन्धकों की वित्तीय कुशलता को दर्शाती है।
4. राष्ट्रीय संसाधनों का विवेकपूर्ण वितरण- पूँजी की लागत की अवधारणा विभिन्न वित्तीय सन्साधनों के राष्ट्र के लिये महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में उचित आबंटन में मार्गदर्शन करती है जो किसी भी राष्ट्र की आर्थिक प्रगति के लिये आवश्यक है।
5. अन्य विविध वित्तीय निर्णय- उपर्युक्त वर्णित निर्णयों के अतिरिक्त पूँजी की लागत की अवधारणा कार्यशील पूँजी के उचित प्रबन्ध, अल्पकालीन कोषों की व्यवस्था एवं उनके चल सम्पत्तियों में निवेश की प्रक्रिया, लाभांश एवं प्रतिधारण नीतियों (Dividend and Retention Policies) के निर्धारण इत्यादि। प्रबन्धको का उचित मार्गदर्शन करती है।
पूँजी की लागत का निर्धारण
एक व्यवसायिक कम्पनी विभिन्न साधनों से पूँजी प्राप्त करती है। पूँजी की लागत प्रत्येक साधन के लिये अलग होती है। पूँजी प्राप्त करने के निम्न साधन हो सकते हैं-
- ऋण पूँजी (Borrowed Capital)
- अधिमान्य अंश पूँजी (Preference share Capital)
- इक्विटी अंश पूँजी (Equity Share Capital)
- प्रतिधारित आय (Retained Earnings)
पूँजी की लागत की गणना करते समय पहले पूँजी के प्रत्येक घटक (component) अथवा साधन (Source) की विशिष्ट लागत (specific cost) की गणना की जाती है। उसके पश्चात् विभिन्न साधनों से उपलब्ध पूँजी की औसत भारयुक्त लागत (Weighted Average cost) की गणना कर कुल पूँजी की संयुक्त लागत (composite cost) ज्ञात की जाती है। पूँजी की भारयुक्त औसत लागत की गणना से पहले विभिन्न साधनों से प्राप्त पूँजी की विशिष्ट लागत की गणना को समझाना उचित होगा।
पूँजी की लागत के रूप
1. ऐतिहासिक लागत व भावी लागत- किसी परियोजना के निवेश सम्बन्धी ऐसे व्यय जो अतीत में किये गये हैं ऐतिहासिक लागत (Historical Costs) कहलाते हैं। इसके विपरीत ऐसे व्यय जो भविष्य में किये जाने है, जैसे किसी परियोजना के लिए विभिन्न साधनों द्वारा अर्जित पूँजी पर देय ब्याज अथवा लाभांश, भावी लागत (future costs) कहलाते है। जबकि ऐतिहासिक लागत (historical costs) वित्तीय निष्पादन (financial analysis) तथा भावी लागत के अनुमान (estimation of future costs) में उपयोगी होती है। वित्तीय निर्णयों में भावी लागत (future costs) ही महत्वपूर्ण होती है।
2. स्पष्ट लागत व अस्पष्ट लागत या विकल्प त्याग- किसी भी साधन से प्राप्त पूँजी की स्पष्ट लागत कटौती की वह दर (Discount rate) है जिस दर से पूँजी निवेश पर विभिन्न वर्षों में होने वाली प्राप्तियों के वर्तमान मूल्यों (Present Value) का योग पूँजी में किये गये प्रारम्भिक निवेश के बराबर हो जाता है।
इस प्रकार पूँजी की स्पष्ट लागत वह न्यूनतम प्रत्याय दर है जो कि फर्म या संस्था द्वारा अपने विनियोग से अवश्य अर्जित की जानी चाहिये जिससे कोशों की लागत का भुगतान किया जा सके। यदि किसी साधन से प्राप्त पूँजी भार-रहित हो जैसे- ब्याज मुक्त ऋण तो ऐसी ऋण पूँजी की स्पष्ट लागत शून्य होगी क्योंकि इस पूँजी के साथ कोई कोष-निर्गम (Cash-outflow) नहीं है, हालांकि मूल धन का भुगतान देय होगा पर उसकी कटौती-दर भी शून्य होगी।
पूँजी की स्पष्ट लागत का प्रश्न उठता है जब पूँजी विभिन्न साधनों द्वारा जुटायी जाती है। इसके विपरीत अस्पष्ट लागत का प्रश्न तब उठता है जब इस पूँजी का व्यवसाय में विनियोग किया जाता है। वस्तुतः अस्पष्ट लागत पूँजी की परोक्ष लागत है।
व्यवसाय में निवेश के कई विकल्प होते हैं जिनमें अनुमति प्रत्याय की दर अलग-अलग होती है। पूँजी के साधन सीमित होते है तथा सभी विकल्पों में पूँजी निवेश सम्भव नहीं होता। इस प्रकार वित्तीय निर्णयों में परोक्ष लागत (Opportunity Cost) की अवधारणा महत्वपूर्ण होती है। प्रतिधारित आय (retained earnings) की भी परोक्ष अथवा अस्पष्ट लागत होती है जो प्रत्याय की वह दर है जो अंशधारियों द्वारा वैकल्पिक निवेश द्वारा प्राप्त की जाती है यदि उन्हें अतिरिक्त लाभांश का वितरण किया जाता है। अस्पष्ट लागत की परिभाषा प्रत्याय की उस दर द्वारा भी जा सकती है जो कम्पनी अथवा उसके अंशधारियों द्वारा सर्वोत्तम उपलब्ध विकल्प से प्राप्त की जाती, जिस विकल्प का त्याग किया जायेगा यदि विचाराधीन परियोजना को कम्पनी द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है।
3. औसत लागत व सीमान्त लागत- पूँजी की औसत लागत पूँजी के विभिन्न घटकों की विशिष्ट लागत का भारयुक्त औसत है। पूँजी संरचना में विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त पूँजी के अनुपात के आधार पर भारों को नियत किया जाता है। सीमान्त लागत कम्पनी द्वारा नयी पूँजी की एक अतिरिक्त इकाई के निर्गमन की लागत है। जब अतिरिक्त पूँजी विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त की जाती है तो विशिष्ट सीमान्त लागतों का औसत (Average of specific marginal costs) अतिरिक्त पूँजी की सीमान्त लागत की गणना के लिये निकाला जा सकता है। वित्तीय निवेश व वित्तीय निर्णयों में सीमान्त लागत अत्यन्त उपयोगी होती है।
4. विशिष्ट लागत व संयुक्त लागत- विभिन्न साधनों जैसे ऋण द्वारा अथवा अंश पूँजी के निर्गमन द्वारा प्राप्त पूँजी की लागत की गणना प्रत्येक साधन से प्राप्त पूँजी के लिए अलग-अलग की जा सकती है। इस लागत पूँजी की विशिष्ट लागत कहते है। इसके विपरीत पूँजी की संयुक्त लागत किसी कम्पनी की पूँजी संरचना की कुल पूँजी की औसत लागत है जिसकी गणना विशिष्ट लागतों के आयुक्त औसत द्वारा की जाती है। इसे पूँजी की आयुक्त औसत लागत (Weighted average cost of Capital) भी कहा जाता है।